Anokhi Prem Kahani - 15 books and stories free download online pdf in Hindi

अनोखी प्रेम कहानी - 15

स्थान:
उत्कल का राज महल

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उत्काल के युवराज्युवराज का यो अचानक लुप्त हो जाने के कारण उत्कल देश के राजा व्याकुल हो गये । चतुर्दिक गुप्तचरों को पता लगाने भेजा गया । सेना ने घने वनों को छान मारा । सागर किनारे के अंचलों में भी ढूँढ़ा गया , परन्तु युवराज का कहीं कोई पता न मिला । | विवश हो गुप्तचर और सैनिक जब खाली हाथ लौट आये तो वृद्ध राजा चंद्रसेन शोकग्रस्त हो अचेत हो गए . | सेनापति वीरभद्र और अमात्य सत्पथी ने अचेत राजा के | लड़खड़ाते शरीर को तत्काल सहारा न दिया होता तो उनका अचेत शरीर धराशायी हो गया होता । ' सेनापति ! ' अमात्य सत्पथी ने कहा- राजा जी को इनके शयन कक्ष में पहुँचाइये । इनके हृदय पर शोकाघात हुआ है ... परन्तु चिन्ता की बात नहीं ... मेरी औषधि इन्हें शीघ्र चैतन्य कर देगी । ' सेनापति वीरभद्र के हृदय में अमात्य की वाणी शूल - सी चुभी । उसकी आंतरिक इच्छा थी कि वृद्ध राजा पुत्र - शोक के आघात में अपने प्राणों का त्याग कर दें ... परन्तु अमात्य की उपस्थिति में अब कदाचित् यह संभव नहीं । अपनी आंतरिक पीड़ा को छिपाये विवश सेनापति ने अमात्य के निर्देशों का पालन किया । चतुर अमात्य सत्पथी की औषधि ने वास्तव में चमत्कार किया । शय्या पर लेटे राजा की चेतना लौट आयी । ' हा पुत्र ! ' नेत्र खोलते ही राजा ने उच्छवास किया । ' यों चिन्तित न हों महाराज ! ' अमात्य ने कहा- हमारे युवराज लौट आएँगे ... विश्वास है मुझे । वे कोई अबोध शिशु नहीं , जिनका कोई बलात् अपरहण कर ले । वे जहाँ - कहीं भी हैं ... किसी गुप्त प्रयोजन- विशेष से हैं । उनके प्रति यों व्यथित हो आप अपने प्राणों को संकट में न डालें महाराज ! ' ' मैं क्या करूँ अमात्य ? ' अति मंद स्वर में कहा राजा ने समस्त | गुप्तचर असफल हो लौट आये । सेना ने वनांचलों को भी छान मारा , परन्तु मेरे प्रिय पुत्र का कहीं कुछ पता न चला ... अब और धीरज कैसे धरूँ ? ' ' युवराज को ऐसी मूर्खता नहीं करनी चाहिए थी ' - अमात्य के पूर्व सेनापति ने कहा - ' अमात्य ठीक ही कह रहे हैं , महाराज । वे बालक नहीं कि किसी के साथ बलात् पलायन कर जाएँ । जहाँ भी वे गये हैं , अपनी इच्छा से ही गए हैं । परन्तु उन्हें ऐसा कदापि नहीं करना चाहिए था । ईश्वर न करे यदि आखेट के प्रयोजन से घने वनों में प्रविष्ट हो गये हों तो हमारी सेना को क्या पता चलेगा ? कितने तो हिंसक जीव - जन्तुओं से भरा पड़ा है अपना वनाचंल ! '' सेनापति ? ' अमात्य का कठोर स्वर गूंजा- इस परिस्थिति में ऐसी बात कहते आपको । ' परन्तु अमात्य की बात को मध्य में ही काटते हुए राजा ने क्षीण स्वर में कहा- नहीं अमात्य ! हमारे सेनापति पर क्रोधित न हों ... इन्होंने सत्य ही कहा है । हमारे राज्य के हितैषी हैं ये ... मेरी ही भांति युवराज की अनुपस्थिति ने इन्हें भी व्यथित कर दिया है । ' ' महाराज ! ' शांत स्वर में अमात्य ने कहा , ' हमारे गुप्तचर तथा हमारी सेना असफल हो गयी ; मैं स्वीकार करता हूँ , परन्तु हमारे हाथ पर हाथ रखकर निष्क्रिय हो जाने से समस्या का समाधान प्राप्त नहीं हो सकता । हमारे राज्य में ज्ञानियों का कोई अभाव नहीं । कई सिद्ध - तांत्रिक , ओझा - गुणी एवं सामुद्रिक शास्त्र के ज्ञाता राज्य में भरे पड़े हैं । हमें उनकी सेवाएँ प्राप्त करनी चाहिए , महाराज ... मुझे दृढ़ विश्वास है ... हमारे युवराज का हमें निश्चय ही पता मिलेगा । ' खुलकर हँस पड़ा सेनापति । हँसते हुए ही उसने कहा- हम अंधविश्वासी नहीं हैं अमात्य ! यों में हृदय से आपका सम्मान | करता हूँ । रुग्णता के उपचार में आप वास्तव में अद्वितीय हैं , स्वीकार करता हूँ मैं । परन्तु , ऐसी नपुंसक वाणी मैं सहन नहीं कर सकता । हमें अपने पुरुषार्थ और अपने बाहुबल पर विश्वास है अमात्य ! हम किसी ओझा - गुणी और डायन - जोगिनों | की शरण लें ... असम्भव है यह ... क्यों महाराज ! ' पुनः सेनापति ने महाराज से कहा - ' अमात्य को कह दें , हमें ऐसे पुरूषार्थहीन विचारों की प्रेरणा न दें तो उत्तम हो । ' राजा की स्थिति विचित्र हो गयी । | युवराज की अनुपस्थिति में वास्तविक राज्य सत्ता सेनापति को अनायास प्राप्त हो ही चुकी थी । शक्तिशाली युवा - पुत्र की अनुपस्थिति में वे सेनापति के प्रतिकार में समर्थ नहीं थे । क्या कहें ? सोच नहीं पाये , परन्तु अमात्य को सेनापति की गर्वोक्ति सहन नहीं हुई , फिर भी अपने आक्रोश को सफलतापूर्वक छिपाकर उन्होंने कहा ' यों उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है , सेनापति ! अंधविश्वास और दृढ़ विश्वास में धरती और आकाश का अंतर है । मैं आपको अंधविश्वासी नहीं मानता । आपके दृढ़ विश्वास और बाहुबल के तले ही हमारा राज्य शत्रुओं से निरापद है , | इसका हमें गर्व है । परन्तु हमारा कर्त्तव्य है कि अपने युवराज को ढूँढ़ने में हम अपने समस्त बल बुद्धि और कौशल लगा दें ... इसमें आपको आपत्ति क्यों है ? ' ' हाँ सेनापति , राजा ने अंततः कहा - ' जिस विधि संभव हो ... अपने युवराज को ढूँढ़ो ... ! अमात्य हमारे सम्मानित व्यक्ति हैं । इनके अनुभवों का लाभ प्राप्त करो ! ' विवश सेनापति ने कहा- ' जैसी आज्ञा महाराज ! मैं अपने सैनिकों को तत्काल आज्ञा देता हूँ ... वे राज्य के समस्त कापालिकों औघड़ों आदि को आपकी सेवा में उपस्थित करदेंगे । ' नहीं सेनापति ! ' अमात्य ने हस्तक्षेप करते हुए कहा- आप कष्ट न करें । मुझे ज्ञात है , हमें किसकी सहायता लेनी है । मैं स्वयं जाऊँगा । प्रार्थना करूँगा उनसे मुझे विश्वास है , वे हमारी सहायता अवश्य करेंगी ? ' ' कौन हैं वह ? ' राजा ने उत्सुक हो कहा- किसकी बात कर रहे हैं अमात्य ? ' ' उग्रचंडा ! ' अमात्य ने कहा- ' आप कदाचित् भिज्ञ हैं इनसे । | उत्कल राज्य के समस्त तमोगुणी उपासक और साधक इस सिद्ध नारी की श्रद्धा में नतमस्तक हो जाते हैं । मुझ पर प्रारंभ से इनकी कृपा - दृष्टि रही है । मुझे विश्वास है महाराज ... युवराज के विषय में समस्त जानकारियां हमें अवश्य प्राप्त हो जाएँगी । ' उग्रचंडा के नाम से ही सेनापति की आत्मा काँप गयी । इस दुर्द्धर्ष अधोर - साधिका को कौन नहीं जानता ? मृतात्मा को भी जीवात्मा में परिणत करने की शक्ति है इस चांडालिका में । • अमात्य तो उसकी आशाओं पर कुठाराघात हेतु तत्पर जान पड़ते हैं । अब क्या करे वह , इस अमात्य से कैसे निबटे ? शक्ति - बल का प्रयोग करे अथवा ... कोई अन्य वैकल्पिक मार्ग ढूँढ़े । तभी अनिश्चित मानसिकता में उलझा सेनापति मुस्कुराया । | अतिप्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसने अमात्य से कहा- आपकी इस युक्ति का मैं समर्थन करता हूँ । वास्तव में उग्रचंडा महान् शक्ति - साधिका हैं । हमारे राज्य में भला ऐसा कौन है , जो तांत्रिक सिद्धियों में उग्रचंडा से बढ़कर हो । हम अवश्य इनसे अनुरोध करेंगे । आपके साथ मैं स्वयं उनके समक्ष उपस्थित हो याचना करूँगा अमात्य ! वैसे भी उनके दर्शन से आज तक मैं | वंचित हूँ ... मैं चलूँगा आपके साथ । ' सेनापति की