Hanuman Prasad Poddar ji - 41 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 41

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 41

आत्महत्या से बचानेके प्रसंग

भाईजीने कितने व्यक्तियों को आत्महत्या करने से बचाया– इसकी गणना सम्भव नहीं है क्योंकि ऐसे प्रसंग वे प्रायः गुप्त रखते थे। उनकी भरसक यही चेष्टा रहती थी कि किसी की व्यक्तिगत बात का अन्य व्यक्ति को पता न लगे। ऐसे कुछ प्रसंग यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं :--
श्रीभाईजी से जिन्होंने एक दिन सेवा ग्रहण की थी, किन्तु आज जो स्वास्थ्य एवं सम्पन्न अवस्थामें हैं, ऐसे एक सम्भ्रान्त व्यक्ति ने कुछ ही दिनों पहले श्रीभाईजी के लीलालीन होने के पश्चात् यह घटना रूद्ध-कण्ठ से सुनायी थी। उनके नेत्रों में जल था, हिचकियों के कारण शरीरमें कम्पन तथा अतीत की स्मृतियाँ उनके हृदयतल को झकझोर रही थीं। करीब 12-13 वर्ष पहले की घटना है. रोग तथा अभाव ने मुझे चारों ओर से घेर लिया। सफलतापूजक संसार मुझे तिरस्कृत, अपमानित, उपेक्षित मानने लगा था। रोग अभाव को बढ़ा रहा था, अभाव रोग का पोषक था। रोग भी साधारण नहीं, दमा-जरा-सी दूर चलनेमें भी साँस फूलने लगती थी; कहीं भी-थोड़ी दूर भी जाना पड़ता तो मार्गमें कई जगह रूक-रूककर. आय के सभी साधन समाप्त हो चुके थे। उद्यम कर नहीं पाता था, सहायता कोई करने वाला था नहीं। परिवार वाले भी उपेक्षा करते। जीवन से निराशा हो चुकी थी मुझे। जीना दुःखद था, मृत्युकी कल्पना सुखद थी। मृत्यु कहीं गंगातटपर शान्ति के साथ हो—इस इच्छा ने स्वर्गाश्रम जाने के लिये प्रेरित किया। मैंने अपनी इस इच्छा को परिवार वालों के सामने व्यक्त किया। अविलम्ब प्रसन्नता के साथ स्वीकृति मिल गयी, घरवालों पर तो बोझ ही था। सर्वथा असहाय, निराश्रित रूग्ण अवस्थामें में स्वर्गाश्रम पहुँचा। 'गीताभवन' में स्थान भर चुका था; किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर 'परमार्थ निकेतन' में स्थान मिला। तन से असक्त, मनसे निराश, धन से रहित, मैंने पतित-पावनी गंगामे जल-समाधि लेने का निश्चय-सा कर लिया था। तभी अचानक किसी से ज्ञात हुआ कि 'भाईजी' आये हैं। 'कल्याण' का पुराना प्रेमी था--भाईजी के प्रति अगाध श्रद्धा थी, सोचा– 'क्यों न उनके सामने रोकर अपने मनको हल्का कर लूँ। वे तो सब भाँति समर्थ हैं, सम्भव है मेरे लिये भी कुछ कर दें। मनके निश्चय को क्रिया रूप भी दे ही दिया मैंने।

"कहाँ से आये है ?" कई व्यक्तियोंके बीचमें बैठे हुए श्रीभाईजीने पूछा।

इतनी दूर चलकर आनेके कारण बुरी तरह हाँफ रहा था, मैंने अटकते हुए कहा "कल....... ही........ कत्ते से....... कल....... आया....... हूँ।"

मेरी स्थिति, बोलने के ढंग को देखकर भाईजी शायद समझ गये, उन्होंने पुनः पूछा "आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न ? आप इतना हॉफ क्यों रहे हैं ?"

