Kshama Karna Vrunda - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

क्षमा करना वृंदा - 1

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग -1

......एक गुमनाम नर्स की असाधारण कथा

मैं क़रीब दो साल की रही होऊँगी, तभी मेरे पेरेंट्स का डायवोर्स हो गया था। इसके बाद मदर मुझे लेकर ननिहाल आ गईं। ननिहाल में तब नाना-नानी थे। उन्हें बहुत शॉक लगा कि उनकी बेटी का वैवाहिक जीवन चार साल भी नहीं चला।

उन्हें शॉक इस बात का भी लगा कि बेटी डायवोर्स लेकर सिलवासा से दिल्ली आ गई, लेकिन उन्हें इस बात की भनक भी नहीं लगने दी कि डायवोर्स लेकर आई है। कभी फ़ोन पर बात-चीत में या जब साल भर पहले आई थी, तब भी यह संकेत तक नहीं दिया था कि उन दोनों पति-पत्नी में कोई मन-मुटाव चल रहा है।

मत-भेद, मन-भेद इतने हो चुके हैं कि अब साथ रहना मुश्किल हो गया है। जब बच्ची को लेकर आई तो अपने व्यवहार से यह पता ही नहीं चलने दिया कि जीवन का इतना बड़ा निर्णय लिया है। और निश्चित ही कड़क स्थितियों से गुज़र कर आई है।

“अकेली ही क्यों आई बेटा?” नानी के यह पूछने पर अटपटा सा जवाब दिया था, “मॉम  वह वहीं पर हैं।”

यह नहीं बताया कि डायवोर्स लेकर आई हैं। उनका बहुत उखड़ा-उखड़ा सा चेहरा देखकर जब अगले दिन नानी ने काफ़ी पूछा तो मदर ने संक्षिप्त सा जवाब दे दिया था, “मॉम हमारा डायवोर्स हो गया है।”

यह सुनकर नाना-नानी उन्हें अवाक्‌ देखने लगे, तो उन्होंने बड़ी आसानी से जवाब दिया था, “मॉम हमने महसूस किया कि हम अब एक साथ नहीं रह सकते तो यह स्टेप उठाया। हमारे सामने और कोई रास्ता नहीं बचा था। हम-दोनों को ही मन-भेद के साथ रिश्ते को झेलते रहना पसंद नहीं था। अब हम-दोनों आज़ाद हैं।”

हतप्रभ नानी ने कहा, “बेटी कम से कम एक बार तुम दोनों, हम-लोगों से बात तो कर लेते। फ़ोन पर रोज़ इतनी बार बातें होती थीं, तुमने कभी एक शब्द ऐसा नहीं बोला, जिससे कुछ मालूम होता। वह एक साल से बात ही नहीं कर रहे थे। तुमसे पूछती तो तुम टाल-मटोल कर जाती थी।”

मदर ने बहुत लापरवाही से जवाब दिया, “मॉम इसमें बताने या न बताने वाली कोई बात ही नहीं थी। साथ रहने के लिए जो बातें होनी चाहिए थीं, वह नहीं रह गई थीं, तो रिश्ता ख़त्म हो गया, सिंपल सी बात है।”

नाना-नानी हैरान-परेशान उन्हें देखते सुनते रहे। मदर ने यह कोई पहली बार उन्हें आश्चर्य में नहीं डाला था। ऐसे ही चार साल पहले अचानक शादी करके आईं डैड के साथ और बड़े आराम से बोल दिया कि “मॉम हम ने शादी कर ली है।”

मदर ने नाना-नानी को तीसरी बार आश्चर्य में नहीं, बल्कि बुरी तरह झकझोर कर रख  दिया था, जब डायवोर्स के बाद एक दिन, किसी काम से जा रही हूँ, कह कर गईं, और फिर रात में नौ बजे फ़ोन करके यह बताया कि “मॉम मैंने शादी कर ली है।”