भावनाओं ने जहाँ अमात्य को प्रसन्नता प्रदान की , वहीं राजा ने भी संतोष की सांस ली । हुई , धूर्त्त कापालिक चंद्रा ने जब सेनापति के कक्ष में प्रवेश किया , उसकी आँखें मदिरा के मद में चढ़ी थीं । ' आओ चंद्रा ... विराजो ' , उस पर दृष्टि पड़ते ही प्रसन्न सेनापति ने स्वागत करते हुए कहा- ' आज तुम्हारी आवश्यकता आन पड़ी है चंदा ! " हो ... हो कर हँस पड़ा कापालिक । आसन ग्रहण करते हुए उसने हँसते हुए ही कहा- इस कापालिक की अंततः आवश्यकता पड़ ही गयी सेनापति को । ' ' इसमें हँसने की क्या बात है ? '' स्मरण है आपको ... या बताऊँ ? आपकी ही गर्वोक्ति थी कि आप अपने बाहुबल के समक्ष हमारी सिद्धियों को तुच्छ समझते हैं ... परन्तु आज आपको ... उत्कल देश के शक्तिशाली सेनापति को इस तुच्छ कापालिक की आवश्कता आन ही पड़ी ... क्यों सेनापति ? ' ' छोड़ो , उन बीती बातों को । बीती को बिसारो और ध्यान से मेरी बात सुनो । ' कुछ क्षण मौन के पश्चात् सेनापति ने पुनः कहा- उग्रचंडा को जानते हो ? ' चौंका कापालिक । ' उग्रचंडा ... ? कौन नहीं जानता इस ब्रह्मपिशाचिनी को ? ' ' ब्रह्मपिशाचिनी ! ' ... उत्सुकतावश कौतुक से सेनापति ने कहा । ' हाँ सेनापति ... ! इस दुर्द्धर्षिणी ने ब्रह्मपिशाचों एवं ब्रह्मराक्षसों को अपने वश में कर रखा है ... ' क्षण भर मौन के उपरांत उसने पुनः कहा - ' क्या पता उसने ब्रह्मवीरों को भी वशीभूत कर लिया हो ... तो आश्चर्य नहीं । ' ' ब्रह्मपिशाच तो मुझे ज्ञात है चंद्रा ! ' सेनापति ने कहा ' अकालमृत्यु प्राप्त ब्राह्मण की योनि है ये , परन्तु यह ब्रह्मराक्षस और ब्रह्मवीर क्या हैं ? ' ' जिस ब्राह्मण की हत्या कर दी जाती है , वह ब्रह्मराक्षस हो जाता है तथा किसी ब्राह्मण ने यदि जनकल्याण हेतु अपनी आहुति दे दी तो वह ब्रह्मवीर की योनि का विकट प्रेत हो जाता है । प्रेतों की ये तीनों योनियां अति दीर्घकालिन होती हैं सेनापति ये अपनी इच्छानुसार , पदार्थ परमाणु को विघटित कर कभी भी किसी भी रूप किसी भी शरीर में स्वयं को उपस्थित कर देते हैं । परन्तु उग्रचण्डा की आपने चर्चा क्यों की सेनापति ... ? उनसे आपका क्या प्रयोजन है ? ' सेनापति मुस्कराया । उसकी रहस्यमयी मुस्कराहट ने कापालिक चंद्रा की उत्सकुता और भी बढ़ा दी । कुछ पल के मौन के पश्चात् मुस्कराते हुए ही सेनापति ने कहा- ' इस साधिका को वश में करना है चंद्रा ... ! और मेरा यह कार्य तुम्हें ही करना है । उसे धन चाहिए तो धन दो , सम्पत्ति की अभिलाषी हो तो सम्पत्ति दो उसे ... परन्तु उसे मेरी सहायता के लिए सहमत करो ! ' चंद्रा कापालिक की उत्सुकता शांत न होकर और बढ़ गयी । इस गर्वीले सेनापति को उग्रचण्डा की अनायास क्या आवश्यकता पड़ गयी ? ' किस चिन्तन में मग्न हो गए चंद्रा ? " ' रहस्य को अनावृत करें सेनापति ! ' चंद्रा कापालिक ने कहा ' प्रयोजन क्या है स्पष्ट करें ... तभी विचार करूँगा । ' सेनापति ने युवराज चंद्रचूड़ की सम्पूर्ण कथा सुनाकर अमात्य की बात बता दी । ' मैं इस देश का शासक बनना चाहता हूँ , चंद्रा ! ' सेनापति ने अंततः दृढ़ स्वर में कहा- युवराज की अकाल मृत्यु हो चुकी है तो कथा ही समाप्त ... परन्तु यदि वे जीवित हैं तो उनकी इहलीला समाप्त हो जाये ... मुझे और कुछ नहीं चाहिए ... निर्विध्न मैं राजा बन जाऊँगा ... बस ! स्थिति ऐसी है कि मूर्ख अमात्य अपनी जिद्द छोड़ेंगे नहीं और जैसा तुम कह रहे हो , उग्रचण्डा अतिसामर्थ्यवती साधिका है ... वह सहायक हो जाएगी तो कुँवर को अभिमंत्रित कर अथवा अपने पिशाचों के माध्यम से उसे ढूंढ़कर , उपस्थित