Hanuman Prasad Poddar ji - 24 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 24

कल्याण कल्पतरू का प्रवर्तन

भाईजी बहुत दिनों से इस आवश्यकता का अनुभव कर रहे थे कि 'कल्याण' की तरह ही एक मासिक-पत्र अंग्रेजी भाषामें भी निकाला जाय, जिससे अंग्रेजी-भाषा-भाषी जनता एवं विदेशोंमें रहने वाले लोगों को 'कल्याण' का संदेश सुगमतासे प्राप्त हो सके। इस गुरुतर कार्य को सँभालने के लिये भाव वाले विद्वान् व्यक्ति की आवश्यकता थी। श्रीचिम्मनलाल जी गोस्वामीके आने से उस कमीकी पूर्ति हो गयी और अंग्रेजीमें 'कल्याण- कल्पतरु' निकालने का निर्णय ले लिया गया। इसका प्रकाशन सं० 1991 (जनवरी सन् 1933 ) से शुभारम्भ हुआ। भाईजी इसके कंट्रोलिंग एडीटर रहे और सम्पादक श्रीगोस्वामी जी कुछ समय तक इसके संयुक्त सम्पादक श्रीकृष्णदास बंगाली रहे जो श्रीसतीशचन्द्र बनर्जी के शिष्य थे। विदेशोंमें इस पत्र की अच्छी माँग रही और लोग इससे बहुत लाभान्वित हुए। इसके माध्यमसे श्रीमद्भागवत श्रीमद्भगवद्गीता, वाल्मीकि रामायण, रामचरितमानस आदि ग्रन्थों का प्रामाणिक अनुवाद अंग्रेजी भाषामें प्रस्तुत किया गया। अनेक कठिनाइयों के कारण 'कल्याण-कल्पतरु' के प्रकाशन को कुछ मासके लिये स्थगित करने के अवसर दो-तीन बार आये, किन्तु भगवान्‌ की कृपासे कठिनाइयाँ दूर हो गयीं एवं प्रकाशन चलता रहा। परन्तु श्रीगोस्वामीजी के जाने के बाद यह बन्द हो गया।

श्रीशुकदेवजी की विचित्र ढंग से प्राणरक्षा:
आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भंजन पन मोरा ।।
गीताप्रेस की नीव के एक पत्थर श्रीशुकदेव जी अग्रवाल थे जिन्होंने जीवन भर गीताप्रेस की सेवा की पूज्य श्रीसेठजी एवं भाईजीमें उनकी अद्भुत निष्ठा एवं श्रद्धा थी। यह घटना सं० 1991 (सन् 1934 ई०) ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की है। श्रीशुकदेवजी स्वर्गाश्रमसे गोरखपुर आ रहे थे। उनके साथमे भाईजी की माँ जी-पत्नी आदि थी। भाईजी उस समय गोरखपुरमें थे। श्रीशुकदेवजी के मनमें अत्यन्त उत्कण्ठा थी कि किसी प्रकार भाईजी के जल्दी दर्शन हो जायँ, उनसे मिल लूँ। खलीलाबाद स्टेशन आने से पहले ही वे मानसिक संध्या एवं ध्यान करके निवृत्त हो गये थे। अभी तो खलीलाबाद स्टेशन भी दूर था। गाड़ी चल रही थी। उन्हें अपनी उत्कण्ठावश ऐसा मालूम कि गोरखपुर स्टेशन आ गया है। उन्होंने डब्बे का दरवाजा खोला और गाड़ी से उतरने लगे। दरवाजे के पास लगा हुआ लोहे का हैंडल उनके हाथमें था और वे चलती गाड़ीमें डब्बे के बाहर लटकने लगे। गाड़ी चल रही थी। कुछ देर तो वे अचेत रहे परंतु बादमें उन्हें होश आया और सोचा अब मैं मृत्युके निकट हूँ। इतनेमें ही उन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि सशरीर भाईजी उन्हें थामें हुए हैं और खलीलाबाद स्टेशन आते ही उन्हें हाथ पकड़कर उतार रहे हैं और स्टेशनपर खड़ा कर रहे हैं। उसके बाद भाईजी दिखने बन्द हो गये। खलीलाबाद स्टेशन से गोरखपुर लगभग बीस मील दूर है। भाईजी गोरखपुर स्टेशनपर थे। परंतु भाईजी ने श्रीशुकदेवजी की रक्षा की। गोरखपुर पहुँचने पर उन्होंने भाईजी को यह घटना सुनायी। परंतु भाईजी ने इसकी अनभिज्ञता प्रकट की।

