Kya Tumne - Part 3 books and stories free download online pdf in Hindi

क्या तुमने - भाग - ३

मंडप में बैठी महिलाओं के ऐसे व्यंग वाण सुनकर एक समझदार महिला ने कहा, “तुम लोग क्या फिजूल की बातें कर रहे हो। अरे सूरत शक्ल में क्या रखा है। गोरे काले में क्या फ़र्क़ है, सब एक जैसे ही होते हैं। बस छोरी को प्यार से रख ले, मारे कूटे नहीं तो समझो सब अच्छा है।”

महिलाओं की इस तरह की बातें मोहन के मन में फेविकोल की तरह चिपक गईं।

विवाह तो हो गया पर इन बेफिजूल की बातों ने विवाह के साथ ही मोहन के मन में शक का एक भयानक बड़ा ही खतरनाक कीड़ा उत्पन्न कर दिया, जो धीरे-धीरे उसे काटने लगा। दिन-रात वही शब्द उसके कानों में गूंजते रहते, ‘देखना यह शादी ज़्यादा दिन नहीं टिकेगी’, ‘भाग जाएगी यह लड़की किसी के साथ।’ इन शब्दों ने पहले ही दिन से मोहन के मन में मैल भर दिया। यह मैल था शक का, जिसकी सफ़ाई आसान नहीं होती।

हर इंसान की सोच और सहनशक्ति भी अलग-अलग होती है। इन कटु शब्दों ने पति पत्नी दोनों के लिए अलग-अलग स्वरूप ले लिया। यदि मोहन शक की अग्नि में जल रहा था तो वहीं बसंती ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह ऐसे बेकार की बातें करने वाले लोगों को ग़लत सिद्ध करके दिखाएगी। जिसके साथ गठबंधन हुआ है जीवन की अंतिम सांस तक उसका साथ निभाएगी, उसे बहुत प्यार करेगी।

आज उनकी सुहाग रात थी। इस समय भी मोहन से रहा नहीं गया और उसने वह ज़िक्र छेड़ ही दिया। उसने कहा, “बसंती तुम बहुत सुंदर हो, क्या तुम मेरे साथ प्यार से रह पाओगी? वहाँ पीछे बैठी महिलाएँ जो कानाफूसी कर रही थीं, पंडित के मंत्रों के बीच वह आवाजें मेरे कान में ज़हर घोल रही थीं।”

बसंती ने कहा, “लोगों का क्या है, वह तो बोलते रहते हैं। यदि मुझे मना करना होता तो मैं पहले ही मना कर देती। लेकिन मुझे रूप रंग से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यह तो भगवान का बनाया हुआ है। तुम बस मुझे प्यार से रखना, कभी मार कुटाई मत करना। मुझे उस से बहुत डर लगता है। मैं बचपन से देखती आई हूँ कि लोग दारू पीकर घर वाली को कितना मारते हैं, गाली देते हैं। तुम बस मेरे साथ वह सब मत करना। मैं केवल तुम्हारी हूँ और हमेशा तुम्हारी ही रहूंगी। तुम उन लोगों की फिजूल बातों को दिल से मत लगाओ, भूल जाओ उन सब बातों को।”

बसंती के प्यार से इतना समझाने के बाद भी शक का कीड़ा मरा नहीं वह ज़िंदा था और धीरे-धीरे विकराल रूप ले रहा था।

जयंती और गोविंद बहुत ख़ुश थे। पूरा परिवार एक छत के नीचे प्यार से रह रहा था। गोविंद के माता-पिता काफ़ी समझदार थे। घर में उनकी किसी तरह की कोई दखलंदाजी नहीं थी। अपना खाना पीना और भजन-कीर्तन ही उनका नित्य का काम था।

गोविंद और मोहन दोनों मिलकर दुकान का काम करते थे और अच्छा कमा लेते थे। दोनों वक़्त भरपेट खाना, पहनने को कपड़े और घर सब कुछ था। ज़्यादा ना सही पर जितना था उनके लिए पर्याप्त था, वह ख़ुश थे। बसंती और जयंती भी बहुत ख़ुश थीं। उनके माता-पिता भी अपनी बेटियों के लिए बेफिक्र हो गए थे। यह सोच कर कि अपने से बड़े घर में ब्याहा है। अच्छे लोग हैं, दोनों बेटियाँ साथ हैं तो हमेशा ख़ुश ही रहेंगी। लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः