Prithviraj Chauhan, the great warrior of the earth books and stories free download online pdf in Hindi

धरती का महान योद्धा पृथ्वीराज चौहान


हमारे इतिहास में दिल्ली हमेशा से ही महत्वपूर्ण रही है। हर शासक यही राज करना चाहता था। मुग़ल शासन से पहले इस गद्दी पर बैठने वाले अंतिम हिन्दू सम्राट थे “पृथ्वीराज चौहान” और आज इसी महान योद्धा के बारे में कुछ ऐसी बाते जानने की कोशिश करेंगे जो शायद आप नहीं जानते।

आज हम जिस वीर अग्निपुरुष के जीवन के बारे में जानने जा रहे है उनका जन्म प्रसिद्ध चौहान वंश में, दिल्ली के अनंगपाल तोमर की कनिष्ठ कन्या कर्पूरदेवी के गर्भ से हुआ था। इनके पिता का नाम सोमेश्वर राज चौहान था। और अनुज का नाम हरिराज व छोटी बहन का नाम पृथा था।

पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर जी चौहान की राजधानी अजमेर नगरी थी जो कि उस समय अपने वैभव और कृति से सोमेश्वर राज चौहान की छत्रछाया में सुसज्जित थी। उस समय सोमेश्वर चौहान की वीरता की कहानी दूर-दूर तक फैली हुई थी उनकी गाथा को सुनकर दिल्ली के महाराज अनंगपाल ने सोमेश्वर राज चौहान को युद्ध के संकट की घड़ी में आने का आमंत्रण दिया, कन्नौज के राजा विजयपाल ने भी युद्ध में अनंगपाल का साथ दिया। तीनो ने एक साथ युद्ध लड़कर विजय हासिल की। इससे दिल्ली के महाराज अनंगपाल इतने खुश हुए कि अपनी छोटी पुत्री कर्पूरदेवी का विवाह अजमेर के महाराजा सोमेश्वर से तय कर दिया। विजयपाल, अनंगपाल की बड़ी बेटी के पति थे।

(पृथ्वीराज की माता कर्पूरदेवी चेदिदेश की राजकुमारी थी न कि दिल्ली की। भाटों और ख्यातों ने पृथ्वीराज को अनंगपाल का दौहित्र कहा गया है। हो सकता है कि चेदिदेश के कलचुरी राजा अचलराज तथा दिल्ली के तोमर राजा अनंगपाल के बीच कोई वैवाहिक सम्बन्ध हो जिसके आधार पर पृथ्वीराज दिल्ली के अनंगपाल के दौहित्र लगते हो।)

ये तीनो राज्य अब अपने वैभव के साथ फलने फूलने लगे थे। अब जब कभी अजमेर पर विपदा आती तो कन्नौज के राजा विजयपाल महाराज सोमेश्वर का साथ देते। एक बार यवन की सेना ने अजमेर पर हमला कर दिया और विजयपाल ने इस संकट के समय उनका साथ दिया लेकिन दुर्भाग्यवश इस युद्ध में महाराज विजयपाल की मृत्यु हो गई इसके फलस्वरूप उनके बेटे जयचंद को कन्नौज का राजा बनाया गया।

इतिहास में वर्णन मिलता है कि पुत्र के जन्म के पश्चात् पिता सोमेश्वर अपने पुत्र का भविष्यफल जानने के लिये राजपुरोहितो को निवेदन करते है। उसके पश्चात् बालक का भाग्यफल देख कर राजपुरोहितो ने ‘पृथ्वीराज’ नामकरण किया। पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में नामकरण का उल्लेख है—
पृथ्वी पवित्रतान्नेतुं राजशब्दं कृतार्थताम्।
चतुर्वर्णधमं नाम पृथ्वीराज इति व्यधात्।।३०।।

(पृथ्वी को पवित्र करने के लिए और ‘राज’ शब्द को सार्थक बनाने के लिए इस राजकुमार का नामकरण ‘पृथ्वीराज’ किया गया है।)