श्रीशान्तनुबिहारीजी द्विवेदी (स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी ) का गोरखपुरमें आगमन
'कल्याण' में प्रकाशित लेखों से प्रभावित होकर श्रीशान्तनुबिहारी द्विवेदी ज्येष्ठ सं० 1991 (जून 1934) में पहली बार गोरखपुर आये। 'कल्याण' के तीसरे वर्ष के विशेषांक 'भक्तांक' को पढ़कर इनकी भाईजी से मिलनेकी इच्छा हुई। मिलनेकी उत्कंठा इतनी तीव्र हुई कि रुपये-पैसे का ख्याल न करके खाली हाथ जैसे थे, वैसे ही चल पड़े। दोहरीघाट स्टेशन तक रेल से आये और वहाँ से गोरखपुर करीब चालीस मील पैदल चलकर। भाईजी से मिलनेपर इन्होंने पहला प्रश्न किया– भगवान्में प्रेम कैसे हो ? उत्तरमें श्रीभाईजी के नेत्रों से अश्रु टपकने लगे एवं उन्हें गले लगाकर बोले– 'उमा राम सुभाउ जेंहि जाना, ताहि भजन तजि भाव न आना।'

भाईजी के स्नेह ने इन्हें आकर्षित कर लिया। एक बार तो तीन-चार दिन रहकर चले गये। दूसरी बार संकीर्तन के समय आषाढ़ शुक्ल ११ सं० 1993 (30 जून 1936) को गोरखपुर आये। भाईजीके निकट रहनेकी प्रबल इच्छा होनेसे ये गोरखपुरमें सम्पादकीय विभागमें कार्य करने लगे, साथ ही साधन-भजनमें विशेष रुचि लेने लगे। सम्पादन कार्य और श्रीभागवत के हिन्दी अनुवादके कार्यमें इनका अच्छा सहयोग रहा। भाईजीमें विशेष श्रद्धा रखते थे। कालान्तरमें इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया एवं स्वामी अखण्डानन्दजी के नामसे विख्यात हुए।

शरद पूर्णिमाको बेहोश अवस्थामें मंत्र दान
श्रीभाईजीकी लगातार यह चेष्टा रही कि मेरे पास रहनेवालों की भी आध्यात्मिक उन्नति हो। इसके लिये वे समय-समयपर विशेष साधन-अनुष्ठान आदि का आयोजन करते रहते थे। आश्विन सं० 1990 (सन् 1934) में निकटस्थ प्रेमीजनों की अतिउत्कण्ठा देखकर भाईजी ने बहुत कड़े नियम बनाकर रात्रि के समय कीर्तन-मंडल बनाकर संकीर्तन का आयोजन किया। यह आयोजन पूरे समय साधकों के बहुत ही उत्साह के कारण बड़े अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ जिसमें कुछ लोगों को विशेष अनुभूतियाँ भी हुई।

