Agnija - 124 books and stories free download online pdf in Hindi

अग्निजा - 124

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-124

दूसरे दिन सुबह केतकी जल्दी ही जाग गयी। सभी खर्राटे लेकर सो रही थीं उस समय वह समुद्र के किनारे जाकर बैठ गयी। कल के नारियल पानी वाले की बेंच आज खाली थी। किनारे पर गिने-चुने लोग ही थे। कोई घूम रहा था को व्यायाम कर रहा था। वह कुछ देर उस बेंच पर बैठ गयी, फिर उठकर चलने लगी। समुद्र की तरफ देखते हुए चलती रही। एक जगह सीमेंट का चबूतरा बना हुआ था। वहां पर कुछ धूप थी फिर भी केतकी को वहां जाने की इच्छा हुई। वह उस चबूतरे पर जाकर बैठ गयी। आंखों पर गॉगल चढ़ाया। समुद्र को दूर तक निहारने लगी। समुद्र में लहरें उठ रही थीं। समुद्र अपने आप में मस्त मगन था। कोई देख रहा है या नहीं, इसकी परवाह किए बिना वह अपना काम करताजा रहा था, तल्लीन होकर, मगन होकर। केतकी को लगा कि समुद्र का मन कितना गहरा होगा। जो आता है, वह सब अपने भीतर समा लेता है। उसकी मां की तरह। किसी भी बात को ना कहती ही नहीं। सब स्वीकार कर लेता है। किसी का भी विरोध नहीं करता। इस तरही की तुलना करने से उसके मन में यशोदा के प्रति जो गुस्सा था, वह कम हो गया। आदर बढ़ गया। लेकिन मां को समुद्र की तरह ही जो बात नहीं चाहिए, उसे बाहर फेंक देना चाहिए। मां तो सब पचा लेती है। यानी मां तो समुद्र से भी महान हुई। और ये लहरें ...लगातार आती ही रहती हैं, दौड़ती रहती हैं, फूटती रहती हैं। मेरी ही तरह। वे किनारे पर पहुंचने से पहले ही घुल जाती हैं। लेकिन बिना थके, फिर से किनारे पर टक्कर मारती ही रहती हैं। मेरी ही तरह। मुझे भी इन लहरों आदर्श अपने सामने रखना होगा। और ये दीवार। सालों साल इन लहरों की मार खा रही है...पानी का नमक अपने भीतर समा रही है...ये दीवार प्रसन्न सरीखी है क्या? किसी भी फल की उम्मीद किए बिना मजबूत और ठोस।

और इस विशाल समुद्र को जकड़कर रखने का प्रयास करने वाले किनारे भी कितने अद्भुत हैं? एकदम मेरी भावना की तरह हैं ये...ये समुद्र किनारे को जकड़कर रखता है या किनारे समुद्र को? मैं भावना के कदमों की बेड़ी तो नहीं बन रही न? उसके उड़ने का आकाश कहीं मैंने छीन तो नहीं लिया है न? केतकी शांतचित्त से भावना के भविष्य का विचार करने बैठ गयी। उसका मुझ पर बहुत प्रेम हो, फिर भी उसके बदले में उसका भविष्य उसके सपने और सुख खोना नहीं चाहिए।

केतकी को यह समुद्र अपना सा लगा। सालोंसाल...नहीं...जन्मजन्मांतर से परिचित। वह चबूतरे से नीचे उतरी। एक चट्टान पर खड़े होकर उसने पानी में हाथ डुबाया। कितनी ही देर उस पानी में हाथ डाल कर रखा। उसे आने वाली लहर जितना ही लौटने वाली लहर में भी प्रेम का अनुभव हुआ। उसने अपनी पांचों उंगलियों में समुद्र के पानी को पकड़ा और झट से उस पानी को अपने मुंह में डाल लिया। वह खारा पानी भी उसे मीठा जान पड़ा। मानो वह समुद्र से एकरूप हो गयी हो। करीब तीन घंटों बाद वह वापस कमरे में लौटी तो सभी की आंखें लाल भड़क दिखाई दे रही थीं। आंखें भारी हो गयी थीं। ब्रेकफास्ट के बाद दोबारा सोने की बातें चल रही थीं।

शाम का कार्यक्रम तय करते समय गायत्री, चंद्रिका और मालती तिरछी नजरों से केतकी की तरफ देख रही थीं। सभी को डर लग रहा था कि केतकी अब उनसे शिकायत करेगी कि उसे दारू क्यों पिलायी गयी। सभी पर गुस्सा करेगी। केतकी ने पूछा, ‘अलका ठीक है न?’ चंद्रिका हंसी, ‘ठीक नहीं, एकदम मजे में है। थोड़ी देर पहले ही आकर गयी। मजा कर रही होगी...मजा...’

केतकी को आश्चर्य हुआ, ‘मजा माने क्या, मुझे समझ में नहीं आया?’

मालती ने मुंह बिचका कर कहा, ‘रहने दो...तुम्हें समझ में नहीं आएगा...’

केतकी उठ खड़ी हुई, भीतर कमरे में जाते हुए बोली, ‘कल तुम लोगों ने मुझे जबरदस्ती पिलायी, आज मैं वैसा कुछ नहीं होने दूंगी, समझ में आया?’

