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पागल

 

यह वही साल था जब भारत में इन्टरनेट ने अपने कदम रखे थे। भारत पूरे विश्व के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने के लिए तैयार था। पर यह बात सिर्फ गिने-चुने बड़े शहरों तक ही सीमित थी। अभी भी इन्टरनेट, टीवी तो छोड़ ही दीजिए, देश के पंचानवे प्रतिशत गाँवों में ढंग से बिजली तक नहीं पहुँची थी। 

 

उत्तर भारत के हिन्दू बाहुल्य गाँव में किसी बड़े बुजुर्ग को यह स्वीकारने में भी कठिनाई होती थी कि मांस-मछली मुसलमान के अलावा भी काफ़ी लोग खाते हैं। वे ऐसे लोगों को ओछी नज़रों से देखते थे। उन्हें इस बात की कतई जानकारी नहीं थी कि शाकाहारी भोजन करने वाले दुनिया की आबादी का सिर्फ दश प्रतिशत लोग हैं, उन कम लोगों में से वे भी एक हैं। और दुनिया में इतनी विविधता होने के बावजूद, वह अपनी इसी छोटी सी सोच को संपूर्ण दुनिया मान चुके हैं।

 

 इस अनभिज्ञता के पीछे कारण अशिक्षा तो थी ही थी, साथ-ही-साथ गाँव के लोगों का दूर-दूर तक भारत के किसी कोने से संपर्क न होना भी था। बस-टेम्पो तक की ढंग से व्यवस्था नहीं थी। बीस से पच्चीस किलोमीटर दूर कस्बे तक जाने से पहले आदमी दस बार सोचता था और सौ किलोमीटर दूर शहर जाने के लिए एक महीने पहले से इंतज़ाम करना पड़ता था। पोटली में सेतुआ पिसान बाँध कर निकलना पड़ता था। 

 

उस वक्त शायद ही लोगों को आभास हुआ हो कि इस वर्ष एक ऐसी चीज़ की स्थापना हुई है जिसका नाम इन्टरनेट है, जो आने वाले वक्त में वह दुनिया बदल कर रख देगा। 

 

दुनिया के इस कोने में बैठे व्यक्ति का संपर्क दो मिनट में दूसरे कोने में हो जाएगा। दुनिया की एक कोने की खबर एक मिनट के अन्दर दुनिया के हर कोने में बैठे व्यक्ति को प्राप्त हो जायेगी। शहर और गाँव के बीच कोई दूरी नहीं बचेगी। सब एक-दूसरे से जुड़ जाएँगे। बटन के एक क्लिक पर हर चीज़ की होम डिलीवरी हो जाया करेगी, ऐसा शायद ही उन बुजुर्गों ने उस वक्त सोचा हो। 

 

उस वक्त गाँव के एक-दो घरों में ही टीवी हुआ करता था, जिसमें सिर्फ़ दूरदर्शन आया करता था... टीवी देखने के लिए उन लोगों के यहाँ मेला सा लगा करता था। टीवी भी ऐसी जगह रखा जाता था जिससे भीड़ घर के अन्दर तक प्रवेश न कर जाये, बाहर वाले कमरे से ही देखकर सब लोग निकल जाएँ। टीवी रखना अपने आप में एक सम्मान का विषय हुआ करता था। कुल मिलाकर गाँव के लोग पूरी तरह से कुएँ के मेंढक जैसे थे। 

 

ऐसी हालत सिर्फ एक गाँव की नहीं थी बल्कि अधिकतर गाँवों में ऐसी ही स्थिति थी। यहाँ तक कि उत्तर भारत के गाँवों के अधिकांश लोगों को जानकारी ही नहीं थी कि भारत में बाईस से ज़्यादा भाषाएँ बोली जाती हैं। उन्हें तो बस यही लगता था कि भारत में सिर्फ हिन्दी बोली जाती है और पढ़े-लिखे लोगों को अंग्रेज़ी आती है। 

 