अगले वर्ष आश्विन सं० 1991 (सन् 1935) में भाईजी ने पुनः रात्रिमें संकीर्तन का आयोजन किया। संकीर्तनके मध्य ही भाईजी पुनः कुछ ऐसे शब्द बोल देते जिससे सबका उत्साह बढ़ जाता। पूरे आश्विन मास पद-संकीर्तन चलते रहे। शरद पूर्णिमाको रात्रि के समय सबके मनमें बड़ा उत्साह था। पद-संकीर्तन के बाद भाईजी ने रासपंचाध्यायी के अनुसार मधुर वर्णन करना प्रारम्भ किया। श्रीभगवान् के वंशी-वादन को सुनकर गोपियों के अपने-अपने घरों से प्रस्थान का वर्णन बड़े ही सुमधुर ढंग से करते-करते भाईजी गद्गद हो गये और बोलना बंद करके संकीर्तन प्रारम्भ किया। थोड़ी देर बाद पुनः प्रकृतिस्थ होकर भाईजी बोलने लगे – श्रीभगवान्ने स्त्रियों के धर्म बताये, लौटने को कहा, गोपियाँ निराश होने लगी, परीक्षा के बाद रासनृत्य का वर्णन करते-करते भाईजी पुनः गद्गद हो गये। फिर संकीर्तन प्रारम्भ हुआ। थोड़ी देर बाद भाईजी कठिनता से कहने लगे– श्रीभगवान् अन्तर्धान हो गये तब गोपियाँ बड़ी कातर प्रार्थना करने लगी। फिर भगवान् प्रकट हुए ऐसा कहते-कहते भाईजी मौन हो गये। भाईजी और सभी लोग खड़े होकर नृत्य करते हुए संकीर्तन करने लगे। भाईजी बड़ा ही भावपूर्ण नृत्य कर रहे थे पर नृत्य करते-करते ही बेहोश होकर गिर पड़े। बहुत देर बाद संकीर्तन बन्द हुआ। सब लोग बैठ गये। भाईजी के सामने रामजीदास जी बाजोरिया बैठे थे, उन्होंने कहा—हम लोगों को भी दर्शन होने चाहिये। भाईजी ने कोई उत्तर नहीं दिया क्योंकि वे अभी तक इस राज्यमें आये ही नहीं थे। उन्होंने कई बार कहा तब भाईजी बोले– सब लोग चले गये। उन्होंने फिर पूछा कौन-कौन चले गये। भाईजी बोले–सब लोग चले गये। केवल हम लोग ही रह गये हैं। पुनः पूछा हम लोग कौन कौन ? भाईजी बोले– केवल दो थे एक श्रीविशाखाजी और एक मैं। रामजीदासजी कुछ समझे नहीं तो फिर पूछा दो कौन कौन थे ? भाईजी खूब अट्टहासपूर्वक हँसने लगे। थोड़ी देर बाद रामजीदास जी ने पुनः दर्शन कराने की प्रार्थना की। तब भाईजी बोले– कौन चाहता है दर्शन करना ? कोई तो यहाँ तमाशा देख रहे हैं, कोई ढोंग या पाखण्ड करते है। श्रीराधाकृष्ण पर विश्वास करो। यदि दर्शन चाहते हो तो ॐ क्लीं श्रीराधा कृष्णाभ्याम् नमः इस मन्त्र का ब्रह्मचर्यपूर्वक एक वर्ष तक प्रतिदिन तीन हजार जप करो। मोहनलालजी ने पूछा– ललिताजी नहीं थी क्या ? इसपर भाईजीने बड़े जोरसे पूछा– कौन है ? इसके थोड़ी देर बाद भाईजी होशमें आ गये। तब उन्होंने लोगोंसे पूछा कि क्या हुआ ? किसीने मन्त्रके सम्बन्धमें पूछ लिया। तब भाईजी बोले कैसा मन्त्र ? मुझे कुछ भी नहीं मालूम। मैं क्या कह गया ? फिर सब लोग खीर का प्रसाद पाने लगे। थोड़ी देर बाद भाईजी ने बजरंगलाल जी बजाज से प्रेमसे आग्रह करके पूछा कि मैं तो बहुत सीधे ढंगसे पूछ रहा हूँ कि जबसे मैंने संकीर्तनमें पहले बोलना बन्द किया तबसे अबतक क्या हुआ, मुझे कुछ भी मालूम नहीं। मेरे द्वारा कोई प्रमाद तो नहीं हो गया। बीचमें किसने प्रश्न किया, मैंने क्या उत्तर दिया मुझे कुछ भी पता नहीं।

इसके पश्चात् तो भाईजी बहुत ही सावधान हो गये। न तो भावपूर्वक आगे-आगे बोलकर संकीर्तन कराया न ऐसी बातें कही जिससे भावोद्दीपन हो जाय।

कुछ दिनों बाद मार्गशीर्ष कृष्णपक्षमें भाईजी चूरू ऋषिकुल उत्सवमें सम्मिलित होने गये। वहाँसे कुछ लोगों के साथ बीकानेर गये। वहाँ श्रीगम्भीर चन्दजी दुजारी के घरपर भोजन करके वहीं प्रेमीजनोंके साथ एकान्तमें बातें करने लगे। उस समय श्रीभाईजीके अतिरिक्त श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी, श्रीशुकदेवजी, पं० गोवर्धनजी, श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारी आदि थे। श्रीदुजारीजीने कहा आज बहुत दिनों बाद ऐसा सुअवसर मिला है। इसलिये शरद पूर्णिमाकी तरह मधुर-प्रेमकी बातें कृपापूर्वक बताइये।

श्रीभाईजीने कहा- मुझे तो उस दिन की बातें कुछ भी याद नहीं हैं। श्रीगोस्वामीजी बोले- आप तो उस दिन बाह्य ज्ञान शून्य हो गये थे इसलिये आपको वे बातें कैसे याद रहेंगी। पर हम लोगोंको अनुभव कराइये। श्रीभाईजीने कहा- देखिये आप लोग सब अपने ही हैं इसलिये मैं अपनी स्थिति स्पष्ट करता हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि आप लोगों से मुझे अधिक वस्तु प्राप्त है। किन्तु जो वस्तु मुझे प्राप्त है वह मैं किसी दूसरे को प्राप्त नहीं करा सकता क्योंकि वैसी मेरी शक्ति नहीं है। यह मेरी इच्छा रहती है कि मेरे साथियों को भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाय। किन्तु मैं किसी को प्रेम प्राप्त करा दूँ ऐसी मुझमें योग्यता नहीं है। एक व्यक्ति के लिये मैंने चेष्टा की थी किन्तु उसका फल नहीं मिला क्योंकि उनके द्वारा इसी जन्ममें कुछ उग्र पाप बन गया था, उस प्रतिबन्धक के कारण लाभ नहीं हुआ।

