Tatya Tope in Hindi Short Stories by DINESH KUMAR KEER books and stories PDF | तात्या टोपे

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तात्या टोपे

1857 की क्रांति के हीरो अमर शहीद क्रांतिकारी रामचंद्रराव पांडुरंगराव येवलकर उर्फ तात्या टोपे जी की जन्म जयंती पर कोटि-कोटि नमन

जन्म : सन 1814

जन्मस्थान : यवला (महाराष्ट्र)

पिता : पांडुरंग

माता : रुकमाबाई

तात्या टोपे का जन्म सन 1814 ई. में नासिक के निकट पटौदा ज़िले में येवला नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम पाण्डुरंग त्र्यम्बक भट्ट तथा माता का नाम रुक्मिणी बाई था। तात्या टोपे देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे थे। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के गृह-विभाग का काम देखते थे। उनके विषय में थोड़े बहुत तथ्य उस बयान से इकट्ठे किए जा सकते हैं, जो उन्होंने अपनी गिरफ़्तारी के बाद दिया और कुछ तथ्य तात्या के सौतेले भाई रामकृष्ण टोपे के उस बयान से इकट्ठे किए जा सकते हैं, जो उन्होंने 1862 ई. में बड़ौदा के सहायक रेजीडेंस के समक्ष दिया था।

तात्या का वास्तविक नाम 'रामचंद्र पांडुरंग येवलकर' था। 'तात्या' मात्र उपनाम था। तात्या शब्द का प्रयोग अधिक प्यार के लिए होता था। टोपे भी उनका उपनाम ही था, जो उनके साथ ही चिपका रहा। क्योंकि उनका परिवार मूलतः नासिक के निकट पटौदा ज़िले में छोटे से गांव येवला में रहता था, इसलिए उनका उपनाम येवलकर पड़ा

1857 में विदेशियों के विरुद्ध जो युद्ध आरम्भ हुआ उसमे तात्या टोपे ने बड़ी वीरता का परिचय दिया | क्रान्तिकारियो ने कानपुर पर अधिकार कर लिया | तात्या (Tatya Tope) ने 20 हजार सैनिको की सेना का नेतृत्व करके कानपुर में अंग्रेज सेनापति विन्धम को तथा कैम्पवेल को परास्त करके भागने के लिए मजबूर किया | उस समय लोगो को ज्योतिषी , मौलवी , मदारी , साधू-सन्यासी आदि के वेश में भेजकर कमल ,पुष्प और रोटी के साथ संघर्ष का संदेश प्रसारित किया गया था |

कानपुर में अंग्रेजो को पराजित करने के बाद तात्या (Tatya Tope) ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ मिलकर मध्य भारत का मोर्चा सम्भाला | यद्यपि बेतवा के युद्ध में उसे सफलता नही मिली किन्तु शीघ्र ही पुन: संघठित होकर वह झांसी की रानी के साथ ग्वालियर की ओर बढ़ा | उसने सिंधिया की सेना को पराजित किया और सिंधिया आगरा में अंग्रेजो की शरण में चला गया परन्तु ग्वालियर पर कब्जा करने में ह्यूरोज को सफलता मिल गयी |यही झांसी की रानी भी शहीद हो गयी | टोपे (Tatya Tope) अंग्रेजो के हाथ नही आया लेकिन 1859 में सिंधिया के सामंत मानसिंह ने विश्वासघात करके उसे पकडवा दिया और अंत में इस वीर मराठा देशभक्त को 18 अप्रैल 1859 को फांसी पर चढ़ा दिया गया |

क्रांति के दिनों में उन्होंने झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं नाना साहब का भरपूर साथ दिया. शिवराजपुर के सेनापति के रूप में उन्होंने फौजियों का नेतृत्व किया. कानपुर विजय का श्रेय भी उन्हीं को है. तांत्या ने कालपी को अपने अधिकार में लेकर उसे क्रांतिकारियों का महत्वपूर्ण गढ़ बनाया.

जहां एक ओर कई महत्वपूर्ण विजय प्राप्त की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने कई बार अंग्रेज सेनापतियों को अपने गुरिल्ला ढंग के आक्रमणों के कारण सकते में डाला. सारे देश में अंग्रेजी सेना उस समय तांत्या की तलाश कर रही थी और तांत्या क्रांतिकारियों को संगठित करने साथ अंग्रेजों पर छटपट आक्रमण करने में जुटे हुए थे. उस समय उनका नाम शौर्य और साहस का पर्याय बन गया था.