'पृथ्वीराज रासो' काव्य में भी नामकरण का वर्णन करते हुए चंदबरदाई लिखते है—
“यह लहै द्रव्य पर हरै भूमि। यह लहै द्रव्य पर हरै भूमि। सुख लहै अंग जब होई झूमि।।”
अर्थात– “पृथ्वीराज नामक बालक महाराजाओ के छत्र अपने बल से हर लेगा। सिंहासन की शोभा को बड़ायेगा अर्थात कलयुग में पृथ्वी पर सूर्य के समान देदीप्यमान होगा।”

पृथ्वीराज चौहान का जन्म इनके माता-पिता के विवाह के 12 वर्षो बाद हुआ था। पृथ्वीराज के जन्म से राज्य में राजनीतिक खलबली मच गई थी उन्हें बचपन में ही मारने के कई प्रयत्न किये गए पर वे हमेशा बचते चले गए।

आगे चलकर ये भारतेश्वर, राय पिथौरा, हिन्दू सम्राट, पृथ्वीराज तृतीय, सपादलक्षेश्वर इत्यादि नामो से प्रसिद्ध हुए।

चौहान वंश कब से स्थापित हुआ इसका कोई ठीक-ठीक प्रमाण तो नहीं मिलता है पर रासो के अनुसार चौहान वंश की उत्पत्ति एक यज्ञ कुंड से हुई जो की दानवो के विनाश के लिए हुई थी।

पृथ्वीराज एक प्रतिभाशाली बालक थे। ये बचपन से ही बहुत बहादूर और युद्ध कला में निपुण थे। न केवल तीर-कमान बल्कि भाला, तलवार और शब्द-भेदी बाण विद्या में भी निपुण हो गए थे। इन्होने बचपन से शब्द-भेदी बाण कला का अभ्यास किया था जिसमे आवाज के आधार पर ये सटीक निशाना लगाते थे।

इनके गुरु का नाम श्रीराम था जिन्होंने बचपन बचपन में ही इनके युद्ध कौशल और रणनीति देखकर ये भविष्यवाणी कर दी थी कि पृथ्वीराज का नाम भविष्य में स्वर्ण अक्षरों से लिखा जाएगा।

आरम्भ से ही पृथ्वीराज चौहान ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था।

पृथ्वीराज जब गुरुकुल में थे तब गुजरात के राजा भीमदेव ने अजमेर पर हमला कर दिया लेकिन उसे सोमेश्वर राज के हाथो मूह की खानी पड़ी। महाराज सोमेश्वर इस बार भी विजय रहे।

इनके बचपन के दोस्त थे–
निठुरराय, जैतसिंह परमार, कवि चंदबरदाई, दाहिम्मराय, संजमराय, अर्जुनराय, पंज्जुराय, सारंगराव, हरसिंह, सखुली इत्यादि के साथ पृथ्वी हमेशा शूरता के ही खेल खेला करते थे। उनमे से कुछ अमुक टीले को अमुक गड़ मानकर वे उनकी रक्षा करते और उनमे से कुछ उनको लूटते थे, अक्सर वे ऐसा ही खेल खेला करते थे इसके बाद वे शिकार खेलने जाते। कहा जाता है कि पृथ्वीराज ने अपनी बाल अवस्था में ही जंगल के एक शेर को बिना किसी हथियार के मार डाला था।

कुछ इसी प्रकार से पृथ्वीराज ‍का प्रशिक्षण हुआ था

पृथ्वीराज विजय में उल्लेख है कि, पृथ्वीराज चौहान छहों भाषा में निपुण थे। (वे भाषा इस प्रकार है: संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश भाषा।) छः भाषाओ के अतिरिक्त पृथ्वीराज ने मीमांसा, वेदांत, गणीत, पुराण, इतिहास, सैन्य विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र का भी ज्ञान प्राप्त किया था। वे संगीत कला और चित्रकला में भी प्रवीण थे। पृथ्वीराज अश्व नियंत्रण विद्या और गज नियंत्रण विद्या में विचक्षण थे।

पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर राज चौहान जैसे वीर थे वैसे ही वे राजनीति विसारत भी थे हालाकि उनका राज्य अजमेर तक था पर उन्होंने अपनी राज्य सीमा इतनी बडा ली थी कि उनकी सीमा गुजरात से जा मिली थी। गुजरात के राजा भीमदेव सोलंकी को उनका राज्य विस्तार अच्छा नही लगता था। इसलिये वो उनसे अंदर ही अंदर ईर्ष्या करता था जिसमे पृथ्वीराज की वीरता की कहानीयो ने उसमें घी का काम किया। पृथ्वी कभी-कभी शिकार खेलते-खेलते गुजरात की सीमा तक जा पहुचते थे। भीमदेव ने तो अपने जासूसों को उन्हें पकड़ कर मार डालने की आज्ञा भी दे रखी थी पर वे सदा ही उनसे बचते चले आये।

अब महाराज सोमेश्वर ने पृथ्वीराज को राजनीति की शिक्षा देने के लिए उन्हें युवराज का पद दे दिया।

पृथ्वीराज अपने राजमहल में ही राजनीति की शिक्षा लेने लगे। भीमदेव हार जाने के बावजूद सोमेश्वर और अजमेर नगरी पर अपना राज चाहता था इसके लिए उसने कई चाले भी चली उसने अजमेर की तरफ दोस्ती का हाथ बड़ाया पृथ्वी के मना करने पर सोमेश्वरजी ने उन्हें बताया कि ये राजनीति है आप अपने महाराज पर भरोसा रखे, अब भीमदेव राजमहल तक आ गया और पीछे से एक गुप्त भेदिया भी ले आया। उसके जाने के बाद वो भेदिया अजमेर का राजश्री मुहर चुरा कर ले गया, भीमदेव उस राजश्री मुहर का इस्तेमाल कर वहाँ का कर बड़ा कर वहाँ की प्रजा को अपने राजा के विरुद्ध करना चाहता था। पर जैसे ही पृथ्वीराज को ये बात पता चली उन्होंने अपने वीर राजपूत दोस्तों पुंडीर, संजमराय, चंदबरदाई, अर्जुन आदि के साथ गुजरात की ओर चल दिए और वहाँ अपनी वीरता और बुद्धिमानी का बखूबी प्रदर्शन कर राजश्री मुहर अजमेर वापस लाये।

उस समय भारत अपने सुख समृद्धि के शीर्ष पर था भारत की श्री वृद्धि और धन वैभव पर शुरुआत से विदेशियों की लुब्ध दृष्टि लगी रहती थी। वे व्यापारी, साधू, फकीर आदि के रूप में यहाँ आकर लोगो को धोखा और राज्य के गुप्त भेद को जानने का प्रयत्न करते रहते थे। इसी प्रकार एक रोशन अली नाम का यवन, फकीर वेष में प्रजा को छल-कपट से ठग कर रुपया कमाने के साथ ही राज्य सम्बन्धी गुप्त भेदों का भी पता लगा रहा था जब पृथ्वी को इस बात का पता चला तब उन्होंने अपने सामंत चामुंडराय को उसके पास भेज कर पहले तो समझा बुझा कर उसे भगाना चाहा, पर इस तरह जब उसने अपनी बेढंगी चाल नहीं छोड़ी तब पृथ्वीराज ने उसकी उगलियां कटवा कर देश से निकलवा दिया। वहाँ से रोशन अली ने जाकर अपने अरब के सरदार मीर को पृथ्वीराज के विरुद्ध उकसाया। पर उत्तेजित होने पर भी वो पृथ्वीराज पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं कर पाया परन्तु फिर बहुत उत्तेजित किये जाने पर वह सौदागर के वेष में घोड़ो को बेचने के बहाने अजमेर चला आया। उसके साथ और भी अरब सौदागर आये थे। पृथ्वीराज ने उनसे एक अच्छा सा घोड़ा देखकर खरीद लिया। कहते है उस घोडे का खरीदना बड़ा ही अशुभ हुआ। उसी दिन शहर में एक बड़ा भारी भूकम्प आया जिसके कारण तारागड़ का प्रसिद्ध दुर्ग भूमि में धस गया था। इस हलचल में मीर ने अपना मतलब सिद्ध करना चाहा और नगर में कुछ सैनिको के साथ लूटमार मचा दी परन्तु पृथ्वी और उनके वीर राजपूत दोस्तों ने उसका इस तरह से सामना किया कि वे अपना सब कुछ छोड़ कर अपने प्राण बचाकर वहाँ से भाग खड़े हुए।