उनके मस्तिष्क में यह बैठ गया था कि हिन्दी हम भारतीयों की भाषा है और जो लड़का होनहार एवं पढ़ने-लिखने में होशियार होता है उसे अंग्रेज़ी भाषा भी आती है। गाँव में कोई लड़का टूटी-फूटी अंग्रेज़ी बोल दे तो उसे गाँव की आन-बान-शान मान लिया जाता था।

 

वहीं दूसरी तरफ़ इस अनभिज्ञता के कारण एक लड़का अपने अस्तित्व को ही भूल चुका था। जब उस लड़के की आँखें खुलीं तो वह हैरान था कि वह कहाँ पर है। यह उसके लिए बिलकुल नयी जगह थी। वह अपने दिमाग के सभी मानचित्रों को देख लेना चाहता था लेकिन जब से उसकी समझ विकसित हुई थी, तब से ऐसी जगह उसने कभी नहीं देखी थी।

 

वह था कौन? कहाँ से आया था? क्या करने वाला है वह? क्या ऐसा कुछ उसके साथ घटित होने वाला है जिसकी कल्पना उसने स्वप्न में भी न की होगी? इन सबका उत्तर तो समय देगा लेकिन उसकी एक पहचान बन गयी थी 'पागल है'। 

 

अब आइये आप सभी को ले चलता हूँ नवाबगंज ! जी हाँ नवाबगंज, जब 'पागल हैं' ने पहली दफ़ा नवाबगंज में कदम रखे थे। कैसी शाम थी वह? ज़रूर ही कोई मनहूस मंज़र रहा होगा। मनहूस मंज़र ज़रूरी नहीं कि.दिखाई पड़े। वह किसी खास व्यक्ति को महसूस होता है। किसी का अपना अब बेगाना हो गया था। 

 

वह जब होश में आया तो उसने खुद को सड़क के किनारे पेड़ के नीचे पड़ा पाया था जहाँ से दूर-दूर तक सिर्फ खेत ही दिखाई पड़ रहे थे। कुछ देर होश संभालने में लगे फिर जब अपने ऊपर नियंत्रण पा लिया तो उसने गौर से जगह को देखने की कोशिश की। पर सब कुछ धुंधला-धुंधला सा, अस्पष्ट आकृतियाँ, जब कुछ देर बाद स्पष्ट होने लगीं तो जैसे उसके नीचे से ज़मीन खिसक गयी। 

 

कौन सी जगह थी यह? 

 

कहाँ ओझल हो गये थे, वे सारे दृश्य जो हकीकत में उसके सामने हुआ करते थे। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि एकाएक वह कहाँ आ गया था? खाली पड़े खेत में बैठा हुआ मिट्टी को घूरे जा रहा था। 

 

जितनी दूर तक उसकी नज़र जाती थी, उसे सिर्फ खाली पड़े खेत ही दिखाई पड़ रहे थे। सभी खेतों को बीच से दो फांक में बांटती हुई एक सड़क जा रही थी। जो अभी-अभी डामर से बनाई हुई लग रही थी। जिसे आस-पास के लोग डामर वाली सड़क के नाम से जानते थे। जिस पर दूर तक न कोई आता हुआ दिखाई दे रहा था न जाता हुआ। 

 

उसे बड़ी जोर की भूख और प्यास लगने लगी थी। उसे पता ही नहीं था कि उसे अपनी मिट्टी से जुदा हुए कितने दिन हुए थे? अब वह चल पाने में भी असमर्थ महसूस कर रहा था। उसके होंठ सूखे जा रहे थे। 

 

सांवले और दुबले-पतले शरीर पर उसने शर्ट और लुंगी डाल रखी थी। दो दिन से भूखा होने के कारण उसका शरीर क्षीण हो चुका था। 

 

उसके मन में रह-रहकर यही प्रश्न उठ रहा था कि काश वह मेले में न गया होता? फिर अगला प्रश्न उठा था उसके चाचा भी किसी काम के सिलसिले में कुछ दिन पहले परदेश गए थे। चाचा ही तो थे जिनसे वह पैसे माँगता था। चाचा ही तो उसे खूब प्यार करते थे। फिर चाचा ने ही ऐसा क्यों किया? 