स्नेहसे सना स्वर सुनकर हृदय भर आया, नेत्रों ने उत्तर दिया। कण्ठ रूद्ध हो गया।

"आइये भीतर बैठ जायँ" यो कहकर वे उठ खड़े हुए, मैंने भी अनुगमन किया।

"निःसंकोच कहिये क्या बात है ? भगवानके मंगलमय विधानपर विश्वास रखिये", विश्वास की गरिमा लिये श्रीभाईजी का स्वर कक्षमें गूंज उठा। रोते-रोते मैंने अपनी सम्पूर्ण स्थिति श्रीभाईजी के सामने स्पष्ट कर दी। बड़ी ही सहानुभूति तथा धैर्य के साथ उन्होंने पूरी बात को सुना-बीचमें एक-दो बार किसी ने कक्षमें आने का प्रयास भी किया, पर श्रीभाईजी ने हाथ से संकेत कर उन्हें रोक दिया।

"आत्महत्या करना पाप ही नहीं महापाप है। इससे दुःखों से छुटकारा नहीं मिलता, वरन एक नवीन भयानक दुःखों का निमन्त्रण देना है। आत्महत्या करनेसे प्रेत योनि प्राप्त होती है, उस योनिमें प्राणीको भीषण कष्ट उठाने पड़ते हैं। आप भगवान की कृपापर विश्वास कीजिये, भगवान् सर्वसुहृद हैं; वे निश्चय ही आपकी प्रार्थना सुनेंगे और आपके कष्ट का निवारण होगा। कल मैं गीता भवन के सत्संग के बाद आपके पास आऊँगा, आप उस समय वहीं रहियेगा।"

भाईजी के स्नेह, कृपा, महानता से हृदय अभिभूत हो उठा था। मैं धीरे से उनके कक्ष से बाहर निकल आया और कलकी प्रतीक्षा करने लगा--वे मेरेसे मिलने के लिये स्वयं मेरे कमरेमें आयेंगे।

"क्यों वैद्यजी आये थे क्या ?" दूसरे दिन मेरे कमरेमें प्रवेश करते हुए श्रीभाईजी ने मन्दस्मित के साथ पूछा।

"हाँ आये थे, दवा लिखकर भी गये हैं,........ पर ..मैंने मँगवायी नहीं।"

"लाइये कागज मुझे दे दीजिये, मैं मँगवा दूंगा।" भोजन आप 'गीताभवन के भोजनालयमें कर लिया करें और हाँ, दूध भी दोनों समय आपके पास पहुँच जाया करेगा।

मैंने संकोचके साथ कहा "मुझे आपसे कुछ कहना है।"

"बोलिये, क्या बात है ?"

"नहीं, कोई ऐसी बात नहीं है, वैसे मैं अकेलेमें कहना चाहता था।" श्रीभाईजीके पीछे खड़े दो-तीन व्यक्तियों की ओर देखते हुए कहा।

"ठीक है, ठीक है, मैं कल फिर आऊँगा, तब बात हो जायगी; लाइये, वह कागज दीजिये। आज मैं जरा जल्दीमें हूँ।" श्रीभाईजी ने उठते हुए कहा।

मैंने औषध-पत्र श्रीभाईजी के हाथपर रखते हुए अत्यन्त संकोच के साथ कहना चाहा "बात यह है कि मेरे पास ....."

"आज एक बहुत आवश्यक काम है, कल बात करूँगा।"..... कहते हुए श्रीभाईजी कक्षसे बाहर निकल गये।

मेरी बड़ी विचित्र स्थिति थी, कल का प्रेम, आजकी उपरामता, एक अन्तर्द्वन्द्व आरम्भ हो गया हृदयमें कैसे कहूँगा कि मेरे पास दवा के, दूध के यहाँ तक कि अपने भोजन के पैसे भी नहीं हैं। वे क्य सोचेंगे, क्या उत्तर देंगे ? आज की उपरामता ने मेरे हृदयमें और भी विचार उत्पन्न कर दिया था। इन्हीं सब विचारोंमें पड़ा मैं अपने को धिक्कारने लगा, पर था विवश, निरूपाय, बड़ी करुण स्थिति थी मेरी।

दूसरे दिन उसी समय श्रीभाईजी आये, पर आज उनके साथ अन्य कोई नहीं था। मेरे मनमें भी निश्चिन्तता-सी हुई "चलो, आज अपनी स्थिति को कहनेमें संकोच कम होगा।"

"दवा मिल गयी थी न, आपने लेनी आरम्भ कर दी होगी।" श्रीभाईजी ने सहज स्नेहिल स्वरमें पूछा।

"हाँ मिल गयी" छोटा-सा उत्तर दे मैं पुनः ऊहापोहमें डूब गया। कैसे कहूँ ? क्या कहूँ। मैं वह सब सोच ही रहा था कि भाईजी ने मन्द स्वरमें कहा "आपको जो कुछ भी कहना हो, वह बादमें कह दीजियेगा, पहले मेरी बात सुन लीजिये।"

