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उजाले की ओर –संस्मरण

मित्रों!

स्नेहिल नमस्कार

 

जीवन की गति न्यारी न्यारी

जितनी सुलझाओ, वह उलझे

न सुलझाओ, चलत कटारी ----

माँ ने लिखा था, मैंने पढ़ा था लेकिन बस पढ़ा था, समझा नहीं था | बच्चे को इतनी गहन बात समझ में नहीं आ सकती थी बेशक सरल शब्द थे, छोटी सी बात थी लेकिन गहन थी |

बड़े होने पर कुछ समझ में आया कि जीवन किसी भी दिशा में,कभी भी बहक जाता है | अब मन बहक जाता है तो जीवन, बहक ही तो जाएगा । बहकना मन का स्वभाव है जीवन की गति का भी ! माँ लिखती रहतीं कुछ न कुछ और मैं पढ़ती | कुछ बातें किशोरावस्था में समझ आने लगीं तो कुछ इस उम्र तक भी अधर में लटकी हुई हैं |

सच मित्रों ! कभी-कभी तो मन ऐसा अचरज में भर उठता है कि भैया ! अब जीवन की जिस कगार पर खड़े हैं, अब भी कुछ बातें इस समझदानी में उलझती ही चली जाती हैं |चाहे वह किसी का व्यवहार हो, किसी का तंज हो या फिर किसी का प्रहार हो | बोलने वाला बोल जाता है और हम सुलझा ही नहीं पाते जब समझ में आता है तब मन में जैसे किसी ने छुरी चला दी हो या ततैये ने काट लिया हो फिर बिलबिलाते हैं | हर इंसान अपने जीवन में विभिन्न परिस्थितियों से गुज़रता है इसलिए कभी न कभी उसकी स्थिति लगभग एक सी हो ही जाती है |

हर भोर सबके लिए सुंदर, सकारात्मक, खुशनुमा उपहार लेकर आती है । किसी एक के लिए नहीं,समस्त धरा के लिए ! आसमान की थाली में सूरज का लालिमा लिए हुए उगना न मेरा है,न तेरा है --वह तो सबका है । उस अट्ठालिका में बसने वाले का है तो झोंपड़ी में बसने वाले का भी | रात में चंदा मामा की चमकदार स्नेहिल फुहार से रोशन करते भीगते तन-मन किस बंधन में हैं? इन पर न किसी का पहरा है और न ही किसी की कोई सीमा है | ऐसी सोच व स्नेहिल उद्गार ब्रह्मांड से हमारे पास हर पल, हर रोज़ सबके लिए आते रहते हैं, हम गौर ही नहीं कर पाते । प्रश्न है हम इन्हें कितना स्वीकार कर पाते हैं? जिसका उत्तर भी हमारे भीतर ही है।

प्रकृति ने किसी को भी बाँधकर नहीं रखा है और हम सब हैं क्या ? प्रकृति ही न ! पाँच तत्वों से बने ऐसे इंसान जिसको विभिन्न संवेदनाओं से सजाकर इस धरती पर भेजा गया है फिर प्रेम इनसे अलग कहाँ है? और उसे वृत्त में कैसे रखा जा सकता है ? इस प्रकृति ने हमें प्रेम से जन्म दिया,प्रेम से बड़ा किया और प्रेम से संभालती है, हमारी रख-रखाव करती है,सार -संभाल करती है फिर हम क्यों नहीं समझ पाते कि प्रेम को किसी वृत्त में, जंजीरों में जकड़कर कहाँ और कैसे रखा जा सकता है ? नहीं न !

प्रेम तो वह बरखा है जो हर किसी के लिए बरसती है,हर किसी को भिगोती है ---शर्त यह है कि भीगने वाला उस बरखा से भागकर किसी खंडहर में जाकर न छिप जाए | एक और बात बहुत महत्वपूर्ण है कि प्रेम में कोई शर्त नहीं होती,प्रेम बस देना है, वह अपने देने के एवज में कोई माँग नहीं करता | प्रेम भौतिक से आध्यात्म की यात्रा है जिसका कोई वृत्त, कोई ओर-छोर हो ही नहीं सकता इसलिए वह ऐसा ही है जैसे कण-कण में ईश्वर का वास ! और ईश्वर प्रकृति ही तो है न !

दरअसल हम दूसरों से जो अपेक्षाएँ करते हैं, वह हमें वृत्त में कैद करता है | जीवन में अपेक्षा और उपेक्षा दोनों का न होना जीवन को प्रेम से ओत -प्रोत कर देना है | यह बहुत सुंदर प्रैक्टिस है कि हम स्वयं से ही प्रश्न करें और स्वयं ही उनके उत्तर प्राप्त कर लें। इसमें कितनी संतुष्टि है। इसे महसूस करके देखें कि हमारे भीतर ही पूरा ब्रह्मांड है | उसे महसूस करना है, उसे अपने भीतर ही झाँककर देखना है | उस ब्रह्मांड में प्रेम का एक अथाह सागर है जिसमें गोते लगाने से मन की टीस समाप्त तो होगी ही, यह भी हम अपने आप समझ सकेंगे कि प्रेम क्या है? सोच की दहलीज़ पर खड़े होकर प्रेम की बयार में बहना प्रेम है |

ऊपर एक बात कह रही थी कि कभी किसी के तंज मन में धारदार छुरी सी चलाकर मन के कोमल तंतुओं को काट डालते हैं | कोमलता ही नहीं रहेगी तो प्रेम कहाँ से होगा ? संवेदनाओं की कोमलता निर्मल चित्त से बनी रहेगी अन्यथा ----- मनुष्य-जीवन में समस्या नामक उधेड़बुन तो चलती ही रहनी है |इसे भी कैसे इतना प्रेम दें कि समस्या कहे कि इस पर तो कोई प्रभाव ही नहीं फिर क्यों अपना समय बर्बाद किया जाए ?

इंसान के मुख से निकले शब्द बहुत प्रभावकारी होते हैं,वे चाहे अपने लिए निकलें या फिर किसी और के लिए | हम जैसा ख़ुद अपने बारे में सोचते हैं और बोलते हैं, उसका वैसा ही प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है | हम अपने जीवन के बारे में जो बोलते हैं, वैसी ही हमारी ज़िंदगी होती है | जो हम बोलते हैं और सोचते हैं हमारा मस्तिष्क वही ग्रहण करता है | हम जो प्रेम बाँटते हैं, वही प्रेम हमारी झोली भरता है तो भैया, क्यों न अपने आपको प्रेमसिक्त रखें और प्रेम को बिना किसी वृत्त में बाँधे उसका प्रसार करते रहें | हमेशा अपने और सबके लिए अच्छे और सकारात्मक शब्दों का प्रयोग करें, बदलाव हमें ख़ुद नज़र आ जाएगा |

 

सबका समय शुभ,शुभ्र रहे |

स्नेह

डॉ. प्रणव भारती