 

उसे याद आया कि चाचा के परदेश जाने की वजह से उसने अपनी माँ से पैसे माँगे थे। वह अपने दोस्तों संग अपने गाँव से थोड़ी दूर मेला देखने गया हुआ था और मेले में दोस्तों से पीछे छूट गया था। पता नहीं, उस वक्त पीछे से उसके चाचा कैसे आ गए थे? वह तो बाहर गए हुए थे। खैर, वह अपने चाचा को देखकर बहुत खुश हो गया था। 

 

चाचा उसे एक गाड़ी में बिठाकर एक ढाबे पर ले गए, जहाँ पर ढेर सारे ट्रक खड़े हुए थे। उसके चाचा ने उसे स्वादिष्ट इडली-वड़ा खिलाया और फिर उसे कुछ भी याद नहीं। वह बेहोश हो गया था। जब अंततः उसकी नींद खुली तो वह इन्हीं खेतों के बीच में पड़ा हुआ था। 

 

उसके दिमाग में रह-रहकर यह प्रश्न उठ रहा था कि उसके चाचा ने उसे किस नर्क में धकेल दिया? आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया?

 

मन में एक तरफ प्रश्न उठ रहे थे और दूसरी तरफ़ शारीरिक ज़रूरतें दबाव डाल रही थीं। भूख-प्यास के कारण गला सूख गया था। सर में चक्कर जैसा कुछ आ रहा था। कुल मिलाकर वह घोर निराशा में डूबता जा रहा था। फूट-फूटकर रो लेना चाहता था। पर टूटने से पहले ही उसे आशा की किरण दिखाई पड़ी, डूबते हुए को तिनके का सहारा मिल गया था। 

 

उसने देखा कि सड़क पर एक व्यक्ति गाय-भैंस चरा कर वापस आ रहा है। उसने हिम्मत जुटाई, उठ खड़ा हुआ। गिरता-पड़ता किसी तरह उस दाढ़ी वाले आदमी के पास पहुँचा। वह आदमी सर पर अंगोछे का साफ़ा बाँधे हुए था। हाथ में लाठी पकड़े हुए गाय-भैंसों को सड़क के किनारे-किनारे हाँकता हुआ चल रहा था। 

 

हाँफते हुए उसके पास पहुँच कर उसने उससे प्रश्न किया, "इथु यावा उरू?"

 

"का बक रहे हो?" वह प्रौढ़ आँखें तरेरते हुए पूछने लगा।

 

"येनु?" उस लड़के के भी समझ नहीं आया आखिर वह प्रौढ़ क्या बोल रहा है। 

 

"का कहना चाह रहे हो? ज़्यादा बकैती मत करो," उस आदमी को गाँव के लौंडों के बारे में अच्छी तरह से पता था कि मौका पाते ही बुड्‌ढों के ऊपर चढ़ बैठते हैं। इससे पहले कि कुछ देर हो, उन्होंने सत रुख अपना लिया था।

 

"नानिगे एनु अर्था अगथा इल्ला," लड़का बोले जा रहा था।

 

"ज़्यादा फ़ारसी न बोल !! सही से बोल," उस लड़के को यूँ ही कुछ बड़बड़ाते हुए वापस जाते हुए देख उस बुढ़ाऊ व्यक्ति के मुँह से निकला। 

 

गाँव में फ़ारसी उस भाषा के लिए प्रयोग किया जाता था जो अबूझ हो। कोई बात जो किसी को समझ न आए, ऐसा माना जाता है कि वह फ़ारसी भाषा का ही शब्द होगा।

 

लड़के को समझ ही नहीं रहा था कि उसके साथ क्या हो रहा है। वह प्रौढ़ नाराज़ मुद्रा में क्या कह रहा था। उसकी बात तो समझ ही नहीं आ रही थी। उन बुढ़ाऊ के हाथ में लाठी और उनका क्रोधित चेहरा देखकर वह उनसे दूर रहना ही बेहतर समझ रहा था।

 

"सॉरी होगी नीवा"

 

"तोहार महतारी बाप, बोलब नहीं सिखाएं का?"

