Hanuman Prasad Poddar ji - 45 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 45

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 45


सरलता की मूर्ति

बात सन् ५४ की है। स्वामी करपात्री जी महाराज के सान्निध्य में गोहत्या निरोध आन्दोलन कलकत्तामें चल रहा था। समाचार मिला कि किसी कार्यवश पूज्य भाईजी हनुमानप्रसाद जी पोद्दार कलकत्ता आ रहे हैं। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उनके आगमन का लाभ उठाना चाहा और उक्त अवसरपर एक प्राइवेट मीटिंग का आयोजन किया।

दिनके ३ बजे मीटिंग प्रारम्भ होने वाली थी। पूज्य भाईजी के अलावा विशिष्ट कार्यकर्तागण आमन्त्रित थे। प्रायः सभी आ गये थे। पर भाईजी का कोई पता नहीं था। तीन बज चुके थे। सभी लोग भाईजी के इन्तजारमें थे। अन्तमें करीब ३ बजे एक सज्जन बोल उठे -- “भाईजी न मालूम आये न आयें मीटिंग चालू कर देनी चाहिये।”

इतनेमें कमरे के द्वार के पास ही बैठा सीधी-सादी लिवास पहने एक वृद्ध व्यक्ति बोल उठा- “मैं तो आ गया हूँ।”

सुनते ही सब अवाक् हो गये। उनमेंसे कोई भी व्यक्ति पूज्य भाईजी को चेहरे से नहीं पहचानता था। अतः उस सीधे सादे साधारण व्यक्ति को जूतों के पास बैठे हुए किसी ने न तो कोई आपत्ति की और न ज्यादा परिचय लेने की आवश्यकता समझी।

पर जब मालूम हुआ ये ही हैं पूज्य भाईजी, तो सभी बड़े शर्मिन्दा हुए और आदरपूर्वक उन्हें निश्चित स्थानपर बैठाया।

स्वर्गाश्रम (गीताभवन) में सत्संग

उत्तराखण्ड हमारे देश का शताब्दियोंसे साधना-स्थल रहा है। इसी उत्तराखण्ड की पवित्र भूमि ऋषिकेशमें श्रीसेठजी ने एक सत्संग-सत्र खोल दिया था। यह क्रम सं० 1978-79 (सन् 1921-22 ) के लगभग प्रारम्भ होकर अभीतक निर्वाध चल रहा है। प्रतिवर्ष श्रीसेठ जी चैत्र से आपाढ़ तक अधिकांश समय वहीं रहते एवं सत्संगियों का एक बड़ी ही श्रद्धा के साथ एकत्रित होकर सुरसरिकी कलकल करती पावन धारा से गुंजित पुलिनपर भगवदरस का आस्वादन करता। कुछ समय बाद यही आयोजन गंगाके तटपर, जिसे स्वर्गाश्रम कहते हैं, आयोजित होने लगा। उस समय वहा सघन जंगल था, रहने के लिये मात्र कुछ कुटियाएँ थीं। गंगातटपर विशाल वटवृक्ष की छायामें भगवद्रसका प्रवाह बहता रहता।

भाईजी सर्वप्रथम इस आयोजन का लाभ लेने के लिये बम्बईसे चैत्र शुक्ल पक्ष सं० 1981 (सन् 1924) में गये। इससे पूर्व वहाँ के सत्संगी श्रीसेठजी द्वारा इनकी साधनाके बारेमें बहुत कुछ बातें जान गये थे। भाईजी ने वहाँ श्रीसेठजी के मार्मिक प्रवचनोंका लाभ उठाया ही, साथ ही सत्संगी भाइयों के आग्रहपर अपनी साधनामें कैसे उन्नति हुई, इसपर भी प्रकाश डाला। यद्यपि भाईजी उस समय केवल तीन दिन ही रह सके, पर इनके अन्तरतल की अनुभूत बातें सुनकर सभी प्रभावित हुए। इसके पश्चात् भाईजी 'कल्याण' के कार्यवश तो नहीं जा पाते थे पर प्रायः जाया करते थे। सं० 1986 (सन् 1929 ) के चैत्र मासमें जब भाईजी गये तब स्वामी शिवानन्दजी से मिले थे, और उसी वर्ष श्रीनारायण स्वामीसे मिलकर उनके साधनमय जीवन के अनुभव की बातें लिखी थी। श्रीनारायण स्वामी एक अमीर घरानेमें पैदा हुए एक उच्च शिक्षित पुरुष थे। उस समय निरन्तर मौन रहकर 'नारायण' नाम का जप करते थे और अपने पास कुछ भी संग्रह नहीं करते थे। बादमें उनकी अनुभव की बातें गीताप्रेस से 'एक सन्त का अनुभव' नामक पुस्तक रूपमें प्रकाशित हुई। उस वर्ष भाईजी गंगातटपर रात्रि के समय उन्मत्त अवस्थामें मधुर नृत्य करते हुए विलक्षण ढंग से संकीर्तन कराते थे।

