छुटकी दीदी - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

छुटकी दीदी - 15

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अग्रवाल जी जब चले गए तो नानी के साथ सलोनी नए फ़्लैट में चली गई। सारा नया फ़र्नीचर, ताज़े रंग रोगन से चमकती दीवारें . … खिड़कियों-जंगलों पर लटकते नए व क़ीमती पर्दे … बिल्कुल आधुनिक किचन …. धूप और ताज़ा हवा से भरपूर। सब कुछ देखकर, उनका प्रयोग करके नानी बहुत ख़ुश थी। बार-बार कहती, ‘सलोनी, तू तो मुझे स्वर्ग में ले आई है। हम तो पैसा खर्च करके भी घर की इतनी सजावट नहीं कर सकते थे।’

‘हाँ नानी, यह तो हमारी माँ के फ़्लैट से भी कई गुना अच्छा है। मेरा मन तो करता है कि उनका फ़्लैट भी ऐसा ही बनवा दूँ।’

‘तीन प्राणी और दो फ़्लैट ….सब अलग-अलग …अधिकांश तो हम सब का खाना एक साथ ही बनता है। अपनी माँ से पूछ ले, यदि उसका मन हो तो यहाँ आकर रह ले। सामने वाले को भाड़े पर दे देंगे।’

‘नहीं-नहीं, अभी कुछ भी ना करो। कुछ दिन शान्ति से इसी प्रकार चलने दो।’

नानी मान गई।

दिल्ली आकर नानी को सब अच्छा तो लग रहा था, परन्तु उनके पेट में गड़बड़ रहने लगी। शायद दिल्ली का पानी रास नहीं आ रहा था। यह सोचकर वह घर पर ही चूर्ण आदि खाकर दवा दारू करती रही। एक दिन बहुत ज़िद करके सलोनी उनको डॉक्टर के पास ले गई।

डॉक्टर ने बताया, ‘पेट में इंफ़ेक्शन है।’ दवा दे दी, लेकिन दवा खाने में लापरवाही होने के कारण कुछ आराम नहीं हुआ।

एक रात उल्टी-दस्त लग गए तो सुबह नानी को हॉस्पिटल में भर्ती करवाना पड़ा।

नानी की बीमारी डॉक्टर भी नहीं समझ पा रहे थे। शरीर बहुत कमजोर हो गया था। सलोनी ने नानी की सेवा के लिए अवकाश ले लिया। नानी की बातें सुनकर सलोनी का गला सूख गया। एक रात नानी ज्वर में बड़बड़ाने लगी, ‘छुटकी बेटी, तेरी माँ कहाँ है?’

‘मैं यहीं हूँ माई,’ माँ उठकर नानी के सामने आ गई। 

‘ज्योत्सना, तेरे बाबू जी आ गए हैं मुझे लेने। अब मुझे उनके साथ जाना है। तू कुछ चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा … सब ठीक हो जाएगा,’ कहते हुए नानी की जीभ तुतलाने लगी। सलोनी भागकर डॉक्टर को बुलाने गई। बड़ी मुश्किल से वह एक नर्स को पकड़ कर लाई।

नर्स आई तब तक नानी इस दुनिया से कूच कर चुकी थी। उसने नब्ज देखी, दिल पर हाथ रखा, किन्तु नानी तो मिट्टी हो चुकी थी। ज्योत्सना माई से लिपटकर रोने लगी। सीताराम भाई ने उन्हें सँभाला। रोना सलोनी को भी आ रहा था, किन्तु हॉस्पिटल में दाखिल और मरीज़ों का ध्यान आते ही उसने अपने रुदन को दबा लिया। 

सुबह के दो बजे थे। उस समय घर पर ले जाना, लोगों को जगाना सलोनी ने ठीक नहीं समझा।

सबने विचार-विमर्श करके सुबह आठ बजे मृत देह को घर ले जाने का विचार किया। तब तक मृतक को अलग से हॉस्पिटल में रखने की व्यवस्था हो गई। संस्कार की व्यवस्था करने के लिए तीनों जन फ़्लैट पर आ गए। माँ भारी मन से बोली, ‘कितने चाव से फ़्लैट ख़रीदा था, परन्तु इसका सुख माई के भाग्य में नहीं था।’

सुबह-सवेरे सामने वाले पार्क में सैर करने वालों की चहल-पहल शुरू हो जाती थी। बहुत से लोग सलोनी की माँ के परिचित थे। जैसे-जैसे उन्हें नानी के देहांत का पता लगा, लोग सलोनी के घर के आगे एकत्रित होने लगे।

