Kshama Karna Vrunda - 7 books and stories free download online pdf in Hindi

क्षमा करना वृंदा - 7

भाग -7

उस समय मैंने बड़ा गर्व महसूस किया कि लियो की नाक अब मेरे माथे को छूने लगी है। मेरे समझाने से उसकी घबराहट तो कम हो गई, लेकिन अपने संशय को क्लियर करने की ज़िद करने लगा।

उसने तौलिया हटा कर, वहाँ उसके किशोरावस्था की घोषणा करते हुए उग आए कई सुनहरे बालों को खींच कर दिखाया। और पूछा यह क्या है? वह उन्हें कोई बड़ी समस्या समझ कर घबरा उठा था।

मैंने उसे बेड पर बैठाया। कई दिन बाद प्यार से उसका पूरा बदन पोंछा। अब-तक वह सारा काम ख़ुद कर लेता था। मैंने उसकी बाँहों की बग़ल में भी बढ़ आए रोओं को उसे पकड़ा कर समझाया कि बड़े होने पर ऐसे चेंज होते हैं। यह समझाने के लिए मुझे बड़ी मेहनत करनी पड़ी। उम्र के साथ-साथ उसकी उत्सुकता भी ख़ूब बढ़ रही थी।

जब मैंने समझा कि उसकी उत्सुकता का समाधान हो गया है, तभी अपने अगले प्रश्न से उसने मुझे फिर से प्रस्थान बिंदु पर खड़ा कर दिया। उसने पूछा कि क्या मेल की तरह फी-मेल को भी यह होता है? और उसे भी है?

उसके इस प्रश्न ने मेरे सामने फिर बड़ी कठिन स्थिति पैदा कर दी। लेकिन उसकी हर उत्सुकता का समाधान करना मैं बहुत ज़रूरी समझने के चलते, इसके समाधान में भी लग गई।

क्योंकि मैं उसे हर तरह से एक नॉर्मल बच्चे की तरह सक्षम बनाना चाहती थी। इसके लिए मैं कुछ भी करने के लिए हर क्षण तैयार रहती थी। नैतिकता-अनैतिकता की किसी सीमा का विचार किए बिना, मैंने बिना शर्म-संकोच के उसके सारे प्रश्नों के उत्तर उसे समझाए।

उसके साथ बैठ कर नाश्ता करती हुई, उसे प्यार से देखती रही, सोचती रही कि अभी तो मुझे ऐसी कई जटिल स्थितियों का सामना करना होगा। लेकिन इसके सारे प्रश्नों के उत्तर देकर ही, इसे ज़्यादा समझदार और सक्षम बना पाऊँगी।

उस दिन भी रात को सोते समय वह, छोटे बच्चे सा मुझसे चिपक कर लेटा हुआ था। मेरे स्तनों से खेलता हुआ, जैसे कोई नन्हा बच्चा। पहले बहुत बार की ही तरह, वह बीच-बीच में निपल मुँह में लेकर चूस भी रहा था। मैं गुदगुदी महसूस कर रही थी। मुझे एक माँ होने जैसी अनुभूति का आनंद मिल रहा था। मैं उसके घने रेशम से बालों में उँगलियाँ फिराती हुई सोच रही थी कि यदि इसके रियल पेरेंट्स होते, तो क्या वह इसकी हर उत्सुकता, प्रश्न का ऐसे ही उत्तर देते। ऐसे ही समझाते, या कोई और तरीक़ा निकालते। कहीं मेरा तरीक़ा ग़लत तो नहीं है।

मैं मातृत्व आनंद के बीच उठती अपनी इन उलझनों को भी सुलझाने में लगी हुई थी, मन उठती नई-नई उलझनों, प्रश्नों से संघर्षरत था। और लियो पहले ही की तरह अपने में मगन था। उसे नींद आने लगी थी।

मेरे मन बार-बार यह बात आ रही थी कि अब समय आ गया है, बल्कि कई साल पहले ही आ गया था, इसे यह समझाने का कि अब तुम बहुत बड़े हो गए हो गए हो, इसलिए अलग बेड पर सोया करो। बड़े बच्चे अलग ही सोते हैं।

जब वह पाँच-छह साल का हुआ था, उसके बाद से ही मैंने कई बार उसे अलग सुलाने का प्रयास किया था, लेकिन वह सोया ही नहीं। रोता रहा। मैंने सोचा इसे दूध पिलाते-पिलाते यह समस्या भी आ सकती है, मुझे यह भी सोचना चाहिए था।

