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संत तुकाराम

कई संतों ने समय-समय पर इस धरती पर जन्म लिया और अपने विचारों और चमत्कारों से समाज को सही रास्ता दिखाया। तुकाराम जी भी उन संतो में से एक थे।

संत तुकाराम जी 17 वी शताब्दी के न सिर्फ एक महान संत और कवि थे बल्कि वे भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ भी थे। उन्होंने अपनी शिक्षा और भक्ति मार्ग से लोगों का मार्गदर्शन किया। वे हमेशा जाति और धर्म से ऊपर उठकर इंसानियत का पाठ पढ़ाया करते।

तो आइए जानते हैं मन को पुलकित कर देने वाली संत तुकाराम जी की गाथा को।

बात है सन 1608 की। जहां महाराष्ट्र स्थित पुणे में इंद्रायणी नदी के तट पर एक छोटा सा गांव है ‘देहू’। जनश्रुति के अनुसार इस स्थान पर महान संत तुकाराम का जन्म हुआ। उनका बचपन ममतामई मां ‘कनकई’ और पिता ‘बोलहोबा’ की देखरेख में बड़े आनंद में बीता। प्यार से उन्हें सब तुकोबा कहकर बुलाते थे।

उनके पिता विट्ठल जी के परम भक्त थे। पिता का अनुसरण करते हुए तुकाराम भी इस भक्ति रस में डुबकी लगाते रहते थे। हालांकि उनके परिवार का खुद का खुदरा बिक्री का व्यवसाय और खेती का व्यापार था। इसलिए तुकाराम जी को कभी किसी भी बात की चिंता नहीं थी। हंसते खेलते बचपन ने जवानी की ओर कब रुख कर लिया पता ही नहीं चला। लेकिन भविष्य के गर्भ में कुछ और ही लिखा था।

तुकाराम जी जब लगभग 18 साल के हुए तब उनके पिता का देहांत हो गया। इसके 1 साल बाद उनकी मां का स्वर्गवास हो गया। तुकाराम जी पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। मां ने लाडले के लिए क्या नहीं किया था। जीवन में सब कुछ तो था लेकिन अब प्यार से खाना कौन खिलाएगा? कौन जीवन में आगे बढ़ने की राह बताएगा? यह सब सोचकर तुकाराम जी उदास हो गए।लेकिन सब्र रखा हिम्मत नहीं हारे। उदासीनता-निराशा के बावजूद 20 साल की अवस्था में प्रभु की भक्ति करते हुए घर गृहस्ती में मन लगाने का प्रयास करने लगे लेकिन काल को यह भी मंजूर नहीं था।

एक साल बाद परिस्थितियों ने प्रतिकूल रूप ले लिया और महाराष्ट्र में भयंकर अकाल पड़ा। समय था सन 1629 का। जब सूखा पड़ा और सुखी जमीन बारिश की एक बूंद के लिए तरस गई।‌ लेकिन जब बरसात हुई तो अतिवृष्टि में फसल बह गई। लोगों के मन में उम्मीद की किरण बाकी थी पर 1630 में बिल्कुल बारिश नहीं हुई। चारों ओर हाहाकार मच गया। अनाज की कीमत आसमान छूने लगी। हरी घास के अभाव में अनेक जानवरों के प्राण चले गए।
इस तरह अनाज की कमी, सैकड़ो लोगों की मौत का कारण बनी। इस भयानक अकाल ने तुकाराम जी से उनकी पत्नी और बेटे को भी छीन लिया। पत्नी और बेटे की मृत्यु तथा फैल रही गरीबी से सबसे ज्यादा प्रभाव तुकाराम जी पर पड़ा जिससे वे काफी दुखी हो गए।

अब उन्होंने खुद से चर्चा करने की ठानी और सह्राद्री पर्वत की श्रंखला पर ध्यान लगाने चले गए। उनके जीवन में यह वो समय था जब वो जिंदगी में आए हादसों से हार कर निराश हो चुके थे। जिंदगी पर से उनका भरोसा उठ चुका था। ऐसे में उन्हें किसी सहारे की जरूरत थी। लौकिक सहारा तो किसी का था नहीं। तो उन्होंने अपना सारा भार विट्ठल पर सौंप दिया और जीवन की नई शुरुआत की।

तुकाराम जी ने दूसरी शादी की। उनकी दूसरी पत्नी अवलाई जीजाबाई बड़ी झगड़ालू किस्म की थी। वह दिन रात तुकाराम जी को ताने देती थी लेकिन तुकाराम जी का मन श्री विट्ठल के भजन गाने में लगा रहता था। उनका मन और मस्तिष्क तो बस श्रीविट्ठल पर लगा रहा।

