mukt ho jana chaha mainen in Hindi Poems by Suman Kumavat books and stories PDF | मुक्त हो जाना चाहा मैने

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मुक्त हो जाना चाहा मैने

हाँ..

मुक्त हो जाना चाहा मैने

सारे स्नेह बंधनो से

अपने ही बनाये

तमाम घेरो से

और

तुम्हारे बनाये मर्यादा की चौखटों से मुक्त होकर

उड़ जाना चाहती हूँ

धुंए की तरह

दूर आसमान के

अनाम कोनो तक

जहाँ कोई अस्तित्व ही न बचे

मेरे वजूद का

 

हाँ.. वैसे भी क्या हूँ मैं

पृथ्वी का एक छोटा-सा अणु

नही नही

अणु कहना ठीक नही होगा

अणु से भी सूक्ष्म

एक नाभकीय कण

या उससे भी कम

बहुत कम

बिल्कुल कम

 

अणु भी क्या परमाणु का हिस्सा

जैसे में तुम्हारे परिवार का

एक सुक्ष्म सा महत्वहीन कण

मै विस्फोट नही कर सकती

 

परमाणु सा

सामर्थ्य नही मुझमें

सबकुछ नेस्ताबुद करने का

अतः सुक्ष्म कण ही बनी

रहती हुँ हमेशा

ज्वाला जो धधकती अंदर

दबाये रखती चुपचाप

ना पहुँचे ये आग

किसी और के पास

 

अतः खुद को जलाये रखती हुँ मै

मुक्त हो जाना चाहा था मैंने कभी

अणु परमाणु में बदल जाने तक

परमाणु सा विखण्डित होकर भी

मुक्त होकर भी शांत रहना चाहती हुँ मै

सिर्फ एक स्त्री ही बनी रहना चाहती हुँ मै....

 

  सुमन कुमावत

बचपन में भुख लगने पर

माँ सब भाई बहनों को

बारी-बारी से परोसती

गरमा-गरम फुली-फुली

गोल-गोल भुरी-भुरी रोटी

सबकी थाली में

 

बड़े स्नेह से धीरे से

वो रखती चुपड़ी रोटी

पेट भर जाने पर

मना करने पर भी

वो कहती एक तो ले लो

छोटी सी तो है

और पतली भी है

 

वो नही मानती

कहती चलो आधी तो ले लो

एकदम गरमा-गरम और

ज्यादा घी लगी और

एकदम कड़क भी हैं

तुम्हें पसंद हैं ना ऐसी रोटी

 

उस ममता व स्नेह के आगे हार जाती जिद्द्

माँ आधी रोटी ज्यादा खिलाकर खुश हो जाती

और बेटी अतिरिक्त प्रेम

पाकर निहाल हो जाती

 

और इस तरह

बचपन बीत गया

वो प्रेम भरी

आधी रोटी खाकर

बेटी घर से विदा हो गई

 

बनती है गरमा-गरम रोटी

प्रतिदिन ही घर में

लेकिन

अब नही रखता

कोई थाली में

गरमा-गरम फुली-फुली

गोल-गोल भुरी-भुरी कड़क कड़क ज्यादा घी लगी रोटी

 

परोसी जाती है थाली में

प्रतिदिन रोटी

पर अब माँ कहाँ

सिर्फ मै और मेरी रोटी

ढूँढ़ती है आज भी

मेरी थाली

वो आधी रोटी...

                   

सुमन कुमावत

हाँ..

मुक्त हो जाना चाहा मैने

सारे स्नेह बंधनो से

अपने ही बनाये

तमाम घेरो से

और

तुम्हारे बनाये मर्यादा की चौखटों से मुक्त होकर

उड़ जाना चाहती हूँ

धुंए की तरह

दूर आसमान के

अनाम कोनो तक

जहाँ कोई अस्तित्व ही न बचे

मेरे वजूद का

 

हाँ.. वैसे भी क्या हूँ मैं

पृथ्वी का एक छोटा-सा अणु

नही नही

अणु कहना ठीक नही होगा

अणु से भी सूक्ष्म

एक नाभकीय कण

या उससे भी कम

बहुत कम

बिल्कुल कम

 

अणु भी क्या परमाणु का हिस्सा

जैसे में तुम्हारे परिवार का

एक सुक्ष्म सा महत्वहीन कण

मै विस्फोट नही कर सकती

 

परमाणु सा

सामर्थ्य नही मुझमें

सबकुछ नेस्ताबुद करने का

अतः सुक्ष्म कण ही बनी

रहती हुँ हमेशा

ज्वाला जो धधकती अंदर

दबाये रखती चुपचाप

ना पहुँचे ये आग

किसी और के पास

 

अतः खुद को जलाये रखती हुँ मै

मुक्त हो जाना चाहा था मैंने कभी

अणु परमाणु में बदल जाने तक

परमाणु सा विखण्डित होकर भी

मुक्त होकर भी शांत रहना चाहती हुँ मै

सिर्फ एक स्त्री ही बनी रहना चाहती हुँ मै....

 

  सुमन कुमावत

[22:11, 25/08/2023] Suman Kumavat: #मेरे पिता

आँख भी ना छलकने दी कभी

बुरी नजर ना जमाने की लगने दी कभी..।।

 

दुनियाँ की हर दौलत पास मेरे थी,

बेशुमार खुशियो से झोली भरी थी..

मेरी हिम्मत, ताकत, प्रेरेणा,

सब कुछ तो आप थे..।।

 

चेहरे पर सिर्फ मुकराहटे थी,

दुनियाभर की खुशियाँ कदमो में थी..

सिर पर जब आपका हाथ था..

आपके जाने से मानो रुठ के

सबकुछ चला गया..।।

 

पर भीतर भीतर रह गया बहुत कुछ,

किसी ना किसी रूप में..

जाते जाते भी हर रिश्ते को,

बखुबी निभा गये..।।

 

हमको भी तो यही सीखा गये..

सत्य, ईमानदारी, त्याग, समर्पण,

दया, प्रेम के कठिन पथ पर चलकर..

हमको भी तार गये..।।

 

दूसरो के दर्द तकलीफ..

को अपनी पीड़ा समझ,

कितनो के कष्ट मिटा गये..।।

 

धरती पर आप अवश्य मानव रूप थे,

लेकिन कही ना कही आपमें..

देव गुण विधमान थे,

आप,अवश्य ही साधारण मनुष्य नही थे..!!