Anokhi Prem Kahani - 14 books and stories free download online pdf in Hindi

अनोखी प्रेम कहानी - 14

पालकी के अन्दर बैठी कामायोगिनी कुछ क्षणों तक कुँवर को निहार मुस्कुरायी , फिर गंभीर होकर बोलीं , ' चित्त को शांत कर मेरी बातें एकाग्र होकर सुनो वत्स ! प्राणी का जीवन और उसकी चेतना शरीर में श्वास द्वारा निरंतर प्रवाहित होने वाली वायु पर ही अवलम्बित है । ' ' चेतना ही तो जीवन है ... इन दोनों को पृथक क्यों कर रही हैं , देवि ? ' ' नहीं वत्स ! अचेत प्राणी क्या जीवित नहीं होता ? दोनों की सत्ता पृथक् है । चेतना का प्रत्यक्ष सम्बंध चेतन मस्तिष्क से है । ' ' चेतन मस्तिष्क से आपका अभिप्राय क्या है , देवि ? ' ' मुख्य तौर पर हमारे मस्तिष्क के तीन प्रकोष्ठ हें - चेतन , अवचेतन तथा अचेतन मनुष्य चेतन प्रकोष्ठ के ही अत्यंत लघु अंश के द्वारा ज्ञान , अनुभव एवं विचारों का आदान - प्रदान करता है तथा जीवन के समस्त कार्यों का सम्पादन करता है । चेतन प्रकोष्ठ के इस अंश को हम चेतना का जागृत अंश कह सकते हैं । नासिका के दोनों द्वारों द्वारा प्रेषित वायु इस जागृत अंश का पोषक है । श्वास के इन द्वारों का सम्बन्ध जिन दो नाड़ी विशेष से है उन्हें हम ' इड़ा ' और ' पिंगला ' के नाम से जानते हैं । इड़ा चेतना है और पिंगला जीवन । मस्तिष्क के जाग्रत अंश को इन दोनों नाड़ियों द्वारा पोषण प्राप्त होता है इसीलिये इस अंश में जीवन और चेतना - दोनों विद्यमान हैं । परन्तु मस्तिष्क के शेष विस्तृत भाग को मात्र पिंगला पोषित करती है । अतः , वे भाग जीवित होकर भी चेतना - विहीन हैं वत्स ! " ' ऐसा क्यों है माता ? यदि मस्तिष्क के अत्यंत लघु क्षेत्र की चेतना ही इतनी सक्षम है कि मनुष्य अपने जीवन के समस्त कार्य करने में सर्वथा समर्थ है , तो परमात्मा ने मस्तिष्क के इन अतिरिक्त प्रकोष्ठों की रचना किस उद्देश्य से की है ? ' कामायोगिनी मुस्करायी - मनुष्य की चेतना का आधार मनुष्य की ज्ञानेंद्रियाँ हैं । नेत्र जो देखते हैं , नासिका जो ग्रहण करती है , कर्ण जो सुनते हैं , जिह्ना जो ग्रहण करती है तथा त्वचा जो स्पर्श करती है - हमारे मस्तिष्क की चेतना उसे ही देखती सुनती और अनुभव करती है । मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्रेषित सूचनाएँ इतनी पर्याप्त होती हैं , जिनसे जीवन - चक्र प्रकृति के अधीन सफलतापूर्वक सम्पन्न होता रहता है । परन्तु , यह पशु भाव है , वत्स । जो इन्द्रियातीत है , जिसे हमारी पाँचों इन्द्रियां सम्मिलित होकर भी ग्रहण नहीं कर पातीं , वह है अतीन्द्रिय ज्ञान । इन्द्रियों का ज्ञान सत्य प्रतीत होते हुए भी अर्द्ध सत्य है वत्स ! और पूर्णसत्य है अतीन्द्रिय ज्ञान । मस्तिष्क के सम्पूर्ण प्रकोष्ठ में जब चेतना का जागरण होता है , तो हम पूर्ण सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं । तुम जान चुके हो , मस्तिष्क के शेष प्रकोष्ठ जीवित होते हुए भी चेतना - विहीन इसीलिए है , क्योंकि जीवन तथा चेतना के लिए आवश्यक इड़ा और पिंगला का सम्मिलित पोषण उसे प्राप्त नहीं होता । किसी विधि विशेष से यदि इड़ा द्वारा प्रेषित पोषक तत्व का सम्प्रेषण मस्तिष्क के सुप्त प्रकोष्ठों तक संभव हो जाए तो संभवतः उनमें जीवन के साथ - साथ चेतना का भी संचार हो सकता है , परन्तु इसमें संशय है । | वस्तुतः अतीन्द्रिय चेतना द्वैत नहीं , अद्वैत है वत्स ! वहाँ दो विभिन्न सत्ताएं नहीं होतीं । दोनों का सायुज्य हो जाता है । जीवन और चेतना का अलग - अलग द्वैत अस्तित्व अद्वैत हो जाता है । ' ' यह कैसे संभव है माता ? क्या इड़ा एवं पिंगला अपने स्वतंत्र अस्तित्व को खोकर एक हो जाती हैं ? ' ' नहीं वत्स ! दोनों के मध्य एक तीसरी नाड़ी होती है , जो अद्वैत है । इसमें जीवन एवं चेतना के सम्मिलित पोषण का सामर्थ्य.है । इस नाड़ी को सुषुम्ना कहते हैं वत्स ! ' ' आपका तात्पर्य यह है कि चक्रों के जागरण के पूर्व मुझे सुषुम्ना का जागरण करना होगा ? ' ' चक्रों के लिए अब ' जागरण ' शब्द का उपयोग निरर्थक हो गया वत्स ! तुम जान चुके हो- ' जागरण'चक्रों का नहीं , उनसे सम्बंधित मस्तिष्क के प्रकोष्ठ विशेष का होता है । इसे और स्पष्ट कहो तो जागरण होता है चेतना का । चेतना ऊर्जा है और • ऊर्जा ही शक्ति है । इसीलिये इसे शक्ति का जागरण भी कहते हैं । अब तुम्हारे मूल प्रश्न का समाधान करती हूँ । वह है सुषुम्ना का तुम्हारा प्रश्न । चक्र - साधना के पूर्व जितनी तैयारियां तुम्हें करनी हैं , उनमें सर्वप्रथम यही है वत्स ! मैं तुम्हें सुषुम्ना - जागरण का सवोत्तम मार्ग बताऊँगी , जिसे , प्राणायाम साधना कहा जाता है । इसके पश्चात् ही तुम्हारे षट्चक्र - नृत्य की साधना प्रारंभ होगी । ' कुँवर दयाल सिंह एकाग्र होकर इन नवीन रहस्यों से अवगत हो रहा था । कामायोगिनी कह रही