एक बार गुजरात का राजा भीमदेव सोलंकी अजमेर की प्रजा का विश्वास अपने राजा से हटाने और इस बात का फायदा उठाकर अजमेर पर हमला करने की फिराक में था, इसके लिए उसने अजमेर के प्रसिद्ध कोटेश्वर मंदिर के सोने का शिवलिंग चुराने का प्रयत्न किया पर पृथ्वीराज ने अपनी वीरता से शिवलिंग को बचाया और उसके आदमियों को ऐसा जवाब दिया कि भीमदेव को मूहँ के बल गिरना पड़ा अब उसका गुस्सा साँतवे आसमान पर जा पँहुचा था।

पृथ्वीराज चौहान का बाल्य जीवन समाप्त होते-होते उनके इस तरह के कई बहादुरी के किस्से देश में दूर-दूर तक फैल गए और वो आमजन में बातचीत का मुख्य हिस्सा बन गए थे और इस तरह अपने युवराज काल में ही पृथ्वीराज ने अपनी अद्भुत प्रतिभा का परिचय दे दिया था।

पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल दिल्ली के अंतिम तोमर वंश के शासक थे। राजा अनंगपाल के समय की कुछ खास घटना की जानकारी नहीं मिलती है। उनके राज्य की स्थापना की भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी। आज जिस जगह दिल्ली बसी हुई है पहले यहाँ से दो मील दूर में दिल्ली बसी हुई थी जो सबसे पहले महाराज युधिष्ठिर ने दिल्ली बसाई थी और समय-समय पर इसका स्थान हर राजाओ द्वारा बदलता चला गया।

राजा अनंगपाल का कोई पुत्र नहीं था इसकी चिंता उन्हें दिन-रात रहती थी कि उनके बाद दिल्ली का उत्तराधिकार कौन संभालेगा। पृथ्वीराज बचपन से ही कभी अजमेर में रहते थे और कभी दिल्ली में, महाराज अनंगपाल पृथ्वीराज के गुणों, साहस और वीरता पर मोहित थे उनका कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्हें अपने राज्य के लिए एक योग्य राजा की जरूरत थी, उन्होंने मन ही मन पृथ्वी को ही दिल्ली का महाराज मान लिया था, क्योकि उन्हें मालूम था कि ये भविष्य में एक होनहार मनुष्य होगा। यही विचार कर उन्होंने अपनी पुत्री के समक्ष पृथ्वीराज को दिल्ली का सम्राट बनाने की बात कही। फिर उन्होंने अपने दामाद सोमेश्वर से भी इस बारे में विचार विमर्श किया। राजा सोमेश्वर और कर्पुरदेवी ने इसके लिए अपनी सहमती प्रदान कर दी।

जयचंद जो की अनंगपाल का बड़ा नाती था उसका दिल्ली पर पहला अधिकार था इस कारण दो राज्यों के बीच झगड़ा हो जाने का बहुत बड़ा खतरा था, इसलिए इस विषय पर विशेष विचार की आवश्यकता पड़ी। सभी सामंतो ने अपना यही मत दिया कि 'महाराज अनंगपाल के इस मत को ठुकराना नहीं चाहिए।' और इसे अपना कर्तव्य समझ कर पृथ्वीराज ने दिल्ली के सिंहासन को स्विकार कर लिया।
एक और अनंगपाल जहाँ बहुत खुश हुए वही दूसरी ओर जयचंद द्वेष की भावना में जलने लगा।

“जैसी होत होत्वयता, वैसी ऊपजे बुद्धि” के अनुसार न तो पृथ्वीराज और न ही उनके सामंतो ने इस बात पर गौर किया। इस कारण से पूरे भारतवर्ष में कितनी बड़ी विपदा आ जाएगी और अगर हम महाराज जयचंद की पृथ्वीराज से द्वेष भावना को भारत का अर्ध-पतन का एक भाग कहे तो ये गलत नहीं होगा।

दिल्ली सल्तनत पर हुकूमत करना सहज नहीं था। क्योकि मुस्लिम और देसी रियासतों का आक्रमण दिनोंदिन बड़ता ही जा रहा था। पृथ्वीराज चौहान के गद्दी पर बैठते ही उन्हें सबसे पहले अपने निकट संबंधी नागार्जून के विरोध का सामना करना पड़ा।