वह इतने सरल, दयालु और साधु प्रवृत्ति के थे कि लोग उन्हें सीधा सरल जानकर ठग लिया करते थे। एक साल तुकाराम जी के खेतों में गन्ने की काफी अच्छी फसल हुई। तुकाराम जी गन्नों से लदी बैलगाड़ी लेकर घर आ रहे थे लेकिन रास्ते में बच्चे-बूढ़े जो कोई भी गन्ने मांगते तुकाराम जी उन्हें देते चलते। घर तक पहुंचते-पहुंचते एक ही गन्ना बचा तो गुस्से में जीजाबाई ने गन्ना तुकाराम जी की पीठ पर दे मारा। गन्ने के दो टुकड़े हो गए। यह देखकर तुकाराम हंसते हुए जीजाबाई से बोले “यह लो ईश्वर ने तुम्हारे और मेरे लिए गन्ने के दो बराबर टुकड़े कर दिए है।” जीजाबाई क्या कहती क्षमा और प्रेम के अनंत सागर को देखकर पत्नी की आंखों से आंसू छलक पड़े।

ऐसा ही सहनशीलता का दूसरा किस्सा है–
जब तुकाराम जी कीर्तन सुनाते थे। तब एक व्यक्ति उनकी सभा में रोज आया करता था एक दिन तुकाराम जी की भैंस ने उस व्यक्ति के खेत को झर दिया इस पर गुस्साए उस व्यक्ति ने तुकाराम जी को न सिर्फ गालियां दी बल्कि कांटो वाली छड़ी लेकर बहुत पीटा लेकिन तुकाराम जी ने उफ तक नहीं किया। अब संध्या के समय जब वह व्यक्ति कीर्तन में नहीं पहुंचा तो तुकाराम जी स्नेह पूर्वक उसे लेने चले गए। यह देखकर वह व्यक्ति बहुत शर्मिंदा हुआ और उनके पैर पर गिर कर रोने लगा और क्षमा याचना करने लगा।

समय बीतता गया..
प्रभु के ध्यान में, भगवत भजन में, कीर्तन में या फिर एकांत ध्यान में तुकाराम जी रहने लगे। प्रातः काल नित्य कर्म से निवृत होकर ये विट्ठल भगवान के मंदिर में जाते और वही पूजा पाठ और सेवा करते। फिर इंद्रायणी नदी के उस पार भागनाथ पर्वत पर एकांत स्थल में ज्ञानेश्वरी या एकनाथी भागवत का पारायण करते और दिन भर हरि नाम स्मरण करते। शाम होने पर गांव में हरि कीर्तन सुनते, जिसमें आधी रात बीत जाती। इसी समय इनके घर में मौजूद श्री विट्ठल जी का मंदिर जो श्री विशंभर बाबा द्वारा बनाया हुआ था और अब जीर्णशीर्ण हो गया था। उसकी इन्होंने अपने हाथों से मरम्मत की। इस तरह अनेक साधनों के फलस्वरुप तुकाराम जी का मन अखंड नाम के स्मरण में लीन होने लगा। अब भगवत कृपा से कीर्तन करते समय इनके मुख से अभंगवाणी निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान, ब्राह्मण और साधु-संत इनकी प्रकांड ज्ञानमय कविताओं को देखकर इनके चरणों में नत होने लगे।