थी तुम्हारे गुरु ने जो षट्चक्र • नृत्य की शिक्षा हेतु तुम्हें प्रेरित किया है , अब उसके रहस्यों को जान लो । हमारे शरीर में ऐसे सुषुप्त केन्द्र अवस्थित हैं , जिनका प्रत्यक्ष सम्बध मस्तिष्क के विभिन्न भागों से जुड़ा है । इनकी संख्या छह है । इन्हें ही षट् शक्ति चक्र कहा जाता है । इन छह चक्रों ने मस्तिष्क को छह विभिन्न - जाग्रत , अर्द्ध जाग्रत एवं सुप्त प्रकोष्ठों में विभाजित कर रखा है । एक - एक चक्र के जागरण का अर्थ है मस्तिष्क के उन प्रकोष्ठों का जागरण , जिनका • सम्बंध उस चक्र विशेष से है । समझ रहे हो मेरी बात ? ' ' हाँ देवि ! आपकी बातें रहस्यमयी , परन्तु अद्भुत हैं । अब मुझे षट्चक्र - नृत्य के रहस्य का भी आभास हो गया माते ! आपका षट्चक्र - नृत्य अवश्य ही षट्चक्रों के जागरण की एक विशिष्ट पद्धति है । ' ' तुम्हारी मेधा विलक्षण है ! तुम्हारे समान शिष्य पाकर वास्तव में मैं भी धन्य हूँ , वत्स ! ' अब देवि यह भी बता दो , ये छह चक्र कहाँ - कहाँ अवस्थित हैं तथा हमारे मस्तिष्क के किन प्रकोष्ठों से इनका सम्बंध - सम्पर्क जुड़ा है ? यह भी उत्सुकता है कि षट्चक्र - नृत्य किस प्रकार इन सुषुप्त चक्रों को जाग्रत करने में समर्थ होता है । साथ ही यह | जानना चाहता हूँ कि इस जागरण का प्रयोजन क्या है , क्योंकि निष्प्रयोजन तो कुछ नहीं है इस जगत में ? ' कुँवर के प्रश्नों पर कामायोगिनी मुस्करायी । ' बड़े चतुर हो वत्स ! एक ही प्रश्न में तुमने समस्त रहस्य पूछ लिया । संपूर्ण मस्तिष्क का जागरण , अर्थात् संपूर्ण चेतना का | जाग्रत हो जाना और संपूर्ण चेतना तो एक ही है , वह है परम आत्मा । मनुष्य तो उसी परम चेतना का अंश मात्र है , जिसे हम आत्मा कहते हैं , वत्स । अब तुम्हारे प्रारंभिक प्रश्न का उत्तर देती हूँ । इन छह चक्रों के केंद्र हैं - मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपुर , अनाहत , विशुद्धि एवं आज्ञा शरीर में सबसे प्रथम और सबसे • नीचे मूलाधार है तथा सबसे ऊपर मस्तक के केंद्र में आज्ञा चक्र । स्वाधिष्ठान से सम्बंधित सुप्त मस्तिष्क के जागरण से आनंद की प्राप्ति होती है , मणिपुर से आत्मविश्वास , अनाहत से प्रेम , विशुद्धि से विवेक और ज्ञान तथा आज्ञाचक्र से अन्तःज्ञान और अतीन्द्रिय शक्ति का उदय होता है । इन केंद्रों के जागरण के ज्ञात माध्यमों की संख्या नौ है । प्रथम माध्यम है ' मंत्र ' । | नियमित ' मंत्र जाप ' बहुत ही शक्तिशाली , सरल एवं निरापद मार्ग है , परंतु इसमें समय और धैर्य की आवश्यकता होती है । दूसरा माध्यम है- ' तपस्या ' । परन्तु यह जागरण का ऐसा अत्यधिक शक्तिशाली मार्ग है , जिसे साधारण जीव संभाल नहीं सकता । जागरण का तीसरा माध्यम है ' जड़ी - बूटी । ऐसीऔषधियाँ हैं , जिनसे मनुष्य के आंतरिक अंगों एवं स्वभाव का परिवर्तन और चक्रों का आंशिक अथवा पूर्ण जागरण भी संभव है । चौथी विधि है- ' राजयोग ' । परंतु इसकी गति अत्यधिक मंद होती है तथा • अधिकांश मनुष्य के लिए यह अत्यधिक कठिन विधि है , क्योंकि इसमें धैर्य , समय , अनुशासन एवं गुरु का निर्देशन आवश्यक है । पाँचवीं विधि है- प्राणायाम ' । इस माध्यम से चक्रों का जागरण विस्फोट की भांति होता है । यह | विस्फोट इतना तीव्र होता है कि कुण्डलिनी शक्ति अविलंब सहस्त्रर तक पहुँच जाती है । छठी विधि है- ' क्रियायोग ' । मनुष्य के लिए यह सबसे सरल तथा व्यावहारिक विधि है , क्योंकि इसमें मन से संघर्ष नहीं करना पड़ता । इस विधि से जागरण में न विस्फोट होता है , न धमाका , न झटका । इसीलिए इसे सम्हालना आसान होता है । सातवीं विधि है- ' तांत्रिक दीक्षा ' । इस विशेष विधि में गुरु द्वारा चक्रों का जागरण तथा उसका सहस्त्रर - गमन मात्र तीन क्षणों में एक ही साथ होता है । आठवीं विधि है- ' शक्तिपात ' । शिष्य पर गुरु द्वारा यह प्रयोग किया जाता है , जिसे शक्तिपात कहते हैं । परंतु , यह स्थायी न होकर प्रायः क्षणिक होता है और नौवीं विधि है- ' आत्मसमर्पण ' । परंतु , इस मार्ग में कई जन्म भी लग सकते हैं । ' | कुँवर दयाल सिंह ने प्रशंसा भरी दृष्टि से कामायोगिनी को | निहारते हुए कहा - ' चेतना - विस्तार का परिणाम क्या है , यह मैंने आज जान लिया , देवि ! आपके अंदर जो अद्भुत ज्ञान का | भण्डार है , वह अवश्य आपके जाग्रत चक्रों का ही परिणाम है , अन्यथा ज्ञान का इतना विस्तार मात्र अध्ययन - मनन से संभव नहीं । ' ' अपनी प्रशंसा सुनने हेतु मैंने तुम्हें यह सब नहीं बताया है , वत्स ! मैंने संक्षेप में उन समस्त विधियों से तुम्हें परिचित करा • दिया , जिनके द्वारा चेतना का जागरण संभव है । तंत्र में एक और विधि है , जिसकी आड़ में स्वतंत्रतापूर्वक आज व्यभिचार किया जा रहा है । मैंने इस पर इसीलिए चर्चा न की , क्योंकि वह तुम्हारे जैसे एक पत्नीव्रत और संतान की इच्छा