अनंगपाल का एक निकट सम्बंधित था विग्रहराज, विग्रहराज का पुत्र नागार्जून को पृथ्वीराज का दिल्ली अधिपति बनना बिलकुल अच्छा नहीं लगा उसकी इच्छा अनंगपाल की मृत्यु के बाद स्वयं गद्दी पर बैठने की थी परन्तु अनंगपाल ने अपने जीवित रहते ही पृथ्वीराज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया तो उसके ह्रदय में विद्रोह की लहरे मचलने लगी महाराज अनंगपाल की मृत्यु होते ही उसके विद्रोह का लावा फूट पड़ा। पृथ्वीराज को कम उम्र का समझ उसने विद्रोह कर दिया किन्तु नागार्जून का यह विचार सत्य से एकदम विपरीत था।

विद्रोही नागार्जून ने शीघ्र ही गुडपुरा (अजमेर) पर चड़ाई कर दी। गुडपुरा (अजमेर) के सैनिको ने जल्द ही नागार्जून के समक्ष अपने हथियार डाल दिए। अब नागार्जून का साहस दुगना हो गया।

दिल्ली और अजमेर के विद्रोहियों पर शिकंजा कसने के बाद सेनापति कैमाश ने गुडपुरा की ओर विशाल सेना लेकर प्रस्थान किया। नागार्जुन भी भयभीत हुए बिना अपनी सेना के साथ कैमाश से युद्ध करने के लिए मैदान में आ डटा। दोनों तरफ से सैनिक बड़ी वीरता से लड़े।

इतिहास के पन्नो पर नज़र डाले तो पृथ्वीराज अनगिनत युद्ध में अपनी वीरता का परचम लहरा चुके थे इतिहासकारो के अनुसार महज 11 साल की उम्र में पृथ्वीराज ने विद्रोही नागार्जून के छक्के छुड़ा दिए थे। उसे बुरी तरह पराजित ही नहीं किया बल्कि मौत के घाट उतार दिया।

अब पृथ्वीराज चौहान नीति तथा न्यायपूर्वक दिल्ली का राज्य शासन करने लगे। तोमर नरेश ने एक गढ़ के निर्माण का शुभारंभ किया था जिसे पृथ्वीराज ने सबसे पहले इसे विशाल रूप देकर पूरा किया वह इनके नाम पर पिथौरागढ़ कहलाया जो दिल्ली के पुराने किले के नाम से जीर्णावस्था में विद्यमान है।

पृथ्वीराज चौहान का दिल हमेशा ही अजमेर में रहा इसलिए उन्होंने दोनों नगरो को राजधानी का दर्जा दे दिया।

अब पृथ्वीराज साम्राज्य विस्तार और सैनिको को प्रशिक्षित करने में जूट गए और लगातार विजय अभियान चलाकर उन्होंने अपनी राज्य सीमाओ को गुजरात और पूर्वी पंजाब तक बड़ा लिया था जिस कारण कई राजा उनसे जलने लगे थे उनमे से एक थे *राजा जयचंद* जिनकी राजधानी कन्नौज थी और उनका राज्य दिल्ली के पूर्व में काफी दूर तक फैला था। राजा जयचंद पृथ्वीराज की प्रसिद्धि से जितना जलते थे। उनकी पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से उतनी ही प्रभावित थी और पृथ्वीराज भी संयोगिता की सुन्दरता के कायल थे और मन ही मन उनसे प्रेम करने लगे थे जब ये बात राजा जयचंद को पता लगी कि उनकी बेटी पृथ्वीराज से प्रेम करती है तो वे गुस्से से आग बबूला हो गए। वो और तो कुछ नहीं कर सकते थे इसलिए उन्होंने संयोगिता का विवाह करने का फैसला कर लिया और उन्होंने पृथ्वीराज को अपमानित करने के लिए एक योजना बनाई उन्होंने संयोगिता के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया जिसमे वो अपनी पसंद का वर चुन सकती थी इस फैसले से संयोगिता भी बहुत प्रसन्न थी किन्तु वे अपने पिता जयचंद की चाल से अनजान थी। जयचंद ने देश के सभी छोटे-बड़े राजाओ को आमंत्रण भेजा लेकिन पृथ्वीराज को नहीं बुलाया। उसका इससे भी पेट नहीं भरा इसलिए उसने पृथ्वीराज की एक मूर्ति बनवाई और उसे द्वारपाल बनाकर विवाह मण्डल के प्रवेश द्वार पर रख दिया ताकि अन्य राजा उनका उपहास उड़ा सके। जब समय हुआ तब संयोगिता जयमाला लेकर आई और बिना किसी राजा के गले में डाले उसने वो जयमाल पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में डाल दी यह देख कर जयचंद और बाकि राजा सन्न रह गए पर अभी कहानी ख़त्म नहीं हुई थी अगले ही पल मूर्ति के पीछे से पृथ्वीराज निकले और उन्होंने संयोगिता का हाथ थामा और उन्हें अपने घोड़े पर बैठाकर ले उड़े जब तक जयचंद और अन्य राजा कुछ कर पाते तब तक वे बहुत दूर निकल चुके थे और शीघ्र ही अपने सैनिको के साथ वो दिल्ली पँहुच गये और विवाह कर लिया।

