Seva aur Sahishnuta ke upasak Sant Tukaram - 8 in Hindi Spiritual Stories by Charu Mittal books and stories PDF | सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 8

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 8

कर्मकांडी पंडितों द्वारा विघ्न-बाधाएँ
पूना से नौ मील दूर बाघोली में रामेश्वर भट्ट नाम का विद्वान् कर्मकांडी पंडित निवास करता था। तुकाराम जी की कीर्ति को समस्त प्रदेश में फैली हुई देखकर और प्रत्येक व्यक्ति के मुख से उनके रचे हुए अभंगों को सुनकर उसको बड़ा बुरा लगा। खासकर इसलिए कि तुकाराम शूद्र था और अब अनेक ब्राह्मण भी उसके पैर स्पर्श करने लगे थे। रामेश्वर के विचारानुसार यह शास्त्रों द्वारा निर्देशित वर्ण-धर्म का स्पष्ट उल्लंघन था। इन दिनों महाराष्ट्र में स्मृति धर्म के मानने वाले ब्राह्मणों का विशेष रूप से बोलवाला था और वे शूद्रों को हर तरह से दबाकर रखने के पक्षपाती थे।

जब हम इस घटना की तह में घुसकर विचार करते हैं तो मालूम होता है कि रामेश्वर पंडित का यह विरोध आकस्मिक या वैयक्तिक न था। जिस 'वारकरी संप्रदाय' (भागवत धर्म) के तुकाराम अनुयायी थे, उसके साथ वैदिक कर्मकांडी लोगों का विरोध बड़ा पुराना था और वे उसे अपनी जड़ खोदने वाला समझते थे। स्मृतियों के नियमानुसार धार्मिक कृत्यों के कराने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही था और उसी से किसी व्यक्ति की सद्गति मानी जाती थी। पर भागवत धर्म मनुष्य मात्र को समान रूप से भगवत्-भक्ति का अधिकार देता था। इतना ही नहीं भागवत धर्म के बहुसंख्यक प्रसिद्ध भक्त और संत ब्राह्मणों से भिन्न अन्य जातियों के व्यक्ति थे, जिनमें से कितने ही शूद्र और अछूत भी थे। इस आधार पर कर्मकांडी पंडित भागवत धर्म को वर्णाश्रम धर्म को नष्ट करने वाली एक विद्रोही विचारधारा मानते थे।

पर पंडितों की यह धारणा सत्य नहीं थी, वरन् उन्होंने केवल स्वार्थ भावना के कारण ही इसे गढ़ लिया था। भागवत धर्म वास्तव में अति प्राचीन भारतीय ज्ञान मार्ग का ही एक लोकोद्धारक रूप है। वैदिक कर्मकांड और भागवत धर्म के बीच जो बातें विवादग्रस्त जान पड़ती हैं, वे ये ही हैं कि भागवत धर्म के भक्तगण बिना जात-पाँत पूछे चरित्र के आधार पर ही चाहे जिसकी प्रतिष्ठा करते हैं, संस्कृत भाषा के शास्त्रीय ग्रंथों का रहस्य प्रचलित देश-भाषा में प्रकट करते हैं। यज्ञ-यागादि को गौण बतलाकर भगवत्-भक्ति (परमार्थ और सेवा) की महिमा को ही सर्वप्रधान मानते हैं। ये बातें अधिकांश धर्म-व्यवसायी पंडितों को अपने स्वार्थ पर आघात करने वाली जान पड़ती हैं और वे पहले से ही इस भक्ति मार्ग वालों का विरोध करते आये हैं। ऐसे ही पंडित नामधारियों ने संत ज्ञानेश्वर और एकनाथ को तरह तरह से कष्ट दिये थे, यद्यपि वे भी ब्राह्मण ही थे। गोस्वामी तुलसीदास का काशी के पंडितों द्वारा विरोध और उन पर तरह-तरह से आक्रमण करने का कारण भी भक्ति मार्ग से द्वेष रखना ही था। अब तुकाराम जी को वैसे ही कष्ट देने को रामेश्वर भट्ट मिल गये।

रामेश्वर ने देखा कि तुकाराम प्राचीन रूढ़ियों के विपरीत ऐसी बातों का प्रचार कर रहा है, जिससे ब्राह्मणों के महत्त्व को धक्का लगता है। जब लोग भागवत धर्म के उपदेशानुसार संतों को ही श्रेष्ठ मानने लगेंगे तब ब्राह्मणों की मान्यता कहाँ रही? इस कारण रामेश्वर ने तुकाराम के कार्य में बाधा डालने का निश्चय किया। पर उसने उनको प्रत्यक्ष रूप से न रोककर टेढ़े मार्ग से अपना उद्देश्य पूरा करना चाहा। उसने विचार किया कि यह व्यक्ति (तुकाराम) देहू में कीर्तन करके अपना प्रभाव जमा रहा है और वहीं पर उसका 'विट्ठल देव' का मंदिर है। अगर उसे देहू से हटा दिया जाये तो सब काम अपने आप सिद्ध हो जाय। इसके लिये उसने जो चाल चली, उसका वर्णन एक प्राचीन पुस्तक 'भक्त लीलामृत' में इस प्रकार किया गया है–
“मन में ऐसा विचार करके उसने देहू गाँव के अधिकारी को लिखा कि 'तुको' शूद्र जाति का है और शूद्र होकर वेद के रहस्यों को कहता रहता है। हरिकीर्तन करके इसने भोले लोगों के ऊपर जादू कर दिया है। ब्राह्मण भी उसे नमस्कार करने लगे हैं। यह बात हमारे लिए लज्जाजनक है। सब धर्मों को इसने उड़ा दिया है और केवल कीर्तन की महिमा ही बतलाता फिरता है। इसने लोगों में ऐसा भक्ति पंथ चलाया है कि जिसमें भक्ति का ढोंग ही रहता है। वास्तव में वह पाखंडी है और उसके प्रचार कार्य को बंद करा देना चाहिए।”