इतना कहकर उन्होंने लिफाफा निकाला और उसे मेरे हाथों में पकंड़ाते हुए बोले- "इसे रखिये, इसमें कुछ रुपये हैं। जो कुछ भी व्यय हो, इसमें से कर दीजियेगा और देखिये मैं आपसे अत्यन्त विनय के साथ प्रार्थना करता हूँ। भगवान् के नामपर भीख माँगता हूँ कि आप यह बात किसी से मत कहियेगा और न इसके लिये मनमें तनिक भी संकोच ही अनुभव कीजियेगा। मैं आपका भाई हूँ. आप मेरे हैं, मैं आपका हूँ। मैं वैद्यजी से भी कह दूँगा कि औषध तथा परीक्षणमें जितना भी खर्च लगा हो, वे आपसे ले लें। अच्छा, अब मैं चलता हूँ, फिर आऊँगा। यों कहते हुए वे स्नेह से मेरे मस्तक पर हाथ फेरकर कक्ष से बाहर निकल गये।

मैं अवाक् बना सोच रहा था "श्रीभाईजी की प्यार से सनी सेवा कितनी गुप्त, कितनी अज्ञात थी। प्रतिदान की तो कौन कहे, सम्मान की इच्छा से भी दूर, बहुत दूर।" नेत्र झरते रहे; मैं सोचता रहा, सेवा तथा प्यार का स्वरूप यही है।

दूसरी लगभग 40 वर्ष पहले की घटना है। एक दिन 8-9 बजे दो सज्जनों ने अचानक परमश्रद्धेय श्रीभाईजी के कमरेमें प्रवेश किया एक पुलिस की वर्दीमें थे और दूसरे अपने शरीर को सिर से पैरतक कपड़ेसे ढँके हुए थे। श्रीभाई जी उस समय कल्याण के प्रूफ देखने में संलग्न थे। दोनों सज्जनों ने श्रीपोद्दारजी को प्रणाम किया। दोनों का अभिवादन करते हुए श्रीभाईजी ने उनसे बैठने की प्रार्थना की। अपना परिचय देते हुए पुलिस वर्दी पहने हुए सज्जन ने कहा- मैं गुप्तचर विभाग में काम करता हूँ और साथ वाले सज्जन मेरे बड़े भाई हैं। फिर उन्होंने बड़े ही संकोच के साथ कहा--पोद्दारजी! मेरे भाई साहबके शरीरमें कुष्ठ रोग हो गया है। ये एक अच्छे एडवोकेट है, परन्तु जबसे रोग हुआ है, इन्होंने अदालत जाना छोड़ दिया है। कुष्ठ रोग समाजमें बहुत घृणित माना जाता है और जिसे यह रोग हो जाता है, समाज उसका बहिष्कार कर देता है। भाई साहब इस रोग की भीषणता के सम्बन्ध में जानते हैं, अत एव ये अब जीवन रखना नहीं चाहते। ये दिन-रात रोते रहते हैं और किसी से मिलते-जुलते नहीं। भाईजी आपकी महानता के विषयमें मैंने अपने कई मित्रोंसे सुना था। अतएव आज इन्हें बहुत समझा-बुझाकर अपने साथ लाया हूँ। ये अपना मुँह किसी को दिखाना नहीं चाहते, इसी से ये अपना सम्पूर्ण शरीर कपड़े से ढंककर आये हैं।

श्रीभाईजी बड़ी ही उत्सुकता के साथ ध्यानपूर्वक सब बातें सुन रहे थे। ऐसा लगता था, मानो वे अपने किसी निकटतम स्वजन के सम्बन्ध में कुछ सुन रहे हों। बातें सुनकर श्रीभाईजी भाई साहब की ओर बढे और उनके कंधेपर अपना हाथ रखते हुए बोले- भाई साहब! आप भी कुछ कहिये। आप मुँहपर से कपड़ा हटा लीजिये और मुझे जरा देखने दीजिये कि रोग का स्वरूप क्या है ?