इस बिच अफगानिस्तान का शासक मुहम्मद शाहबुद्दीन गौरी भारत की तरफ बड़ रहा था और उसने पश्चिमी पंजाब में राज कर रहे महमूद गजनवी के वंशजो को हराकर वहाँ कब्ज़ा कर लिया था और अपनी सेना लेकर भटिंडा तक आ पहुँचा पर यहाँ से तो पृथ्वीराज की सीमा आरम्भ होती थी और पृथ्वी को हराना इतना आसान नहीं था मगर अपनी जीत के घमंड में गौरी ने भटिंडा के किले पर आक्रमण कर दिया और उस पर कब्ज़ा कर लिया यह समाचार जैसे ही पृथ्वीराज को मिला वो भटिंडा के लिए निकल पड़े और गौरी से जा भिड़े गौरी की विशाल सेना को पिछली जीत का नशा था वही पृथ्वीराज की सेना देशभक्ति से ओतप्रोत थी पृथ्वीराज स्वयं ही अपने सैनिको को उत्तेजित कर रहे थे पृथ्वीराज ने गौरी के कई सैनिको को अकेले ही मार डाला यह देख उनकी सेना में उत्साह भर गया था उन्होंने गौरी की सेना पर तीन तरफा हमला किया इतने कठिन मुकाबले की गौरी को उम्मीद न थी युद्ध में गौरी अधमरा हो गया और उसके सैनिक उसे लेकर भाग खड़े हुए इस युद्ध में पृथ्वीराज ने लगभग सात करोड़ की संपदा अर्जित की जिसे उन्होंने अपने सैनिको में बाँट दिया।

इस बात को लेकर इतिहास में सही-सही उल्लेख नहीं है कि पृथ्वीराज चौहान और गौरी के बिच कितने युद्ध हुए कुछ इतिहासकार कहते है कि पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को अट्ठारह युद्धों में से सत्रह बार हराया और सह्रदयता का परिचय देते हुए मोहम्मद गौरी को हर बार जीवित छोड़ दिया। पृथ्वीराज रासो भी यही कहता है जबकि कुछ का मानना है कि दोनों के बिच महज दो युद्ध हुए पहले युद्ध में जीत चौहान की हुई और दुसरे में गौरी की। बहरहाल ये तो स्पष्ट है कि पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को हराने के बाद भी उसे जीवित वापस जाने दिया था।