कर ही देगी । '' तो आपकी अब इच्छा क्या है ? ' कापालिक का स्वर रहस्मय हो गया ' आप चाहते हैं , उग्रचण्डा अमात्य की सहायता करने से ही मना कर दे ? ' ' नहीं ... मैं चाहता हूँ कि वह युवराज को ही समाप्त कर दे । ' ' यदि वे जीवित हों तो ? ' ' हाँ चंद्रा ... हाँ ! मैं यही चाहता हूँ ! ' हर्षित स्वर में सेनापति ने | कहा - ' इसीलिए तुम्हें बुलाया है मैंने । ' ' यह संभव नहीं सेनापति ! उग्रचण्डा को मैं भलीभाँति जानता हूँ । उसे न लोभ है , न लालच और उस पर आपकी शक्तिशाली तलवार भी व्यर्थ है उस पर यदि वह वास्तव में उग्र हो गयी तो जग में उसके कोप का कोई निवारण भी नहीं है सेनापति । उस प्रज्वलित अग्नि में मैं तो हाथ दूंगा नहीं , आपको भी यही परामर्श दूंगा मैं ... इस दुर्द्धर्षिणी के कोप से स्वयं को बचा कर रखें ! ' | कहते ही कापालिक चंद्रा मौन हो चिन्तित हो गया और पुनः अपना मौन भंगकर उसने कहा- वैसे आप चाहें तो युवराज की स्थिति का मैं पता लगा सकता हूँ । वे जीवित हैं अथवा मृत यह भी बता सकता हूँ मैं । ' सेनापति प्रसन्न हो गया ! आकुल होकर उसने कहा- ' तो व्यर्थ तर्क में क्यों उलझाया मुझे । शीघ्र बता दे मुझे ... कहाँ है वह ? मैं कल के सूर्योदय की भी प्रतीक्षा न करूंगा । अविलम्ब हत्या कर दूंगा उसकी ... बता कापालिक चंद्रा ... शीघ्र बता । ' कापालिक चंद्रा भूमि पर वज्रासन में बैठ गया । उसने अपने दोनों नेत्र बंदकर मंत्रोच्चारण प्रारंभ कर दिया । सेनापति मौन बैठा कौतूहलपूर्ण नेत्रों से कापालिक के क्रियाकलापों को देखने लगा । कापालिक ने अपने ढीले - ढाले परिधान से मुट्ठीभर कौड़ियां निकालीं । उसके नेत्र पूर्ववत् बंद थे तथा होठों से अनवरत मंत्रोच्चार हो रहा था । अचानक उसके नेत्र खुले ' युवराज जीवित हैं सेनापति ! ' ' कहाँ ... कहाँ है वह ? ' व्यग्र सेनापति ने पूछा । कापालिक चंद्रा ने तभी हाथों की कौड़ियों को कक्ष में उछाल दिया । आश्चर्य ! दर्जनों कौड़ियाँ अधर में स्थिर हो गयीं । देखते ही देखते स्थिर कौड़ियों में गति उत्पन्न हुई और एक - एक कर कौड़ियाँ अदृश्य होने लगीं । कुछ ही पलों में समस्त कौड़ियाँ अदृश्य हो गयीं । कापालिक चंद्रा के अधरों पर रहस्यमयी मुस्कान उभरी । ' ये कौड़ियाँ शीघ्र ही आपके शत्रु का पता बतायेंगी सेनापति ... ! ' • विहँसते हुए कहा उसने - ' आदेश दें ... चंद्रा आपकी और क्या सेवा कर सकता है ? ' प्रसन्न - भाव में सेनापति ने कहा- तुम तो मित्र अद्भुत हो ! नहीं जानता था ... तुम इतने उच्च स्तर के साधक हो चंद्रा ! " ' आपने मुझे मित्र कहा , सेनापति ? ' ... गद्गद् हो गया चंद्रा , मेरी साधना - शक्ति को पहचानने में आपने अत्यधिक विलंब किया सेनापति परन्तु अब मेरी सामर्थ्य देखिएगा । मेरी कौड़ियाँ कार्य सम्पन्न कर बस आती ही होंगी । ' सेनापति ने प्रशंसा भरे नेत्रों से चंद्रा कापालिक को निहारते हुए कहा ' राजा बनने के पश्चात् , तुम्हें मैं अपना प्रमुख सहयोगी नियुक्त करूँगा चन्द्रा ! उत्कल - राजप्रासाद में कक्ष होगा तुम्हारा , देखना क्या करता हूँ । ' • कापालिक की दृष्टि शून्य में टिकी थी । उसके मौन पर सेनापति ने पुनः कहा - ' अच्छा चन्द्रा ! एक बात तो बता मित्र ... ! तुम्हारे पास भी तो प्रेतात्माएँ होंगी ही । उनसे कार्य - सिद्धि क्यों नहीं कराते ? मैंने सुना है तांत्रिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप सुदूर शत्रु भी रक्त - वमन करता प्राण त्याग देता है । तू तो अब अपना हो चुका है मेरा ... मेरा शत्रु , अब तेरा भी तो शत्रु ही है ... फिर सोच जरा ... ! ' वह अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाया था कि हवा में सांय सांय की ध्वनि उत्पन्न करता सारी कौड़ियाँ प्रत्यक्ष हो गईं । तत्काल चंद्रा के होंठों पर मंत्रों की बुदबुदाहट शुरु हो गयी । एक - एक कर लहराती कौड़ियाँ भूमि पर आकर बिखर गई । कापालिक का मंत्रोच्चार समाप्त हो गया । भूमि पर बिखरी कौड़ियों पर उसकी तीक्ष्ण दृष्टि गड़ गयी । हाथों की उंगुली से चंद्रा ने कौड़ियों के आपस की दूरी नापी और अंदर ही अंदर हिसाब लगाने लगा फिर उसने अपने वस्त्र से उंगुली के ही आकार की एक हड्डी निकाली और विचित्र सी प्रक्रिया प्रारंभ कर दी । सेनापति ने देखा चंद्रा की आँखें चमकने लगीं । सेनापति की आकुलता और भी तीव्र हो गयी । तभी प्रसन्न मुद्रा में कापालिक ने कहा , ' हमारा शत्रु उत्तर पश्चिम दिशा के मध्य ढाई योजन दूर किसी अंचल में है सेनापति ! ' ' उत्तर - पश्चिम में ढाई योजन ! ' बुदबुदाया सेनापति कौन - सा राज्य है यह ? ' सोच में डूबा सेनापति अचानक व्यग्र हो गया । उत्तेजित स्वर में उसने कहा- वहाँ तो बंग की खाड़ी है , चंद्रा । ' ' सत्य है सेनापति ! ' चंद्रा ने सहमति में कहा- ' हिमालय से निकली गंगा वहीं सागर में समा जाती है ! ' ' शंखाग्राम । ' सेनापति के मुख से अनायास निकला - ' हाँ चंद्रा ! वह अंचल शंखाग्राम ही है । ' ' महान साधिका भुवनमोहिनी का शंखाग्राम ! ' चंद्रा कापालिक का अस्फुट स्वर निकला - पुनः उसने विस्मित स्वर में कहा ' परन्तु हमारा शत्रु भुवनमोहिनी के राज्य में क्या कर रहा है ? ' ' युवराज क्या कर रहा है , इस रहस्य को फिर हल कर लेना. चंद्रा । अभी तो ऐसा जतन करो कि वह वहीं रक्त - वमन करते हुए अपने प्राण त्याग दे । ' ' नहीं सेनापति ... ! मेरी सिद्धियाँ इस स्तर की नहीं कि इतने सुदूर के शत्रुओं का नाश कर दे । मैंने प्रेत योनि की साधना नहीं की है क्योंकि वश में आने के बाद उनकी रक्त - पिपासा को निरंतर शांत करते रहना मेरे वश की बात नहीं ... फिर भुवनमोहिनी स्वयं - सिद्धा नारी हैं । हमें यह भी ज्ञात नहीं , हमारे युवराज से उनका क्या सम्बंध है ? दुश्मन के बलाबल का अनुमान लगाये बिना घात करना यों भी उचित नहीं । ' सेनापति घोर चिन्ता में निमग्न हो गया । उसे इस प्रकार मौन और चिन्तित देख कापालिक ने पुनः कहा ' उग्रचंडा समस्त रहस्यों को अनावृत कर देगी सेनापति ! आप अमात्य को प्रेरित कर उनके समक्ष भेजें , परन्तु अमात्य के साथ अपना एक गुप्तचर अवश्य हो । उससे उग्रचंडा की सारी बातें आपको ज्ञात हो जाएँगी । ' ' गुप्तचर की आवश्यकता नहीं ! ' सेनापति ने खिन्न स्वर में कहा ' अमात्य के साथ उग्रचंडा के समीप मैं स्वयं जाऊँगा । मैंने व्यर्थ तुम्हें सिद्ध तांत्रिक समझा ... खेद है मुझे अपनी भूल पर । तुमने तो व्यर्थ अपना जीवन नष्ट कर लिया । तुमसे श्रेष्ठ तो हमारे राजमार्ग पर खेल प्रदर्शन करने वाले मदारी हैं । ' अपमानबोध ने कापालिक चंद्रा की मुखाकृति कठोर कर दी । उसके दोनों जबड़े एक दूसरे के ऊपर पूरी शक्ति से जकड़ गये । इस दुष्ट सेनापति ने पूर्व में भी उसका तिरस्कार किया था । कैसे भूल गया वह ? परन्तु आज ..... आज तो इसने स्वार्थ में मदांध होकर समस्त सीमाओं का ही अतिक्रमण कर दिया । ठीक है दुष्ट ... ! अवसर आने दे ... ! भुगतेगा तू ! ऐसे घूर घूर कर ताक क्या रहा है मुझे ... ? जा ... बाहर निकल जा मेरे कक्ष से ... जा । ' अपमान के घूंट भरता कापालिक चंद्रा सेनापति के कक्ष से तत्काल निकल गया । कापालिक के जाते ही चिन्तित सेनापति ने अपने