स्वप्नमें भाईजी द्वारा लिखित पुस्तक प्राप्ति
नागपुरके पास किसी गाँवमें एक सज्जन, श्रीदेशपाण्डेजी को रातमें स्वप्नमें एक महात्माके दर्शन हुए, जिनकी आकृति श्रीशिवजी जैसी थी। उन्होंने स्वप्नमें ही श्रीदेशपाण्डे को भाईजी द्वारा लिखित पुस्तक साधन-पथ दी। जागनेपर वह पुस्तक उन्हें बिछावनपर मिली तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। इस घटना का विवरण देकर उन्होंने भाईजी को पत्र लिखा उस पत्रको भाईजी ने नष्ट कर दिया। भाईजी ने जो उत्तर भेजा वह नीचे दिया जा रहा है–

श्रीहरिः
गोरखपुर, बैसाख कृष्ण 8. स० 1992
श्रीदेशपाण्डेजी
सप्रेम हरिस्मरण।

आपका पत्र मिला। आपके पत्रमें लिखी बात यदि सत्य है तो बड़े ही आश्चर्य की बात है। इससे मैं आपके लेख की सत्यतामें संदेह करता हूँ ऐसा नहीं समझना चाहिये। मैं इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मुझे इस सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं है। आपका यह पत्र मिलनेसे पूर्व मैं इस सम्बन्धमें कुछ नहीं जानता था। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मुझमें कोई भी सिद्धि नहीं है। 'साधन-पथ' नामक पुस्तक स्वप्नमें आपको किसी महात्माने दी और जागनेपर वह आपके बिछावनपर मिली यह आपकी ही श्रद्धा का फल होगा। वे महात्मा कौन थे, मैं कुछ भी नहीं जानता। इसमें क्या रहस्य है, मुझे कुछ भी पता नहीं है। आप कृपया अवश्य लिखिये कि उन महात्माने (आपको और कुछ कहा या नहीं, कहा तो क्या कहा ? आपने जो उनकी आकृति लिखी, वह तो भगवान् शिवकी-सी मालूम होती है। आप भाग्यवान् हैं, जो स्वप्नमें महात्माने आपको दर्शन दिया।

'साधन-पथ' में जो कुछ लिखा गया है, सो सब शास्त्रों के आधारपर ही लिखा गया है। मेरा उसमें क्या है ? देखता हूँ तो मुझेमें वे बातें सब नहीं मिलती। अतएव मैं आपको क्या उपदेश दूँ ? उपदेश देनेका तो मेरा अधिकार भी नहीं है। 'साधन-पथ' पढ़नेसे आपको शान्ति मिलती है, इसको आप महात्माका प्रसाद समझिये, मेरा कुछ भी न समझिये। आप साधन करके भगवान्‌को प्राप्त करना चाहते हैं, यह बड़े आनन्द की बात है।
आपका
हनुमानप्रसाद पोद्दार



अंग्रेज भक्त को दर्शन
"कल्याण" एवं "कल्याण- कल्पतरू" के द्वारा कितने
विदेश वासियों को अध्यात्मका मार्गदर्शन मिला इसकी गणना करना सम्भव नहीं है। इसकी एक झलक अंग्रेज कृष्णभक्त श्रीराधाकृष्ण-प्रेम-भिखारी (रोनाल्ड निक्सन) के निम्नलिखित पत्र एवं उत्तर से मिल सकेगी–

श्रद्धेय सम्पादकजी,
17-01-35

करीब 11 वर्ष का "हृषिकेश" नामका साँवरे रंग का परम सुन्दर बालक आज लगभग 12 बजे दोपहर को आया। उस समय यह श्रीराधाकृष्ण-प्रेम-भिखारी पौष मासके कल्याण भाग 9 संख्या 6 को बड़े ध्यान और प्रेमसे पढ़ रहा था। बड़ी नम्रतापूर्वक उस बालकने इस भिखारी से एक छोटी ताबीज साइज की गीता माँगी और कहा कि गीता अध्याय 9 के 22 वें श्लोक को पढ़ा दीजिये एवं समझा दीजिये। ज्यों ही यह भिखारी 'अनन्याश्चिन्तयन्तो माम्' पढ़ने लगा, त्यों ही वह कहने लगा कि "गीता भगवान् का एक स्वरूप है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं।" इस भिखारी ने हृषिकेश से पूछा– "भाई, तुम कहाँ रहते हो और क्या करते हो ?" उसने प्रेम तथा आनन्दाश्रुओं सहित बड़ी नम्रता से उत्तर दिया, मैं तो "कल्याण" में रहकर "कल्याण" द्वारा सब प्राणियोंकी चिन्ता किया करता हूँ। भक्त ही मेरे चिन्तामणि हैं। भगवान्, भक्त और भागवत – तीनों एक ही हैं।" तब इस भिखारी ने उनसे पूछा, "भाई, तुम्हारा घर कहाँ है ?" उन्होंने धीमी स्वरमाधुरीमें कहा, "मेरा निवास स्थान वृन्दावन, सेवाकुंजमें है। वहाँ के श्रीराधाकृष्ण मेरे इष्टदेव हैं।" इतना सुनकर उन्हें कुछ जलपान कराने की मेरी इच्छा हुई। तुरन्त यह भिखारी अन्तरंग - विभागमें जलपान लाने के लिये गया। लौटकर देखा– हृषिकेश कहीं चले गये हैं। अनुमानतः 5 मिनटका समय लगा होगा। इस भिखारी ने बहुत चेष्टा की और स्वयं 4 मील तक दौड़ा गया, परन्तु उनका कहीं कुछ पता नहीं चला।