 

वह निराश होकर फिर से वहीं ज़मीन पर बैठ गया था। होंठ और गला सूख गया था, आँखों में अनकही पीड़ा तैरने लगी। अपनी जीभ से उसने अपने होंठों को गीला करने की कोशिश की। हताशा में ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी दूसरे ग्रह में पहुँच गया हो, जहाँ उसे पानी और स्नेह के दो बोल मिलने की भी उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। 

 

उसे याद आ रहा था कि अभी दो दिन पहले किस तरह वह अपने दोस्तों के साथ मेला देखने गया था। मेला जाने से पहले उसने अपने अम्मा-बाबू से पैसे लेने के लिए कितना झगड़ा किया था। तब उसे नहीं पता था कि दो दिन बाद उसकी ऐसी हालत हो जायेगी। 

 

वह सोच ही रहा था तभी उसे एक साइकिल सवार आता हुआ दिखाई दिया। फिर से वही बातें, वही अंदाज़ा किसी को कुछ समझ ही नहीं आया था। लड़का निराश होकर फिर वापस आ गया था।

 

उसे ज़ोरों की भूख लगी थी। वह खाए तो क्या खाए। दूर-दूर तक न कोई शहर और न गाँव नज़र आ रहा था। रात होने वाली थी। तभी उसे याद आया कि उसके नाराज़ होने के बाद उसके बाबू उसके लिए मिठाई लेकर आये थे और उसने नाराज़गी में वह मिठाई फेंक दी थी। 

 

उस वक्त उसे कहाँ पता था कि ऐसा समय आएगा जब उसे पीने के लिए पानी और खाने के लिए भोजन तक भी नसीब नहीं होगा! यह सब सोच के उसे भारी पछतावा हो रहा था!

 

वह हाथ जोड़कर ईश्वर से माफी माँगना चाहता था कि वह ऐसी गलती दोबारा नहीं करेगा। वह किसी तरह फिर से उस वक्त में चला जाना चाहता था और सब कुछ सुधार देना चाहता था। तभी उस खामोशी को चीरते हुए किसी जीप के आने की आवाज़ सुनाई पड़ी। 

 

उसने सड़क की तरफ देखा तो सच में दूर से एक जीप आ रही थी। पल भर के लिए उसकी सूजी हुई आँखों में चमक आ गयी। लेकिन जितनी तेज़ी से चमक आई थी उतनी ही तेज़ी से निराशा ने घेर लिया था, उसे याद आया कि उसे यहाँ कोई नहीं समझ पा रहा था। फिर भी वह कोशिश करने के लिए सड़क किनारे पहुँच गया। 

 

शायद वह इस बात पर अमल कर रहा था-कोशिश करने वालों की हार नहीं होती। उसने जीप को दूर से हाथ दिया। जीप एक ड्राइवर चला रहा था, आगे बन्दूक लिए करीब तीस साल का व्यक्ति बैठा हुआ था। और पीछे सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए कोई प्रौढ़ बैठे हुए थे। गाड़ी के डेक में गाना बज रहा था, "ये काली काली आँखें, ये गोरे गोरे गाल..."

 

जीप रुकते ही कुर्ता-पाजामा वाले व्यक्ति ने पूछ लिया, "तुम कौन हो? पहली बार देख रहे हैं?"

 

"बायारिके आगिड़े," लड़के ने जवाब दिया।

 

"क्या बोल रहा है?" बन्दूक वाले व्यक्ति ने टोका ।

 

"बायारिके आगिड़े," उसने फिर से वही जवाब दिया।

 

इस बार पीछे बैठे मुखिया जी ने कान आगे कर दिए। पर कान बढ़ाने से भी उनकी समझ में कुछ नहीं आया था। उनके मुख से अचानक निकला, "पागल है का?"

