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संत रामकृष्ण परमहंस

विश्वगुरू इसी नाम से जाना जाता है हमारा देश भारत। और इसका प्रमुख कारण है यहां पर जन्म लेने वाले महान संत..... जिन्होंने न सिर्फ मातृभूमि भारत में बल्कि भारतवर्ष के बाहर पूरी दुनिया में ज्ञान, ध्यान, त्याग और योग का परचम लहराया है। कई महान संतों और योगियों की जन्मभूमि होने के कारण ही इसे संतो की भूमि भी कहा जाता है।

प्राचीन काल से ही नालंदा विश्वविद्यालयो और महर्षि वाल्मीकि से लेकर संत तुलसीदास और वर्तमान के संतो ने भारत के आध्यात्मिक और सामाजिक ढांचे को सुधारने की दिशा में सराहनीय कार्य किया है। ऐसे ही महापुरुषों में से एक है महाकाली के सच्चे और प्रिय भक्त ‘स्वामी रामकृष्ण परमहंस’ प्रिय इसलिए कि मात्र उन्होंने ही मां काली को अपने हाथों से खाना खिलाया था।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस 19वी सदी के उन महान संतों में से एक है जिन्होंने ईश्वरीय आनंद को महसूस किया। आज हम उन्हीं के जीवन के वित्तांत के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे और उनके विचारों को अपने जीवन में उतारने की कोशिश करेंगे।

18 फरवरी 1836 को पश्चिम बंगाल के एक छोटे से गांव कमरपुकुर मैं रहने वाले खुदीराम और श्रीमती चंद्रमणि देवी के यहां एक प्यारे से बालक ने जन्म लिया। माता पिता और परिवार वालों ने बड़े ही दुलार से उसका नाम गदाधर रखा। खुदीराम जी के 3 पुत्र थे जिनमें हमारे चरित्र नायक गदाधर सबसे छोटे थे। गदाधर बाल्यकाल से ही अत्यंत नम्र स्वभाव के थे। वाणी बहुत ही मधुर और मनोहारी थी। इसी से आस पड़ोस और गांव के लोग उनसे बहुत प्रसन्न रहा करते थे और उन्हें अपने घरों में ले जाकर भोजन कराया करते थे।

समय बिता जैसे ही गदाधर 7 साल के हुए उनके पिता का देहांत हो गया। परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय पर आ गई जो कि कोलकाता की एक पाठशाला के संचालक थे। वो गदाधर को भी अपने साथ कोलकाता ले गए। समय बीतने के साथ ही गदाधर की लौकिक शिक्षा कोलकाता की संस्कृत पाठशाला में शुरू की गई। लेकिन उनका मन पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था। संस्कृत पाठशाला में पंडितों के व्यर्थ के नित्यप्रति के वादविवाद सुनकर वे घबरा गए और दुखी होकर एक दिन बड़े भाई से स्पष्ट बोले “भाई पढ़ने लिखने से क्या होगा? इस पढ़ने लिखने का उद्देश्य तो केवल धनधान्य पैदा करना है। मै तो वो विद्या पढ़ना चाहता हूं जो मुझे परमात्मा की शरण में पहुंचा दें।”

समय बिता और सन् 1847 में रानी रासमणि ने कोलकाता के गंगा घाट पर मां काली के मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर की संपूर्ण जिम्मेदारी 20 वर्षीय गदाधर को सौंप दी गई। यहां रहते हुए उन्होंने महसूस किया कि इस स्थान पर उनको अपना लक्ष्य प्राप्त करने में आसानी होगी। गदाधर के लिए मां काली की प्रतिमा सिर्फ एक जड़ नहीं थी बल्कि वह उनकी नजरों में साक्षात जगतजननी थी। उन्होंने मां के चरणों में खुद को समर्पित कर दिया। उनका मन मां काली के चरणों में बैठकर उनकी भक्ति में लगने लगा और मन ऐसा लगा कि वे अनन्य भक्ति के साथ मां काली की पूजा करने लगे। परंतु यह प्रश्न मन में सदैव हिलोरे लेता रहता था कि क्या वस्तुतः मूर्ति कोई तत्व है? क्या सचमुच यही जगजननी आनंदमई मां है या यह सब सिर्फ स्वप्न मात्र है, क्या जिस कठिन विधि से पूजा की जा रही है वही पूजा करने का सही मार्ग है? इन प्रश्नों ने उनके अंतर्मन को शंका में डाल दिया। जिससे उन्हें यथाविधि काली पूजा करना कठिन हो गया। अब कभी भोग ही लगाकर रह जाते। कभी घंटो आरती ही करते रहते। कभी सब कार्य छोड़कर रोया ही करते और कहा करते “मां.., ओ मां! मुझे अब दर्शन दो, दया करो। देखो, जीवन का एक दिन और व्यर्थ चला गया। क्या दर्शन नहीं दोगी? अंत में हालत इतनी बिगड़ गई कि उन्हें पूजा करनी त्यागनी ही पड़ी।