समस्या तो अब हॉस्पिटल में भी बढ़ने लगी थी। कई लोग नहीं चाहते थे कि लियो दिन-भर हॉस्पिटल में बना रहे। समय के साथ बढ़ती हर समस्या को, मैं अपनी मेहनत, काम से मैनेजमेंट को ख़ुश रख कर दूर किए रहती थी।

मगर समस्याएँ तो बचपन से ही मेरी छाया की तरह, सदैव मेरे साथ-साथ रहती थीं, तो मैं निश्चिन्त कैसे रह सकती थी। एक दिन लियो हॉस्पिटल में गिर गया था। उसके माथे, नाक पर अच्छी-ख़ासी चोट लग गई थी। नाक से ख़ून आ गया था।

मरहम-पट्टी के समय मासूम लियो के जितने आँसू बह रहे थे, उससे कहीं ज़्यादा मेरे निकल रहे थे। उसकी मरहम पट्टी कर रही नर्स को हटा कर मैं स्वयं कर रही थी। मेरे आँसू देख कर वृंदा ने कहा, “चुप हो जाओ फ़्रेशिया। नर्स की आँखों में कभी आँसू नहीं आते। क्या किया जा सकता है, दुनिया में क्रूर गंदे लोगों की कमी नहीं है। सब तुम्हारे जैसे नहीं हो सकते न।”

कुछ लोगों और लियो ने मुझको जो बताया, उससे साफ़ पता चल रहा था कि उसे किसी ने जानबूझकर पीछे से धक्का दिया था। उसकी जापानी हाई-टेक पतली सी फ़ोल्डिंग छड़ी भी मुड़ कर टूट गई थी। जो फिर कभी नहीं बन पायी।

मुझे वह महँगी छड़ी दूसरी मँगानी पड़ी। उसे आने में महीना भर लग गया था। इस बीच लियो बहुत परेशान रहा। उसकी परेशानी को देख कर मैं, उससे ज़्यादा परेशान हो रही थी।

रात में सोते समय भी लियो दर्द के कारण कराह रहा था। उसके कराहने की आवाज़ मेरे कानों में गर्म सूईयों की तरह चुभ-चुभ कर असह्य पीड़ा दे रही थीं। क्या करूँ कि उसका दर्द उड़न-छू हो जाए यह सोच-सोच कर मैं व्याकुल हो रही थी, लेकिन कुछ समझ नहीं पा रही थी। पेन-किलर ज़्यादा नहीं देना चाहती थी।

मन के एक कोने में अब यह बात दृढ़ होती जा रही थी कि अपने प्यारे लियो को अब हॉस्पिटल नहीं ले जाऊँगी। लेकिन घर पर अकेला छोड़ने की बात सोचते ही हमेशा की तरह काँप उठती थी। और हॉस्पिटल में अब मुझ पर हँसने और कटाक्ष करने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही थी।

कई अश्लील बातें भी मेरे लिए निःसंकोच कही जाती थीं। जो मुझे बहुत पीड़ा देती थीं। लेकिन फिर वृंदा की बात याद आते ही कि ‘क्या करोगी, दुनिया में तरह-तरह के लोग हैं।’ थोड़ी ही देर में सारी बातों को भूल कर अपने काम में लग जाती थी।

लेकिन लियो को चोट लगने के बाद मन में यह बात ज़्यादा तेज़ आवाज़ में उठने लगी थी कि फ़्रेशिया अब एक न एक दिन तुझे इसका समाधान ढूँढ़ना ही पड़ेगा। इससे पहले कि हायर मैनेजमेंट कुछ कहे, तुम्हें उसके पहले ही कुछ समाधान ढूँढ़ लेना चाहिए।

मगर लियो के मोह में मैं इतने गहरे डूबी रही कि समय तेज़ी से निकलता रहा, लेकिन मैं कोई समाधान नहीं निकाल पाई। लियो के प्रति मेरा अतिशय प्यार, मेरे हर समाधान में बाधा बन रहा था। और धीरे-धीरे लियो सत्रह साल का हो गया, मगर बात जहाँ की तहाँ बनी रही।