दो-तीन बुजुर्गों ने नानी के संस्कार की व्यवस्था सँभाल ली। सलोनी बहुत हौसले वाली थी, परन्तु आज वह भी बार-बार नानी को याद करके रोने लगती। वह बहुत कोशिश कर रही थी स्वयं को संयमित करने की, किन्तु नानी के साथ बिताए समय की स्मृतियाँ उसे आहत कर रही थीं।

माँ के सिवा किसी को मालूम नहीं था कि नानी अपने परिजनों के लिए इतनी सुन्दर बगिया सजाकर, सारी व्यवस्था करके बिना किसी को कष्ट दिए सब कुछ छोड़कर चली गई।

सलोनी के जीवन में सब कुछ अच्छा-ही-अच्छा हो रहा था, परन्तु अब अचानक ज़िन्दगी का दुख-दर्द सामने आ खडा हुआ। आस-पड़ोस में कोई स्वर्ग सिधार जाए तो कुछ विशेष नहीं महसूस होता, परन्तु जब अपने घर से कोई चला जाता है तो उसके बिछोह की पीड़ा लम्बे समय तक आहत करती रहती है।

तेरहवीं वाले दिन कोलकाता से पाँच परिवार आए, जिनमें सुकांत अपनी अम्मा के साथ आया था। सलोनी सुकांत की अम्मा के गले लगकर बिलख-बिलख कर रोती रही।

‘सलोनी बेटे, सुनकर एक बार तो विश्वास नहीं हुआ … ऐसा लगता है जैसे सफ़ेद सूती साड़ी में लिपटी शारदा सामने बैठी है!’

सुकांत भी बैठा अन्दर-ही-अन्दर आँसू बहाता रहा। पन्द्रह दिनों में ही सलोनी का चेहरा मुरझा गया था। अपने दुख को समेटे सलोनी आने-जाने वालों का पूरा ख़्याल रखती। नाश्ता, भोजन, चाय, सोने की व्यवस्था, सब अच्छे से हो रही थी। नानी का फ़्लैट देखकर सब उसकी तारीफ़ करते। 

एक दिन सुकांत सुपवा यूनिवर्सिटी में भी अपनी नौकरी के लिए गया। सलोनी की माँ दोनों के बीच के आकर्षण को समझती थी। इसलिए उन्होंने सुकांत बाबू और उसकी अम्मा को बिठाकर समझा दिया, ‘देखो आंटी, अब आप तो हमारी माई के समान है। अब यहाँ रहने-ठहरने की कोई परेशानी नहीं है। कभी भी अपने परिवार से कोई भी सदस्य यहाँ आता है तो यहाँ कितने दिन भी ठहरे, हमें अच्छा लगेगा।’

‘ठीक है बेटा, अब सुकांत की नौकरी भी इधर लग गई है तो आना-जाना तो चलता ही रहेगा।’

‘ठीक है, आपका घर है। कभी भी आएँ, सदा स्वागत होगा।’

गरुड़ कथा समाप्त होने के बाद माँ सुकांत की अम्मा को साथ लेकर मन्दिर में पीपल को पानी देने चली गई। मन्दिर दूसरी कॉलोनी में है, इसलिए वहाँ आने-जाने में एक घंटा लग जाता है। भाग्या भी अपने लड़के के साथ मार्केट गई हुई थी। सुकांत दूसरे फ़्लैट में सोफ़े पर आराम करते हुए लाजपत राय गर्ग का उपन्यास “पल जो यूँ गुज़रे” पढ़ रहा था। 

सलोनी सुकांत बाबू के लिए चाय लेकर आई थी। उसने सोचा था, इस बहाने सुकांत बाबू के साथ कुछ पल गुज़ारने का अवसर मिलेगा।

‘सुकांत बाबू, कुछ देर के लिए उपन्यास एक ओर रख दो और चाय पी लो।’

सुकांत ने उपन्यास एक ओर उलटा करके रख दिया। सलोनी ने केतली में से दो कपों में चाय उँड़ेली और एक कप सुकांत की ओर बढ़ा दिया और स्वयं सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।

उसे उदास देखकर सुकांत बाबू ने कहा, ‘सलोनी, एक दिन तो सबको जाना है। फिर नानी के जाने से तुम इतनी उदास क्यों हो?’

