Shakral ki Kahaani - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

शकराल की कहानी - 5

(5)

"तुम मेरा वह सूटकेस मंगवा दो जिसके ऊपर दो काली धारियाँ पड़ी हुई हैं— ” राजेश ने शकराली सरदार से कहा ।

"अच्छा" कह कर शकराली सरदार चला गया । "यह सब तुम्हारी वजह से हुआ है-" खानम गुर्राई ।

"कम से कम इस वक्त तो मुंह बन्द रखो -" राजेश ने कहा यह चिन्ता जनक नेत्रों से शहवाज को देखे जा रहा था।

"तुमने सूट केस क्यों मंगवाया है?" खानम ने पूछा

"इनका इलाज करूंगा"

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उसी सन्ध्या को परिचर्या के मध्य खान शहबाज से खानम उलझ पड़ी क्योंकि शहवाज ने राजेश को बुरा भला कहना आरम्भ कर दिया था। वह कह रही थी।

"उसकी क्या गलती है— उसने तो आपको बस्ती में जाने से रोका था। आप खुद ही अपनी अकड़ में हमें सोता छोड़ कर चले आये थे।" मेरी समझ में नहीं आता कि वह है क्या चीज?" शहबाज ने कहा।

"वह चाहे जो भी हो खान- मगर आपको यह याद रखना होगा कि उसका नाम सूरमा है और वह पकलाक का रहने वाला है । हम दोनों अपने मुल्क से फरार होना चाहते थे— सूरमा ने इस सिलसिले में हमारी मदद की है। इसके खिलाफ न होना चाहिये वर्ना उसी के बयान के मुताबिक हम चारों की गर्दन कट जायेंगी ।"

"सवाल तो यह है कि जब वह देवताओं की तरह यहां पूजा जा रहा है तो फिर वह बस्ती में क्यों नहीं आया था। गुफा में रात क्यों बिताई थी?"

"मैंने भी उससे यही सवाल किया था मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया था--" खानम ने कहा

"वह चाहे जो भी हो मगर धोखेबाज नहीं मालूम होता ।"

खान शहबाज मौन हो गया। वह राजेश के दिये हुये एक इन्जेक्शन के प्रभाव से ही होश में आया था और इस समय काफी बहाली महसूस कर रहा था। वैसे पीड़ा तो सारे शरीर में थी।

राजेश उसे खानम को सौंप कर कहीं चला गया था। और प्रोफेसर दारा को भी अपने साथ लेता गया था।

खान शहबाज कुछ देर तक सोचता रहा फिर बोला। “तुम्हारे ऊपर उस का बहुत ज्यादा असर पड़ा है।"

"वह है ही कुछ इसी तरह का आदमी-और मैं एहसान फरामोश भी नहीं हूँ ।"

"यह क्यों भूल रही हो कि वह एक विदेशी जासूस भी है-"

"और आप यह क्यों भूल रहे हैं कि हम उसी के देश में पनाह लेने जा रहे हैं।" खानम के स्वर में व्यंग था।

शहवाज ने उसे ध्यान पूर्वक देखा फिर सिर झुका लिया। इतने में बस्ती का सरदार आज्ञा लेकर खेमे के अन्दर आया। वह शहबाज के लिये ताजा फल लाया था— शहबाज ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा फिर बोला।

"मेरा दिल तुम्हारी तरफ से साफ हो गया सरदारे।"

"मुझे इसकी खुशी है-" सरदार ने हर्षित होकर कहा।

"अगर तुमने पहले ही सुरमा का नाम ले लिया होता तो यह तब कभी न होता।"

"हां- मुझसे गलती हो गई थी" शहबाज ने कहा फिर पूछा. "सूरमा कहां है?"

“वह उस गाड़ी की मरम्मत करा रहा है जिसमें तुम्हें सफर करना है—मगर तुम इधर कैसे आये खान?" "हमारी कहानी भी अजीब है सरदार मैंने दीदार खां का साथ दिया था।"

"वही दीदार खां तो नहीं जो तुम्हारे मुल्क से हमारे लिये चाय लाता था और उसके बदले में हम से खालें ले जाता था?"