एक बार जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस का सब्र टूट गया तो उन्होंने सोचा कि बिना मां के दर्शन किए यह जीवन निरर्थक है और शायद इस जन्म में मां मुझे दर्शन नहीं देगी। ऐसा विचार करते हुए उनकी नजरें मां के हाथों में पड़े खड़ग पर पड़ी। जैसे ही उन्होंने उसे अपने प्राणों की आहुति देने के लिए उठाया। अचानक जगत-जननी मां सामने प्रकट हो गई।

मां के दर्शन करते ही रामकृष्ण अपने स्थान पर होश खोकर गिर पड़े और इस प्रकार से 2 दिन कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। जब उन्हें होश आया तब उन्हें दिव्यज्ञान और मां की अनुभूति होने लगी। इसके बाद जब भी वह पूरे मन से मां काली को पुकारते। मां उनके सामने प्रकट हो जाती थी।

काली मां की भक्ति करते हुए कहीं वह संसार से विरक्त ना हो जाए इस चिंता में उनके परिवार वालों ने उनका विवाह श्री शारदा देवी के साथ करा दिया लेकिन रामकृष्ण तो मैया के सच्चे भक्त थे उनकी भक्ति साधना में रंच मात्र भी बदलाव नहीं आया। शास्त्र में बताया है कि भगवान की भक्ति के 9 प्रकार हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं— श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्यभाव, सख्यभाव और आत्म निवेदन।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने प्रत्येक प्रकार की प्रथक प्रथक साधना करके पूर्ण भक्ति प्राप्त की। यही नहीं उन्होंने सिख पंथ स्वीकार करके उसमें भी पूर्ण भक्ति प्राप्त की। तीन-चार दिन तक एक मुसलमान के साथ रहकर मोहम्मदी पंथ का भी निचोड़ देखा। ईसा मसीह के ही चित्र को देखकर कुछ समय के लिए आत्मविस्मित हो गए। कई दिनों तक उन्हीं का ध्यान करते रहे।

इस प्रकार धर्म और सब संप्रदाय का मंथन करके स्वामी जी ने निश्चित समझ लिया कि ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी विशेष पंथ की आवश्यकता नहीं है वह तो किसी भी संप्रदाय में प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा निश्चय करके वे तीर्थ यात्रा के लिए निकले और एक बार भारत में सर्वत्र घूमकर दक्षिणेश्वर में आकर लोगों को धर्म उपदेश करने लगे। लोग बड़ी दूर दूर से धर्म उपदेश सुनने के लिए आया करते थे। जिसमे बड़े-बड़े विद्वान, धर्मनिष्ठ धर्मान आदि सभी श्रेणी के पुरुष होते थे। दिन-रात दर्शन करने के लिए आए हुए लोगों की अच्छी खासी भीड़ रहा करती थी।

रामकृष्ण परमहंस ज्ञान, योग, वेदांग, शास्त्र अथवा अद्वैद मीमांसा का वर्णन करते थे। उनका कहना था ‘ब्रह्म’ काल, देश, निमित्त से कभी मर्यादित नहीं हुआ और ना हो सकता है फिर भला मुख्य शब्द द्वारा ही उसका यथार्थ वर्णन कैसे हो सकता है। ब्रह्म तो एक अगाध समुद्र के समान है। वो निरुपादित, विकारहीन और मर्यादित है। तुमसे यदि कहे की महासागर कैसा है? तो क्या तुम उसका वैसा ही वर्णन कर सकते हो जैसा वह है? ‘नहीं’ महासागर का वैसा ही वर्णन कोई भी नहीं कर पाया है और यदि तुम करने की कोशिश भी करोगे तो बस यही कहोगे कि महासागर का विस्तार अंतहीन है इसमें तो इतने सारी लहरें उठती है कि जिन्हें गिन पाना भी मुश्किल है। यह हर लहर के साथ अलग-अलग प्रकार से गर्जन भी कर रहा है लेकिन सबसे प्रमुख बात इसकी गहराई कितनी है किसी को भी नहीं मालूम। ठीक ऐसा ही ‘ब्रह्म’ है। उसके बारे में जितना वर्णन करो उतना कम है और आज तक उसका वर्णन करने में कोई भी समर्थ नहीं हो पाया है। यदि आत्मज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखते हो तो पहले अहंभाव को दूर करो क्योंकि जब तक अहंकार दूर नहीं होगा अज्ञान का पर्दा कदापि न हटेगा। तपस्या, सत्संग, स्वाध्याय आदि साधनों से अहंकार दूर कर आत्मज्ञान प्राप्त करो। ब्रह्म को पहचानो।