विश्वासी | सैनिकों को बुलाकर आवश्यक निर्देश देने शुरु कर दिये । ' बलि - योग्य जितने जीव इस घड़ी उपलब्ध हों , उनकी शीघ्र व्यवस्था करो , साथ ही पर्याप्त मात्र में मदिरा और प्रचुर ताजे फलों के साथ समस्त जानवरों को • साधिका उग्रचंडा की सेवा में प्रस्तुत कर उनसे विनम्र निवेदन करते हुए मेरा संदेश देना कहना मैं उनके दर्शनों का अभिलाषी हूँ । जाओ , शीघ्रतिशीघ्र कार्य सम्पन्न कर मुझे सूचना दो ! ' • सैनिकों के प्रस्थान करते ही वह विचारमग्न हो गया । विचारमग्न सेनापति ने सोचा चंद्रा ने आज का बहुमूल्य समय व्यर्थ नष्ट कर दिया । उसे जो करना है , आज ही करना होगा , अन्यथा कल सूर्योदय के पूर्व ही अमात्य उग्रचंडा के समीप उसके साथ जाने वाले हैं । आज की एक रात्रि का ही अवसर शेष है उसके पास । तभी विचारमग्न सेनापति के होठों पर अचानक कुटिल मुस्कान उभरी । मूर्ख चंद्रा ने इतना तो बता ही दिया कि शत्रुकहाँ था । उसे सर्वप्रथम तो शंखाग्राम की दिशा में अपनी सीमा पर ऐसी अचूक व्यवस्था करनी होगी कि चंद्रचूड़ किसी भी अवस्था में इस दिशा से जीवित आ न सके . उग्रचंडा यदि प्रसन्न हो जाए तो फिर बात ही क्या है । उसके ब्रह्मपिशाच चन्द्रचूड़ का गला वहीं जाकर दबा आएँगे , अन्यथा शंखाग्राम में उसकी हत्या की गुप्त योजना बनानी होगी । इन्हीं विचारों में जाने कब तक वह मग्न बैठा रहता कि तभी सैनिकों ने आकर जो शुभ समाचार दिया तो सेनापति का मन मुदित हो गया । विस्मित उग्रचण्डा ने प्रसन्नतापूर्वक सेनापति का उपहार स्वीकृत कर उसी घड़ी मिलने की उसे स्वीकृति दे दी थी । रात्रि का प्रथम प्रहर व्यतीत हो चुका था , जब सेनापति का वाहन महाश्मशान स्थित पीपल वृक्ष के नीचे बैठी उग्रचण्डा के समीप पहुँचा । पुष्ट वक्षस्थल पर बँधी रक्तवर्णी कंचुकी । कमर में लिपटी काली धोती तथा भूमि तक लटकी घने - लम्बे खुले केश । उग्रचण्डा का अतिपुष्ट तना हुआ तन किसी मानवी का नहीं , काले पत्थर को तराशकर बनाया गया उत्कृष्ट शिल्प सरीखा दीख रहा था । उसकी बड़ी - बड़ी आँखें अड़हुल के फूल की भांति दहक रही थीं तथा उसके सम्पूर्ण तन पर चिता की राख पुती थी । भाल पर त्रिपुण्ड और बाँयी हथेली पर एक खण्डित नरमुंड पकड़े उसने सेनापति का स्वागत किया- ' पधारो सेनापति ... पधारो ! उग्रचण्डा तुम पर प्रसन्न है ... मांगो ... ! जो इच्छा हो मांग लो ! उग्रचण्डा तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करेगी । 1 अतिविनम्रता प्रदर्शित करते हुए सेनापति ने अपनी कमर की तलवार निकाल कर उग्रचंडा के समक्ष भूमि पर रखते हुए कहा - ' राज - शक्ति आज तंत्र - शक्ति के समक्ष नतमस्तक होकर याचना के प्रयोजन से उपस्थित है साधिका माँ । '' आश्चर्य ! ' हँसते हुए ही उग्रचण्डा ने कहा- ' तुम्हारे विषय में भ्रमित थी मैं सेनापति ! मैंने सुना था तुम अत्यंत उद्दंड एवं क्रोधी हो ! अपने बल के घमंड में चूर तुम अत्यंत अभिमानी और दुष्ट भी हो ... ! परन्तु आज तुम्हें देखकर मेरा भ्रम टूट गया है । कहो , तुम्हारा क्या हित करूँ ? " उग्रचण्डा के स्थान पर कोई अन्य होता तो सेनापति की प्यासी तलवार अब तक उसका मस्तक काट चुकी होती । सेनापति के सम्मुख ऐसे अपमान बोधक शब्द - बाणों का संधान किसी ने न किया था । परन्तु , सेनापति ने अपने क्रोध के भाव को अत्यंत कुशलतापूर्वक अंतस् में दबा कर दोनों कर जोड़ लिए , ' मौन क्यों है ... बता क्या इच्छा लेकर उपस्थित हुआ है तू ? " ' मेरी कोई अभिलाषा नहीं है साधिका माँ ! आपकी कृपा से इस राज्य में भी हर प्रकार से कुशल - मंगल