श्रीसेठजीका तो हर वर्ष ही भाईजी को बुलाने का मन रहता था, किन्तु भाई जी जा नहीं पाते थे। आगे चलकर यहीं गंगातटपर सत्संगी भाइयों के निवास हेतु 'गीताभवन' नामक एक विशाल भवन का निर्माण हुआ। एक सत्संग-हॉल का भी निर्माण हुआ एवं स्नान की सुविधा के लिये विशाल घाट भी बने। भाईजी के प्रवचन बड़े ही हृदयस्पर्शी हुआ करते थे और अध्यात्म–मार्ग के पथिक इस सत्संग-सत्र की उत्सुकता पूर्वक प्रतिक्षा करते रहते। श्रीसेठजी के देहावसान के पश्चात् इस आयोजन का सम्पूर्ण दायित्व भाईजी पर ही आ गया। उसके बाद भाईजी हर वर्ष जाते एवं दो-तीन महीने स्वर्गाश्रम ही रहते थे। 'कल्याण' का सम्पादन कार्य भी वहीं से होता था। श्रीसेठजी के सामने सत्संग का क्रम लगभग बारह - तेरह घण्टे प्रतिदिन चलता था एवं उन दिनों श्रीसेठजी के आग्रह से भाईजी भी चार–पाँच घण्टे प्रतिदिन प्रवचन देते थे। श्रीसेठजी के पश्चात् भाईजी प्रायः एक-एक घण्टे दो समय सत्संग कराते थे। सच्चे साधक, जो एक बार इस रस का आस्वादन कर लेते वे प्रायः हर वर्ष ही आनेका प्रयत्न करते। अन्य सन्त-महात्माओं को आमन्त्रित करके उनके प्रवचनों की भी व्यवस्था की जाती थी। प्रवचन के अतिरिक्त साधक भाईजी से एकान्तमें भी अपनी-अपनी व्यक्तिगत समस्याओंका हल पूछने हेतु समयकी माँग करते रहते थे। प्रवचनके समय भी सत्संगी भाई अपने-अपने प्रश्न लिखकर भाईजी को दे देते, जिनका भाईजी समाधान करते थे। रात्रिमें भाईजी के निवास स्थान (डालमिया कोठी) पर पद गायन एवं संकीर्तन का कार्यक्रम रहता और पूर्णिमा, अमावस्या एवं एकादशी को गीता-भवनमें संकीर्तन का आयोजन होता था। भाईजी सं० 2੦26 (सन् 1969) तक बराबर जाते रहे, केवल एक वर्ष स्वास्थ्य ठीक न रहनेसे नहीं जा सके।

श्रीसीतारामदास ओंकारनाथ महाराजका गोरखपुर आगमन

श्रीसीतारामदास ओंकारनाथ महाराज एक विख्यात बंगाली महात्मा थे। जनतामें उनको सिद्ध पुरुष मानकर आदर किया जाता था। 'कल्याण' पढ़कर इनका आकर्षण भाईजी की ओर हुआ। इसके पश्चात् वे 'कल्याण' के विशेषांकों के रुचिपूर्वक अध्ययन करने लगे। सन् 1953 के लगभग पहली बार भाईजी के दर्शन किये। इनके लेख भी 'कल्याण' में प्रकाशित होने लगे, फिर ये मौन हो गये और उसी अवधिमें गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकों का बंगानुवाद किया। इसी समय इनकी इच्छा गीताप्रेस के द्वारपर दण्डवत प्रणाम करने की हुई। सन् 1955 में इन्होंने मौन त्याग दिया और भगवन्नाम-प्रचार करते हुए गोरखपुर पधारे। गीताप्रेसके द्वारपर कीचड़ में ही दण्डवत प्रणाम किया और भाईजी ने साथ रहकर पूरा प्रेस दिखाया। भाईजी के प्रेम-व्यवहार ने चिरकाल के लिये इनके हृदयपर अधिकार जमा लिया पुनः मौनकी अवधिमें इन्होंने भाईजी की भाषा टीका की सहायता लेकर श्रीरामचरितमानस का बंगलामें अनुवाद किया एवं उस अनुवाद को भाईजी एवं श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामीके नामसे उत्सर्ग किया। उत्सर्ग-पत्रमें उन्होंने लिखा-