परमहंस जी से प्रभावित होकर उनके उपदेश जन जन तक फैलाने के लिए और ईश्वर के दर्शन के लिए उनके विवेकानंद सहित कई शिष्य बन गए थे। श्री रामकृष्ण स्वयं अपने शिष्यों को खुद की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे। उन्होंने अपनी आध्यात्मिक साधना में मां काली की भक्ति को पा लिया था और इसी कारण उन्हें रोज मां काली के दर्शन आसानी से हो जाते थे।

शिष्यों को सदमार्ग का उपदेश और दीन दुखियों की सेवा का आदेश देते हुए उनके जीवन के कई वर्ष व्यतीत हो गए।

सन् 1885 में उन्हे गले का कैंसर हो गया। उन्होंने उपचार करने की जगह समाधि की स्थिति में रहना ज्यादा उचित समझा। उनके अनुसार भौतिक शरीर मानवता की भलाई के लिए हैं और ईश्वर की इच्छा का पालन करने के लिए भी।

संत रामकृष्ण परमहंस की उपदेश शैली बहुत ही सरल और भावनात्मक थी। उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों तक में स्नेह, दया और सेवा के माध्यम से सार्वजनिक सुधारों की शिक्षा दी।

5 अगस्त सन् 1886 को संत रामकृष्ण परमहंस ने माता काली का स्मरण किया और समाधि में लीन हो गए लेकिन उनकी शिक्षाओं का प्रसार आज भी मठ-मिशन के द्वारा जारी है।

रामकृष्ण परमहंस इतनी सहजता और व्यवहारिकता के साथ आध्यात्मिक चर्चा करते थे कि उनके पास आने वाले का हृदय बिना परिवर्तन के नहीं रहता था। संत रामकृष्ण परमहंस नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते थे। संत रामकृष्ण ने कहा था “ईश्वर की कृपा दृष्टि होने पर भी प्रार्थना, तपस्या और प्रभु के स्मरण को नहीं छोड़ना चाहिए।” स्वामी जी के इन्हीं उपदेशों के साथ ही ‘सर्वधर्म समभाव और एक ईश्वर’ के उपदेश को पूरी दुनिया में प्रचार करने के संकल्प को स्वामी विवेकानंद सहित अन्य शिष्यों ने अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया और रामकृष्ण मिशन के माध्यम से उन्हें पूरी दुनिया में फैलाया।

आज पूरी दुनिया में रामकृष्ण के उपदेशों पर चलकर लोग पराशक्ति और परमानंद की प्राप्ति करते हैं इसका प्रमुख श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है।

रामकृष्ण परमहंस के जीवन की कितनी ही घटनाएं हैं जिनसे समझ में आता है कि वह ईश्वर के अनन्य भक्त, धर्मोप्देष्टा और पहुंचे हुए सिद्ध पुरुष थे। रामकृष्ण परमहंस जी ने अपना पूरा जीवन प्रभु की भक्ति में व्यतीत किया और दूसरों को भी प्रभु के चरणों में खुद को समर्पित करने की शिक्षा दी। रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरुओं की तरफ कृतज्ञता व्यक्त करने का कोई सरल मार्ग नहीं है लेकिन हम सब प्रयास कर सकते हैं–रामकृष्ण परमहंस जी के बताए रास्ते पर चलकर, ईश्वरी प्रेम पर अपने आप को पूरी तरह से समर्पित कर दें और कभी किसी भी प्रकार का भेदभाव न करें। इससे बढ़कर हम रामकृष्ण जी के लिए और कुछ नहीं कर सकते।