जब इस भिखारी से हृषिकेश का साक्षात्कार हुआ, तब उस स्थानपर संयोगवश कोई नहीं था। बस इतना आप कृपया सूचित कर दें कि "हृषिकेश" नामक कोई बालक आपके कार्यालय में कार्य करता है क्या, वह सेवाकुंज, वृन्दावनमें रहता है ? इस कृपाके लिये यह भिखारी आपका अत्यन्त कृतज्ञ होगा।
आपका विनीत
शरणागत राधाकृष्ण प्रेम-भिखारी


भाईजी द्वारा श्रीराधाकृष्ण-प्रेम-भिखारी को लिखा गया उत्तर –

गोरखपुर दिनांक 20-1-35
सम्मान्य श्रीराधाकृष्ण-प्रेमभिखारीजी,
सादर हरिस्मरण। आपका तारीख 17-1-35 का पत्र मिला। 'कल्याण' में हृषिकेश नामक कोई परम सुन्दर बालक नहीं रहता। सेवाकुंज बिहारी श्रीश्यामसुन्दर सर्वत्र रहते ही हैं। इसलिये "कल्याण"–कार्यालयमें भी जरूर रहते हैं। "कल्याण" में विशेषरूप से रहते हों तो वे जानें। हमलोगों को तो कभी उन्होंने ब्राह्मण-बालक के रूपमें दर्शन दिया नहीं। सचमुच वे हृषिकेश आपको प्रेम-भिक्षा देने के लिये यदि आपके समीप पधारे हों तो आप बड़े भाग्यवान् हैं। आपने यह भूल अवश्य की, जो उनको पकड़ नहीं लिया और अपने साथ ही जलपान कराने नहीं ले गये। उन्होंने आपको "हृषिकेश" नाम कब और कैसे बतलाया, लिखने की कृपा कीजियेगा।
आपका
हनुमानप्रसाद पोद्दार


स्वप्नमें श्रीभाईजी से उपदेश लेने का आदेश

ता० 6-5-1935
श्रीयुत् सम्पादकजी को कृष्णकुमारी का "ॐ नमो कृष्णाय" ज्ञात हो। मुझे ता० 2-5- 1935 को एक स्वप्न हुआ। मैंने स्वप्नमें देखा – भगवान् वृन्दावनविहारी आज्ञा दे रहे हैं कि मुझे पाने के लिये और मुझमें प्रेम होने के लिये हनुमानप्रसाद से उपदेश लो।

"जात पाँत पूछे नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।" बस इतना ही मैंने सुना कि मेरी आँखें खुल गयी। रात के करीब दो बजे थे। मैंने सोचा–"हनुमानप्रसाद" किसका नाम है ? यहाँपर तो मैंने किसी का नाम "हनुमानप्रसाद" नहीं सुना। यही सोचते सोचते निद्रा आ गयी और पुनः मुझे सुनायी पड़ा कि तुझे भ्रम हो गया है कि कौन हनुमानप्रसाद है। अरे वही "हनुमानप्रसाद पोद्दार, कल्याण-सम्पादक, गोरखपुर।" बस फिर क्या था। मुझे परम आनन्द हुआ। अब आपसे मेरी बार-बार यही प्रार्थना है कि अपनी पुत्री समझकर समय-समयपर आप मुझे उपदेश देते रहिये। भूल-चूक क्षमा कीजिये।