यूरोपके समाचार पत्रोंका ध्यान भी आकृष्ट किया :

१८ जूनको रानी लक्ष्मीबाईने वीरगति प्राप्त की तथा ग्वालियर अंग्रेजोंके नियंत्रणमें आ गया । तत्पश्चात तात्याने गुरिल्ला युद्ध पद्धतिकी रणनीति अपनाई । तात्याको शिथिल करनेके लिए ब्रिटिशोंने उनके पिता, पत्नी तथा बच्चोंको कैदमें डाल दिया । तात्याको पकडनेके लिए ६ अंग्रेज सेनानी तीनों ओरसे उन्हें घेरनेका प्रयत्न कर रहे थे; परंतु तात्या उनके जालमें नहीं फंसे । इन तीन सेनानियोंको छकाकर तथा पीछा कर रहे अंग्रेजी सेनिकोंके छक्के छुडाकर २६ अक्टूबर १८५८ को नर्मदा नदी पार कर दक्षिणमें जा धमके । इस घटनाको इंग्लैंड सहित यूरोपके समाचारपत्रोंने प्रमुखतासे स्थान दिया । यह समाचार तात्याकी रणकुशलताका श्रेष्ठतम उदाहरण था ।

सहस्रों अंग्रेज सेनिकोंपर यह रणबांकुरा वीर मुठ्ठी भर सैनिकोंको साथ लेकर आक्रमण कर रहा था । अल्प सैन्यबल होते हुए भी तात्याने विजय प्राप्त करनेमें दुर्जय काल्पी दुर्ग जीतकर अंग्रेजोंको अपने पराक्रमकी एक बानगी दे दी । इतना ही नहीं, तात्याने अंग्रेजी सेनाके सर्वश्रेष्ठ सेनापति जनरल विंडहैम तथा उसकी सेनाको धूल चटा दी ।

बिठूर आगमन :

तात्या टोपे जब मुश्किल से चार वर्ष के थे, तभी उनके पिता के स्वामी बाजीराव द्वितीय के भाग्य में अचानक परिवर्तन हुआ। बाजीराव द्वितीय 1818 ई. में बसई के युद्ध में अंग्रेज़ों से हार गए। उनका साम्राज्य उनसे छिन गया। उन्हें आठ लाख रुपये की सालाना पेंशन मंजूर की गई और उनकी राजधानी से उन्हें बहुत दूर हटाकर बिठूर, कानपुर में रखा गया।

बिठूर में तात्या टोपे का लालन-पालन हुआ. बचपन में उन्हें नाना साहब से अत्यंत स्नेह था. इसलिए उन्होंने जीवन-पर्यन्त नाना की सेवा की. उनका प्रारंभिक जीवन उदित होते हुए सूर्य की तरह था. क्रांती में योगदान की कहानी तांत्या के जीवन में कानपुर-विद्रोह के समय से प्रारंभ होती है. तांत्या काफी ओजस्वी और प्रभावशाली व्यक्ति थे. उनमे साहस, शौर्य, तत्परता, तत्क्षण निर्णय की क्षमता एवं स्फूर्ति आदी अनेक प्रमुख गुण थे.

अंग्रेजोंद्वारा गद्दारीका आश्रय :

निरंतर १० मास तक अकेले अंग्रेजोंको नाकों चने चबवानेवाले तात्याको पकडनेके लिए अंततः अंग्रेजोंने छल नीतिका आश्रय लिया । ग्वालियरके राजाके विरुद्ध अयशस्वी प्रयास करनेवाले मानसिंहने ७ अप्रैल १८५९ को तात्याको परोणके वनमें सोते हुए बंदी बना लिया । १५ अप्रैलको तात्यापर अभियोग चलाकर सैनिक न्यायालयमें शिप्रीमें उसी दिन शीघ्र निर्णय ले लिया । इस न्यायालयका निर्णय निश्चितथा ।

युवावस्था और साथी :

तात्या एक अच्छे महत्त्वाकांक्षी नवयुवक थे। उन्होंने अनेक वर्ष पेशवा बाजीराव द्वितीय के तीन दत्तक पुत्र- नाना साहब, बाला साहब और बाबा भट्ट के साहचर्य में बिताए। एक कहानी प्रसिद्ध है कि नाना साहब, उनके भाई, झाँसी की भावी रानी लक्ष्मीबाई, जिनके पिता उस समय सिंहासनच्युत पेशवा के एक दरबारी थे और तात्या टोपे, ये सभी आगे चलकर विद्रोह के प्रख्यात नेता बने। ये अपने बचपन में एक साथ युद्ध के खेल खेला करते थे और उन्होंने मराठों की वीरता की अनेकों कहानियाँ सुनी थीं, जिनसे उन्हें विद्रोह के लिए प्रेरणा प्राप्त हुई थी।