पहले ही की तरह बोलीं, “मॉम हमारे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। प्लीज़ आप फ़्रेशिया को सँभाल लेना। हम हनीमून के लिए निकल चुके हैं।”

इस कॉल के बाद नाना-नानी मुझको यह सोच कर सँभालते रहे कि चलो हफ़्ते दो हफ़्ते में हनीमून से लौटेगी, तो अपनी बच्ची को ले जाएगी। तभी नए दामाद से भी मिल लेंगे। लेकिन हफ़्ते भर बाद ही उन्होंने, उन्हें जीवन का सबसे तगड़ा झटका देते हुए उनसे फ़ोन पर ही कहा, “मॉम हम-दोनों कैनेडा जा रहे हैं। अब वहीं रहेंगे। आप लोग अपना ध्यान रखिएगा।

“फ़्रेशिया को अपने साथ रख पाइयेगा तो ठीक है, नहीं तो किसी अनाथालय में दे दीजिएगा। अब हम शायद कभी नहीं मिल पाएँगे। क्योंकि हम हमेशा के लिए जा रहे हैं। सॉरी मॉम, मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था।”

 

इतना कहकर उन्होंने फ़ोन काट दिया था। और नानी रिसीवर हाथ में पकड़े मूर्तिवत सामने बैठे नाना को पथराई आँखों से देखती रहीं। वह भी विचलित हो गए कि ऐसी क्या बात हो गई कि यह मूर्ति बन गई है। उन्होंने पूछा, “अरे भाई कुछ बोलोगी क्या हुआ? किसका फ़ोन था?”

नाना की तेज़ आवाज़ ने उन्हें हिलाया-डुलाया, उनकी चैतन्यता लौटी, तो उन्होंने सारी बातें बताईं, जिसे सुनकर वह भी अवाक्‌ रह गए। दोनों एक-दूसरे को फटी-फटी आँखों से देखते रहे कि यह क्या हो गया!

मैं उस समय नाना की गोद में ही खेल रही थी। कुछ देर पहले ही बड़ी मुश्किल से चुप हुई थी। नानी ने मुझे देखते हुए अपनी बेटी यानी मेरी मदर को कई अपशब्द कहे।

बोलीं, “अब इस बुढ़ापे में हम इस दो साल की बच्ची को पालेंगे। अब हम ख़ुद कितने दिनों के मेहमान हैं, जो बच्ची की देखभाल करेंगे। हमारे अलावा और कौन है इस घर में, जो हमारे बाद इसे देखेगा।”

फिर नाना पर ग़ुस्सा होती हुई बड़ी अटपटी बात कहनी शुरू की, “मैं शुरू में इसीलिए कहती थी कि दो-तीन बच्चे होने दो, कम से कम कोई तो आज साथ होता।”

नाना ने खीझते हुए कहा, “यह कैसी मूर्खता वाली बात कर रही हो। चार होते तो चार और तरह की समस्याएँ खड़ी होतीं। एक है, तो कम से कम एक ही समस्या है, नहीं तो रोज़ कुछ न कुछ समस्याएँ चलती ही रहतीं।इस समस्या पर, इस समय या कभी भी बात करने का कोई मतलब ही नहीं है। जो समस्या उसने फ़िलहाल हमारे सामने खड़ी कर दी है, अभी केवल उसी के बारे में सोचना, समाधान निकालना है। इसके लिए भी उसने हमारे सामने दो ही विकल्प छोड़े हैं कि या तो हम फ़्रेशिया को पालें या फिर अनाथालय में ही डाल दें।”

यह सुनते ही नानी ने कहा, “नहीं! फूल सी इस बच्ची को हम अनाथालय में बिल्कुल नहीं डालेंगे। अभी हम ज़िन्दा हैं। हम पालेंगे।”