अपनी पुत्री संयोगिता के अपहरण के बाद जयचंद के मन में पृथ्वीराज के लिए कटुता और बड़ती चली गई और उसने पृथ्वीराज को अपना दुश्मन बना लिया। जब उसे महमूद गौरी और पृथ्वीराज के युद्ध के बारे में पता चला तो वह गौरी से जा मिला और दोनों ने मिलकर फिर पृथ्वीराज को युद्ध के लिए ललकारा इस बार गौरी के पास एक लाख बीस हजार सैनिको की विशाल सेना थी। पृथ्वीराज ने पिछली हार की याद दिलाते हुए गौरी को वापस जाने के लिए कहा इस पर चालबाज गौरी ने अपनी सेना थोड़ी पीछे हटा ली ताकि वो छल कपट की नीति अपना सके। अपनी सेना लेकर लौटने की बजाय उसने अंदर ही अंदर अपनी तैयारी जारी रखी। पृथ्वीराज को लगा कि वो उनकी बात मान गया है। वो उसकी चाल समझ न सके और सामान्य रूप से अपना पड़ाव डाले रहे। फिर एक दिन बिलकुल सुबह जब सैनिक पूजा-पाठ में लगे थे तब गौरी ने अचानक हमला कर दिया और कत्लेआम मचा दिया और धोखे से पृथ्वीराज को चारो तरफ से घेरकर पृथ्वीराज और उनके प्रिय मित्र चंदबरदाई को बंदी बना लिया।

धोखे की काट न वीरता से हो सकती है और न साहस से आख़िरकार पृथ्वीराज जैसा वीर योद्धा धोखे का शिकार हो गया।

बंदी बने हुए पृथ्वीराज को जब गौरी के दरबार में पेश किया गया तब पृथ्वीराज की आँखो का तेज देखकर गौरी घबरा गया और उसने पृथ्वीराज को नज़र झुकाने को कहा मगर पृथ्वीराज नहीं माने और कहा— “सच्चे राजपूत की नजर सिर्फ मृत्यु ही झुका सकती है और कोई नहीं।”
इस पर गौरी बोखला गया और उसने पृथ्वीराज की आँखे निकालने का आदेश दे दिया पर पृथ्वीराज की आँखे अपने सामने झुका न सका और आखिरकार उन्हें अँधा कर कारागार में डाल दिया गया। पृथ्वीराज के राजकवि और उनके प्रिय मित्र चंदबरदाई से पृथ्वीराज की ये दुर्दशा सहन नहीं हुई उन्होंने गौरी के दरबार में हाज़िर होकर कहा कि पृथ्वीराज बिना देखे ही अचूक निशाना लगा सकते है गौरी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ उसने इस सच्चाई को परखने के लिए पृथ्वीराज को दरबार में बुलाया। एक धनुष और एक बाण पृथ्वीराज के हाथ में थमा दिया और उनसे कहा गया कि वो अपने धनुष का कमाल दिखाए। पृथ्वीराज ने कहा कि मै एक राजा हूँ मै किसी अन्य का आदेश नहीं मानूँगा मै तो तभी बाण चलाऊँगा जब स्वयं सुल्तान मुझे आदेश देंगे। गौरी ने उन्हें बाण चलाने का आदेश दिया गौरी की आवाज सुनकर पृथ्वीराज को गौरी की दिशा का अंदाजा लग गया तभी चंदबरदाई ने एक दोहा पड़ा—
“चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण ता ऊपर सुल्तान है मत चुके चौहान।” इस दोहे में गौरी की दूरी बताई गई थी गौरी की स्थिति का पूरा पता मिलते ही पृथ्वीराज ने शब्द-भेदी बाण चला दिया जो सीधा जाकर गौरी के गले में लगा और गौरी वही चल बसा।

इसके पश्चात् मलेच्छो के हाथो अपनी मृत्यु से बचने के लिए चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने एक दुसरे को छूरा मारकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।

कहते है चंदबरदाई और पृथ्वीराज का जन्म भी एक साथ हुआ था और मरण भी एक साथ हुआ। ये हमारे इतिहास का सबसे बड़ा इत्तफाक है।

इस खबर को सुनते ही संयोगिता ने भी अपने प्राण त्याग दिए और इस तरह एक महान योद्धा इतिहास के पन्नो में अपनी न मिटने वाली छाप छोड़कर चला गया।


एक एव सुह्रद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।
शरीरेण समं नाशं सर्वम् अन्यद्धि गच्छति॥१७ —मनुस्मृति:

अर्थात: “धर्म ही एक एसा मित्र है, जो मरणोत्तर भी साथ चलता है। अन्य सभी वस्तुए शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती है।”
इतिहासविद् डॉ. बिन्ध्यनाथ चौहान के मत अनुसार पृथ्वीराज चौहान ने उक्त श्लोक का अंतिम समय पर्यन्त आचरण किया।