"अनन्त करुणा–पारावार पुरुषोत्तम श्रीभगवान् दो अलौकिक यंत्रों को लेकर इस दारुण कलियुगमें सर्वत्र जो धर्म प्रचार, श्रीनाम-प्रचार और शास्त्र-प्रचार कर रहे हैं, इस प्रकारके प्रचारकी बात मैंने किसी इतिहास पुराणमें नहीं देखी अथवा किसी धर्म प्रचारकने इस प्रकार विश्वव्यापी धर्म-प्रचार किया हो—यह नहीं सुना। श्रीभगवान् के सुन्दर उदित दो रमणीय चन्द्र- परमप्रेमभाजन अशेषश्रद्धास्पद 'कल्याण- सम्पादक' श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार महाशय और श्रीयुत् चिम्मनलालजी गोस्वामीके पवित्र नामपर उनके प्रति अति प्रियतम 'श्रीरामचरितमानस' का बंगानुवाद उत्सर्ग किया।"

सन् 1964 में पुनः गोरखपुर पधारे। उस समय उनके ठहरने की व्यवस्था भाईजीने अपने निकट गीतावाटिकामें ही की। ये भाईजीके प्रेम–व्यवहारसे अत्यन्त प्रभावित हुए। इसके बाद इनका भाईजीके साथ बराबर पत्र–व्यवहार होता रहा। अप्रैल 1966 ये भाईजीके निवास स्थानपर स्वर्गाश्रम पधारे। भाईजीके स्वर्गाश्रम प्रवासका यह अन्तिम वर्ष था। उस समय भाईजीके पेटमें शूल था पर उसे भूलकर वे उनके सत्कारमें लग गये। आनन्दपूर्वक बातें की, कीर्तनसत्संग हुआ और उन्हें पहुँचानेके लिये गंगाजीके घाटपर गये। प्रचुर मात्रामें फल देकर उन्हें विदा किया। वे जैसे ही बोटमें बैठकर रवाना हुए कि पेटका भीषण-शूल पुनः प्रकट हो गया और भाईजी बड़ी कठिनाईसे निवास स्थानतक पहुँच सके।

इन्होंने भाई जी के लिए लिखा है कि–
श्रीपोद्दार बाबाके शरीरके आश्रयसे हमारे प्रभुने जो अपूर्व शास्त्र-प्रचार एवं धर्म-प्रचार की लीला की है, वह न कभी हुई है और न होगी। ऐसे संत के चरणों में मस्तक अपने-आप नत हो जाता है।..........श्रीभगवान् के धर्म प्रचारके अनुपम यन्त्र श्रीपोद्दार बाबा थे -- उनके हृदयपर अधिकार करके श्रीभगवान् स्वयं ही कार्य कर रहे थे। उनके भीतर और बाहर श्रीभगवान् ही विद्यमान थे। श्रीपोद्दार बाबा मुक्त थे। इस प्रकारका शास्त्र - प्रचार एवं धर्म प्रचार देहाभिमानी द्वारा नहीं हो सकता।..........सर्वहारी युगमें सनातन धर्मकी रक्षा तथा विश्वका परम कल्याण करनेके लिये ही श्रीभगवान्‌की इच्छासे श्रीपोद्दार बाबाके शरीरका आश्रय लेकर 'कल्याण' मासिक पत्रिकाका आविर्भाव हुआ है। दुःख - शोक - रोग - ज्वाला - यन्त्रणासे सतत संतप्त पथभ्रान्त असंख्य नर-नारी 'कल्याण' की शान्त स्निग्ध, सुशीतल छायामें विश्राम प्राप्त कर कृतार्थ हुए हैं और हो रहे हैं। आश्चर्य की बात। है कि इस कलि कलुष कलुषित, शास्त्र - धर्म विवर्जित समयमें सनातन शास्त्र और धर्मका प्रचार करने वाले 'कल्याण' की ग्राहक संख्या डेढ़ लाखसे ऊपर है।..........जैसे सागरकी उपमा सागर, आकाशकी उपमा आकाश है, उसी प्रकार हमारे श्रीपोद्दार बाबाकी उपमा हमारे पोद्दार बाबा थे।”