"हां हां - वही-" शहबाज ने कहा।

"वह मेरा दोस्त था। हमारी सरकार ने उसे पकड़ लिया और यह रास्ता बन्द कर दिया। मैंने सरकार से कहा कि यह ना इन्साफी है बस इसी पर सरकार मेरी भी दुश्मन हो गई। अगर सूरमा न मिल गया होता तो हम भी पकड़ लिये गये होते ----वही हमें इस तरफ निकाल लाया।"

"मगर तुम्हारी सरकार ने तो दर्रा बन्द करा दिया है—फिर तुम दर्रें में कैसे दाखिल हुये थे?"

"सूरमा की अक्ल का जादू है" शहबाज ने हंस कर कहा ।

"हां वह ऊपर से नीचे तक अकल ही कल है—" सरदार भी हंसता हुआ बोला।

"मगर सरदार यह बात समझ में नहीं आई कि आखिर वह बस्ती में क्यों नहीं आना चाहता था?"

इस पर सरदार मुस्कुराया था-खान शहवाज उसे जवाब तलब नेत्रों से देखता रहा-फिर सरदार ने लम्बी सांस खींच कर कहा।

"वह हमारे लिये हवा का एक झोंका है। इधर आया और उधर गया। सरदारों के सरदार ----बहादुर सरदार का मुंह बोला भाई है मगर उसके कहने पर भी वह ज्यादा दिनों तक नहीं ठहरा था वह जानता था कि अगर इस बार हमारे हाथ लग गया तो हम उसे बहुत दिनों तक रोके रखेंगे।,"

"बस इतनी सी बात थी" शहवाज ने कहा।

"हा...!"

"इसका मतलब यह हुआ कि वह इधर कई बार आ चुका है।"

"नहीं-बस एक ही बार आया था और अब यह दूसरी बार आया है।" सरदार ने कहा।

"पहली बार जब आया था तो उसने हमारे लिये अपनी जान की बाजी लगा दी थी। शकराली तो उसका नाम सुनते ही सिर झुका देते हैं। शायद तुम उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं जानते।”

"हम एक दूसरे से बस तीन दिन पहले मिले थे और उसने हमारी मदद करने का वादा कर लिया था-" शहवाज ने कहा ।

"हां वह ऐसा ही है-" सरदार ने कहा।

"बस खुदाई फौजदार समझ लो। दुखियों की मदद करने में अपनी जान की बाजी लगा देते है। वह तो आसमान बाले की मेहरबानी थी कि वह अपना सर्कस लेकर इधर आ निकला था और हमें तबाह और बर्बाद होने से बचा लिया था।"

"सर्कस?" शहबाज ने आश्चर्य के साथ पूछा ।

"हां-हम बहुत परेशान थे।" सरदार बताने लगा "फिरंगियों ने चाल चली थी और शकराली दो हिस्सों में बट गये थे—एक दूसरे के जानी दुश्मन। पूरे शंकराल में बस सरदार बहादुर ही एक ऐसा था जिसने फिरंगियों की बात नहीं मानी थी— फिरंगी उसे ठिकाने लगा देना चाहते थे मगर आसमान वाले ने सुरमा को भेज दिया और उसकी अकल ने फिरंगियों के छक्के छुड़ा दिये। फिरंगी उसकी अकल के सामने टिक न सके--- हार गये। आस्मान वाले ने उसे जितनी अक्ल दी है उतना ही बहादुर भी बनाया है। उसकी ताकत का अन्दाजा नहीं लगाया जा सकता।"

शहबाज ने फिर कुछ नहीं पूछा था। उसके नेत्रों में चिन्ता के लक्षण पाये जाते थे। चूँकि दोनों शकराली भाषा में बातें करते रहे थे। इसलिये खानम के पल्ले कुछ नहीं पड़ा था क्योंकि वह शकराली नहीं जानती थी।

सरदार के चले जाने के बाद जब उसने शहवाज से पूछा तब शहवाज ने उसे बताया कि सरदार क्या कहता रहा था।

"याद कीजिये – ” खानम ने कहा।

"वह किस तरह दर्रे वाली चट्टान के ऊपर पहुँचा था मुझे ऐसा ही लगा था जैसे वह सर्कस का एक मंझा हुआ आर्टिस्ट हो ।"

"यह सीक्रेट एजेन्ट्स ऐसे ही होते हैं।" शहबाज ने कहा।

"पता नहीं दुनिया के किन किन देशों में किन किन नामों से जाना पहचाना जाता होगा।"

खानम ने कुछ नहीं कहा। न जाने किस सौंच में डूब गई थी।

थोड़ी देर बाद राजेश खेमे में दाखिल हुआ। उसने शहवाज का हाल चाल पूछा। और एक तरफ बैठ गया। चेहरे पर वही मूर्खता छाई हुई थी। जिससे खानम को उलझन होती थी ।

"क्या करके आये हो?" खानम ने तेज आवाज में पूछा।

"गाड़ी ठीक कर आया हूँ मगर वह लोग कम से कम तीन दिन तो रोकेंगे ही।"

"शायद सर्कस देखना चाहते होंगे-" खानम ने व्यंग भरे स्वर में कहा।

"सामान कहां है?" राजेश ने पूछा ।

“क्यों—क्या सचमुच सर्कस खानम बात पूरी किये बिना ही मौन हो गई ।

"क्या बात है—तुम उदास नजर आ रहे हो?" शहबाज ने पूछा।

उसने राजेश को खानम की बात का उत्तर देने का अवसर नहीं दिया था।

"तीन दिन बहुत होते हैं और मुझे वापसी की जल्दी है-" राजेश कहा।

"जीन दिन कुछ ज्यादा तो नहीं होते -" शहबाज ने कहा।

"हां-मगर तीन दिन के तीस दिन भी हो सकते हैं और तीन महीने भी।

"वह क्यों ?" शहबाज ने आश्चर्य से पूछा।

"इन्होंने एक आदमी सरदार बहादुर के पास भी रवाना कर दिया है-" राजेश ने कहा।

"वह शकराल के तमाम सरदारों का सरदार है—"

"मतलब सबसे बड़ा सरदार।"

"तो इससे क्या होगा—?"

"बस जो कुछ भी होगा अपनी आंखों से देख लेना।"

"कुछ बताओ भी तो?"

"बात छः महीने तक पहुँचेगी। उससे पहले तो हम यहां से हिला भी न सकेंगे।"

"पता नहीं तुम क्या करते फिर रहे हो" शहबाज ने मुंह बना कर कहा।

“मैं तो कुछ भी नहीं कर रहा हूँ खान—यह सब कुछ तुम्हारा 'किया धरा है—अगर तुमने मेरी बात मान ली होती–बस्ती में न गये होते तो यह आफत न आई होती। हम दो दिन के अन्दर ही सरहद पार कर जाते।"

"तुम इन लोगों से कह दो कि फिलहाल तुम यहां न रुक सकोगे- कोई बहाना कर दो-" खानम ने कहा।

"यह लोग जितनी मुहब्बत करते हैं उतनी ही मुहब्बत चाहते भी हैं—अगर ऐसा नहीं होता तो इनकी खोपड़ी गर्म हो जाती है। अपनी मुहब्बत का जवाब मुहब्बत से न पाकर यह आपे से बाहर हो जाते हैं और फिर अपने बाप को भी नहीं माफ करते।"

"हां—यह बात तो है—" शहबाज ने भराई हुई आवाज में कहा।

"इन लोगों में तुम्हारी क्या हैसियत है?" खानम ने पूछा।

"मैं खुद ही नही जानता तो बताऊं क्या?" राजेश ने कहा।

"सर्कस वाला भी हूँ और यह लोग मेरे हाथ भी चूमते हैं—।”

"अब मैं सोच रही हूँ कि मुझसे भूल हुई।" खानम ने कहा।

"कैसी भूल--?" राजेश ने पूछा।

“मुझे भागना नहीं चाहिये था। वहीं रुक कर दुश्मनों का मुकाविला करना चाहिये था।"