. . . और इस तरह मैं नाना-नानी की गोद में पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी। मेरी पढ़ाई पूरी होते-होते नाना-नानी इतने बुज़ुर्ग हो गए कि वो मुझ पर ही निर्भर हो गए। मैं अनायास ही बुढ़ापे से चलने-फिरने में भी असमर्थ हो जाने पर उनका वॉकर, बन गई। उनकी हर गतिविधि के लिए उनकी ऊर्जा, सहारा बन गई।

नाना की पेंशन इतनी नहीं थी कि वह पति-पत्नी के बुढ़ापे के अतिरिक्त ख़र्चे के साथ-साथ मुझको कोई ऊँची शिक्षा, अच्छा कॅरियर दिला पाते। हालाँकि मैं पढ़ने में तेज़ थी। किसी तरह नर्सिंग का कोर्स करके मैं एक हॉस्पिटल में नौकरी करने लगी।

नौकरी के साथ-साथ, नाना-नानी की देखभाल करने में मुझे बहुत समस्याएँ झेलनी पड़तीं। बारह-चौदह घंटे की ड्यूटी के बाद मैं थक कर चूर हो जाती थी। फिर भी उनकी सेवा बहुत ही मन प्यार से करती थी।

नाना को ज़्यादा समय देना पड़ता था, क्योंकि वह इतने कमज़ोर हो गए थे कि उन्हें नहलाने-धुलाने, कपड़े पहनाने से लेकर खाना तक खिलाना पड़ता था। नानी अपना काम किसी तरह कर लेती थीं। और ड्यूटी के समय फ़ोन करके बता देती थीं कि क्या हाल है।

मुझ को उन दोनों लोगों ने ऐसी सेवा करने के लिए दो साल से ज़्यादा अवसर नहीं दिया। और दोनों लोग, मुझे गहरे दुःख में एकदम अकेला छोड़ कर चले गए। पहले नाना एक दिन सुबह उठे ही नहीं। मुझे बहुत गहरा दुख हुआ। मैं उन्हें बहुत-बहुत प्यार करती थी। आख़िर के क़रीब दो साल उनकी सेवा मैंने एक नर्स नहीं, बल्कि एक माँ की तरह की थी।

उनका जाना मुझे बहुत ही ज़्यादा खला। दुर्भाग्य यह भी कि उनका शोक भी ठीक से न मना पाई थी कि हफ़्ते भर बाद ही नानी भी चली गईं। वह पति के जाने का दु:ख बर्दाश्त नहीं कर पाई थीं।

जब घर एकदम ख़ाली हो गया, कोई काम ही नहीं रह गया, तो घर का सन्नाटा मुझे तोड़ने, डराने लगा। इससे बचने के लिए मैं आए दिन, ड्यूटी के बाद भी, हॉस्पिटल में ही बाक़ी समय भी बिताने लगी।

बाक़ी नर्सों की ड्यूटी भी कर देती। पूरा स्टॉफ़ भी मुझे हर तरह से सपोर्ट करता। इन सब के चलते मैं दो-तीन दिन में घर आती, साफ़-सफ़ाई, कपड़े वग़ैरह धुलती, आराम करती और ज़रूरी सामान, तीन-चार सेट कपड़े लेकर फिर हॉस्पिटल लौट जाती।

नाना-नानी ने मुझे पेरंट्स के बारे में कभी-कभी, थोड़ी-बहुत बातें बताई थीं। यह संयोग था कि मदर की शादी का एल्बम मुझे नानी की अलमारी में ही मिल गया था। उसे मैं आए-दिन देखती थी। आख़िरी फ़ोटो तक पहुँचते-पहुँचते मैं बिलख-बिलख कर रो पड़ती थी।

आँसू तो पहली फोटो देखने के साथ ही निकलने लगते थे। इसमें पेरेंट्स शादी के जोड़े में एक साथ मुस्कुराते हुए बेहद ख़ूबसूरत लग रहे थे। इस एक एल्बम के अलावा मुझे एक भी ऐसा सूत्र नहीं मिला, जिसके सहारे मैं अपने पेरेंट्स को ढूँढ़ पाती।

