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मित्रता

मित्रता

"जो मित्र सुख-दुख की घड़ी में साथ रहता हो, वही सच्चा मित्र है। "
चाणक्य कहते हैं कि सच्चे मित्र की पहचान संकट की घड़ी में होती है।
जब बुरा वक्त आता है तो सबसे पहले स्वार्थी लोग साथ छोड़कर भाग जाते हैं। बुरे वक्त में साथ रहने वाले आपके अपने होते हैं।
(आचार्य चाणक्य)

आज के युग की मित्रता का अर्थ सैर सपाटों और मौज मस्ती तक सिमत कर रह गया है । संस्कृत की निम्न सूक्ति कितनी गम्भीरता से मित्रता के अर्थ को प्रदर्शित करती है , देखा जा सकता है –
दिनस्य पूर्वार्ध परार्ध भिन्न: ,छायेव मैत्री खलु सज्जनानाम् ।
अर्थात,
दिन के सुवह और शाम की छाया की तरह दुर्जन और सज्जन लोगों की मित्रता होती है।

जिस तरह दिन के प्रारम्भ मे हमारी छाया पहले बड़ी होती है और जैसे जैसे दिन चढ़ता है , छाया छोटी होने लगती है किंतु मद्यान्ह के बाद पहले हमारी छाया छोटी और फिर धीरे धीरे बढ़ना प्रारम्भ कर देती है ।

ठीक इसी तरह दुर्जन और सज्जन व्यक्ति की मित्रता होती है । दुर्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ मे प्रगाढ़ होती है ।
फिर धीरे कम होते होते टूट जाती है ।
जबकि इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की मित्रता प्रारम्भ मे कम किंतु धीरे धीरे प्रगाढ़ होती जाती है।

आज के युग मे मित्रता का भाव ह्ल्का हो गया है ।
आज है , कल नहीं । कुछ मित्रता तो लक्ष्य निर्धारित होती है । काम बना मित्रता समाप्त ।
सही मायने मे मित्र वही है जो सन्मार्ग की ओर ले जाये ।कुपंथ मे जाने से रोके । विपत्ति मे साथ दे।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस मे मित्रके बारे मे लिखा है –
आपद काल परखिये चारी ।
धीरज धरम मित्र अरु नारी ॥
अर्थात विपत्ति के समय मे मित्र की परख होती है । हमारे जीवन मे धीरज , धरम व नारी के समान ही मित्र को माना गया है । मनुष्य के जीवन मे इन चारों की भूमिका महत्वपूर्ण है ।
इस विषय पर मैंने कल्पतरु - ज्ञान की छाया के अंतर्गत विस्तार से लिखा है, नीचे दिए लिंक पर क्लिक करके आप भी इस पवित्र भाव के रसास्वादन से भावविभोर हो कर मेरी रचना को कृतार्थ कर सकते है।

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वैदिक काल से ही मित्रता के विशिष्ट मानक दृष्टिगत होते आये है। जहाँ रामायण काल में राम और निषादराज, सुग्रीव और हनुमान की मित्रता प्रसिद्ध है वहीँ महाभारत काल में कृष्ण- अर्जुन, कृष्ण- द्रौपदी और दुर्योधन-कर्ण की मित्रता नवीन प्रतिमान गढती है| कृष्ण और सुदामा की मित्रता की तो मिसाल दी जाती है जहाँ अमीर और गरीब के बीच की दीवारों को तोड़कर मित्रता निभाई गई थी |

पौराणिक कथाओं के आधार पर कृष्ण और सुदामा की मित्रता प्रसिद्ध है । वे दोनो एक दूसरे के सच्चे मित्र थे । समय चक्र के साथ कर्मफल के अनुसार समय ने करवट ली, कृष्ण मथुरा के राजा बनें और सुदामा अकिंचन जिसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी ।


सुदामा जी के पास खुद के अलावा खोने को कुछ भी नहीं था । किसी तरह भीख मांग कर वह अपने परिवार का भरण पोषण करता थे ।