पुणे से 100 मील दूर बादौली नामक स्थान में एक वेद-वेदांग के पंडित रामेश्वर भट्ट रहते थे। जब उन्होंने सुना कि तुकाराम के मुख से मराठी अभंग निकल रहें है और ब्राह्मण वर्ण के लोग उन्हे संत जानकर मान और पूज रहे है। यह बात उन्हें जरा भी पसंद नहीं आई। उन्होंने देहू के हाकीम से तुकाराम जी को देहू छोड़कर कहीं चले जाने की आज्ञा दिलाई। इस पर तुकाराम जी पंडित रामेश्वर भट्ट के पास गए और उनसे बोले– “मेरे मुंह से जो अभंग निकलते है सो भगवान पांडुरंग की आज्ञा से ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण है, ईश्वरत है। आपकी आज्ञा है तो मैं अभंग बनाना छोड़ दूंगा पर जो अभंग बन चुके हैं और जो लिख रखे हैं उनका क्या करूं।” इस पर भट्ट जी ने जवाब दिया – “उन्हे नदी में बहा दो।” ब्राह्मण की आज्ञा स्वीकार कर साधु प्रवृत्ति के तुकाराम जी ने देहू लौटकर अभंग की सारी बहियां इंद्रायणी नदी में बहा दी और श्रीविट्ठल जी के मंदिर के सामने एक शीला पर बैठ कर रोने लगे। कहने लगे– “या तो भगवन् ही मिलेंगे या इस जीवन का अंत होगा।” इस प्रकार हठीले भक्त तुकाराम जी श्री पांडुरंग के साक्षात दर्शन की लालसा लिए उस शीला पर 13 दिनों तक बिना कुछ खाए पिए बैठे रहे। आखिर में उनके इस तप को देखकर चौदहवे दिन भगवान श्री विट्ठल को खुद प्रकट होना पड़ा। भगवान ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी पौथिया उन्हे सौंप दी। जब इस घटना का पता रामेश्वर भट्ट को चला तो वे भी तुकाराम जी के शिष्य बन गए। संत तुकाराम जी के चमत्कार और श्रीविट्ठल के प्रति उनकी भक्ति की ख्याति दूर-दूर तक पहुंचने लगी और पहुंचते-पहुंचते छत्रपति शिवाजी महाराज तक जा पहुंची तो शिवाजी महाराज के मन में भी उनके दर्शन की लालसा होने लगी। महाराज शिवाजी संत तुकाराम के दर्शन करने के लिए उनकी कीर्तन सभा में आए लेकिन यहां कुछ सैनिक बादशाह की आज्ञा से शिवाजी महाराज को धड़ पकड़ने को पहुंच गए। ऐसा कहा जाता है कि तब शिवाजी महाराज की रक्षा करने के लिए तुकाराम जी ने अपनी चमत्कारी शक्ति से वहा बैठे सभी लोगों को शिवाजी महाराज का रूप दे दिया। जिससे सैनिक अपना सिर पीटते हुए वहां से खाली हाथ लौट गए।

भक्ति और भलाई का सिलसिला यूं ही चलता रहा। सारा जीवन प्रभु भक्ति और जन सेवा को समर्पित कर 1649 को संत तुकाराम जी इस लोक से विदा हो गए। उनका मृत शरीर किसी ने नहीं देखा। कई लोगों का मानना है कि वह मरे ही नहीं भगवान स्वयं उन्हें देह सहित विमान में बैठाकर अपने वैकुंठधाम ले गए। ऐसा कहा जाता है कि वैकुंठ सिधारने के बाद भी तुकाराम जी महाराज कई बार भक्तों के सामने प्रकट हुए।

देहू और लोह गांव में तुकाराम जी के अनेक स्मारक है। उनका जीता जागता और सबसे बड़ा स्मारक अभंग समुदाय हैं। 4000 अभंगो के माध्यम से हरीभक्ति की प्रेरणा देने वाले इस संत की स्मृति में उनके गांव देहु में हर साल विशाल मेला लगता है। आज भी लोग उनके कीर्तन के माध्यम से श्री विट्ठल का ध्यान करते हैं।

आषाढी एकादशी को उनके गांव देहू से पंढरपुर तक तुकाराम जी की पालकी ले जाइ जाती है। दुनियादारी निभाते हुए एक आम आदमी किस प्रकार से संत बन कर हमें यह सीख दे गए कि मनुष्य को जाति या धर्म के मतभेद से उठकर प्रभु भक्ति और सदाचार के बल पर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए।


.....वाणी.....

पवित्र तें कुळ पावन तो देश ।
जेथें हरिचे दास जन्म घेती ।।
‘वह कुल पवित्र है, वह देश पावन है जहाँ हरि के दास जन्म लेते हैं।’ वर्णाभिमान से कोई पावन नहीं हुआ और कनिष्ठ जातियों में भी साधु-महात्मा हुए हैं। तुकाराम जी कहते हैं—
“अन्त्यजादि भी हरि-भजन से तर गये, पुराण उनके भाट बन गये। तुलाधार वैश्य था, गोरा कुम्हार था, धागा और रैदास चमार थे। कबीर जुलाहा था, लतीफ मुसलमान था, विष्णुदास सेना नाई था, कान्हूपात्रा वेश्या थी, दाहू धुनिया था, पर भगवान् के चरणों में — भगवद्भजन में कोई भेद नहीं। चोखामेला और बंका महार थे, पर सर्वेश्व के साथ उनका मेल था। नामा (संत नामदेव) की दासी जना की कैसी भक्ति थी कि पण्ढरिनाथ उसके साथ भोजन करते थे। मैराल जनक का कुल क्या श्रेष्ठ था ? पर उसकी भक्ति-महिमा का बखान कहाँ तक करूँ?”
तात्पर्य यह है कि “विष्णु-दासों के लिये जात-कुजात नहीं हैं, यह वेद-शास्त्रों का निर्णय है। तुका कहता है, आप लोग ग्रन्थों में देखिये, कितने पतित तर गये जिनकी कोई संख्या नहीं।”