तीनों को इसी बात की उम्मीद थी। लेकिन केतकी फिर आगे बोली, ‘खबरदार, यदि किसी ने मुझसे आग्रह किया या मुझे समझाया तो...मैं खुद ही वाइन के तीन-चार पैग लेने वाली हूं।’ इतना कहकर वह किसी की ओर देखे बिना ही अपने कमरे में सोने के लिए चली गयी। उन तीनों को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।

शाम के सात बजे फिर महफिल सजी। आज बीअर और वाइन की बोतलों की गिनती बढ़ी हुई थी। शाम को केतकी ने हल्का नाश्ता और चाय ली थी इसलिए वह इस महफिल में जरा देर से शामिल हुई। चंद्रिका और गायत्री सपाटे से बीअर पी रही थीं। केतकी इसमें खुद ही खुशी-खुशी शामिल हो रही थी, इस बात से मालती को अच्छा लगा। केतकी शांति से वाइन लेकर बैठ गयी। सभी बड़बड़ा रही थीं लेकिन केतकी चुपचाप थी। उसे विचार करने का मौका मिल गया था।

जैसे ही वाइन पेट के अंदर गयी, केतकी अपने आप में मग्न हो गयी। रात को ग्यारह बजे तक उसने वाइन के तीन ग्लास खत्म किये। अब सभी को जोरदार भूख लग गयी। सभी ने तरह-तरह की डिशेज मंगवायीं। लेकिन उसमें से खत्म कुछ ही हुए। केतकी ने अपने लिए मंगवायी हुई मक्के की रोटी, सब्जी, प्याज, दाल और चावल खत्म किए। बाद में सभी ने आइसक्रीम मंगवायी। बिस्तर पर जाने के बाद गप्पें, मस्ती और धमाल करते हुए सभी नींद की आगोश में चली गयीं। उस समय केतकी मन ही मन अगले दिन का कार्यक्रम तय कर रही थी। उसे वाइन चढ़ी क्यों नहीं? यह सवाल उसके मन में चल रहा था।

सुबह ठीक छह बजे अलार्म बजा और केतकी की नींद खुल गयी। उसने उठकर नाइटड्रेस पर स्वेटर चढ़ाया। सिर पर स्कार्फ बांधा और हाथ में मोबाइल लेकर निकल गयी। वह बड़ी देर तक समुद्र के किनारे घूमती रही। खुली हवा अपनी सांसों में भर रही थी। उसने बालू पर अपना नाम लिखा और उसे एक लहर आकर अपने साथ ले गयी। केतकी ने समुद्र की ओर देखते हुए हंसकर कहा,  ‘मेरे मन में जो है, वह कभी भी बहने वाला नहीं है।’ वह लहरों की आवाज ध्यानपूर्वक सुन रही थी। समुद्र उसे बहुत कुछ सिखा रहा थाय़। केतकी एक जगह पर बैठ गयी। कहीं से एक हिप्पी कपल उसके पास आया उसी समय केतकी ने अपने सिर पर बंधा हुआ स्कार्फ खोल दिया। उसे देखकर वह जोड़ा वहीं पर ठहर गया। लड़के ने हिम्मत करके अपना हाथ उसकी तरफ बढ़ाया, ‘आई एम रिकी फ्रॉम कोस्टारिका..यू मस्ट बी फ्रॉम फ्रासं।’ केतकी ने हाथ जोड़े, ‘आई एम केतकी, इंडियन।’ यह सुनकर लड़की तालियां बजाकर उछलने लगी। क्योंकि उसने उस लड़के से शर्त लगायी थी कि केतकी निश्चित ही कोई फ्रेंच कलाकार होगी, लेकिन वह गलत साबित हुआ।

शाम को सभी डांस बार में गयीं। थकते दम तक नाचीं। सातवें दिन सभी ने समुद्र में खूब मौज-मस्ती की। आठवें दिन चारों ने हिम्मत करके स्वीमिंग कॉस्ट्यूम चढ़ाये और समुद्र में दूर तक जाकर निःसंकोच आनंद लूटा।  रात को केतकी होटल के बाहर फेरियां मार रही थी तभी उसे अलका आती हुई दिखी। उसे देखकर अलका ने हंसने का प्रयास किया। ‘तुम्हें भी मुझ पर शंका हुई होगी न? मैं कहां जाती हूं? क्या करती हूं?’ केतकी कुछ नहीं बोली। अलका ने अपना मोबाइल निकालकर उसे तस्वीरें दिखाईं। उसमें अलका अलग-अलग वृद्धजन के साथ बातें कर रही थी। किसी को खाना खिला रही थी, किसी को दवा दे रही थी, किसी के साथ बैठकर खेल रही थी। केतकी उन तस्वीरों को देखती रही। ‘यार, मैं एक अनाथ लड़की हूं। पास ही में एक वृद्धाश्रम है। वे लोग भी अकेले ही रहते हैं इसलिए मुझे लगा कि कुछ दिन उनके साथ गुजारने चाहिए। ये सारी मौज-मस्ती करने के लिए तो जीवन पड़ा है। कहो, मैंने कुछ गलत किया?’ केतकी, अलका की तरफ देखती रही। उसे यशोदा की याद आ गयी, ‘कल वहां मुझे भी अपने साथ लेकर चलोगी क्या?’ अलका ने हंसकर हामी भरी।

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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