श्रीभाईजी की इस आत्मीयता, प्यार तथा सबसे बढ़कर उनके शरीर के स्पर्श ने भाई साहब के मन और प्राणोंको उद्वेलित कर दिया और वे फफक पड़े तथा उन्होंने श्रीभाईजी की गोदमें अपना सिर रख दिया। श्रीभाईजी की भी आँखें गीली हो गयीं और वे अपने कोमल हाथ से उनके मस्तक को सहलाने लगे। कुछ देर पश्चात् व्यथा का आवेग कम होनेपर भाई साहब ने कहा– "भाईजी! अब इस जीवन को रखना नहीं चाहता। अपने छोटे भाई के आग्रहसे आपके पास आया हूँ। यह मेरा प्रथम तथा अन्तिम प्रणाम है।" इतना कहते-कहते भाई साहब पुनः सुबक-सुबककर रोने लगे। भाईजी बराबर उनके सिरपर हाथ फेरते रहे। वातावरण बहुत गम्भीर हो गया।

थोड़ी देर बाद श्रीभाई जी बोले "भाई साहब! आप इतने निराश क्यों होते हैं ? सर्व-समर्थ एवं सर्व-सुहृद भगवान् के रहते निराश होने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। वह प्रभु 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुम' समर्थ है। अतएव निराशा को दूर भगाइये।

श्रीभाईजी द्वारा इस प्रकार प्रबोध एवं आश्वासन प्राप्तकर भाई साहबका हृदय कुछ शान्त हुआ। वे बैठ गये और अपने मुँहपर पड़ा कपड़ा उन्होंने उठा लिया। श्रीभाईजी ने बड़े ही गौर से उनके मुख को देखा और बोले "आप व्यर्थ में इतने भयभीत हो रहे हैं। रोग अभी प्रारम्भिक अवस्था में है। फिर यह शरीर तो व्याधि मन्दिर है ही। एक व्याधि प्रकट रूपमें आपके सामने आ गयी तो घबराना नहीं चाहिये। हम वैद्यजी को बुलाते हैं, वे आपके लिये दवा की व्यवस्था करेंगे। भगवान्ने चाहा तो कुछ ही दिनोंमें आप पूर्ण स्वस्थ हो जायेंगे। आपने अपना शरीर न रखने की बात कही, वह उचित नहीं। विष खाकर, अग्निमें जलकर, पानीमें डूबकर या किसी अस्त्र-शस्त्रका अपने ऊपर प्रहार करके जो व्यक्ति अपने शरीर और जीवन को जान-बूझकर नष्ट कर देते हैं, वे बड़े ही अभागे एवं दया के पात्र हैं। मानव शरीर भगवान्‌की प्राप्तिका साधन है और यह बड़े ही पुण्यसे भगवान् की विशेष कृपासे प्राप्त होता है। ऐसे दुर्लभ देह को नष्ट कर देना भारी पाप है। आत्महत्यासे कष्टकी निवृत्ति नहीं होती। प्रारब्ध तो आगे भी भोगना ही पड़ेगा। मनुष्य जिस क्षणिक दुःख शोक या मनसंतापसे मुक्त होनेके लिये। आत्महत्या करता है, वह अनन्त गुना होकर अनन्त कालतक उसे परलोकमें कष्टदायक होता है। अतः आत्महत्या करने की बात मनमें ही नहीं लानी चाहिये। भगवान् परम दयालु हैं। उनकी कृपापर पूर्ण विश्वास करके चिकित्सा करवानी और साथ-ही-साथ श्रद्धापूर्वक भगवान् से करुण प्रार्थना करनी चाहिये।

"आपकी पुकार सच्ची होगी तो भगवान् उसे अवश्य सुनेंगे। ऐसा कोई कार्य नहीं है, जो भगवान् की कृपासे न हो सके। अतएव मेरी बातपर विश्वास करके आप स्वयं अपने मनसे अपनी ही करुण भाषामे सर्वशक्तिमान, सर्व-सुहृद भगवान से प्रार्थना कीजिए। विश्वासपूर्वक की हुई प्रार्थना से मानसिक तथा शारीरिक-सभी प्रकारके रोगो का नाश हो सकता है। 'साइंस आफ थाट रिव्यू' नामक इंग्लैण्डके एक मासिक पत्रमें श्रीगिल्बर्ट हेनरी गेज नामक सज्जनने लिखा था। जर्मनीके एक आदमीको शैशाविक पक्षाघात का रोग जन्मके पहले ही वर्षमें हो गया था। फलतः उनके दोनों पैर लकवे से बेकार हो गये। उसके लिये प्रार्थना की गयी। चार महीने बाद समाचार मिला कि उसके पैरमें नवीन शक्ति आ गयी है। 48 साल से जो मासपेशियों मरी हुई थी, वे सक्रिय हो गयी। उनका जीवन सब चिन्ताओंसे मुक्त, भगवद-विश्वासपूर्ण और प्रफुल्लित हो गया।