इस पत्रके उत्तरमें पोद्दारजी ने जो पत्र लिखा, उसे भी नीचे दिया जा रहा है–

ज्येष्ठ सुदी 12, सं० 1992, गोरखपुर
प्रिय बहन,
सप्रेम हरिस्मरण आपका पत्र आये बहुत दिन हो गये। मैं समयपर उत्तर नहीं लिख सका, इसलिये आप क्षमा करें। स्वप्नकी घटना ज्ञात हुई। जिनको स्वप्नमें श्रीवृन्दावनबिहारी की वाणी सुनने को मिलती है, वे सर्वथा धन्य हैं। मेरा तो यह निवेदन है कि आप श्रीवृन्दावनबिहारी से ही उनसे साक्षात् मिलनेका उपाय पूछिये उनसे प्रार्थना कीजिये कि किसी दूसरे का नाम बतलाकर क्यों छलते हैं ? मेरा तो यह विश्वास है कि यदि आपकी प्रार्थनामें करुणा और उत्कट इच्छा होगी तो वे स्वयं मिलनेका उपाय आपको बतला सकते हैं। भगवान् श्यामसुन्दर इतने दयालु हैं कि वे अपने बँधने की रस्सी आप ही दे देते हैं और आकर स्वयं बँध जाते हैं। बस आप यही प्रार्थना कीजिये और दृढ़ विश्वास रखिये कि जरूर दर्शन देंगे। जिन्होंने आपको स्वप्नमें मुझसे मिलनेकी आज्ञा दी है, वे आपकी सच्ची उत्कण्ठा होनेपर नहीं मिलेंगे, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये। मेरा तो यही निवेदन है।
आपका भाई,
हनुमानप्रसाद पोद्दार


एक अपूर्व घटना और जीवन परिवर्तन
इन्दौर निवासी श्रीदेवचन्द जी का जीवन विलक्षण ढंग से बदल गया। बादमें वे श्रीभाईजी से मिलनेके लिये कई बार आते थे। पिताजी ने उनकी विलक्षण अनुभूति का वर्णन उन्हीं के हाथ से लिखवाया था। उसी वर्णन को उनकी भाषामें प्रस्तुत किया जा रहा है। मैं के स्थानपर उन्होंने 'साधक' शब्द का प्रयोग किया है। यह घटना वि० सं० 1992 (सन् 1935) की है–

वह था एकदम नास्तिक। भगवान् एवं उनके माननेवाले समाज सम्प्रदाय तथा साधुओं के प्रति अनादर का भाव और बर्ताव करना ही उसका धर्म था। तर्क प्रधान होने से कहिये या चापल्यता लेकिन इससे अवश्य ही वह काम लेता और अनेकों प्रसंगोंपर बड़ी कड़वी-कड़वी बातोंसे भगवत् भक्तों का विरोध करता था। यहाँ तक कि बिचारे सीधे-साधे भक्त भगवान् का स्मरण कर रो उठते थे, अथवा वे रोनेमें भगवान्‌ से उसकी बुद्धि ठीक हो जाने की करुण प्रार्थना करते थे।

एक दिन की घटना है। भक्तों की प्रार्थना खाली कैसे जा सकती थी। भगवान्ने सुनी। उस दिन शामको जब कि हवाखोरी से मित्रोंके साथ लौट रहा था तब भगवान्‌ की चर्चा चल गयी। एक मित्र बड़े भावुक थे उन्होंने भाव आकर अनेक बातें भगवान्‌ की लीलाएँ और उनके अनन्त प्रेम प्रभाव की बातें कहीं जो रसमय थी। किन्तु नास्तिक ने तो विपक्षमें जो मिलें उसी से उसका विरोध और भगवान्‌ के प्रति अश्रद्धा की बातें भी जोरोंसे की। इतनी अधिक बातें हुई कि भावुक मित्र अत्यधिक रोने लगे और साथ छोड़कर अन्यत्र चल दिये। उनका रोना हृदय-स्पर्शी था उनके शुद्ध अन्तःकरण की निकली आवाज थी जिसने प्रभुके समीप प्रार्थना पहुँचायी।

नास्तिक के हृदयपर आज के भावुक मित्र का रोना बैठ गया, पता नहीं क्यों ! ऐसे पहले भी कई बार अवसर आये लेकिन उसके कठोर हृदयपर कोई असर नहीं हुआ था लेकिन आज तो उसके मनमें भावुक मित्र के दुःख का पारावार न रहा। और वह भी बिना कुछ खाये-पीये उसी समय घर पहुँचकर पड़ रहा और अत्यधिक पश्चात्तापके बाद आ गयी निद्रा ।

यहीं से था उसके जीवन का परिवर्तन। उसे निद्रामें बहुत प्रकाश का अनुभव होने लगा साथ ही आनंद। उस अनुपम सुंदर प्रकाशमें बड़े गम्भीर भाव से एक सज्जन उपस्थित हुए और एक पुस्तक रखकर लुप्त हो गये। पुस्तक सामने थी, उसमें लिखा था 'तुलसीदल' इतना पढ़ते ही उसके पन्ने अपने आप उलटने लगे। दो पन्ने उलटने के बाद भगवान् का चित्र आया और ऊपर लिखा था एक श्लोक और नीचे था "वजनवयुवराज" इसके नीचे एक श्लोक और था। थोड़ी देरमें प्रत्यक्ष की ज्यों भगवान् दीखने लगे और बड़े-बड़े नेत्रों से बैठे-ही-बैठे देख रहे थे बड़े प्रेमसे। लगभग 10 मिनट बाद वे बड़े मधुर स्वरमें हाथ उठाकर बोले–
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मां शुचः।।

