Kshama Karna Vrunda - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

क्षमा करना वृंदा - 3

भाग -3

एक दिन मन में ऐसी ही पुरानी बातों को सोचती हुई मैं वॉर्ड बिज़ी में थी। सुबह से ही तनाव के कारण हल्का-फुल्का नाश्ता करने के अलावा कुछ नहीं खाया था। दोपहर के कुछ समय बाद ही एक एमर्जेन्सी डिलीवरी का केस आ गया। शुरू में लगा कि मामला सीरियस है। लेकिन घंटे भर में नॉर्मल डिलीवरी हो गई।

जब शाम को मेरी ड्यूटी ऑफ़ हुई तो मैं घर नहीं गई। रेस्ट-रूम में लेटी मोबाइल पर सोशल-मीडिया के ज़रिए अपने माँ-बाप को ढूँढ़ने में लगी रही। थोड़ा ही समय बीता था कि एक साथी नर्स ने आकर कहा कि “फ़्रेशिया मेरी तबीयत कुछ ख़राब है, अगर तुम्हें कोई प्रॉब्लम न हो तो मेरी ड्यूटी देख लो।”

ऐसे समय में सभी मेरे पास ही आते थे। क्योंकि मैं कभी किसी को मना नहीं करती थी। ख़ुशी-ख़ुशी काम के लिए तैयार हो जाती थी। हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते रहने के कारण जो भी मुझे थोड़ी बहुत जानकारी थी, उसके चलते हॉस्पिटल में मैं डॉक्टर विदाऊट डिग्री के नाम से चर्चित थी। इन कुछ बातों के कारण भी सभी मुझे बहुत चाहते थे। मैं सब की चहेती थी।

मैंने साथी नर्स से कहा, “ठीक है तुम आराम करो, मैं देख लेती हूँ।”

मैं पूरी रात, पूर्ण ज़िम्मेदारी के साथ ड्यूटी करती रही। सुबह ड्यूटी चेंज होने के समय अचानक ही हंगामा मच गया। जो एमर्जेन्सी डिलीवरी केस आया था, डिलीवरी भी नॉर्मल हो गई थी, जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ थे, वह महिला, उसका पति, बच्चे को छोड़कर भाग गए। पुलिस को बुलाना पड़ा। नाइट शिफ़्ट के सभी लोगों से पूछताछ हुई।

सीसीटीवी कैमरे से सुराग़ मिला कि क़रीब चार बजे वह उलझन होने की बात कह कर वॉर्ड में टहल रही थी। उसके बाद अचानक ही बाहर निकल गई।

सुबह सात बजते-बजते बच्चे की तबीयत ख़राब हो गई। उसकी साँसें बड़ी तेज़ चल रही थीं। हालाँकि देखने में वह बहुत ही स्वस्थ लग रहा था। हॉस्पिटल मैनेजमेंट या कोई अन्य उसकी ज़िम्मेदारी लेने, इलाज का ख़र्च उठाने के लिए तैयार नहीं था।

मैनेजमेंट सख़्त नाराज़ था कि महिला तो पहले ही बिना कोई पेमेंट किए भाग गई, अब वह बच्चे का ख़र्च नहीं उठा सकता। पुलिस कोई क़दम बढ़ाना नहीं चाह रही थी। बीमार बच्चे को चाइल्ड लाइन भेजा नहीं जा सकता था।

ऐसे में बच्चे पर मुझे बड़ी दया आई कि बच्चे की यह कैसी बदक़िस्मती है कि निर्दयी माँ-बाप लावारिस छोड़ कर चले गए। ऐसा ही करना था, तो पैदा ही क्यों किया।

अवैध संतान के कारण ऐसा किया, तो संतान नहीं अवैध तो तुम्हारे सम्बन्ध थे। बच्चे को सज़ा क्यों दी? ख़ुद की अय्याशी का परिणाम स्वयं भुगतते, निर्दोष मासूम निरीह को सजा देने का अधिकार तुम्हें कहाँ से मिल गया।

मैं मन ही मन बच्चे के माँ-बाप को अपशब्द कह रही थी। मुझे बार-बार अपनी आँखों के सामने अपने माँ-बाप दिख रहे थे। बच्चे पर मुझे इतनी दया आई कि मैंने मैनेजमेंट से कह दिया कि बच्चे के ट्रीटमेंट का सारा ख़र्चा मैं उठाऊँगी। जब-तक बच्चे के माँ-बाप नहीं मिलते, तब-तक उसका पालन-पोषण भी मैं ही करूँगी।