देहू गाँव के पटेल ने रामेश्वर भट्ट का पत्र तुकाराम को पढ़कर सुना दिया। इससे तुकाराम जी को बड़ी चिंता हो गई। इस संबंध में उन्होने एक अभंग कहा–
“अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? किसके आधार पर गाँव में रहूँ ? पटेल नाराज है, कहता है कि यह उच्छृंखल हो गया है। हाकिम ने भी ऐसा ही निर्णय दिया है। इस भले आदमी (रामेश्वर भट्ट) ने जाकर फरियाद की और मुझ गरीब को ही मार दिया। तुकाराम कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति का संपर्क अच्छा नहीं होता। चलो, अब विट्ठल को ही चलकर ढूँढे।”

तुकाराम जी अपने गाँव से चलकर सीधे बाघोली में रामेश्वर भट्ट के पास पहुँचे और उसे दंडवत् प्रणाम करके बड़े प्रेम से हरिकीर्तन करने लगे। उनके मुख से धारा प्रवाह 'अभंग' निकल रहे थे, जिनमें ऊँचे दर्जे का तत्त्वज्ञान भरा था। उनको सुनकर रामेश्वर ने कहा– “तुम बड़ा अनर्थ कर रहे हो। तुम्हारे 'अभंगों' में श्रुति का भाव प्रकट होता है। पर तुम शूद्र हो और ऐसी वाणी बोलने का तुमको अधिकार नहीं है। तुम्हारा यह कार्य शास्त्र विरुद्ध है, श्रोता वक्ता दोनों को नर्क में ले जाने वाला है। ऐसी वाणी बोलना तुम छोड़ दो।”

तुकाराम जी ने कहा– “भगवान् पांडुरंग की प्रेरणा से ही मैं ऐसी वाणी बोलता हूँ, अब वह निरर्थक हो जायेगी। आप ब्राह्मण ईश्वर स्वरूप हैं। आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके मैं कविता करना बंद कर दूँगा, पर अब तक जो अभंग बन चुके हैं उनका क्या हो ?” रामेश्वर ने कहा– “उन अभंगों की पोथी को तुम पानी में फेंक दो।”

तुकाराम– “आपने जैसी आज्ञा दी है वैसा ही करूँगा।”

यह कहकर तुकाराम देहू वापस आये और समस्त पोथियों को पत्थर के साथ एक कपड़े में बाँधकर नदी में डाल दिया। अभंगों की पोथियों को इस प्रकार डूबा देने की बात चारों तरफ फैल गई। इससे भक्तजनों को बड़ा दुःख हुआ और कुटिल तथा परनिंदक बड़े खुश हुए। ऐसे दुष्ट प्रकृति के लोग तुकाराम के पास आकर मजाक करने लगे– “पहले तो भाई के साथ झगड़ा करके तुमने कर्ज के सब कागज नदी में फेंक दिये। अब रामेश्वर भट्ट के साथ विवाद करके अभंगों की पोथियाँ डुबा दीं। दोनों तरह से अपना ही फजीता कराया और कोई होता तो ऐसी हालत में अपना मुँह किसी को न दिखाता और चुल्लू भर पानी में डूब मरता।”

ऐसी बात सुनकर तुकाराम के हृदय को बड़ी चोट लगी। वह विचार करने लगे– “लोग तो ठीक ही कहते हैं। अपनी घर-गृहस्थी को मैंने ही आग लगाई और उससे विरक्त हो गया। उस कार्य के लिये मेरी जो हँसी उड़ाई गई, उसकी तो मुझे परवाह नहीं वह तो चार दिन की चाँदनी है। पर यह सब करने पर भी जो भगवान् नहीं मिले, मेरे ऊपर होने वाले आघातों का निवारण उन्होंने नहीं किया तो फिर जीने से क्या लाभ ? ऐसी हालत में उचित यही है कि अन्न-जल त्यागकर भगवान् के चरणों में पड़ जाऊँ, फिर उनको जो करना होगा वही करेंगे।” यह सोचकर तुकाराम श्री विट्ठल मंदिर के सामने तुलसी के थांभला के पास एक शिला पर तेरह दिन तक अन्न-जल त्यागकर केवल भगवान् का नाम लेते हुए पड़े रहे।