और अदृश्य हो गये। साधकको याद रहा 'तुलसीदल' गीताप्रेस और श्लोक। भगवान् का मधुर स्वरूप तो छूट ही कैसे सकता था। निद्रावस्थासे उठनेके बाद साधक इन्हीं बातोंकी उलझनको सोचनेमें संलग्न रहा। उसे याद आया कि उसके एक मित्र के बड़े भाई धार्मिक विचार एवं स्वाध्याय प्रिय हैं उन्हीं के पास तुरंत गया और गीताप्रेस से निकली हुई पुस्तक 'तुलसीदल' को पूछा।

उन्होंने बताया कि यह गीताप्रेस से निकली हुई पू० श्रीहनुमानप्रसाद जी पोद्दार की लिखी हुई बहुत सुंदर पुस्तक है। मेरे पास भी है और वह लाकर दिखायी गयी। देखते ही वही भगवान्, श्लोक और वैसी-की-वैसी ही सब बातें पायी। तुरंत उस पुस्तक को स्वतंत्र रूपसे प्राप्त करने को बाजार में दुकानदारों के यहाँ गये और ले आये।

इस पुस्तक के अध्ययन के बाद ही इन्हीं की साधन-पथ' नामक पुस्तक भी पढ़ी गयी और साधक का यहाँ से अपूर्व साधन प्रारंभ हुआ जो बाहर के जीवन से एकदम विपरीत था और गुप्त ही साधन शुरू हो गया।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

मन्त्र की 64 मालाका जप नित्य और भगवान् "व्रजनवयुवराज" का ध्यान शुरू हुआ। वह लगातार 3 माह चला। इतनेमें गीताप्रेस की अन्य पुस्तकें पढ़ी गयीं। संतों की महिमा सुनी गयी 3 माहके अभ्यास से स्थिति इतनी हो गयी कि निरंतर भगवन्नाम का जप और ध्यान होने लगा। सोनेमें भी उनके घर के लोगोंका अनुभव था, जप होता था।

इतना सब होनेपर भी भगवान् न आवें या कोई विशेष बात जो भगवान् भक्त के लिये ठीक समझते हों वह न हो ?— ऐसा नहीं हो सकता है। इसी बीचमें एक दिन प्रातः निद्रावस्था से उठते ही हृदयमें इतनी प्रसन्नता और जगत् भी इतना सुंदर दिव्य दीखने लगा कि जिसका वर्णन ही नहीं किया जा सकता था। हृदयमें अपूर्व आनंद प्रसन्नता थी और थी एक आवाज कि आज अवश्य ही प्रभु के दर्शन होंगे। दिनभर खूब मस्ती रही, भूख का पता नहीं, बेसुध अवस्था पासके मित्रोंने भी देखी और मित्रों के पूछनेपर बताया कि आज बहुत अधिक आनन्द प्रसन्नता है और ऐसा अनुभव हो रहा है कि भगवान् प्रकट होंगे। शाम को और मित्र भी आये किन्तु बेसुध अवस्था होने से घर के लोगों ने अधिक मिलने-जुलने नहीं दिया और शीघ्र ही सोने का प्रबंध किया गया। एक मित्र भावुक थे और इस विशेष घटना की आकांक्षासे वे भी उनके साथ ही बड़े आग्रह से सोये।

रात के ग्यारह बजे होंगे, घर के सब सो चुके थे। आनन्दातिरेकमें साधक को होती है मस्ती और अर्ध निद्रावस्था की-सी स्थिति थी।