इसके साथ ही मैंने डिलीवरी का सारा बिल भी पेमेंट कर दिया। बच्चे के ट्रीटमेंट में कोई कमी न हो, इसके लिए भी जो पेमेंट करने को कहा गया, वह भी कर दिया। उस समय मुझे हॉस्पिटल से बड़ी निराशा हुई कि इतना बड़ा हॉस्पिटल होकर भी एक नवजात बच्चे को इसलिए ट्रीटमेंट नहीं दे सकता, क्योंकि चंद रुपए नहीं मिले।

मैं पूरे समर्पण, मन से बच्चे की देख-भाल करने लगी। जब वह दो सप्ताह में पूरी तरह ठीक हो गया, तब मैंने घर जाने की सोची। लेकिन बच्चे से इन दो हफ़्तों में इतना भावनात्मक लगाव हो गया था कि उसे किसी और के सहारे छोड़ कर जाने का मन ही नहीं हो रहा था। सब कहते कि ‘इसकी रियल मदर तो तुम ही हो गई हो।’ मैं ऐसी बातों का कोई जवाब देने के बजाय मुस्कुरा कर रह जाती।

दो हफ़्तों में मैंने बच्चे को सिर्फ़ एक दिन, दो घंटे के लिए अकेला छोड़ा था। घर से अपने कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान लाने के लिए। इस दो घंटे के लिए भी अपनी सबसे क़रीबी फ़्रेंड वृंदा से विशेष रूप से रिक्वेस्ट करके गई थी कि ‘लियो’ को एक सेकेण्ड के लिए भी अकेला नहीं छोड़ना।

मैं लियो को हमेशा अपने सीने से लगाए रखना चाहती थी। उसे ‘लियो’ नाम मैंने ही दिया था। मुझे लियो में पहले ही दिन से कई तरह की समस्याएँ होने का संदेह होने लगा था।

मेरी रिक़्वेस्ट पर डॉक्टर ने लियो की सारी जाँचें करवाईं। रिपोर्ट्स आने के बाद जो बातें पता चलीं, उससे मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे, कि यह कैसी सज़ा है इस बच्चे को।

और मुझको भी। क्योंकि अब इससे इतना ज़्यादा लगाव हो चुका कि इसकी हर पीड़ा मुझे बहुत कष्ट पहुँचाती है। मैं स्तब्ध रह गई, यह जानकर कि लियो देख नहीं सकता, इससे बढ़कर यह कि बोल-सुन भी नहीं सकता।

देखने में वह काफ़ी स्वस्थ और सुंदर लग रहा था। उसकी आँखों की पुतलियाँ ध्यान से देखने पर ही मालूम होता था कि वह स्थिर नहीं रह पातीं, लगातार हिलती रहती हैं। मैं जब उसे गोद में उठाती, तो वह हाथ-मुँह से मेरे स्तनों को खोजने लगता।

उसे माँ का दूध पीने का दुर्लभ सौभाग्य भी नहीं मिल पाया था। मिल्क बैंक से जो दूध मिलता था, वही उसे पिलाती थी। लेकिन लियो उसे जल्दी पीता नहीं था।

एक दिन जब वह दूध के लिए बहुत रोने लगा, तो मैंने वॉर्ड में एक ऐसी माँ को हाथ-पैर जोड़ कर लियो को दूध पिलाने के लिए तैयार कर लिया, जिसका बच्चा गंभीर स्थिति के कारण वेंटिलेटर पर था। वह पहले तो थोड़ा संकुचाई, लेकिन फिर बड़े मन से उसे दूध पिलाने लगी। उसका नाम ‘कावेरी’ मैं आज भी भूली नहीं हूँ।

लियो की रुलाई, एक सामान्य नवजात शिशु की रुलाई की तरह नहीं थी। उसके रोने पर अजीब तरह की खीयीआं खीयीआं आवाज़ निकलती थी। सिर पर उसके सामान्य से अधिक काले, घुँघराले बाल थे। ख़ूब तंदुरुस्त होने के कारण हाथ-पैरों में रिंग सी पड़ रही थी।

लियो को जिस दिन हॉस्पिटल्स से रिलीव किया गया, उसी दिन कावेरी के बेटे को वेंटिलेटर से आईसीयू में शिफ़्ट किया गया। उसकी हालत तेज़ी से बेहतर होती जा रही थी। मैं कावेरी को हर तरह से सहयोग करती रही। उसे चलते-चलते बहुत धन्यवाद दिया।