नाना-नानी ने पूछने पर हर बार यही बताया था कि “वह अपने सारे पेपर्स कब निकाल कर लेती गई, उन्हें पता ही नहीं चला। यह एल्बम भी पता नहीं क्यों छोड़ गई थी, या फिर छूट गया, उसे याद नहीं रहा।” यह एल्बम न रहा होता, तो मैं अपने पेरेंट्स का चेहरा भी न जान पाती। हालाँकि कोशिश तो उन्होंने यही की थी।

मैंने पहली फोटो फ़्रेम करवा कर, नाना-नानी की फोटो के साथ दीवार पर टाँग दी थी। उसकी एक पासपोर्ट साइज़ की कॉपी अपने पर्स में रखती थी। यही फोटो अपनी फ़ेसबुक, टि्वटर, इंस्टाग्राम की डीपी पर भी लगाई थी।

मैं सोशल मीडिया को पसंद नहीं करती। यह मीडिया मुझे फ़ेक और अन-सोशल लगता है। किताबें पढ़ना मेरा शौक़ है। लेकिन इस उम्मीद में इनसे जुड़ी, डीपी पर उनकी फोटो लगाई कि शायद मेरे पेरेंट्स किसी दिन मिल जाएँ। वह दुनिया में जहाँ भी होंगे, यदि देखेंगे तो हो सकता है कि मुझसे संपर्क करें।

घर पहुँचते ही मुझे हर तरफ़ नाना-नानी के अक्स दिखाई देने लगते थे। पेरेंट्स को लेकर तरह-तरह की बातें, प्रश्न बर्छियों की तरह मुझे हर तरफ़ से शरीर में चुभते हुए लगते थे। परेशान होकर मैं फिर से हॉस्पिटल चली जाती थी।

मन से मैं इतनी बुझी हुई सी हो गई थी कि किसी भी चीज़ के लिए मेरे मन में जोश-उमंग उल्लास कुछ रह ही नहीं गया था। हॉस्पिटल की इक्का-दुक्का नर्स ही बहुत कोशिश करके मुझे अपने साथ कभी-कभार कहीं घूमने-फिरने ले जा पाती थीं, अन्यथा मेरा सारा समय हॉस्पिटल में मरीज़ों की सेवा में निकल जाता था। अपनी ड्यूटी हावर्स के अलावा भी तीन-चार घंटे और काम करना मेरा रूटीन था।

एक सहकर्मी, फिर एक डॉक्टर ने मेरी तरफ़ रिलेशनशिप के लिए क़दम बढ़ाए। डॉक्टर ने तो अपने घर में, साथ रहने के लिए ऑफ़र किया, पूरा दबाव डाला था। एक बार ग़लत ढंग से पकड़ने की कोशिश की, तो मैंने इतना कड़ा प्रतिरोध किया कि फिर कभी वह मेरे क़रीब भी नहीं आते थे।

मैंने उन दोनों से खुलकर साफ़ शब्दों में कह दिया था कि “मुझे यह सब बिलकुल पसंद नहीं है। मैं इन चीज़ों के लिए नहीं बनी हूँ।”

मेरी इस बात, व्यवहार से यह बात हवा में कुलाँचें भरने लगी कि वह शारीरिक संबंधों के लिए अनफ़िट है। थर्ड जेंडर है। एक थर्ड जेंडर हॉस्पिटल में कैसे नौकरी कर सकती है। इसके जेंडर की जाँच होनी चाहिए।

यह सब सुनकर मुझे बहुत दु:ख हुआ कि उन दोनों के मन का नहीं हुआ, तो उन्होंने मेरे इंकार को इस तरह तोड़-मरोड़ कर, ऐसी गंदी अफ़वाह उड़ाई। मैं बहुत अपमानित महसूस करती। दुःख अपमान से आँखें पूरा दिन आँसुओं से भरी रहतीं।