हॉस्पिटल में अपने को बचाए रखने के लिए मैं ज़्यादा से ज़्यादा काम करती, छुट्टियों में भी न रुकती। और लोगों की आपत्तियाँ, मेरे लिए समस्याएँ खड़ी करना, अश्लील बातें कहना भी दिनों-दिन बढ़ता रहा।

इसी बीच मैं एक नई उलझन, समस्या में गहरी डूबती जा रही थी। इसका भी कोई समाधान मुझे नहीं सूझ रहा था। बस यही दिमाग़ में गूँजता रहता, लियो बड़ा हो रहा है, वह बड़ा हो गया है। उसे अब मुझे वह सब भी बताना होगा, जो एक फ़ादर को बताना होता है, उसका काम होता है। यह नॉर्मल होता तो ख़ुद ही सब कुछ सीख लेता।

मेरी कोई ज़रूरत ही नहीं थी, लेकिन इसकी हालत ऐसी है कि न सिर्फ़ मुझे ही सब बताना, करना होगा, बल्कि इसे सब-कुछ समझाने के लिए बहुत सी नई सीमाएँ बनानी होगी। ऐसे बच्चों के लिए गुड पेरेंटिंग का नया अध्याय नहीं, मुझे पूरी किताब लिखनी पड़ेगी।

मैं सोचती कि क्या सिंगल पेरेंटिंग इन्हीं सब कारणों से दहकते अंगारों पर चलने जैसी है। इस किताब का पहला अध्याय कहाँ से, कैसे शुरू करूँ, मैं यह समझ नहीं पा रही थी। कभी एक सिरा पकड़ में आता, तो दूसरा छूट जाता। दूसरा पकड़ती तो पहला छूट जाता।

मेरा ध्यान अब बराबर इस तरफ़ भी जा रहा था, मैं देख रही थी, महसूस कर रही थी, कि लियो अब यौन आनंद की अनुभूति करता है। अब जब भी वह मेरे साथ खेलता-कूदता है, जब उसे गले लगाती हूँ, लेटे-लेटे बालों में तेल लगाती, सहलाती हूँ, तो अक़्सर उसके शरीर में, अंग विशेष में साफ़-साफ़ तनाव दिखता है। अक़्सर उसके हाथ अंग के इर्द-गिर्द ही मँडराते रहते हैं।

हालाँकि उसने बहुत समझने-बुझाने के बाद मेरे स्तनों से खेलना कई साल पहले ही बंद कर दिया था। वह उसे एक नर्म खिलौना समझता था। जिससे खेलना उसे बहुत अच्छा लगता था।

लेकिन एक बड़ी समस्या अभी भी बनी हुई थी, कि वह बिना मेरे सोता नहीं था। जब-जब मैंने उसे अलग सुलाने की कोशिश की, वह छोटे बच्चों सा बिलख-बिलख कर रोने लगता था।

एक रात क़रीब तीन, साढ़े तीन बजे उसने मुझे काफ़ी तेज़-तेज़ हिला कर उठा दिया। मैं उससे दूसरी तरफ़ करवट लिए गहरी नींद में सो रही थी। चौदह-पंद्रह घंटे की कठिन ड्यूटी, तरह-तरह के मरीज़ों को देखना, ऑपरेशन के दौरान घंटों डॉक्टर्स के साथ लगे रहना, फिर घर और लियो का काम-धाम मुझे थका कर चूर कर देते थे, इसलिए मैं गहरी नींद में बेसुध सोती थी। लेकिन लियो के हाथों के स्पर्श से मेरी सारी बेसुधी, गहरी नींद पलक झपकते ही उड़न छू हो जाती थी। वही तब भी हुआ।

मैं झटके से उठ बैठी। नाईट लैम्प के धीमें प्रकाश में देखा कि लियो मेरी ही तरफ़ मुँह किए बैठा है। जल्दी से लाइट ऑन की। देखा उसके आँसू निकल रहे हैं। मैंने स्पर्श-लिपि अपनाते हुए ही पूछा, “क्या हुआ बेटा?” तो उसने नीचे अपने कपड़े धीरे से उठाए।

उसके एक तरफ़ का काफ़ी हिस्सा गीला था। उसकी स्थिति देखकर मुझे समझते देर नहीं लगी कि लियो ने फ़र्स्ट नाईट-फॉल को फ़ेस किया है। और यह इसे कोई अनहोनी समझकर डरा सहमा हुआ है। एक बार फिर इसे तमाम बातें समझानी होगी।