उपसंहार:
पृथ्वीराज के साथ ही भारत की स्वतंत्रता का सूरज हमेशा के लिए अस्त हो गया।

भारत के भाग्य में शुरू से ही फूट रही है इस फूट के कारण कितने ही घर बर्बाद हो गए और हो रहे है, इस फूट की आग में पृथ्वीराज भी नहीं बच पाए। पृथ्वीराज के अर्ध-पतन का एक अन्य कारण था कि पृथ्वीराज जितने वीर थे उतने ही अंदर से ह्रदय के कमजोर थे दया-भाव उनमे कूट-कूट कर भरे हुए थे। पृथ्वीराज मुहम्मद गौरी के मगरमच्छ के आँसू को समझ नहीं पाए और बार-बार उसे माफ करते चले गये।

पृथ्वीराज का अंत हुआ और इसके साथ ही हिन्दू साम्राज्य का भी अंत हुआ।

जयचंद. जयचंद यह समझता था कि पृथ्वीराज को मारने के बाद मुहम्मद गौरी दिल्ली का राज्य उसे ईनाम स्वरुप दे देगा लेकिन युद्ध ख़त्म होते ही गौरी ने जयचंद्र को भी मौत के घाट उतार दिया।

इस युद्ध से पहले पृथ्वीराज ने कन्नौज और पाटन के राजाओ से मदद माँगी थी लेकिन उन राजाओ ने उस युद्ध में पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया जो बाद में उन सब के मिटने का कारण बना। क्योकि पृथ्वीराज को हटाने के बाद गौरी ने उन राजाओ से भी युद्ध करके उनका राज्य कब्ज़ा लिया और पहली बार हिंदुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की शुरुआत हुई।

अन्य कई मुसलमान सेना द्वारा दिल्ली लूटी जाने लगी। नगर निवासी के क़त्ल किये जाने लगे और कितने ही बेड़ियों में बाँध दिए गए दिल्ली नगरी को श्मशान घाट बना दिया गया।

इसके बाद अन्य अनेक मुसलमान शासको का भारत आने का मार्ग खुल गया। क्योकि अब उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। अजमेर, दिल्ली और कन्नौज को लूटने के बाद मुसलमानों ने बनारस को लूटा और इस तरह भारत के कितने ही प्रदेश मुसलमानों के अधीन हो गये।

हमारी ही कमजोरी ने उन्हें यहाँ आने का आमंत्रण दिया। जो भी हो पर ये बात तो तय है कि जब तक हमारे देश में पृथ्वीराज चौहान और उनके दोस्तो जैसे वीर हिंदुस्तान की धरती पर मौजूद थे मुसलमान इधर आँख उठा कर देख भी नहीं पाये। एक अकेले पृथ्वीराज ही भारत पर मुसलमान साम्राज्य स्थापित होने के प्रधान बाधक थे उनकी ही वीरता, धीरता, युद्धनीति के कारण इतने समय तक भारत में यवन का शासन स्थापित नहीं हो पाया था चूँकि उनकी मृत्यु होते ही क्रमशः सारे राजाओ का अस्तित्व ख़त्म होने लगा। और हमारा हिंदुस्तान परतंत्रता की जंजीर में लगभग 800 सालो तक बंध गया।


दोस्तों, हमारे देश के इतिहास को वामपंथियों और अंग्रेजो ने बहुत तोड़-मरोड़कर और कमजोर करके दर्शाया है जिससे हमारे देश का बिलकुल सटीक इतिहास मिल पाना बहुत मुश्किल है। अंग्रेजो ने पृथ्वीराज की मौत के बारे में लिखा है कि उनकी मौत तेरायन के दुसरे युद्ध में ही हो गई थी जिसे बहुत बाद में भारत के प्रति सम्मान रखने वाली मुसलमान लेखिका ने गलत साबित करते हुए पृथ्वीराज और चंदबरदाई की कब्र को गजनी में दिखाते हुए चंदबरदाई के लिखे पृथ्वीराज रासो को ही सत्य बताया है।