रखने वाले के लिए नहीं है । ' ' आपकी बातों ने वास्तव में मुझे उलझा दिया माता ! आपके अनुसार चक्रों के जागरण के यदि उपर्युक्त मार्ग ही हैं तो फिर ' षट्चक्र ' नृत्य क्या है ? ' मैंने तुम्हें पूर्व में ही कहा था , मेरी बात पूर्ण एकाग्रतापूर्वक | सुनो , तुमने ऐसा किया होता तो मेरी बात पर अवश्य ध्यान देते । मैंने इन मार्गों को ज्ञात मार्ग कहा था । षट्चक्र - नृत्य का मार्ग या तो प्रायः अज्ञात है अथवा पूर्ण गुप्त है , वत्स ! ' तभी पालकी के बाहर से एक नारी - स्वर आया- ' हम आश्रम द्वार पर उपस्थित हैं , देवि । | कहारिन की मधुर वाणी ने कामायोगिनी को विस्मित कर दिया । ' इतनी शीघ्र ! ' कहकर कामायोगिनी मुस्कुरायी- तुम्हारे संग | वार्तालाप में इतनी खो गयी कुँवर कि दो कोस की यात्र समाप्त हो गयी और हमें यात्र के समापन का आभास ही न हुआ ... हम अपने आश्रम आ पहुँचे हैं ... आओ , आज का दिवस मेरे आतिथ्य में व्यतीत करो । कल सूर्योदय के साथ ही तुम्हारी शिक्षा प्रारंभ होगी ।वनस्पतियों से आच्छादित पर्वत शृंखला की उपत्यका में खड़ा कुँवर दयाल सिंह उदित हो रहे सूर्य को नमस्कार कर रहा था । पास ही मंद - मंद मुस्कराती कामायोगिनी भी खड़ी थी । चर्तुदिक पर्वतों से घिरा आश्रम का यह क्षेत्र जनसाधारण के दृष्टि - पटल से अज्ञात था । शाल की लकड़ियों और बांस से निर्मित नयनाभिराम आश्रम के पूर्व द्वार के पास निर्मल जल का एक सुन्दर सरोवर था । हंस की कई जोड़ियाँ जल किल्लोल में मग्न थीं । आश्रम के पश्चिम पशुशाला में गाएँ शांत बैठी जुगाली कर रही थीं । उत्तराखण्ड फूलों से भरा था । सुगन्धित फूलों के इसी उपवन के मध्य नृत्यशाला का वृत्त बना था , जहाँ नृत्य करते नटराज की भव्य प्रतिमा स्थापित थी । • नृत्यशाला के चारों ओर खड़े बाँसों पर पुष्पों से आच्छादित लताएँ लिपटी थीं और दक्षिणी भू - भाग में सब्जी और जड़ी | बूटियों सहित फलों से लदे पेड़ों की घनी शृंखला थी । सूर्य नमस्कार सम्पन्न करने के उपरांत कुँवर ने कहा- ' इस धरा पर स्वर्ग कहीं है तो वह यहीं है , देवि ... ! चारो ओर शांति ही शांति ! ... कण - कण में आनंद ! और इस चित्ताकर्षक स्थल पर निर्मित आपका अनुपम कलात्मक आश्रम ... अद्भुत है देवि ... ! अद्भुत ... ! ' कहते - कहते कुँवर मानो कहीं खो - सा गया । कामायोगिनी की स्निग्ध हँसी ऐसे झंकृत हुई , जैसे वीणा के तारों से झरता संगीत । शुभ्र मोतियों के सदृश उनकी दंत - पंक्ति झिलमिलाने लगी । हँसी रुकी , तो मुस्कराती कामायोगिनी ने कहा , ' वाक्पटुता तो व्यक्तित्व का शृंगार है वत्स ! परन्तु तुम कवि भी हो ... यह अभी ज्ञात हुआ । ' ' नहीं देवि ... ! मैं कवि नहीं , परन्तु इस स्थल पर आकर शुष्क हृदय में भी रस प्रवाहित होने लगे , तो क्या आश्चर्य ! मैं सत्य कहता हूँ देवि ... ! मैंने प्रकृति का ऐसा सौंदर्य और मानव निर्मित ऐसे नयनाभिराम आश्रम की कभी कल्पना नहीं की थी । इस स्थल पर आकर वास्तव में मैं मंत्रमुग्ध हो गया हूँ । ' ' तुम्हारा मंगल हो , वत्स ! ' कामायोगिनी ने कुँवर के स्कंध पर स्नेहिल हाथ रखकर कहा- जिसका हृदय निर्मल होता है उसकी दृष्टि भी निर्दोष होती है इसीलिये अब प्रकृति पर मुग्धता छोड़ साधना - पथ पर अग्रसर होना ही तुम्हारे लिए श्रेयस्कर है । ' ' मैं तो प्रस्तुत हूँ देवि ! ' शीश नवाते हुए अत्यंत विनय से कुँवर ने कहा । कुँवर की मुद्रा पर कामायोगिनी फिर से उन्मुक्त हो हँस पड़ी । • तदुपरांत दोनों वहीं दूब की हरी चादर पर बैठ गये । ' नासिका - छिद्रों पर उंगली रखकर तनिक निरीक्षण करो ... !! कामायोगिनी ने निर्देश दिया इस क्षण तुम्हारा कौन - सा स्वर जाग्रत है ? ' ' समझा नहीं , देवि ? ' ' नासिका के किस द्वार से श्वास का प्रवेश हो रहा है ... निरीक्षण करो ! ' ' मैं तो नासिका के दोनों द्वारों से श्वास ग्रहण करता हूँ देवि ... ! फिर निरीक्षण क्या करूँ ? ' ' नहीं , वत्स ! ऐसा नहीं है ... नासिका द्वार का स्वर परिवर्तित होता रहता है । इसका सम्बंध चंद्रमा की कला से है , वत्स ... ! संभव है , इस घड़ी दोनों स्वर साथ चल रहे हों , परन्तु यह स्थिति स्थायी नहीं है । ' ' नहीं , देवि ! ... मेरे साथ ऐसा नहीं है । मेरे दोनों स्वर हमेशा साथ ही चलते हैं । ' कामायोगिनी विस्मित हो गयी , परन्तु कुँवर की मुखाकृति उदास हो गयी । उसने चिन्तित होकर पूछा- मेरे इस दोष का निवारण - मार्ग तो होगा ही न देवि ? " कामायोगिनी के विस्मित नेत्रों में प्रसन्नता उभर आयी ' भूल गयी थी ... तुम कौन हो- आह्लादित हो उसने कुँवर के मस्तक को सूंघते हुए कहा- तुम तो शक्ति माँ का उपहार हो वत्स ! तुम्हारे साथ तो विलक्षण कुछ भी नहीं ... सब स्वाभाविक ही है । तुम्हारी नाड़ियां तो पूर्व से ही जाग्रत हैं और आश्चर्य नहीं कि साधना के प्रथम प्रयास में ही चक्रों का