साधक एक पलंगपर अपने मित्र के साथ लेटा हुआ था और देखता है —आकाश मार्गसे एक बहुत सुंदर दिव्य चौकी (कमरा), जो कि दिव्य रत्नों से जटित अत्यन्त प्रकाशवान थी, साधक की ओर उतरती जा रही थी, जिसकी चौड़ाई 6'-12' के लगभग की चौकी दिव्य थी जिसके नीचे की ओर से ऊपर की सुसज्जित वस्तुएँ रत्नाभूषण मंत्रादि साफ-साफ दीखते थे। वह चौकी पलंगके ऊपर उतारकर रखी गयी। साधक लेटा था सो बैठ गया उसके मित्र निद्रामें स्थित रहे और आस-पासके अन्य सोने वाले भी। वह चौकी क्या थी, एक वृहत् कमरा ही था। रत्नजटित चौकी के ऊपर छत थी जो 12 फुट होगी। छत के बीचों-बीच
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
महामन्त्र लिखा हुआ था जिसमेंसे अनेकों रंग का प्रकाश-सा निकल रहा था। संभवतः वह मणियाँ जो जड़ी हुई थीं उनका ही हो। महामन्त्रके चारों ओर वेदों के मन्त्र लिखे हुए थे जिनमेंसे भी प्रकाश का श्रोत बहता रहता था। चारों ओर दीवालें अवश्य थीं किन्तु उनमेंसे निरंतर वायुका आवागमन रहता था और उसके हरेक कणसे अन्दरकी चीजें दीखती थीं। पूर्व तरफसे दीवालोंसे सटे हुए दो दरवाजे थे। बीचके हिस्सेमें पास-पास दिव्य रत्नोंसे जटित सिंहासन सजे हुए दीख रहे थे। दीवालों के सब तरफ से अनेक मंत्र लिखे हुए चित्र बने हुए थे और हर एक से प्रकाश निकलता था। दीवाल के बीचों बीच कुछ चौड़ी तिरंगे झंडे जैसी लकीरें थीं जिनमेंसे अलग-अलग रंग का प्रकाश निकल रहा था। साधक एकटक उसी दृश्य को देख रहा था इतने ही में
उस पर एक सज्जन टहलते हुए दिखाई देने लगे। खादी का सफेद लम्बा कुर्ता, मोटी धोती पहने थे। बीच की श्रेणी का स्थूल शरीर था, घूम रहे थे बोले साधक से– तुम उठो हाथ-पैर धोकर ऊपर आ जाओ। पास में एक लोटेमें शुद्ध जल रखा हुआ था। उससे हाथ-पैर धोकर ऊपर उन संत के पास पहुँच गया। उन्होंने कहा–आज भगवान् की आज्ञानुसार तुम्हारे यहाँ उनके मण्डल की बैठक होगी। इसमें अनेक संत-महात्मा सम्मिलित होते हैं। कीर्तन के बाद भगवान् द्वारा स्वयं नये भक्तों से कुछ कहकर बादमें जगत्में सुख, शान्ति, संरक्षण आदि की क्या व्यवस्था करनी है। इसपर विचार किया जायगा। यह कमेटी नियमसे होती है इसमें सब मिलकर सदस्य हैं जिसमें 45 प्राचीन ऋषि-मुनि एवं 45 आजके जगत्‌में सशरीर प्रत्यक्ष काम करने वाले संत महात्मा प्रत्येक की इच्छानुसार वर्षमें 4 दिन 4 स्थानोंपर मण्डल की बैठक रखी जाती है। इस तरह वर्ष पूरा हो जाता है आज मेरी इच्छानुसार तुम्हारे यहाँपर रखी गयी है। मैं भारतमें गोरखपुरसे निकलने वाला धार्मिक पत्र 'कल्याण' के सम्पादक का काम करता हूँ–हनुमानप्रसाद पोद्दार। ठीक 11 बजेसे संत महात्माओं का आना क्रमशः प्रारंभ होता है। वे सब क्रमशः आते हैं और अपने-अपने नियत स्थानोंपर बैठ जाते हैं।

संत ज्यों-ज्यों आते रहते थे, वैसे-वैसे भाईजी प्रत्येकका नाम परिचय देते जाते थे। इस तरह से सब आ गये।

सबके आने के बाद कीर्तन प्रारंभ होता है। पहले ऋषि-मुनि बोलते हैं और बादमें संत-महात्मा दुहराते हैं।

धीरे-धीरे कीर्तन की गति बढ़ती गयी और लगभग आधा घंटा कीर्तन होने के बाद सब खड़े हो गये। कीर्तनमें कई नाचते-कूदते और कई आवेशमें हो रहे थे।

यह साधक और भाईजी भी कीर्तन कर रहे थे। बीचमें ही भाईजी ने साधकसे कहा कि अब भगवान् आ रहे हैं, और आज के तीन माह बाद बुधवार को फिर से तुम्हारे यहीं मण्डल की बैठक रखी जायगी।

भगवान्‌ के आने के पूर्व एक तरह की बड़ी मीठी मोहक गन्ध का आना प्रारंभ हुआ। उस गंध के कारण कीर्तनमें विशेष रस पैदा हो रहा था। कुछ ही देर बाद प्रकाश आया और स्वयं भगवान् भी पधारे। शनैः शनैः पृथक् दरवाजों से आकर सिंहासन पर बैठ गये। कीर्तनमें साधक का मन तन तल्लीन था। भगवत् इच्छा से दीख रही थी लीला। भगवान्‌ के सिंहासनारूढ़ होते ही साधक आवेशमें आया। रोमांच, अश्रुपात और अखण्ड आनंद की मस्तीमें झूमता भगवान्‌ के चरणों में गिर गया। फिर क्या हुआ इसका विवरण पता नहीं। साधक की शक्ति के बाहरकी बात थी। साधक अन्तमें गिरा अपने पलंगपर बेहोश। उसका मित्र और पासके सोने वाले जाग गये। 6 घंटे बाद साधकको होश हुआ।