व्याप्त है । ' कहकर से सेनापति पुनः मौन हो गया । ' मिथ्या भाषण कर रहा है तू ... ! क्या तेरी कोई अभिलाषा नहीं ... इस महाश्मशान में मात्र इसी सूचना के सम्प्रेषण हेतु इस घड़ी उपस्थित हुआ है ... शीघ्र बता क्या इच्छा है ? ' उग्रचण्डा के चरणों पर सेनापति ने मस्तक रख दिया । उग्रचण्डा ने क्रूरतापूर्वक सेनापति के केश पकड़ कर उसके मस्तक को उठा उग्र स्वर में कहा- मुझे मूर्ख समझता है सेनापति ? ... भूमिका में अब एक पल भी व्यर्थ किया तो मेरी क्रोधाग्नि में भस्म हो जाएगा मूर्ख ! शीघ्र बता ... किस प्रयोजन से आया है तू ? " ' क्षमा माता ... ! क्षमा ! ' घिघियाते हुए उसने कहा - ' अपने शत्रु के दमन की कामना लिये आया था माँ के पास , परन्तु मुझे भय है कि मेरे शत्रु का परिचय पाकर आप मुझे दुत्कार न दें । ' खिलखिलाकर हँस पड़ी उग्रचण्डा । ' मूर्ख । ' तीव्र स्वर में ही उसने कहा- ' उग्रचण्डा का न कोई मित्र है न शत्रु | बता तेरा शत्रु कौन है ? निश्चित जान ... उग्रचण्डा का ब्रह्मपिशाच केशवानंद उसका रूघिर - पान करके अतिप्रसन्न होगा ... बता मुझे कौन है वह ? ' ' मुझे तो अभय है न माँ ? ' ' पूर्ण अभय है ... अब शीघ्र बता । ' ' युवराज चंद्रचूड़ है मेरा शत्रु ... इसे समाप्त कर मुझे उपकृत कर दें माता ! ' उग्रचण्डा पुनः हँस पड़ी । उसकी विकट हँसी महाश्मशान की निस्तब्ध रात्रि में देर तक गूँजती रही और विचलित सेनापति की आशंकित आँखें उग्रचण्डा को तकती रहीं । ' तो राज्य सत्ता चाहिए तुझे ! ' उग्रचण्डा की हँसी थमी तो उसने कहा - ' जानती थी ... ज्ञात था मुझे । तुम्हारे जैसा क्रूर लोभी और दुष्ट व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए सब कुछ कर सकता है । इतने छागड़ और इतनी मदिरा इसीलिए भेजी थी तूने ? ' कहते - कहते पुनः हँस पड़ी उग्रचण्डा और अपमानित सेनापति असहज हो गया । क्या करे वह ? विवश हो रो दे अथवा तत्काल भाग जाए ? उसकी मुखाकृति पर कोई स्थायी भाव उभर नहीं पाया ।उग्रचण्डा की हँसी अचानक थमी । उसके नेत्र बंद हो गये । उसकी दोनों भुजाएँ आवाहन की मुद्रा में उठ गई । इस पल सेनापति ने चाहा भूमि पर पड़ी अपनी तलवार उठाकर अवसर का लाभ उठा लें । इस दुष्टा का मस्तक तत्काल काट डाले । कदाचित् यही करता भी वह , परन्तु उसी पल वातावरण में एक विचित्र - सी ध्वनि हुई . हवा में एक अनजानी - सी गंध भर आयी और उग्रचण्डा ने अपने दहकते नेत्र खोल दिये । ' आओ केशवानंद ! ' शक्तिशाली सेनापति की चेतना काठ हो गयी । उसके रोम - रोम में सिहरन व्याप्त हो गई . उसने विस्फारित नेत्रों से देखा शून्य से एक मानवाकृति उभर रही थी । मुण्डित मस्तक पर मोटी चुटिया कृशकाय श्यामल काया । मोटी भवें और अग्नि बरसाती , जलती आँखें । कमर में बंधी लाल गमछी के अतिरिक्त उसकी शेष देह अनावृत थी । उसकी सांवली - चमकती त्वचा के अंदर से उभरी हड्डियां झांक रही थीं । भयाक्रांत सेनापति पत्ते की भांति थर - थर काँपने लगा । ' भयभीत होने की आवश्यकता नहीं सेनापति ! ' उग्रचण्डा ने कहा - ' केशवानंद को तुम्हारे ही प्रयोजन हेतु मैंने बुलाया है ... शांत हो बैठे रहो । ' उग्रचण्डा ने पुनः केशवानंद को सम्बोधित किया- कैसा है रे केशव ? ' ' कृपा है माई ! ' एक अप्राकृतिक मानवी स्वर गूँजा बोल ... मेरे लिए क्या आज्ञा है ? ' ' इस राज्य के युवराज चंद्रचूड़ को ढूँढ़ना है केशवानंद ! जा ... अंतरिक्ष में चला जा ... अपनी प्राण - शक्ति का चतुर्दिक् प्रसार कर खोज उसे ' उग्रचण्डा के आदेश पर ब्रह्मपिशाच केशवानंद अट्टहास करने लगा । क्रोधित