भी जागरण तत्काल हो जाए . तुम्हारे गुरु ने व्यर्थ ही तुम्हें मेरे पास भेजा ... कहते हुए कामायोगिनी भावुक हो गयीं , ' कदाचित् माँ की यही इच्छा है कि वे मुझे निमित्त मात्र बनाकर मेरा मान बढ़ायें । ' ' नहीं देवि ! अतिरिक्त बड़प्पन का त्यागकर , मुझे शिक्षा दें कहकर कुँवर नतजानु हो गुरू - चरणों में समर्पित हो गया । कामायोगिनी की नृत्यशाला ! | गोलाकार नृत्यांगन । मिट्टी की चमकीली सतह । वृत्त की परिधि में हाथ भर चौड़ी पट्टी में चित्रित अल्पना चित्त को बरब अपनी ओर खींचती थी । नृत्यांगन के केन्द्र में स्वयं नटराज नृत्य की मुद्रा में खड़े थे । नटराज के परिक्रमा पथ पर प्रज्वलित मशालों की पंक्ति से नृत्यशाला का प्रांगण आलोकित था । मंद - मंद बहती पुरबा अपने संग चमेली की सुगंध लिये नृत्यशाला में प्रविष्ट हो रही थी । बाहर स्निग्ध ज्योत्सना में उपवन की छटा बड़ी न्यारी लग रही थी । आश्रम के उत्तरी द्वार पर आकर कामायोगिनी ने नृत्यशाला को इंगित करते हुए कहा - ' यही तुम्हारी साधना - स्थली है कुँवर ... आओ ! " नृत्यांगन में उपस्थित होकर दोनों ने ही नटराज की प्रार्थना की । तत्पश्चात् कामायोगिनी ने कुँवर का मस्तक सूंघकर प्रेमपूर्ण वाणी में कहा- षटचक्र - नृत्य अतिगोपनीय आत्मिक संगीत की कला है । मन , विचार तथा अनुभवों के जीवन - संगीत को जब हम अपनी चेतना से जोड़ते हुए अन्तर्मुखी होते हैं , तब उस ध्वनि का हमें साक्षात्कार होता है । जिसे नाद , आत्म - ध्वनि , स्व ध्वनि आदि के नाम से हम जानते हैं । षटचक्र नृत्य की गति से ऊर्जा का प्रवाह होता है । प्रवाहित ऊर्जा के अपने कम्पन होते हैं और अपनी ध्वनि होती है । यह ध्वनि , नर्त्तक के मन - बुद्धि - जगत् एवं भावनाओं को स्पंदित करती रहती है । ध्वनि के जिन गुणों शक्ति तथा प्रभाव का अनुभव हम बाह्य जगत में करते आये हैं , इस नृत्य में हम उसी ध्वनि का अनुभव अपने आन्तरिक जगत में करते हैं । नृत्य के प्रारंभिक प्रशिक्षण में स्वर- चेतना का क्रमिक विकास होने लगता है । स्वर के चार विभिन्न स्तर हैं - परा - नाद , पश्यन्ती , मध्यमा तथा बैखरी , जिनसे इस प्रक्रिया में तुम्हारा परिचय होगा । तत्पश्चात् संगीत के सप्तक का , षट्चक्रों के साथ सम्बंधों को भी तुम स्वयं जान जाओगे । चक्र - जागरण की जितनी प्रक्रियाएँ हैं , उनमें साधक का शरीर निस्पंद रहता है , परन्तु तंत्र के वाममार्गी , संभोग - रत हो चक्रों को जाग्रत करते हैं । इस प्रक्रिया में उनके शरीर जिसप्रकार निरंतर चलायमान रहते हैं , ठीक उसीप्रकार षट्चक्र नृत्य साधना में द्रुतगति से नृत्य करते हुए ही साधक अपने चक्रों का सफलता पूर्वक जागरण कर लेता है । इस गुप्त विधि का ज्ञान तुम्हें दूंगी । षट्चक्र - नृत्य की भाव भंगिमा तथा विभिन्न मुद्राओं के अभ्यास के द्वारा कल से तुम्हारी साधना प्रारंभ होगी वत्स ! माता कामाख्या के समक्ष मेरे षट्चक्र - नृत्य को तुमने तो देखा ही है । मुद्रा - ज्ञान ग्रहण करने के पश्चात् इसके प्रत्येक चक्र के अभ्यास के साथ तुम्हें चक्र - जागरण - साधना करनी होगी । परन्तु , वत्स ! मेरी क्षमता मात्र तीन ही चक्रों की है । प्रथम चक्र मूलाधार , जिसे षट्चक्र नृत्य में ' धरती चक्र ' कहा गया है , तथा दूसरा स्वाधिष्ठान , तत्पश्चात् मणिपुर चक्र का जागरण मैं करा दूंगी । प्रत्येक चक्र का जागरण षट्चक्र के दो - दो चक्रों के माध्यम से सम्पन्न होगा , वत्स ! इसप्रकार , षट्चक्र के द्वारा साधक के तीन चक्र जाग्रत के होते हैं । इसके बाद के चक्रों तक मेरी गति नहीं है । इसके लिए तुम्हें शंखाग्राम की यात्र करनी होगी । गंगा नदी जहाँ सागर से जा मिलती है , वहीं शंखाग्राम नामक प्रसिद्ध नगर है , जिसकी स्वामिनी भुवनमोहिनी है । इसी भुवनमोहिनी के पास • सहस्त्रदल - चक्र नृत्य की गुप्त विद्या है । वही तुम्हारे शेष चक्रों के जागरण में सक्षम है , वत्स ! कुँवर के उत्सुक नेत्र कामायोगिनी पर टिकी थीं और कामायोगिनी स्नेहिल दृष्टि से कुँवर को निहार रही थीं । मधुर मुस्कान बिखेरकर उसने पुनः कहा- अब अपने शयन कक्ष में चलकर विश्राम करो , वत्स ! रात्रि के तृतीय प्रहर में शय्या त्याग कर नित्य - क्रिया से निवृत्त हो ब्राह्म मुहूर्त के पूर्व इसी स्थल पर उपस्थित हो जाना । कल तुम्हारी साधना प्रारंभ होगी ... चलो अब जाओ ' कहकर मुस्कराती कामायोगिनी उठ गयीं । सूर्योदय के एक घड़ी पूर्व ही कामायोगिनी के संग कुँवर दयाल नटराज के समक्ष नतजानु हो उपस्थित था । षट्चक्र नृत्य के प्रथम चरण की शिक्षा का आज आरंभिक दिवस था । नटराज की वंदना कर दोनों पद्मासन में बैठ गए . ' वत्स ! ' कामायोगिनी ने मधुर स्वर में कहा- ' इस शुभ घड़ी तुम्हारी शिक्षा प्रारंभ होती है । सर्वप्रथम मैं तुम्हें शरीर और मन को जोड़ने वाली मुद्राओं का ज्ञान कराऊँगी । षट्चक्र नृत्य के समय विभिन्न आननी अभिव्यिक्तियों , नेत्रों की गतिविधियों , तथा हस्तसंकेतों के द्वारा अनेक मनोभावों या मनःस्थितियों , जैसे क्रोध , प्रेम इत्यादि की अभिव्यक्ति होती है । शरीर , मन , मनोभावों , भावनाओं और प्राण पर प्रत्येक मुद्रा का एक भिन्न प्रभाव होता है । ये मुद्राएँ सूक्ष्म , शारीरिक गतिविधियों के संयोजन हैं , जो मनःस्थिति , मनोभाव तथा बोध को रूपान्तरित करती हैं एवं चक्रों के केन्द्र के प्रति हमारी सजगता और एकाग्रता को गहरा बनाती हैं । केवल मुद्राओं के अभ्यास से साधक समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त कर सकता है । ' कुछ क्षण रुककर कामायोगिनी ने पुनः कहा- ' षट्चक्र नृत्य में मुद्राओं की पाँच श्रेणियां हैं , वत्स ! प्रथम श्रेणी में मस्तक की मुद्राएँ हैं । इसका सम्पादन मुखमण्डल के ऐन्द्रिय अंगों , जैसे जिह्ना , नेत्र इत्यादि द्वारा होता है । द्वितीय श्रेणी में हस्त एवं तृतीय श्रेणी में शारीरिक मुद्राएँ आती हैं । चतुर्थ श्रेणी में बन्ध ● मुद्राओं और पाँचवीं में मूलाधारीय या आधार मुद्राएँ हैं । आओ , अब इन विभिन्न मुद्राओं का परिचय प्राप्त करो , वत्स ! ' उपदेश देकर देवी उठकर खड़ी हो गयी । सर्वप्रथम उन्होंने मस्तक , मुखमण्डल एवं शारीरिक मुद्राओं का प्रदर्शन किया । कुँवर दयाल सिंह ने प्रत्येक मुद्रा की सफल पुनरावृत्ति करके दिखा दी तो देवी ने प्रसन्न होकर कहा- मुझे विश्वास था , तुममें विलक्षण प्रतिभा छिपी है , वत्स ! अब तुम्हें हस्त मुद्राओं का ज्ञान प्राप्त करना है । इनकी कुल संख्या सोलह है । मैं इन्हें एकएक कर प्रदर्शित करती हूँ इन्हें देखो ! ' तत्पश्चात् उन्होंने समस्त सोलह हस्त - मुद्राओं का अभ्यास कराना प्रारंभ कर दिया । कामायोगिनी की हस्तमुद्राओं का अनुकरण करते हुए जब उसने अंतिम मुद्रा का प्रदर्शन किया कि तभी सूर्य देवता की पहली किरण पूर्वी क्षितिज पर निकली । ' उदित हो रहे सूर्य नारायण को प्रणाम करो , वत्स ! ' - देवी ने संतुष्ट होकर कहा- इनसे आत्मिक प्रकाश की विनती करो ! ' देवी के निर्देशानुसार कुँवर ने विधिपूर्वक सूर्य नमस्कार करके गुरु को प्रणाम किया । मुस्कुराती कामायोगिनी ने कहा- ' तुम्हारा कल्याण हो वत्स ! इस उदित होते प्रकाश - पुंज की घड़ी में अब मैं तुम्हें बन्ध- मुद्राओं का प्रशिक्षण दूंगी । इसे ध्यानपूर्वक ग्रहण करो ! इनमें बंध एवं मुद्राओं का संयोजन होता है वत्स ! इन बंध - मुद्राओं के द्वारा समस्त तंत्र प्राणों में आवेशित हो जाते हैं , जिससे चक्रों का जागरण सहज हो जाता है । ' यह कहकर देवी मायोगिनी ने षट्चक्र - नृत्य में प्रयुक्त बंध मुद्राओं का प्रदर्शन प्रारंभ किया । प्रत्येक बंध - मुद्रा में किन मुद्राओं का संयोजन है , इसे विस्तार में देवी समझाती गयीं और विनयावनत होकर कुँवर ग्रहण करता गया । अंत में , आधार- मुद्राओं का प्रशिक्षण पूर्ण कर कामायोगिनी ने कुँवर का मस्तक सूंघकर कहा- ' तुमने इसी घड़ी जो ग्रहण किया है , उसे ग्रहण करने में साधकों को कई मास लग जाते हैं , वत्स ! देवी माँ की तुम पर विशेष अनुकम्पा ही है , जिस कारण तुम समस्त मुद्राओं में इतना शीघ्र निष्णात हो गए . नटराज को नमस्कार कर समस्त मुद्राओं को एक बार मेरे समक्ष पुनः दुहराओ , वत्स ! ' देवी के आदेश पर कुँवर ने ऐसा ही किया । उसने समस्त मुद्राओं को पूर्ण मनोयोगपूर्वक दुहरा दिया । ' आश्चर्य ! ... तुमने कोई भूल न की ... विस्मित हूँ , मैं वत्स ! ' कामायोगिनी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा । ' विस्मय का कारण नहीं है , देवी ... ! इनमें कई मुद्राएँ हमारे वैष्णवी चक्र नृत्य की हैं । इसके अतिरिक्त कुछ मुद्राओं का ज्ञान मुझे देवी माया के सान्निध्य में भी प्राप्त हुआ था । शेष मुद्राएँ मेरे लिए नवीन थीं , देवी ! ' उत्सुक कामायोगिनी ने कहा- देवी माया ! ... कहीं तुम बखरी की विख्यात नृत्यांगना देवी माया की तो बात नहीं कर रहे ? " ' हां माते ... ! ' ' वे तो भैरव - चक्रीय नृत्य की विशेषज्ञा है । मैंने उनकी चर्चा सुनी है । परन्तु वह तो अघोरपंथीय नृत्य है वत्स ! और ... वैष्णवीचक्र के नर्त्तक ने अधोर पंथी नृत्य की साधना की ? ... विस्मित हूँ मैं । ' ' यह लम्बी कथा है देवी , अवकाश में सुना दूंगा ... इस क्षण तो मैं नृत्य के प्रथम चरण को जानने हेतु उत्सुक हूँ । ' हँस पड़ी कामायोगिनी - ' तुम्हारे इस विग्रह में कितने स्वरूप छिपे हैं वत्स ? ... तुम्हें देखकर तो मैंने समझा था - समस्त षड्रिपुओं से तुम्हारा कोई सम्बंध ही नहीं , परन्तु इस क्षण मुझे ऐसा भान हो रहा है कि तुम्हारे अंतस् में कई झंझावात हैं । 