सबसे पहले मैंने उसे समझाया कि परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। उसके होंठों के दोनों सिरों को पहले की तरह फैलाया कि हँसो। उसके कपड़े, बेड-शीट वग़ैरह चेंज करा कर कहा सो जाओ, सुबह बात करेंगे। लेकिन उसने ज़िद कर ली कि नहीं अभी बताओ क्या हुआ।

मेरी आँखें नींद से बुरी तरह कड़वा रही थीं, झपीं जा रही थीं, बैठा नहीं जा रहा था। मगर लियो की इच्छा के आगे मैंने इन सारी समस्याओं को किनारे कर, उसे समझाना शुरू किया। ईश्वर को धन्यवाद कि वह जल्दी ही समझ भी गया। लेकिन हमेशा ही प्रश्नानुकूल बने रहने वाले प्यारे लियो ने तुरंत ही फिर उलझन में डाल दिया।

उसने पूछा कि क्या यह फ़ीमेल को भी होता है? तुम्हें भी होता है? उसके इन प्रश्नों का उत्तर देना मेरे लिए चौथी-पाँचवीं के बच्चे को बौधायन की फ़र्स्ट प्रमेय समझाने जैसा था। लेकिन उसे समझाना ही पड़ा।

बड़ी मुश्किल से बता पाई कि हाँ यह फ़ीमेल को भी होता है। लेकिन मेल से बहुत कम। मैं जब तुम्हारी जितनी थी, तब कभी-कभी मुझे भी हुआ था। नींद के झोंके में मेरे मुँह से यह भी निकल गया कि फ़ीमेल को हर महीने पीरियड होते हैं।

वास्तव में यह कह कर मैंने स्वयं ही लगे हाथ, अपने लिए नई समस्या खड़ी कर ली थी। इसी समय बताओ इस ज़िद के साथ लियो का नया प्रश्न था कि पीरियड कैसे होते हैं? अंततः यह भी मुझे उसी समय खुल कर समझाना पड़ा।

उसी समय मैंने यह भी सोचा कि यदि कोई पुरुष होता मेरी जगह, तो क्या वह भी इसी तरह, इतने ही प्यार से इसे पालता। हर बात बताता। मैंने मन ही मन कहा, निश्चित ही वह नहीं कर पाता।

इसीलिए कहते हैं कि माँ तो अकेले ही कई बच्चों को पाल लेती है, लेकिन मर्द को तो ख़ुद को भी पालने के लिए एक औरत का सहारा चाहिए होता है। अकेले वह या तो बेवड़ा बन जाता है, या फिर विक्षिप्त।

अगले दिन मैं दिन भर यही सोचती रही कि लियो अब इतना बड़ा हो गया है कि इसे अब किसी न किसी तरह, किसी काम में बिज़ी रखने का रास्ता ढूँढ़ना ही पड़ेगा। नहीं तो ख़ाली बैठे-बैठे यह न जाने क्या-क्या सोचता रहेगा। न जाने किन-किन प्रश्नों में उलझता और मुझे उलझाता रहेगा।

इसकी कई बातें, प्रश्न, काम, स्पष्ट संकेत कर रहे हैं कि यह न सिर्फ़ गहराई से बातों को महसूस करता है, बल्कि उसको लेकर कुछ न कुछ सोचता भी रहता है। हॉस्पिटल में वृंदा भी कई बार मज़ाक में ऐसी कई बातें बोल चुकी है।

लेकिन यह क्या करेगा? कैसे करेगा? कोई ऐसा भी काम है, जो इसके लायक़ हो, जिसे यह सात-आठ घंटे या जितने समय तक इसकी इच्छा हो, उतने समय तक करे। ऐसा कोई रास्ता दिखे, तो इसे अब घर पर ही रखूँ, साथ ही एक नौकरानी भी रख दूँ, वह बराबर इसके साथ ही रहे।

इन सब बातों से ज़्यादा मैं उसकी सेक्सुअल एक्टिविटीज़, उसके मनोभावों को समझने, देखने के प्रयास में रहती। क्योंकि मुझे महसूस होता कि उसकी यह भावना ज़्यादा प्रबल है। जिसे ज़्यादा गहराई से समझना बहुत ज़रूरी है। जिससे इसे ज़रूरी बातें सही ढंग से बताई समझाई जा सकें।