जब लियो को लेकर मैं घर आने लगी, तो उसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए मुझसे कई पेपर साइन करवाए गए। उसको घर लाने से पहले, मैं एक बार फिर उसे अपनी प्रिय फ़्रेंड वृंदा के सहारे छोड़ कर दो घंटे के लिए घर आई थी।

मैं दो हफ़्ते से बंद पड़े पूरे घर की ठीक से सफ़ाई करना ज़रूरी समझ रही थी। मैंने पूरे घर को ख़ूब साफ़ करके सेनिटाइज़ किया। उसके लिए ख़ूबसूरत सा पालना, कपड़े, दूध की बोतल, पैंपर्स भी ले आई।

जब उसे लेकर घर पहुँची, तो सबसे पहले नाना-नानी की फोटो के पास लेकर गई। उन्हें देखती हुई बुबुदाई, ‘आप लोग भी देख रहे हैं न लोगों को। मज़ा किया, पैदा किया, फिर किसी रैपर की तरह बाहर फेंक दिया।

मैं तो सोचती थी कि दुनिया में अकेली मैं ही हूँ, जिसके पेरेंट्स उसे कूड़े की तरह डस्टबिन में डाल कर चले गए। यहाँ तो कम से कम मुझे आप लोगों के हाथों में, झूठ बोलकर ही सही, डाल गए थे। इस प्यारे लियो को तो इसके गंदे क्रूर माँ-बाप लावारिस ही फेंक गए।

‘मेरे पेरेंट्स कौन थे, यह कम से कम मैं उनकी फोटो देख कर, उनका चेहरा तो जानती हूँ। कभी मिले तो पहचान भी सकती हूँ।’  मेरे आँसू बह रहे थे। नाना-नानी के बाद मैं पेरेंट्स की फोटो के पास गई।

उनसे भी मन ही मन कहा, ‘अपने बच्चे को डस्टबिन में फेंकने वाले एक आप लोग ही नहीं हैं। आप से भी ज़्यादा क्रूर पेरेंट्स हैं दुनिया में। आप जैसे लोगों को पेरेंट्स बनने का अधिकार ही नहीं है। आप जैसे लोग दुनिया में किसी के नहीं हो सकते। जिनके साथ मिलकर आप कपल बनते हैं, वास्तव में आप लोग एक दूसरे के भी नहीं हैं।

‘केवल अपने स्वार्थ, अपनी हवस के लिए कपल बनते रहते हैं, एक से मन भरा, तो सेकेण्ड भर में उसे छोड़कर, फ़ौरन दूसरे को पकड़ लेते हैं, आप जैसे लोग पेरेंट्स, मानवता, रिश्ते के नाम पर कलंक हैं। कभी मिले, तो अपने इस क्वेश्चन का आन्सर हर हाल में लूँगी, कि आप लोग ऐसा क्यों करते हैं?’

इसी समय लियो रोने लगा। शायद उसे भूख लग गई थी। डायपर भी चेंज करने वाला हो गया था। मैंने उसे एक हाथ में लिए-लिए ही, बेड पर उसकी रबर बेड-शीट बिछाई। और उसे लिटा दिया। मैं उसके लिए रेडीमेड बिस्तर भी ले आई थी। लिओ पूरे जोर-शोर से रो रहा था।

उसे घर लाते समय, तमाम तरह की कार्यवाइयों को पूरा करते हुए मुझे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि घर पहुँचते ही इसे भूख लग सकती है। हॉस्पिटल में तो वह भली महिला कावेरी, इसका रोना शुरू होते ही, ख़ुद ही इसे लेकर दूध पिलाने लगती थी।

मैंने बहुत ही जल्दी से हॉस्पिटल के मिल्क-बैंक से लिया हुआ दूध, कटोरी में डाल कर, उसे गोद में सही पोज़ीशन में लेकर चम्मच से पिलाना शुरू किया। लेकिन वो बार-बार उगल देता। ख़ूब हाथ-पैर चलाता हुआ मेरे स्तन ढूँढ़ता रहा था। बड़ी मुश्किल से किसी तरह दूध पिलाया। पेट भरते ही वह एक बार फिर सो गया।

मुझे ख़ुद भी बहुत भूख लगी हुई थी। दिन भर काम के कारण लंच तक करने का अवसर नहीं मिल पाया था। पूरा दिन दो समोसे और कुछ बिस्कुट पर ही बीत गया था। दो हफ़्ते से घर पर भी नहीं थी। इसलिए फ़्रिज में रखी खाने-पीने की चीज़ें ख़राब हो गई थीं। जब लियो के लिए सामान ख़रीद रही थी, तब ध्यान ही नहीं रहा कि अपने लिए भी कुछ ले लेती।