हो गयी उग्रचण्डा - ' केशवानंद ! ' चीखी वह , ' तेरा यह दुःसाहस ! अवज्ञा करता है मेरी ? ' पिशाच का अट्टहास तुरंत रूक गया । हकलायी वाणी में उसने सादर कहा- नहीं माई ... क्रोधित न हो तू ! ' ' तूने अट्टहास क्यों किया ? ' उग्रचण्डा ने रूक्षता से कहा । ने ' तू जिसे ढूँढ़ने की आज्ञा दे रही है माई ! वास्तव में उसी के समीप जा रहा था मैं । ' कहकर उस ब्रह्मपिशाच ने भुवनमोहिनी और चन्द्रचूड़ का प्रेम प्रंसग , उसके प्राण - दण्ड तथा टंका कापालिक की पूरी कथा सुना दी । ' तो टंका उसकी नरबलि देगा ? ' विस्मित उग्रचण्डा ने कहा । ' हाँ माई ! '' सुना सेनापति ... ! सुन लिया तुमने ? ' विषाक्त मुस्कान उभरी उग्रचण्डा के H अधरों पर ' वह तो स्वयं काल का ग्रास बनने जा रहा है । टंका स्वयं देगा उसकी नर- बलि ... टंका ... विद्रूप हँसी हँस पड़ी उग्रचण्डा । ' टंका को कदाचित् नहीं जानता तू ... मुझ जैसी कापालिनी उसके चरणों की धूल भी नहीं हैं सेनापति ! जा ... जाकर उत्सव मना तू ... जा ! ' कुछ पल पूर्व का भयाक्रांत सेनापति अब आनंद में मुदित था । | उग्रचण्डा के सम्मुख आनंदमग्न सेनापति नतजानु हो गया । सूर्योदय के पूर्व ही अमात्य नित्य कर्म से निवृत्त हो सेनापति के भवन में जा पहुँचे थे । यह जानकर उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही कि सेनापति रात्रिपर्यन्त अपने भवन में उपस्थित नहीं थे । कहाँ गये सेनापति ? किसी को जानकारी नहीं थी । अमात्य के साथ उग्रचण्डा के समीप जाने के लिए कितने आतुर थे सेनापति । स्वयं उन्होंने ही आग्रह किया था और निर्धारित कार्यक्रम की अवहेलना कर वे स्वयं ... ! अनेक आशंकाओं से घिरे अमात्य महाश्मशान की दिशा में अकेले चल पड़े । सूर्य अभी तक उदित नहीं हुआ था । मंद शीतल पवन बह रहा था । पक्षियों ने अपने नीड़ नहीं छोड़े थे । चिन्तामग्न अमात्य की चेतना में कभी उद्विग्न राजा , कभी चतुर र अभिमानी सेनापति और कभी उग्रचण्डा के विचार आ जा रहे थे । युवराज चंद्रचूड़ को अपनी गोद में खेलाया था उन्होंने सुदर्शन युवराज चंद्रचूड़ का कोई शत्रु भी हो सकता है , यह उनकी कल्पना से परे था । युवराज अवश्य किसी गुप्त अभियान में गये हैं । फिर उन्होंने सोचा किसी को तो बता कर जाते वे ... राजा की दशा देखी नहीं जाती और सेनापति की महत्त्वाकांक्षा तो जग विदित ही है । ईश्वर न करे युवराज को कुछ हो गया तो सेनापति इस अवसर को कदापि नहीं चूकेंगे । विचारों के द्वंद्व में उलझे अमात्य को पता ही न चला , वे कब महाश्मशान की परिधि में प्रविष्ट हो गये थे । अमात्य पर उग्रचण्डा की दृष्टि गयी । ब्रह्मपिशाच केशवानंद आज्ञा ले जा चुका था और सेनापति नतजानु हो उग्रचण्डा के समक्ष बैठा था । ' सेनापति ! ' उग्रचण्डा ने शांत वाणी में कहा- देखो , तुम्हारे अमात्य पधारे हैं ! ' अमात्य के नाम ने सेनापति को चौंका दिया । उसने उठकर अमात्य को देखा - ' अमात्य आप ! ' सेनापति के सम्बोधन से अमात्य की तंद्रा टूटी . | उग्रचण्डा के समीप सेनापति को पूर्व से उपस्थित देख उन्हें महान् आश्चर्य हुआ ।तभी उग्रचण्डा ने कहा - ' पधारिए अमात्य ! इस महाश्मशान के शुभ प्रभात में उग्रचण्डा आपका स्वागत करती है ! ' अमात्य ने दोनों कर जोड़ते हुए कहा - ' सेनापति के साथ ही आपके समक्ष मुझे आना था देवी ... ! परन्तु ये तो पूर्व से ही उपस्थित हैं । ' खिलखिलाकर हँस पड़ी उग्रचण्डा । सूर्य उदित होने लगा था । पंछियों के कलरव के मध्य अमात्य को उग्रचण्डा की विकट हँसी बड़ी रहस्यमयी लगी । उनका हृदय आशंकित हो गया ।