'कामायोगिनी के शब्दजाल में उलझ गया कुँवर । उसने पूछा- ' ये षड्रिपु क्या हैं देवी ? ... मैं समझा नहीं । ' | हँसते हुए ही कामायोगिनी ने कहा- ' जिह्ना के स्वाद छह रसों मधुर , लवण , तिक्त , कटु , काषाय एवं अम्ल को , जिसप्रकार षड्स कहते हैं , उसीप्रकार मनुष्य के छह मनोविकारों- काम , क्रोध , लोभ , मद , मोह एवं मत्सर को षड्रिपु कहा गया है , वत्स ! तुम्हारी जीवन - गाथा जानने को मैं अब अत्यंत उत्सुक हो गयी हूँ । यों भी मुद्राओं के निरंतर अभ्यास ने तुम्हें क्लांत कर दिया है । तनिक शांत हो विराजो और मुझे अपनी कथा सुनाओ कुँवर दयाल ने क्रम से अमृता संग मिलन तथा देवी माया , पोपली काकी , देवी आदि के विषय में चर्चा करते हुए अपना विवाह एवं पत्नी को छोड़ विवशतापूर्ण पलायन की घटना और मंगलगुरु के आदेश पर भरोड़ा - त्याग की पूरी कथा सुना दी । कुँवर की जीवन - गाथा ने कामायोगिनी को द्रवित कर दिया । ' इस अल्पायु में ही इतने क्लेश ! ' उच्छवास लेती कामायोगिनी के अंतस् से स्वर फूटे । फिर उन्होंने कहा , ' तुम्हें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है मैं देवी की अभागी माता को भी जानती हूँ और पोपली को भी । देवी की भी चर्चा सुनी है । परन्तु ये सभी तमोगुणी साधिकाएँ हैं । उन्होंने और विशेषकर तुम्हारी देवी ने वैश्वानर जगत के वैताल , पिशाच , दीर्घ आयु प्राप्त प्रेत तथा हाकिनी , डाकिनी , शाकिनी आदि तमोगुणी वृत्ति की आत्माओं को सिद्ध कर लिया है । ये आत्माएँ प्रकृति के नियमों में विकृति उत्पन्न कर पृथ्वी पर उत्पात करती हैं । जहाँ - जहाँ रक्तपात और जनसंहार होता है , वहीं वे पहुँच जाती हैं । इतना ही नहीं , हाकिनी , डाकिनी , शाकिनी आदि प्रबल भयंकर शक्तियां तो किसी भी प्राणी का रूप धारणकर धरा पर विचरण कर सकती हैं और किसी भी अकालमृत्यु प्राप्त स्त्री के शरीर में प्रवेश कर उसकी आयु भोग सकती हैं । ' ' तो क्या वैश्वानर जगत में सभी तमोगुणी शक्तियाँ ही विद्यमान हैं , देवी ? ' कुँवर ने शांत भाव से बैठते हुए पूछा । ' नहीं वत्स , ऐसा नहीं है । वस्तुतः वैश्वानर जगत के निम्न स्तर पर ही इनका निवास है । इससे ऊपर के स्तर पर रजोगुणी प्रवृत्ति की आत्माओं का निवास है , जिन्हें हम यक्ष , गंधर्व , • किन्नर आदि कहते हैं ... और सबसे उच्च स्तरों पर निवास करने • वाली आत्माएँ सतोगुणी प्रवृत्ति की होती हैं , जहाँ केवल भावनाओं का तरल प्रवाह है - सूक्ष्मतम विचारों की सात्त्विक अभिव्यक्ति है । तुम्हारी षट्चक्र साधना का सम्बंध इसी सतोगुणी शक्ति से है , वत्स ! जहाँ निम्न कोटि की समस्त नकारात्मक शक्तियाँ नत हो जाती हैं । आह्लादित कुँवर ने विनयावनत् हो कामायोगिनी को प्रणाम कर कहा- ' मेरी एक उत्सुकता और शेष है , देवि ... ! ' ' निःसंकोच कहो वत्स ... ! तुम्हारी कौन - सी उत्सुकता शेष है ? " परन्तु , संकोच से ही कुँवर ने कहा- ' मेरी धृष्टता क्षमा करें देवि ... परन्तु वह कौन - सी विद्या है , जिसने युगों - युगों से आपके • विग्रह को षोड्षी का स्वरूप प्रदान किया है ? ' कुँवर के प्रश्न पर उन्मुक्त हो हँस पड़ी कामायोगिनी सहास उसने कहा- रस - रसायनशास्त्र के अंतर्गत दस प्रकार की विद्याएँ हैं वत्स , जिनमें एक विद्या है- पारदविद्या काम - कला कल्प , अक्षय - यौवन कल्प , मानस - कल्प तथा कायाकल्प ये चार प्रकार के कल्प पारद - विद्या के मुख्य विभाग हैं । इन विद्याओं के ज्ञाताओं का विग्रह वही होता है वत्स , जो मेरा है । ' कहकर कामायोगिनी ने स्नेहिल नेत्रों से कुँवर को देखते हुए पुनः कहा- पारद विद्याओं में तुम्हें पारंगत कर दूंगी वत्स !मृत्युपर्यन्त तुम भी ऐसे ही युवा रहोगे , विश्वास करो ... कुछ क्षण रूककर उसने पुनः कहा- हमने अत्यधिक विश्राम कर लिया वत्स ! अब षट्चक्रीय प्रशिक्षण हेतु तत्पर हो जाओ . ' पूर्ण चेतन हो मुझे देखो ' कामायोगिनी ने उठते हुए कहा ' षट्चक्र के प्रथम चरण का अब मैं प्रदर्शन करूंगी । कहकर कामायोगिनी ने नृत्य का प्रथम चरण प्रदर्शित किया । चक्र के समापन पर श्वास - प्रश्वास लेती कामागोगिनी का शरीर एक विशेष मुद्रा - बंध के स्वरूप में स्थित हो गया । कुछ क्षणोपरांत उसने नृत्य प्रारंभ किया । कुँवर दयाल ने पूर्ण मनोयोग से देवी के नृत्य का अवलोकन कर उसके विभिन्न शारीरिक एवं आननी अभिव्यक्तियों तथा मुद्राओं को ध्यान से अपनी चेतना में स्थापित कर लिया । नृत्य के पग - ताल एवं आवृत्ति भी उसकी स्मृति में अंकित हो गये थे । कामायोगिनी के आदेश पर उसने उसीप्रकार नृत्य को दुहरा दिया , जिस प्रकार देवी ने प्रदर्शित किया था । ' अति उत्तम वत्स ! ' कामायोगिनी ने उसको उत्साहित करते हुए कहा ' इस चक्र में श्वास - प्रश्वास की ओर चेतनता विकसित करते हुए तुम्हें इसके बीज मंत्र का उच्चारण करते रहना है । मैं बताती हूँ तुम्हें मुझे देखो ! ' तत्पश्चात् कामायोगिनी ने नृत्य के साथ मंत्रोच्चार करते हुए ध्वनि - सहित श्वास - प्रश्वास के क्रम