 

उसे पहली बार "पागल" नाम सुनाई पड़ा था। उसे क्या पता था यह सिर्फ शब्द ही नहीं, बल्कि आगे आने वाले कई वर्षों तक उसका नाम होने वाला था। 

 

किसी भी व्यक्ति द्वारा कही जा रही कोई भी बात उसे समझ ही नहीं आ रही थी। उसके शरीर को पानी की ज़रूरत थी। तभी उसे याद आया। एक बार उसके घर के पास एक गूंगा पानी माँगने के लिए आया था। उसने हाथ से मुँह की तरफ़ पीने के लहजे में इशारा किया और खाने के लिए खाने की तरह इशारा किया था, तो उसकी माँ ने तुरंत खाना और पानी दे दिया था। 

 

उसने तुरंत उसी तरह अपने हाथों से पीने और खाने का इशारा किया।

 

"भूख लगी है?" बन्दूक वाले व्यक्ति ने पूछा।

 

लड़के की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। वह बार-बार वही इशारा कर रहा था। 

 

मुखिया ने तुरंत उस बन्दूक वाले व्यक्ति से कहा, "लल्लन तू पीछे आ जा। इसे आगे बैठा ले। घर पहुँचकर इसे कुछ खाना दे देंगे।"

 

लल्लन तुरंत पीछे बैठ गया और उस लड़के को उसने आगे बैठने का इशारा कर दिया। उस लड़के ने भी सीट पर बैठने में कोई देर नहीं की। रात इन खेतों के बीच भूखे-प्यासे गुज़ारने से बेहतर था कि उन लोगों के साथ ही चला जाए।

 

वह आगे वाली सीट पर बैठ गया था। मुखिया साहब ने सवाल किया, "तुम इस गाँव के तो हो नहीं? कहाँ के रहने वाले हो?"

 

उसने पहले तो कुछ जवाब नहीं दिया, लेकिन जब ज़ोर देकर पूछा गया तो उसने बस कुछ कहा, जो न मुखिया जी को समझ आया न उनके गार्ड को। 

 

अब दोनों ने मान लिया था कि लड़के का दिमाग एकदम खराब ही है जो राह भटककर यहाँ तक आ गया है। दोनों क्या? ड्राइवर सहित तीनों ने। उसी वर्ष बॉम्बे का नामकरण मुंबई किया गया था और इधर उस लड़के का नामकरण "पागल" हो गया।

 

ज्यों-ज्यों वह गाँव के नज़दीक आता गया वैसे-वैसे उसे बिलकुल अलग तरह का गाँव दिख रहा था। जहाँ पर दुकानों के ऊपर लिखी कोई भी बात समझ नहीं आ रही थी। वह भौंचक निगाहों से देख रहा था। उसे उम्मीद से अधिक गौरे लोग दिखाई पड़ रहे थे। 

 

यहाँ पर बहुत कम लोग धोती पहने हुए थे। कोई कुर्ता-पाजामा, कोई पैंट-शर्ट और एक आध बुड्‌ढे लोग थोती-कुर्ते में दिखाई पड़े। सबसे बड़ी बात यह कि उन लोगों के मुँह से निकलने वाला एक भी शब्द उसके पल्ले नहीं पड़ रहा था। यह गाँव अब तक उसके देखे गाँवों से बिलकुल अलग था। ऐसे गाँव की कल तक उसने कल्पना भी नहीं की थी।

 

किसी तरह वह मुखिया जी के बड़े अहाते में पहुँचा। उसे गेट के बगल में नीचे बैठने की हिदायत इशारे से दे दी गयी थी। वह सुबकता हुआ वहीं बैठ गया। उसे ज़ोर की प्यास लगी थी, उसे पानी पिलाया गया। उसे भूख भी लगी थी, उसके सामने एक थाली में दोपहर की ठंडी दाल और रोटी रख दी गयी। पर उसे तो चावल अच्छा लगता था। 

 

वह तुरंत उस दौर में पहुँच गया, जब उसकी माँ कंगन की खनखनाती आवाज़ वाले हाथों से उसके कहने पर उसके पसंदीदा चावल और इमलीवाली दाल बनाया करती थी। यहाँ पर दाल का स्वाद भी एकदम अलग था। उसे अपनी दाल का खट्टापन वाला स्वाद नहीं मिल रहा था। पर भूख का स्वाद से कोई लेना-देना नहीं होता। भूख तो जाने क्या-क्या खा जाती है, यह तो दाल-रोटी ही थी। भूखा क्या न करता! 