जब सुदामा की पत्नी को यह ज्ञात हुआ कि उसका पति और त्रलोकीनाथ कृष्ण बाल सखा थे, तो उनकी पत्नी ने सहायतार्थ कृष्ण के यहां जाने के लिए सुदामा से बार बार आग्रह किया ।


सुदामा को संकोच था कि वह इस हाल मे अपने मित्र के यहां कैसे जाये किंतु स्त्री हठ के कारण सुदामा ने कृष्ण के यहां जाना स्वीकार कर लिया ।

हमारे पौराणिक कथा साहित्य मे इस घटना का बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है ।


चूंकि वह पहली बार अपने मित्र से मिलने जा रहा था अत: भेंट मे कुछ तो ले जाना चाहिए था । यह बात सुदामा भलीभांति जानता था किंतु सुदामा के पास्स ऐसा कुछ भी नहीं था ।


बड़ी ही असमंजस की स्थिति थी ।
भरसक प्रयास करने पर उसकी पत्नी केवल मुट्ठी भर चावलों का प्रवन्ध ही कर पाई ।


उन मुट्ठी भर चावलों को पोटली मे बांध कर सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने द्वारिका पहुंचे ।
सुदामा राज महल मे कैसे गये , कृष्ण ने अपने बाल सखा का स्वागत कैसे किया आदि यहां पर विषय वस्तु नही है।

विषय वस्तु है कि जिस काम के लिए सुदामा अपने मित्र के पास आया था , उस बात को वह कृष्ण के सामने शव्दों से पेश नहीं कर सका किंतु कृष्ण ने अपने मित्र के मन की बात जान ली कि वह सहायतार्थ आया है ।


यही सच्चे मित्र की पहचान है। मित्रता की पराकाष्ठा है ।

"कृष्ण सुदामा मित्रता" पर प्रतिलिपि पर प्रवीण भार्गव जी ने बड़ी उत्कृष्ट रचना सखा (कृष्ण सुदामा) का लेखन किया है,जो 8 भागों मे विस्तृत और व्याख्यायित है।
यदि समय मिले तो आप सभी एक बार अवश्य पढ़े।

पाश्चात्य विचारक हेलेन केरर के अनुसार –
Walking with a friend in dark is better than walking alone in the light. "
“प्रकाश मे अकेले घूमने से अंधेरे मे मित्र के साथ घूमना अच्छा है ।

अब मित्रता की बात हो और आभासी मित्रों की बात न हो यह तो बेमानी हो जायेगी।
बल्कि यहीं पर ऐसी मित्रता होती है जहाँ हम सिर्फ और सिर्फ भावनाओं से जुड़े होते हैं। यहाँ किसी भी प्रकार का स्वार्थ नहीं जुड़ा होता।


बहुत से लोगों का मत है कि आभासी दुनिया की मित्रता सिर्फ लाइक कमेंट पर टिकी होती है यह सत्य भी है,किन्तु यदि हम सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे तो यह लाइक और कमेंट ही हमें आपस में जोड़तें हैं।

क्यों कि पोस्ट तथा लाइक्स और कमेंट्स ही व्यक्ति के व्यक्तित्व को उजागर करता है जिनमें हम वैचारिक समानता तथा शब्दों में अपनत्व को महसूस करते हैं और मित्रता हो जाती है।

यह भी सही है कि आभासी दुनिया की मित्रता में बहुत से लोग ठगी के शिकार हो रहे हैं। इस लिए मित्रों के चयन में सावधानी बरतना आवश्यक है चाहे वह आभासी मित्रता हो या फिर धरातल की।


मित्रता एक खूबसूरत बंधन है जो हमें एकदूसरे से जोड़ कर हमें मजबूती का एहसास कराता है। इसलिए इस बंधन को टूटने नहीं देना चाहिए।


हालांकि आज मित्रता मतलब परस्ती की बहुलता से कंठ तक आसक्त है।

"आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी" ने अपने निबंध लेख मित्रता मे कई बातें बताई, जिसे हाईस्कूल मे पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था।