"पुरानी बात है-- कलकत्तामें एक प्रसिद्ध व्यावसायी को प्लेग हो गया। 104-5 डिग्री बुखार था और दोनों जाँघोंमे बड़ी-बड़ी गिल्टि निकल आयी थीं। कलकत्ताके सबसे बड़े डाक्टरने उन्हें देखकर कह दिया- बचनेकी आशा बिल्कुल नहीं है, पर भगवान्पर उनका विश्वास था। उन्होंने कमरा बन्द करके भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति सामने स्थापित कर ली और श्रीकृष्णमें मन लगाकर 'हरिः शरणम्' मन्त्रका जप करने लगे। भगवान् की कृपासे प्रातः काल होते-होते वे बिल्कुल स्वस्थ हो गये और वर्षों जीवित रहे।

"इस प्रकारकी और भी घटनाएँ मैंने अपने जीवनमें तथा दूसरों के जीवनमें घटते देखी हैं। कैंसर, टी० बी० आदि रोग भी प्रार्थनाद्वारा चमत्कारिक रूपमें ठीक हुए हैं। मेरा दृढ विश्वास है कि भगवान की प्रार्थनासे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। अतएव आप मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना कीजिए तथा मन-ही-मन हरि शरणम् मन्त्रका जप कीजिए।"

श्रीभाईजीकी बातें भाई साहबने बड़ी उत्सुकता एवं श्रद्धा के साथ सुनी। उनके हृदयमें आशा का संचार हो गया। श्रीभाईजी ने जब बोलनेसे विराम लिया, तब उन्होंने कहा-- "भाईजी आपके प्यार स्नेह और आत्मीयताने मुझे अभिभूत कर लिया है। आपने भगवान् के सौहार्द एवं सामर्थ्य की जो बातें कही है. उनपर मेरा विश्वास जमा है। अब मैं जीवनसे निराश नहीं हूँ, आप जो दवा की व्यवस्था करेंगे, मैं उसे विश्वासपूर्वक लूँगा और मन-ही-मन आपके अनुसार भगवान से प्रार्थना करूँगा।"

भाई साहबके मुखसे आशा भरे शब्द सुनकर पुलिस अधिकारी प्रफुल्लित हो गये। दोनों भाइयोंने श्रीभाईजी को प्रणाम किया और उनसे विदा ली।

दूसरे दिन श्रीभाईजी ने स्थानीय प्रसिद्ध वैद्यराजजी को बुलवाया और उनसे आयुर्वेदिक दवा की व्यवस्था करवायी। उस समयतक सल्फोन नामक ऐलोपैथिक दवा का, जिससे कुष्ठ रोगका निर्मूलन सम्भव है, प्रचलन नहीं था। भाई साहब यह दवा लेने लगे। असली दवा तो भगवान् से विश्वासपूर्वक करुण प्रार्थना एवं उनके नामका जप था, वे दोनों बराबर चलते रहे। कुछ महीनों में भाई साहब बिल्कुल स्वस्थ हो गये और अदालत में कार्य करने लगे।

इस घटनाने श्रीभाईजी के कोमल हृदयको कुष्ठरोगसे पीड़ित भाई-बहिनों की सेवा के लिये भी कुछ करनेके लिये प्ररित किया। संयोग से कुछ ही दिनों पश्चात् प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा राघवदास ने गोरखपुरमें कुष्ठ-सेवाश्रम की स्थापना का निश्चय किया और श्रीभाईजी उनके अन्यतम सहयोगी के रूपमें उनके साथ हो गये। आश्रमकी स्थापना के कुछ मास बाद पूज्य बाबाजी संत श्रीविनोबाजी के भूदान कार्य में लग गये और कुष्ठ-सेवाश्रमका पूरा उत्तरदायित्व श्रीभाईजीपर ही आ गया। अपने अत्यन्त व्यस्त जीवनमें से भी समय निकालकर श्रीभाईजी ने इस कार्य को ऐसे सुन्दर ढंगसे आगे बढाया कि आज गोरखपुरका कुष्ठ-सेवाश्रम देश की महत्वपूर्ण कुष्ठ-सेवा-संस्थाओंमें है और हजारों-हजारों निराश भाई-बहनोंको यह आशा एवं जीवन प्रदान कर रहा है।