"अगर यह बात है तो फिर तुम दोनों वापसी के लिये तैयार हो जाओ। मैं तुम्हें तुम्हारे देश में वापस पहुँचा दूँगा। यह काम मेरे लिये कोई मुश्किल नहीं है—।"

"जो कुछ भी हो मगर मैं वापस नहीं जाना चाहता-" शहवाज ने कहा।

"उस वक्त तक वापस नहीं जाऊंगा जब तक वहीं से ना इन्साफी खत्म नहीं हो जाती।

“और तुम?" राजेश ने खानम से पूछा।

"तुम क्या चाहती हो ?" मगर खानम ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

उसी रात को भोजन के बाद बस्ती के सरदार के खेमे में राजेश बैठा शकराली बोरों और शूरों की कहानियां सुन रहा था, और उनकी कृतियों की दिल खोल कर प्रशंसा कर रहा था ।

अचानक एक बूढ़े आदमी ने जो बड़े से प्याले में तीमाल (एक प्रकार की शराब) पी रहा था ऊंची आवाज में कहा।

"मगर तुम्हारा जवाब नहीं है सूरमा-"

"तुम जैसे बहादुरों के सामने में किसी गिनती में नहीं हूँ-" राजेश ने कहा।

"यही तुम्हारा सबसे बड़ा बड़कपन है कि अपने से बड़े लोगों के सामने तुम सिर ऊंचा नहीं करते जब कि सच्ची बात यही है कि शकराल का कोई भी बहादुर तुम्हारा मुकाबिला नहीं कर सकता।” राजेश कुछ नहीं बोला।

"अगर तुम अपना सर्कस इस बार भी लायें होते तो कितना अच्छा होता।" सरदार ने कहा।

“उसमें बड़ा घाटा हो गया था इसलिये मैंने उसे तोड़ दिया - " राजेश ने कहा।

"तो अब क्या करते हो?"

"घोड़ों का करोबार।"

"तो कभी इधर भी लाओ अपने घोड़े।"

"जरुर लाऊंगा-" राजेश ने कहा ।

अचानक वह सब चौंक पड़े। तेज दौड़ते हुये घोड़ों की टापों की आवाज हवा के झोंके के साथ आई थी आवाज़ दूर की थी ।

"शायद वह लोग वापस आ रहे हैं-" सरदार ने कहा।

"अब देखना यह है कि तुम यहीं रहते हो या, सरदार बहादुर के पास जाते हो।"

थोड़ी देर बाद आवाजें कुछ और निकट हो गई थीं।

"यह तो दो से ज्यादा घोड़े मालूम होते हैं" सरदार उठता हुआ बोला।

"क्या सरदार बहादुर खुद ही चले आये हैं।"

"होना तो नही चाहिये --" राजेश ने मुस्कुरा कर कहा।

"सरदार बहादुर का मुंह बोला भाई हूँ।"

"बड़ी मुहब्बत से तुम्हारी बातें करते हैं-" सरदार ने कहा ।

"उन्होंने शादी की या नहीं?" राजेश ने पूछा ।

"की थी-मगर बीबी दो ही साल बाद मर गई—उसके बाद फिर नहीं की।"

घोड़ों की टापों की आवाजें अब बहुत निकट हो गई थीं। साथ ही किसी प्रकार के नारे भी गूंजे थे। वह सब खेमे से बाहर निकल आये। मशालों के प्रकाश में ग्यारह सवार दिखाई दिये थे।

“आहा- यह तो सरदार आदिल है-" सरदार आगे बढ़ता हुआ बोला।

आदिल—सरदार बहादुर का सौतेला भाई था और उस संग्राम में राजेश का साथ दे चुका था। जिसके आधार पर यहां उसकी मान जान थी।

आदिल कुछ इस प्रकार राजेश से गले मिला था कि देखने वालों की आंखें भर आई थीं। वह एक मिनिट तक लिप्टा ही रह गया था। खानम भी अपने खेमे से निकल आई थी और बड़ी विचित्र मुस्कान के साथ प्रेम मिलन का यह दृश्य देख रही थी ।