आपके लिए एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ -

"हँसमुख चेहरा, बातचीत का ढंग, थोड़ी चतुराई या साहस-ये ही दो-चार बातें किसी में देखकर लोग चटपट उसे अपना बना लेते हैं। हम लोग यह नहीं सोचते कि मैत्री का उद्देश्य क्या है तथा जीवन के व्यवहार में उसका कुछ मूल्य भी है। यह बात हमें नहीं सूझती कि यह एक ऐसा साधन है, जिससे आत्मशिक्षा का कार्य बहुत सुगम हो जाता है। एक प्राचीन विद्वान् का वचन है-‘विश्वासपात्र मित्र से बड़ी भारी रक्षा होती है। जिसे ऐसा मित्र मिल जाए, उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।’

"मैथिली शरण गुप्त जी" ने बहुत ही खूबसूरतती से मित्रता को परिभाषित किया है...

तप्त हृदय को , सरस स्नेह से ,
जो सहला दे , मित्र वही है।
रूखे मन को , सराबोर कर,
जो नहला दे , मित्र वही है।
प्रिय वियोग ,संतप्त चित्त को ,
जो बहला दे , मित्र वही है।
अश्रु बूँद की , एक झलक से ,
जो दहला दे , मित्र वही है।
▪️मैथिलीशरण गुप्त


किन्तु यह आज के युग और स्वार्थ से परिपूर्ण वातावरण और सोशल मीडिया के आभासी लोक मे विरले ही अच्छे मित्र प्राप्त होते हैं। यदि ऊपर वाले के आशीर्वाद से एक उत्तम मित्रों गुणों से परिपूर्ण मित्र, प्रतिलिपि के विषय के अनुसार दोस्त मिल जाए तो उसकी सम्मान और मूल्यांकन करने मे चूक ना करें।


वर्ना हाल वहीं होगा जो किसी महान आत्मा ने मेरे जन्म के ईसा पूर्व कह गए थे -
"अब पछतावे का होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत।"

अगर मेरे खुराफाती दिमाग की माने तो इसके उल्ट भी एक गूढ़ रहस्य छिपा है अब इतना समय दिया तो बताये देते है -
"इस भ्रमजालों, स्वार्थ से लबरेज दुनिया की खतरनाक दुनियादारी में समय रूपी चिड़िया, मक्का रूपी भीड़ रूपी पूर्ण पुरुषों के जमघट से रामचंद्र शुक्ल जी के शब्दों मे परित्याग योग्य दोस्तों को चुन कर आपके भुट्टे के डंठल रूपी जीवन से अलग करके उत्तम गुणों से युक्त मित्र रूपी मक्के के दाने को छोड़ दे तो खुश हो जाओ, पछताओ मत की यार, ये होता तो थोड़ी दंतमंजन किए बत्तीस संग्रह के मोतियों की चमक बिखर जाती। "


एक कलयुगी मित्र की मार्मिक रचना प्रस्तुत करना चाहूँगा जो कॉपी कर के प्रस्तुत कर रहा हूँ आनंद लीजिए -

एक कलयुग के सखा की मांग

" मधुशाला "का नित्य निमंत्रण,
जो दिलवा दे , मित्र वही है।

व्यथित हृदय हो पीडा में तब,
" विल्स " जला दे , मित्र वही है।

सुंदर विपुल चंचला का,
"नंबर" दिलवा दे , मित्र वही है।

मधु-पात्रों में भर भर कर मदिरा,
पैग बना दे , मित्र वही है।

सुरा विसुध हो जाऊँ जब मैं,
"घर" पहुँचा दे , मित्र वही है।
🍺🥃🥂

अब बस....... उंगली दर्द करने लगी हैं भईया अब तो विदा देने का मिजाज़ बनाओ।
🙏🏻आप सभी को प्रणाम 🙏🏻
🧡🤍💚
✍🏻संदीप सिंह (ईशू)