front window in Hindi Short Stories by Wajid Husain books and stories PDF | सामने वाली खिड़की

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सामने वाली खिड़की

वाजिद हुसैन की कहानी- प्रेम कथा

उसके और मेरे कमरे की खिड़की आमने - सामने थी, पर उससे मुलाकात नहीं थी। मैं एक पत्रिका का सब एडिटर था। मेरा काम आर्टिकल्स कहानी इत्यादि को चेक करने के बाद एडिटर की टेबल तक पहुंचाना था।... वह एक कविता पत्रिका में छपवाने के लिए लाई थी। मैंने कविता में कुछ संशोधन किया जिससे कविता प्रकाशन योग्य हो गई। उसे परिश्रमिक मिला तो चहकते हुए बोली, 'शाम को वैस्टर्न पर सेलीब्रेट करते हैं।'
मैं पहली बार किसी लड़की के साथ होटल में गया था। मधु कश्यप ने डोसा आर्डर किया। मैंने डोसे को परांठे की तरह खाना शुरू किया तो उसने एक हाथ में फ़ोर्क पकड़ा और दूसरे में स्पून और मुझे एक बाइट खिलाकर बताया था कि ऐसे खाया करो। और मैं उस वक्त उसका चेहरा देखता रहा था- अपलक। मानो वह मेरी मेट्रेन हो और मुझे सिखा रही हो कि नीरज देखो! ऐसे सलीके से खाया करते हैं। तब मैंने मज़ाक में कहा था, 'मधु क्या फर्क पड़ता है अगर मैं मेरी तरह खाता हूं।' उसने कहा था-'नीरज देखो न कितने लोग आपके गंवार पन को देख नीचे ही नीचे मंद- मंद हंस रहे हैं।'
हां, लोग हंस तो रहे थे लेकिन क्या करूं, मैं तब भी गंवार था और आज भी गंवार हूं। एक दिन मैंने गंवारों की तरह मधु से कहा, 'माताजी मेरे विवाह के लिए सुशील व सुंदर कन्या की खोज में लगी है पर मैं तुमसे प्रेम करता हूं।' उसने आह भरते हुए कहा, 'मैं भी आपको चाहती हूं, पर पापा रूढ़ीवादी हैं, अंतर्जातीय विवाह के विरुद्ध हैं। मां होती तो पापा को राज़ी कर लेती।'
कोरोना कॉल में उसकी शादी तय हो गई। एक दिन उसने अपनी खिड़की से मुझे नीरज कहकर पुकारा और कहा, 'कल मेरी शादी है, आना ज़रूर।' मुझे उसका चेहरा गमगीन सा लगा।
उस समय मैं एक रोचक किताब पढ़ रहा था। मेरे हाथ से किताब छूट गई। मैं सोचने लगा, 'इस शादी से मधु खुश नहीं लगी। मधु सुंदर है जब वह हसंती है, उसके सुंदर दांत दिखते हैं, मन करता है कि उसके माथे पर बोसा दे दूं। और एक मैं हूं, गंवार, हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। यदि उसके पापा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा होता, तो मेरे व्यकित्तव और पोज़ीशन से इम्प्रेस होकर वह इस प्रस्ताव को स्वीकृति दे देते।'
शादी कोरोना काल में, प्रोटोकॉल से हो रही थी। मधु ने अपने दोस्तों में से केवल मुझे ही आमंत्रित किया था। वरमाला की रस्म के बाद फेरो की तैयारी हो रही थी। वर के मोबाइल पर कोरोना पॉज़िटिव होने का मैसेज आया। एंबुलेंस उसे अस्पताल ले गई, वहां उसकी मृत्यु हो गई।
मधु की दुनिया उजड़ गई थी। वह विधवा है, या कुंवारी। इस पर तो अधिकांश लोग बहस करते थे पर उसके पुनर्विवाह की कोई नहीं सोचता।
एक दिन मैंने खिड़की से उसे गेरुआ वस्त्रों में देखा। मुझे लगा मानो वह जाड़ों की ओस भीगी पतझड़ी हरसिंगार हो। सुहागरात की फूलों की सेज के लिए नहीं, वह केवल देव पूजा के लिए समर्पित थी। मैं उसकी पूजा मन ही मन किया करता था। किसी को कुछ नहीं मालूम। इसके लिए मैं गर्व का अनुभव भी करता था। परंतु पहाड़ी नदी की तरह मन का वेग भीतर-ही-भीतर कसक उत्पन्न करता था इसलिए मैं सोच रहा था कि किस तरह उसे पुनर्विवाह के लिए राज़ी करूं?
कुछ दिनो बाद, मैं मधु के घर गया। बातों बातों में उसके पिता को उसका पुनर्विवाह करने की सलाह दी। उसके पिता का उत्तर था, 'मधु मांगलिक है‌, जिसके कारण उसके पति की अकास्मिक मृत्यु हो गई। अत: उसका पुनर्विवाह उचित नहीं है। उसे सन्यासिन का जीवन व्यतीत करना है।' यही हमारी सामाजिक परंपरा और प्रथा भी है।