को प्रदर्शित किया । ' मैंने जिस बीज मंत्र का सस्वर उच्चारण किया है , उसके लय को उसी प्रकार अपने अंतस में उच्चरित करना , जिस लय में मैंने उच्चरित किया तथा श्वास - प्रश्वास आवृत्ति भी उसी अनुरूप करना वत्स ! ' ' समझ गया देवि ... ! मैं करता हूँ । कुँवर ने उस चक्र को फिर से संपादित किया । ' अति उत्तम ! षट्चक्र के प्रथम चक्र को तुमने तत्काल ग्रहण कर लिया । इसे पुनः दुहराओ वत्स ! संतुष्ट कामायोगिनी ने प्रसन्न होकर कहा- परन्तु इस क्रम में अपनी चेतना को जिस केन्द्र विशेष पर केन्द्रित करना है , उसे जान लो । ' कहकर उन्होंने कुँवर के पार्श्व में अंगुली रख कर केन्द्र विशेष का स्थल बता दिया । उत्साहित कुँवर ने पुनः सम्पूर्ण चक्र को दुहरा दिया , परन्तु मुद्रा विशेष पर कुछ क्षण स्थिर होने के उपरांत उसने पुनः नृत्य प्रारंभ कर दिया । कामायोगिनी उत्साहित होकर अपलक देखती रहीं और वह बारंबार नृत्य की पुनरावृत्ति करता रहा ... करता रहा ... अनायास उसके अधरों से अस्फुट शब्द निकले- ' देवी ! अपने अंतस् में मैं चतुष्दलीय लाल कमल पुष्प के दर्शन कर रहा हूँ ... यह पुष्प अपनी एक नियत परिधि में घूमने लग गया है देवी । ' ' इसकी गति से अपनी आवृत्ति की गति एक कर दो , वत्स ! ' अति उत्साहित कामायोगिनी ने विमुग्ध होते हुए कहा । कुँवर के नृत्य की आवृत्ति की गति अति तीव्र हो गयी । मूलाधार केन्द्र से आती एक गुंजन ध्वनि की उसे तीव्र अनुभूति होने लगी । लाल कमल को घूमते हुए वह निरंतर देखता रहा । इस घूमते हुए कमल केन्द्र से आद्या - शक्ति और सहसा ऊर्जा के चक्कर काटते तीव्र चक्रवात की उसे अनुभूति होने लगी । प्रकाश के इस घूमते हुए चक्रवात की कम्पायमान ऊर्जा को उसने स्पन्दित होता अनुभव किया । तदुपरांत उसे ऐसा लगा जैसे उर्जा का यह चक्रवात ऊपर उठता जा रहा है ।' नृत्य करते रहो वत्स ... ! नृत्य स्थगित न करना । ' कामायोगिनी का उद्वेलित स्वर गूंजा , परन्तु सुनने वाला था कौन ? कुँवर तो • बेसुध हो नृत्य में मगन था । उसने स्पष्ट अनुभव किया , ऊर्जा का यह चक्रवात स्वतः संकुचित हो रहा है तथा प्रकाश एवं ऊर्जा की तरंगे सम्पूर्ण चेतना में प्रसारित हो रही हैं । प्रारंभ में संकुचन का अनुभव मूलाधार में हुआ , परन्तु तज्जनित संवेदना का प्रसार क्रमशः सम्पूर्ण शरीर में होने लगा । परमानंद की तरंगें तीव्रतर होती गयीं और तीव्र होते - होते असह्य हो गयीं । कुँवर ने अपनी चेतना खो दी । चेतनाहीन उसका शरीर प्रारंभिक झोंक में लहराया , डगमगाया । कामायोगिनी ने आह्लादित होकर उसे थाम न लिया होता तो उसका अचेत शरीर लहराकर भूमि पर आ गिरता । प्रथम दिवस तो साधना में रत कुँवर पूर्ण अचेत ही हो गया था । चेतना लौटने के पश्चात् वह अर्द्धचेतन अवस्था में कई दिवस रहा । न उसे भूख लगती न निद्रा ही आती । बैठता तो बैठा ही रहता । निर्निमेष दृष्टि किसी भी स्थल विशेष पर केन्द्रित हो ठहरी रहती । इसी प्रकार , एक पक्ष व्यतीत हो गया । इसके उपरान्त शनैः शनैः उसकी चेतना स्वाभाविक होने लगी । दूसरे पक्ष के प्रारंभ में कुँवर की साधना पुनः प्रारंभ हुई . ब्राह्म मुहूर्त्त से अपराह्न तक निंरतर उसकी साधना चलती । तन - मन में ऊर्जा के अतिरिक्त संचार ने उसके अंतस् को आनंद से भर दिया । परन्तु , साधना के आनंद - मद में भींग कर उसकी चेतना , साधना समापन के साथ - साथ नित्य ही अर्ध - चेतनता की परिधि में चली जाती । नेत्रों की पलकों का भार बढ़ जाता । दोनों पलकें भारयुक्त हो नेत्र पर थोड़ी झुक - सी जातीं और • सूर्यास्त तक यही स्थिति बनी रहती । साधना के द्वितीय पक्ष के समापन के साथ - साथ कुँवर की मानसिक और शारीरिक शिथिलता का समापन हो गया । चेतना की सक्रियता ने उसे नवीन अनुभूतियों से भर दिया । इसी मध्य पारद विद्या की सम्पूर्ण शाखाओं को भी उसने देवी कामायोगिनी के सान्निध्य में रहकर सहज ही जान लिया । | तृतीय पक्ष में ब्राह्मवेला के पूर्व षट्चक्र - साधना का सत्र प्रारंभ होता । अपराह्न में पारदविद्या के प्रयोग एवं प्रशिक्षण का सत्र होता था और नित्य रात्रि तंत्र के विभिन्न अंगों पर चर्चा होती । देवी कामायोगिनी का ज्ञान विलक्षण था । तंत्र चर्चाओं के मध्य जब उसे ज्ञात हुआ कि विभिन्न सम्प्रदायों के कुल छह सौ सत्तर तंत्र एवम् सहस्त्रों उप - तंत्र हैं तथा इनके विभिन्न यामल , डामर , पुराण एवं संहितादि हैं , तो उसे अत्यंत विस्मय हुआ । ' इतने तंत्र ? ' विस्मित कुँवर ने पूछा । ' हाँ वत्स ! ' देवी ने कहा- ' कापालिक , पाँचरात्र , भैरव , जैन और बौद्ध आदि सम्प्रदायों के पाँच सौ तंत्र एवं इनके उपतंत्र हैं । शाक्त तंत्रों की संख्या तिरसठ एवं उपतंत्र तीन सौ सताईस हैं । शैव तंत्रों की संख्या बत्तीस एवं उपतंत्र एक सौ पच्चीस हैं तथा | वैष्णव तंत्र पचहत्तर हैं । इनके उप तंत्रों की