इस कहानी को कुछ इतिहासकार अप्रमाणिक मानते हैं। उनके विचार से गाथा के इस भाग का ताना-बाना इन वीरों का सम्मान करने वाले देश प्रेमियों के मस्तिष्क की उपज है। फिर भी यह सच है कि इन सभी का पेशवा के परिवार से निकटतम संबंध था और वह अपनी आयु तथा स्थिति भिन्न होने के बावजूद प्रायः एक-दूसरे के निकट आए होंगे।

खोए हुए राज्य की स्मृतियाँ अभी ताजा ही थीं, धुंधली नहीं पड़ी थीं। साम्राज्य को पुनः प्राप्त करना और अपने नुक़सान को पूरा करना नाना साहब और उनके भाइयों के अनेक युवा सपनों में से एक स्वप्न अवश्य रहा होगा। वे सभी बाद में अपने दुर्बल पिता की तुलना में काफ़ी अच्छे साबित हुए थे।

१८५७ के विद्रोह में भूमिका :

सन् १८५७ के विद्रोह की लपटें जब कानपुर पहुँचीं और वहाँ के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया तो तात्या टोपे ने कानपुर में स्वाधीनता स्थापित करने में अगुवाई की। तात्या टोपे को नाना साहब ने अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। जब ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेज सेना ने इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तब तात्या ने कानपुर की सुरक्षा में अपना जी-जान लगा दिया, परंतु १६ जुलाई, १८५७ को उसकी पराजय हो गयी और उसे कानपुर छोड देना पडा।

शीघ्र ही तात्या टोपे ने अपनी सेनाओं का पुनर्गठन किया और कानपुर से बारह मील उत्तर मे बिठूर पहुँच गये। यहाँ से कानपुर पर हमले का मौका खोजने लगे। इस बीच हैवलॉक ने अचानक ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि तात्या बिठूर की लडाई में पराजित हो गये परंतु उनकी कमान में भारतीय सैनिकों ने इतनी बहादुरी प्रदर्शित की कि अंग्रेज सेनापति को भी प्रशंसा करनी पडी।

तात्या के बारे में कुछ विशिष्ठ बातें :

1. पेशवाई की समाप्ति के पश्चात बाजीराव ब्रह्मावर्त चले गए। वहां तात्या ने पेशवाओं की राज्यसभा का पदभार ग्रहण किया।

2. 1857 की क्रांति का समय जैसे-जैसे निकट आता गया, वैसे-वैसे वे नानासाहेब पेशवा के प्रमुख परामर्शदाता बन गए।

3. तात्या ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से अकेले सफल संघर्ष किया।

4. 3 जून 1858 को रावसाहेब पेशवा ने तात्या को सेनापति के पद से सुशोभित किया। भरी राज्यसभा में उन्हें एक रत्नजड़‍ित तलवार भेंट कर उनका सम्मान किया गया।

5. तात्या ने 18 जून 1858 को रानी लक्ष्मीबाई के वीरगति के पश्चात गुरिल्ला युद्ध पद्धति की रणनीति अपनाई। तात्या टोपे द्वारा गुना जिले के चंदेरी, ईसागढ़ के साथ ही शिवपुरी जिले के पोहरी, कोलारस के वनों में गुरिल्ला युद्ध करने की अनेक दंतकथाएं हैं।

6. 7 अप्रैल 1859 को तात्या शिवपुरी-गुना के जंगलों में सोते हुए धोखे से पकड़े गए। बाद में अंग्रेजों ने शीघ्रता से मुकदमा चलाकर 15 अप्रैल को 1859 को राष्ट्रद्रोह में तात्या को फांसी की सजा सुना दी।

7. 18 अप्रैल 1859 की शाम ग्वालियर के पास शिप्री दुर्ग के निकट क्रांतिवीर के अमर शहीद तात्या टोपे को फांसी दे दी गई। इसी दिन वे फांसी का फंदा अपने गले में डालते हुए मातृभूमि के लिए न्यौछावर हो गए थे।