दरअसल उनके लिए रुढ़िवादिता की ज़ंजीरों को तोड़ना इतना आसान नहीं था, जितना मैं समझता था। सोच-विचार के बाद मैंने अपने आलेखों का सहारा लिया। मैं अपनी पत्रिका में पुनर्विवाह और विधवा विवाह संबंधित आलेख लिखता था। पत्रिका की एक प्रतिलिपि बिना मूल्य लिए, दीपक के हाथ, मधु के घर भिजवा देता था। दीपक मधु के पड़ोस में रहने वाला उसी की जाति का युवक था। उसे मैंने मधु के पापा की सिफारिश पर डिलिवरी ब्याय की नौकरी पर लगवा दिया था। बाद में पता चला,वह खुराफाती है।
ज्योतिषी जिस प्रकार नक्षत्र के उदय की प्रतीक्षा में आकाश की ओर निहारा करता है, मैं भी उसी तरह कभी-कभी सामने की खिड़की से उसे निहारा करता था। तपस्या में लीन शांत जीवन ज्योति झिलमिला कर क्षण भर में मेरे मन की सारी बेचैनी दूर कर देती थी। किंतु उस दिन सहसा मैंने यह क्या देखा! उस दिन सावन के तिपहर को पूर्वोत्तर दिशा में बादल घिर रहे थे। उस घिरी हुई आंधी की बादलो-भरी तेज़ चमक में मेरी पड़ोसिन खिड़की पर अकेली खड़ी थी, उस दिन उसकी शून्य डूबी धनी काली आंखों में मैंने दूर तक फैली एक कसक देखी। तो है, मेरी प्रियतम में अब भी ताप है। अब भी वहां गर्म सांसों की हवा बहती है। वह देवताओं के लिए नहीं, मनुष्य के लिए ही है। उस दिन उस आंधी के प्रकाश में उसकी दोनो आंखों की तेज़ छटपटाहट उतावले पक्षी की तरह उड़ी चली जा रही थी। स्वर्ग की ओर नहीं, मानव हृदय के घोसले की ओर। उस चमकती दृष्टि को देखने के बाद मेरे लिए अपने बेचैन मन को काबू करना मुश्किल हो गया।... तब मैंने निश्चय कर लिया कि उसके समाज ने भी पुनर्विवाह प्रचलित करने के लिए केवल व्याख्यान और लेख लिखकर नहीं, मुझे खुद आगे बढ़ना होगा। फिर मैंने मधु से मिलकर उसे पुनर्विवाह करने की सलाह दी और उसने इस पर विचार करने की सहमति दे दी।
मेरे आलेखों का उसके पिता पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने मधु का पुनर्विवाह करने का मन बनाया। मधु इस बात से अंजान थी, 'कि यह सब मैने उससे शादी करने के लिए किया है।' वह समझती थी कि एक दोस्त और शुभचिंतक के नाते मैं उसका भविष्य सुधारना चाहता हूं।
दीपक शातिर दिमाग था। उसने अंदाजा लगा लिया था, कि नीरज सर मधु से प्रेम करते हैं और उसे पुनर्विवाह के लिए अपने आलेखों द्वारा राज़ी करना चाहते हैं। उसने बीच में ही भाजी-मारने का मूड बना लिया। एक दिन वह पत्रिका देने गया। उसने मधु से विवाह का प्रस्ताव किया पर उसे स्वीकृति नहीं मिली। तब उसने सभी युक्तियों का प्रयोग कर उसके साथ अपनी आंखों के दो-चार आंसू मिलाकर संपूर्ण रूप से उसे हरा दिया। पुनर्विवाह की लाज में वह गड़ी जा रही थी। इसलिए दीपक ने इस बारे में किसी से भी चर्चा करने से मना कर दिया था।
मधु के पिता का स्वास्थ्य दिन पर दिन गिर रहा था। एक दिन उनकी हालत चिंताजनक हो गई। उन्होंने मुझे खिड़की में से बुलाया, मुझसे पूछा, 'दीपक मधु से विवाह करना चाहता है, हमारी ही जाति का है, कैसा लड़का है?' मेरे मुंह से निकला, 'लफंगा'।' उन्होंने कहा, 'तुम ही तो उसे हमारे घर भेजते हो।' ... फिर मुझे उन्हें सब कुछ बताना पड़ा। उनके मुंह से निकला, 'जात-पात और रूढ़िवादिता ने मुझे हृदय विहीन कर दिया है। मैं अपनी बेटी को कुएं में धकेल रहा था। भगवान ने अनर्थ होने से बचा दिया।'
उसी समय उन्होंने मधु से कहा, 'तुम दोनों प्रेम करते हो, मैं तुम्हें विवाह के बंधन में बांधना चाहता हूं।' वह हमें अपने घर के मंदिर में ले गए। वहां हमने भगवान को साक्षी मानकर एक दूसरे को पति-पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। मरते समय उनके चेहरे पर संतोष झलक रहा था।
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