संख्या छह सौ पाँच हैं , वत्स । इनके अतिरिक्त इन सबके यामल , डामर , पुराण एवं संहितादि हैं । ' ' आश्चर्य है माता ! ' कुँवर ने कहा- कितना ज्ञान भरा है इस जग में ! ' विस्मित न हो , वत्स ! ' मुस्कराई कामायोगिनी - तुम्हारी कुण्डलिनी शक्ति अपनी समग्रता में जाग्रत हो जायेगी तोतुम्हारी चेतना का प्रत्यक्ष सम्बंध , ब्रह्मांडीय चेतना के साथ • संलग्न हो जाएगा । तब यह समस्त ज्ञान स्वयमेव तुम्हें प्राप्त हो जाएगा , वत्स ! ' देवी कामायोगिनी के दिव्य आश्रम में कुँवर के तीन मा व्यतीत हो गये । इस अल्प अवधि में षट्चक्र - नृत्य एवं पारद विद्या में वह पारंगत हो गया । चक्रों की जागृति के साथ - साथ उसमें अनेक दिव्य विभूतियाँ भी समाहित हो गयी थीं । उसका तेजस्वी स्वरूप और भी कांतिमान् हो गया था । | विदाई की वेला में कामायोगिनी अत्यंत भावुक हो गयीं । शिष्य के मस्तक को सूंघकर उन्होंने भावुक स्वर में कहा- तुम्हारे प्रयोजन को जान तुम्हें विवश हो विदा कर रही हूँ वत्स ... ! देवी भुवनमोहिनी के सान्निध्य में तुम्हारे शेष चक्रों का शीघ्र ही जागरण होगा , ऐसा विश्वास है मुझे ... परन्तु , वत्स वचन दो मुझे , बखरी - अभियान के पूर्व मुझे अवश्य साथ रखोगे । ' कामायोगिनी के समक्ष शीश झुकाते हुए विनीत भाव से कुँवर ने कहा - ' आपके सान्निध्य - सुख का त्याग मुझे भी व्यथित कर रहा है , देवि ! इस आश्रम का प्रत्येक क्षण मेरी सम्पूर्ण चेतना में स्थिर है । इन्हें मैं कदापि भूल नहीं सकता । आपका स्नेह , आपकी शिक्षा और सबसे बढ़कर आपका सान्निध्य ... इसे भूलना क्या संभव है , देवि ? ... स्थूल शरीर से विलग होकर भी मेरी चेतना सदा आपके ही पास रहेगी देवि । ' तुम्हारा कल्याण हो , वत्स ! ' सजल नेत्रों से देवी ने कहा- देवी भुवनमोहिनी के पास साधना सम्पन्न होते ही अविलंब अपने अंचल की यात्र में निकल जाना वत्स ! मेरी चेतना सदा तुम्हारे साथ रहेगी । तुम्हारी समस्त गतिविधियों का मुझे सदा आभास होता रहेगा । शंखाग्राम से भरोड़ा की यात्र के प्रारंभ में मेरा ध्यान अवश्य करना , वत्स ... ! मैं तत्काल चल पहूँगी । भूलना नहीं । ' ' जैसी आज्ञा , देवि ! ' कुँवर ने कहा - ' आपका स्वरूप तो मेरी आत्मा में रच बस चुका है ... परन्तु आपकी आज्ञा का फिर भी पालन करूँगा । ' ' जाओ वत्स , तुम्हारी यात्र सकुशल सम्पन्न हो ! ' देवी ने पुनः कहा- चंदन सेठ की नौका में तुम्हारी सुख - सुविधा की उत्तम व्यवस्था कर दी गयी है । वह तुम्हें ससम्मान शंखाग्राम ले जाएगा ... परन्तु वत्स ! इस आश्रम से विदा होकर सर्वप्रथम माता कामाख्या के मंदिर पर अपनी उपस्थिति देना । वहाँ माता का आशीर्वाद लेकर ही यात्र का प्रारंभ करना । मेरी सेविकाएँ | तुम्हें माता के मंदिर तक पहुँचा कर लौट आएँगी , वत्स ! ' | कहकर देवी कामायोगिनी ने मणि - जड़ित एक माला कुँवर के गले में डाल दी । ' यह मणिमाला मेरा उपहार है , वत्स ! इसे सदा वस्त्रों के अंदर अपने वक्ष पर धारण किये रहना । ' ' इस औपचारिकता की क्या आवश्यकता थी , देवि ? ' ' थी वत्स ... थी ... इसकी आवश्यकता थी ! देवी ने कहा , ' यह मेरी अमूल्य निधि है , इसका कभी त्याग न करना वत्स ! ' कहते ही सजल नेत्रों से कामायोगिनी ने कुँवर को अपने आलिंगन में भर लिया । अपने प्रिय शिष्य को प्रथम बार ही उसने अपने आलिंगन - पाश में सम्पूर्ण शक्ति से उसी प्रकार बाँधा था , जैसे कोई माता अपने पुत्र को गले से लगाती है ।कुँवर के नयन भी सजल हो गए और दोनों के नयन - कोरों से अश्रु प्रवाहित होने लगे । कुँवर की पालकी उठाये कामायोगिनी की कहारिनें कामाख्या माता की मंदिर पहुँची । चंदन सेठ की घोड़ागाड़ी पूर्व से ही कुँवर की प्रतीक्षा में उपस्थित थी । माता की पूजा - अर्चना के पश्चात् कुँवर शोभित सारंग की धर्मशाला में थोड़ी देर रूका । कुँवर के अनायास दर्शन से हतप्रभ शोभित सारंग ने गद्गद् हो कुँवर का स्वागत - सत्कार किया । ब्रह्मपुत्र के नौका - घाट पर चंदन सेठ की सुसज्जित व्यक्तिगत नौका पाल बांधे खड़ी थी । उसकी शेष मालवाहक नौकाएँ भी वहीं लगी थीं और स्वागत में स्वयं चंदन सेठ घाट पर उपस्थित था । कुँवर को विदा करने कामाख्या माता मंदिर के पुजारियों सहित पंडा शोभित सारंग भी साथ आया था । चंदन सेठ को भान हुआ , जैसे उसकी प्रतिष्ठा अनायास बढ़ गयी है । एक तो महान योगिनी कामा का व्यक्तिगत अतिथि कोई सहज साधारण मनुष्य हो ही नहीं सकता । फिर कामाख्या मंदिर के समस्त पुजारी और कामरूप की विख्यात धर्मशाला का पंडा भी इन्हें विदा करने उपस्थित हैं तो ये अवश्य विशिष्ट हैं । तभी उसने घोड़ागाड़ी से निकलते कुँवर को देखा । कुँवर का सौंदर्य , उसके मुख का अपरिमित तेज और व्यक्तित्व की आभा ने चंदन सेठ को चमत्कृत कर दिया । ऐसे देवतुल्य तरुण को सहयात्री पाकर वह धन्य धन्य हो गया ।