..... भगवान् भाव के भूखे हैं, ऊँच-नीच भेद उनके यहाँ नहीं है–
“भगवान् ऊँच-नीच नहीं देखा करते, भक्ति जहाँ देखते हैं वहीं ठहर जाते हैं। दासी-पुत्र विदुर के यहाँ उन्होंने चावल की कनियाँ खाई, दैत्य के यहाँ रहकर प्रह्लाद की रक्षा की। कबीर से छिपकर उनके वस्त्र बुन दिया करते थे। साँवता माली के साथ खुरपे से खुरपते थे। नरहरि सुनार के यहाँ सुनारी करते थे। नामा की जना के साथ गोबर बटोरते थे और धर्मा के यहाँ झाड़ते-बुहारते और पानी भरते थे। नामा के साथ निःसंकोच होकर भोजन करते और ज्ञानदेव की भीत खींचते थे। सारथी बनकर अर्जुन के घोड़े हाँके और प्रेम से सुदामा के चावल खाये। ग्वालों के यहाँ स्वयं ही गौएँ चरायीं और बलि के द्वार पहरा दिये। एकनाथ का ऋण पटाया और अम्बरीष के लिये गर्भवास भोगा। मीराबाई के लिये विष का प्याला पी गये और दामाजी का देन भरा। गोरा कुम्हार के मटके बनाये, मट्टी ढोयी और नरसी मेहता की हुण्डी सकारी। और पुण्डलीक के लिये तो भगवान् अभी तक खड़े ही हैं। उनकी लीला धन्य है।”

..... ‘नारायणी जेणें घडे अंतराय’ (नारायण जिनके कारण छूटते हैं ऐसे माँ-बाप को भी भक्त भगवान् के लिये छोड़ देते हैं, फिर पुत्र, धन-मान किस गिनती में हैं? प्रह्लाद ने पिता को छोड़ा, विभीषण ने भाई का त्याग किया और भरत ने माता और राज्य दोनों को तज दिया। भगवान् के भक्त ऐसे त्यागी, विरक्त और एकनिष्ठ होते हैं।

..... न मनावें तैसें गुरुचें वचन। जेणें नारायण अंतर तें॥
“गुरु का भी ऐसा वचन न माने, जिससे नारायण का बिछोह हो।” यही बात दिखलाने के लिये तुकारामजी ने तीन बड़े मार्मिक उदाहरण दिये है– एक राजा बलि का, दूसरा ऋषि पत्नियों का और तीसरा गोपियों का।
‘शुक्राचार्य भगवद्भक्तिमें बाधक होने लगे इसलिये राजा बलि ने उनकी एक आंख फोड़ डाली और अपने गुरु को एक आँख से अन्धा कर दिया। ऋषि पत्नियों ने ऋषियों की आज्ञा का उल्लंघन किया और अन्न उठाकर ले गयीं।
विधि-नियम, शास्त्राचार और नीति बन्धन इन सबका पालन अत्यावश्यक है, यह बात तुकाराम जी किसी से कम नहीं जानते थे। उन्होंने इन बन्धनों को तोड़ने वाले दुराचारियों और दाम्भिकों को बहुत बुरी तरह से फटकारा है। विषय-सुख के लिये, आचार-धर्म का उल्लंघन करने वालों के लिये नरक की ही गति है इसमें सन्देह ही क्या है? पर 'सतां गतिः' स्वरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये सर्वत्र न्योछावर करना पड़ता है, यह भक्ति-शास्त्र का सिद्धान्त है। भक्ति-शास्त्र की दृष्टि से धर्माधर्म-विवेक तुकाराम जी इस प्रकार बतलाते हैं—
देव जोडे ते करावे अधर्म। अंतरे तें कर्म नाचरावें।।
‘जिससे भगवान् मिले वह ( लोक-दृष्टि में ) अधर्म भी हो तो करे; जिससे भगवान् छूट जायँ वह कर्म न करे।’
बलि, ऋषि-पत्नी और गोपियों की अनन्य भक्ति पर भगवान् मुग्ध हो गये, अनन्य प्रेम के वश में हो गये, और इन भक्त प्रेमियों के हाथो लोक दृष्टि में अधर्म हुआ तो भी भगवान्ने उन्हें अनन्य भक्ति के कारण ‘वह दिया जो और किसी को न दिया।’ ‘अन्दर-बाहर सम्पूर्ण वही हो गया।’