‘सुकांत बाबू, शायद यह हमारे वश में नहीं है।’

‘सलोनी, यह तो जीवन की नियति है … पुराने पत्ते झड़ते हैं और नए जन्म लेते हैं … तुमको हर समय उदास देखता हूँ तो मेरा मन आहत होता है … तुम्हें इस अवस्था में देखता हूँ तो सोचता हूँ, … जब मैं तुम्हें अपने सीने से लगाकर तुम्हारे दर्द का सहभागी नहीं बन सकता तो मैं यहाँ आया ही क्यूँ हूँ … सलोनी, तुमने तो “पल जो यूँ गुज़रे” पढ़ा है। … इस उपन्यास में जाह्नवी के पिता की मृत्यु पर जब निर्मल शिमला जाता है तो जाह्नवी उसके गले लग जाती है। संवेदनशील निर्मल की आँखों से बहे आँसू जाह्नवी को अन्दर तक भिगो जाते हैं। … क्या तुम्हारे मन में एक बार भी मेरी संवेदना का ख़्याल नहीं आया।’

‘आया क्यों नहीं सुकांत बाबू, आया है, किन्तु इससे पहले हमें एकांत ही कहाँ मिला?’ कहते हुए सलोनी कुर्सी से उठकर सुकांत बाबू की बग़ल में बैठ गई। सुकांत बाबू ने भी उसे अपने सीने से लगाने में देर नहीं की। अब तक का रुका आंसुओं का बाँध टूट गया और दो जोड़ी आँखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली। 

जब भावनाओं का आवेग थमा तो सुकांत बोला, ‘सलोनी, क्या निर्मल और जाह्नवी की भाँति एक-दूसरे के साथ सुखद जीवन बिताने का हमारा सपना भी साकार होगा!’

‘क्यों नहीं? एक बाधा तो दूर हो गई, आपकी नियुक्ति दिल्ली के पास हो गई है। …. अच्छा, यह बताओ, सुपवा गए थे तो वहाँ क्या रहा?’ 

‘वहाँ मुझे अप्रैल से ज्वाइन करना है। लगभग एक महीना बीच में है। रहने के लिए वहाँ हॉस्टल की अच्छी व्यवस्था है। आरम्भ में मैं वहाँ रहूँगा, बाद में जैसा तुम कहोगी।’

‘सुकांत बाबू, आपको कौन-सा रंग अधिक पसन्द है?’

‘क्यों?’

‘बस यूँ ही। इधर सर्दी अधिक पड़ती है तो सोचती हूँ कि आपके लिए एक स्वेटर ही तैयार कर दूँ।’

‘तुम्हें स्वेटर बुनना आता है?’

‘हाँ, नानी ने सिखाया था। बचपन में सर्दियों के दिनों में अपने कान्हा जी के लिए स्वेटर बनाकर रखती थी, अब अपने ‘इस कान्हा’ के लिए स्वेटर बनाना चाहती हूँ। … बताओ तो, आपको कौन-सा रंग अधिक पसन्द है?’

‘तुम्हारे जैसा…।’

‘यह भी कोई बात हुई? रंग बताओ।’

‘शीशे में स्वयं को देख लेना … बस वैसा ही।’

‘सुकांत बाबू, स्वेटर के बुंदों में हम अपने सुहाने सपनों को संजोकर रखना चाहते हैं।’

‘सलोनी, अब सपनों को संजोने का समय नहीं रहा। अब हमें इनको साकार रूप देना चाहिए। देखो, जैसा तुमने अभी कहा था, मैं तुम्हारे पास आ गया हूँ और तुम्हारे उत्तरदायित्व भी कम हुए हैं। एक माँ हैं। हम दोनों मिलकर उन्हें कोई कठिनाई नहीं आने देंगे।’

अचानक सलोनी को समय का बोध हुआ। उसने कहा, ‘सुकांत बाबू, माँ और नानी मन्दिर से आने वाली होंगी, हम चलते हैं।’

इसके बाद सलोनी की सुकांत बाबू से अकेले में कोई चर्चा नहीं हुई। इस मुलाक़ात के बाद सुकांत बाबू के सामने आते ही सलोनी अपने चेहरे पर मुस्कान ओढ़ लेती, क्योंकि सुकांत बाबू ने उसे सौगंध दिलाई थी कि वह सदा मुस्कुराती रहेगी, कभी भी उदास नहीं होगी।

नानी की अंतिम रस्म से अगले दिन भारी मन से सुकांत अपनी अम्मा के संग कोलकाता लौट गया।

…….