 

वह भी किसी तरह खा गया। वह जाए भी तो कहाँ जाए, अहाते के बाहर बँधी भैंस और गाय के पास एक दरी पड़ी हुई थी, वह वहीं पर बैठ गया। कुछ देर बाद उसी पर लेट गया। 

 

अभी तीन रात पहले ही तो उसकी माँ ने उसके सोने से पहले उसकी चारपाई पर मच्छरदानी लगा दी थी ताकि उसे मच्छर न काटें। लेकिन आज वह भैंस और गाय के नज़दीक सो रहा था। सोने के लिए उसके पास ढंग का बिस्तर तक न था। उसको इतने मच्छर काट रहे थे कि वह लेटा हुआ सिर्फ तारे गिन रहा था और अपने माँ-बाबा को याद कर रहा था।

 

उसके मन में दो ही विचार चल रहे थे पहला कि वह किस तरह यहाँ से बाहर निकले? वह जाएगा भी तो किधर जाएगा? उसे न रास्ता पता है, न कोई उसकी बात समझता है। वह पूछे भी तो किस से। वह रोये जा रहा था। अब ग्यारह साल का बच्चा कर भी क्या सकता था। वह ऐसे चक्रव्यूह में फँस गया था जहाँ से निकलने का मार्ग नहीं दिख रहा था। 

 

दूसरा प्रश्न यह कि आखिर उसके चाचा ने उसके साथ ऐसा क्यों किया? वह तो उसे बहुत प्यार करते थे। यहाँ तक कि उसके पापा भी उनसे बहुत प्यार करते थे। उसे याद आया कि तमिलनाडु-कर्नाटक बॉर्डर के नज़दीक कर्नाटक प्रान्त के उसके गाँव गोलाहल्ली के प्रधान कोई और नहीं बल्कि उसके पिता जी खुद थे। 

 

ठीक गाँव के प्रधान की तरह उनके बाबू जी भी बड़ी मूंछें और माथे पर चन्दन लगाकर लुंगी पहने हुए लठैती झाड़ा करते थे। उसे अपना पक्का घर याद आया। घर के आँगन में लगे मोगरा के पौधे याद आए जिनके फूल तोड़कर दो दिन पहले ही उसने अपनी माता जी को पूजा करने को दिये थे। घर के बाहर दो बड़े-बड़े नारियल के वृक्ष, जिनसे नारियल तोड़कर उसने हाल-फिलहाल ही नारियल का पानी पिया था। 

 

उसके एक ही तो चाचा थे, जो उसे सबसे अधिक प्यार करते थे। उसके चाचा हमेशा काला चश्मा पहना करते थे। काला चश्मा पहनने के पीछे उनका कारण कोई फैशन नहीं था, बल्कि शायद शर्म थी!

 

उनकी एक आँख कानी थी, जिस वजह से वह काला चश्मा लगाते थे ताकि जितने लोगों से हो सके उनकी असलियत छुप सके। 

 

असल में बचपन में उसके पापा के साथ गुल्ली-डंडा खेलते वक्त पापा की गुल्ली सीधा उसके चाचा की बायीं आँख में लगी और उनकी आँख फूट गयी। खैर, उस वक्त को बीते काफ़ी वर्ष हो गए। हर कोई भूल चुका था। यहाँ तक कि पापा और चाचा में काफ़ी घनिष्ठता और प्रेम था। 

 

चाचा पापा की बात काटते नहीं थे और पापा चाचा को एक बेटे की तरह दुलार देते थे। वे कहते थे कि उनका एक बेटा नहीं, बल्कि दो बेटे हैं। एक मैं और एक चाचा!!

 

जब मेरे चाचा और पापा में इतना प्यार था तो फिर चाचा ने ऐसा क्यों किया? वह यह सोचते हुए कब सो गया, उसे खुद पता नहीं चला।