पर्स में रखी तीन-चार टॉफ़ियाँ निकालकर खाईं, पानी पिया, फिर कपड़े चेंज करके खाना बनाने लगी। लियो को मैं अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी। लेकिन उसे गोद में लेकर काम नहीं कर सकती थी, तो थोड़ा काम करने के बाद बार-बार उसे देखने जाती। बड़ी देर तक उसे देखती ही रहती। फिर मन में जो भावनाएँ, बातें उठतीं, उससे मेरे होंठों पर हल्की सी मुस्कान आ जाती।

जैसे-तैसे मैंने चावल-दाल बनाया। कोई सब्ज़ी थी नहीं, तो अचार से ही काम चलाया। पाउडर-मिल्क से अपने लिए कई कप चाय बनाकर, फ्लास्क में रख ली। हालाँकि मुझे ब्लैक कॉफ़ी की आदत है, लेकिन पता नहीं क्यों उस समय चाय पीने का मन हो गया। लियो की दूध की बोतल निकाल कर उसे गर्म पानी से धोया।

उसके लिए रात-भर के हिसाब से दूध लेकर आई थी। उसे फ़्रिज में रखा था। खा-पीकर एक किताब और एक कप चाय लेकर, मैं लियो के बग़ल में ही बेड पर पीछे टेक लगाकर बैठ गई।

चाय पीते-पीते बार-बार उसे देखती, एक उँगली से बड़े हल्के से उसके गालों को छूती। मन में बड़ी देर से जो बातें उठती चली आ रही थीं, उससे अब भी मेरे होंठों पर कभी मुस्कान आ जाती, और कभी उदासी।

बढ़ते तनाव से बचने के लिए, मैंने सामने लगे टीवी को ऑन करके, उसका साउंड ऑफ़ कर दिया, जिससे लियो की नींद न टूट जाए। मैं यह विश्वास ही नहीं कर पा रही थी कि लियो सुन नहीं सकता। उसकी तरफ़ एक सेंटर टेबल लगाकर, उस पर तकिया, दो-तीन बेड-शीट रखकर ऊँचा कर दिया। जिससे लियो सुरक्षित रहे।

हालाँकि यह बात दिमाग़ में अच्छी तरह थी कि अभी तो यह करवट भी नहीं ले सकता। लेकिन मन में मेरे कुछ और चलता था, और करती कुछ और थी। शायद मैं अपने मन को शांत रखने के लिए वह सब कर रही थी, जिसकी वास्तव में उस समय कोई ज़रूरत ही नहीं थी।

मैंने ऑफ़िस से महीने भर की छुट्टी ले ली थी। कई सालों से एक भी छुट्टी नहीं ली थी, ऊपर से एक्स्ट्रा हॉवर काम करती रहती थी, इसलिए छुट्टी मिलने में मुझे कोई मुश्किल नहीं हुई। बल्कि इंचार्ज ने व्यंग्य भी किया कि ‘चलो तुमने छुट्टी तो ली। भले ही उस बच्चे के लिए।’

मेरा मन न तो टीवी देखने में लग रहा था, न उपन्यास पढ़ने में। आख़िर हिंदी के महान लेखक नरेंद्र कोहली का वह उपन्यास ‘पूत अनोखो जायो’ रख दिया। स्वामी विवेकानन्द पर केंद्रित यह बहुत मोटा सा, छह सौ पचपन पृष्ठों का उपन्यास मैं क़रीब दो महीने से पढ़ रही थी।

कभी भी सात-आठ पेज से ज़्यादा पढ़ ही नहीं पाती थी। क्योंकि थकान के मारे दिमाग़ और आँखें साथ नहीं देती थीं। उस दिन इतनी पस्त थी कि एक लाइन पढ़े बिना ही, लियो की तरफ़ करवट लेकर लेट गई। रात ज़्यादा नहीं हुई थी, फिर भी मुझे तेज़ नींद लगी हुई थी, लेकिन मैं सो नहीं पा रही थी। आँखें बंद करते ही लियो दिखने लगता। मेरी आँखें खुल जातीं।

आख़िर हार कर मैं हमेशा की तरह फिर से मदर की शादी का एल्बम उठा लाई। कभी एल्बम तो कभी टीवी को देखते-देखते घंटा भर बीता होगा कि मैं एल्बम लिए-लिए ही सो गई।