कई दिनों बाद सलोनी आज स्कूल गई थी। प्रथम चार पीरियडों के लिए उसे ड्यूटी देनी थी। इसलिए लंच के समय बनर्जी मैम से मुलाक़ात हुई। 

‘सब काम ठीक से निपट गया?’ बनर्जी मैम ने पूछा।

‘जी हाँ, सब ठीक हो गया। अब तो मुझे ब्रेस्ट पर बनी गाँठ की चिंता है।’

‘इसके बारे में मैं सोच चुकी हूँ। कोलकाता से एक रिश्तेदार ने बताया था कि दिल्ली से रोहतक जाते हुए रास्ते में एक बड़ा आश्रम है, वहाँ पर स्वामी कृष्णानन्द जी रहते हैं। बहुत तपस्वी हैं। वर्षों से उनके आश्रम में अखंड यज्ञ हो रहा है। आज तक उन्होंने कभी भोजन नहीं किया, केवल नारियल पानी ग्रहण करते हैं।’

‘हमें मालूम है। हमारी माँ बाबू जी की पुण्यतिथि पर वहाँ भंडारा करती हैं।’

‘स्वामी जी में बहुत शक्ति है। एक बार उनका आशीर्वाद लेकर देखो… जैसा तुमने अभी-अभी बताया, स्वामी जी तो तुम लोगों को जानते भी हैं। इसके अतिरिक्त वे आश्रम में कैंसर रोगियों के लिए एक नि:शुल्क हॉस्पिटल भी चलाते हैं।’

‘ठीक है, इतनी बात है तो परसों रविवार को माँ के साथ जा आऊँगी।’

‘मैं भी साथ चलूँगी। मैं दस बजे तुम्हारे घर आ जाऊँगी। माँ से कहना कि आश्रम से पूछ लें कि स्वामी जी वहाँ हैं या नहीं।’

‘ठीक है, कल आपको सब समाचार दे दूँगी।’ घंटी बजने के साथ ही दोनों अपनी-अपनी कक्षाओं में चली गईं।

अगले दिन सलोनी ने बनर्जी मैम को बताया कि माँ तो एक आवश्यक काम के कारण जा नहीं पाएगी, परन्तु माँ ने आश्रम में कॉल कर दी है। स्वामी जी आश्रम में ही हैं और हमारी उनसे अच्छी मुलाक़ात हो जाएगी। 

‘कालीधाम आश्रम’ में पहुँचकर इन्होंने स्वामी जी के दर्शन किए। छोटे क़द के स्वामी जी गले में रुद्राक्ष की अनेक मालाएँ पहने, केश बंधे हुए, माथे पर श्वेत चंदन का तिलक लगाए, बाहर वृक्षों की त्रिवेणी के नीचे बैठे थे। गुरु जी के पास जाकर इन्होंने प्रणाम किया। सलोनी धीरे से बुदबुदाई, ‘स्वामी जी, हम दिल्ली से आए हैं।’

‘छुटकी हो … छोटी थी, तब अपनी माँ की उंगली पकड़े आती थी … यहाँ बैठो।’ स्वामी जी ने दोनों को अपने पास बिठा लिया।

‘स्वामी जी, हम वही छुटकी हैं। अब हम सेन्ट्रल स्कूल दिल्ली में कला अध्यापिका हैं और आप हमारे साथ हैं, बनर्जी मैम।’

‘वाह-वाह, अच्छा यह बताओ, चाय पीओगे या लस्सी?’

‘कुछ नहीं स्वामी जी। बस आपका आशीर्वाद चाहिए था, सो मिल गया।’

‘नहीं, कुछ तो लेना होगा।’

शायद स्वामी जी मानेंगे नहीं, यह सोचकर छुटकी ने कहा, ‘स्वामी जी, लस्सी का आधा-आधा गिलास ले लेंगे।’

स्वामी जी ने चुटकी बजाई तो सेवक तुरन्त हाज़िर हो गया। 

‘बेटियों के लिए लस्सी का प्रसाद ले आओ।’

‘स्वामी जी, हम एक विशेष प्रयोजन से आपके दर्शन करने आई हैं।’

‘चलो, पहले माँ भगवती की पूजा करवा देता हूँ,’ कहकर स्वामी जी उन्हें विशेष कक्ष में ले गए, जहाँ अनेक प्रतिष्ठित राजनेताओें और अधिकारियों के साथ स्वामी जी के चित्र लगे थे। 

‘हाँ तो कैसे आना हुआ?’ स्वामी जी ने बड़े सोफ़े पर बैठते हुए पूछा।

बनर्जी मैम ने कहना आरम्भ किया, ‘स्वामी जी, आपकी छुटकी की ब्रेस्ट में एक गाँठ है। इसे वहम है कि कहीं कैंसर ना हो! आप अपने आशीर्वाद से इसका भय दूर कीजिए।’

‘अरे, चिंता नहीं। लाओ, अभी ठीक कर देते हैं,’ स्वामी जी ने कुछ मंत्रों का उच्चारण किया, चार बार चुटकी बजाई और कष्ट दूर कर दिया, ‘घबराना नहीं, तुम्हें कुछ नहीं होगा..।’

स्वामी जी उन्हें अपने साथ ले आए। सामने कैंसर रोगियों के लिए हॉस्पिटल बन रहा है, जहाँ नि:शुल्क चिकित्सा मिलनी शुरू हो चुकी है। स्वामी जी उनको डॉक्टर भाटिया के कमरे में ले गए। स्वामी जी को देखते ही डॉक्टर भाटिया खड़े हो गए।

‘डॉक्टर साहब, यह छुटकी है। इसकी जाँच करके आवश्यक दवाएँ लिख देना,’ कहते हुए स्वामी जी बाहर निकल गए। 

बनर्जी मैम ने डॉक्टर को छुटकी की समस्या बताई। डॉक्टर ने हाथ लगाकर जाँच की और पूछा, ‘आपके परिवार में पहले भी किसी को कैंसर हुआ है?’

‘जी, हमारे नाना को … माँ बताती हैं कि हमारी दादी भी कैंसर के कारण ही स्वर्ग सिधारी थी।’

‘देखो, संभावना हो सकती है, परन्तु असली पता तो तब लगेगा जब आपका सैंपल लैब में टेस्टिंग के लिए भेजा जाएगा।’

‘डॉक्टर साहब, आज सैंपल लिया जा सकता है?’

‘क्यों नहीं? … इससे पता लग जाएगा कि कैंसर है या नहीं …. और यदि है तो किस अवस्था में है?’

तभी डॉक्टर भाटिया ने एक नर्स को बुलाया और दोनों को उसके साथ भेज दिया। सैंपल लेने में आधा घंटा लगा। जाते समय डॉक्टर भाटिया ने बताया कि चार दिन बाद रिपोर्ट आ जाएगी, आकर मिल लेना।’

‘जी डॉक्टर साहब, धन्यवाद।’

सलोनी बहुत थक गई थी और शरीर में कुछ कमजोरी भी अनुभव कर रही थी। इसलिए स्वामी जी को प्रणाम करके दोनों लौट आईं। 

घर पहुँची तो भाग्या माँ के पास बैठी थी। सबने मिलकर खाना खाया। खाना खाते हुए सलोनी ने माँ को सब बातें बता दीं। 

भाग्या के बच्चों के साथ खेलते हुए सलोनी कुछ स्वस्थ हुई। 

भोजन करने के बाद माँ दोनों बहनों को अपने कमरे में ले आई।

‘देखो बेटी, मेरे पास कोई सोना-चाँदी तो है नहीं, बस दो सोने के कंगन बचे हैं। आज मैं एक-एक कंगन तुम दोनों को सौंपती हूँ। मुझे इनकी देखभाल की चिंता भी नहीं रहेगी,’ एक गहरी साँस लेकर, ‘तुम्हारी नानी चली गई। मेरा भी क्या भरोसा,’ कहते हुए माँ ने दोनों को एक-एक कंगन दे दिया। दोनों बहनों ने बहुत मना किया, लेकिन माँ मानी नहीं।

बबुआ और बेबी भी वहीं पास में बैठे थे। बबुआ भी यह सब बड़े ध्यान से देख रहा था। दोनों कंगन अपनी बेटियों को देते देखकर उसने नानी से कहा, ‘नानी, सोने की अंगूठी हमको भी दो ना!’

‘अब मेरे पास कुछ नहीं है। हाँ, एक बात सुन लो, दोनों बच्चों के भात भरने के लिए मैंने पैसे बैंक में जमा करवा दिए हैं। तुम्हारी शादी होगी तब निकलवा लेना। फिर चाहे अंगूठी बनवाना चाहे कुछ और…।’

भाग्या ने उठकर कंगन अपनी अटैची में रख दिया और सलोनी ने उसे अपनी अलमारी के लॉकर में रख दिया।

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