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त्रिया चरित्र

त्रिया—चरित्र

मुंशी प्रेमचंद


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जन्म

प्रेमचन्द का जन्म ३१ जुलाई सन्‌ १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।

जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।

शादी

आपके पिता ने केवल १५ साल की आयू में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, ष्उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।.......ष् उसके साथ — साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है ष्पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दियारू मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।ष् हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।

विवाह के एक साल बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।

शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने — जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।

साहित्यिक रुचि

गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बुकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो — तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।

आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद ष्तिलस्मे — होशरुबाष् पढ़ डाली।

अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी — बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।

तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ — साथ रहा।

प्रेमचन्द की दूसरी शादी

सन्‌ १९०५ में आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन्‌ १९०५ के अन्तिम दिनों में आपने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।

यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात्‌ आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा ष्हमारा काम तो केवल खेलना है— खूब दिल लगाकर खेलना— खूब जी— तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्‌ — पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, ष्तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।ष् कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी—शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।

जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं ष्कि जाड़े के दिनों में चालीस — चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।ष्

प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी—शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।

ईश्वर के प्रति आस्था

जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे — धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा ष्तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो — जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।ष्

मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था — ष्जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई।ष्

प्रेमचन्द की कृतियाँ

प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। १३ साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचन्द साकहत्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन्‌ १८९४ ई० में ष्होनहार बिरवार के चिकने—चिकने पातष् नामक नाटक की रचना की। सन्‌ १८९८ में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय ष्रुठी रानीष् नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन १९०२ में प्रेमा और सन्‌ १९०४—०५ में ष्हम खुर्मा व हम सवाबष् नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा—जीवन और विधवा—समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।

जब कुछ आर्थिक निजिर्ंश्चतता आई तो १९०७ में पाँच कहानियों का संग्रह सोड़ो वतन (वतन का दुख दर्द) की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नायाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाबराय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।

इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये।

ष्सेवा सदनष्, ष्मिल मजदूरष् तथा १९३५ में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए ष्महाजनी सभ्यताष् नाम से एक लेख भी लिखा था।

मृत्यु

सन्‌ १९३६ ई० में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने ष्प्रगतिशील लेखक संघष् की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया। और इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण—कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

त्रिया—चरित्र

सेठ लगनदास जी के जीवन की बगिया फलहीन थी। कोई ऐसा मानवीय, आध्यात्मिक या चिकित्सात्मक प्रयत्न न था जो उन्होंने न किया हो। यों शादी में एक पत्नीव्रत के कायल थे मगर जरुरत और आग्रह से विवश होकर एक—दो नहीं पॉँच शादियॉँ कीं, यहॉँ तक कि उम्र के चालीस साल गुजए गए और अँधेरे घर में उजाला न हुआ। बेचारे बहुत रंजीदा रहते। यह धन—संपत्ति, यह ठाट—बाट, यह वैभव और यह ऐश्वर्य क्या होंगे। मेरे बाद इनका क्या होगा, कौन इनको भोगेगा। यह ख्याल बहुत अफसोसनाक था। आखिर यह सलाह हुई कि किसी लड़के को गोद लेना चाहिए। मगर यह मसला पारिवारिक झगड़ों के कारण के सालों तक स्थगित रहा। जब सेठ जी ने देखा कि बीवियों में अब तक बदस्तूर कशमकश हो रही है तो उन्होंने नैतिक साहस से काम लिया और होनहार अनाथ लड़के को गोद ले लिया। उसका नाम रखा गया मगनदास। उसकी उम्र पॉँच—छरू साल से ज्यादा न थी। बला का जहीन और तमीजदार। मगर औरतें सब कुछ कर सकती हैं, दूसरे के बच्चे को अपना नहीं समझ सकतीं। यहॉँ तो पॉँच औरतों का साझा था। अगर एक उसे प्यार करती तो बाकी चार औरतों का फज्र था कि उससे नफरत करें। हॉँ, सेठ जी उसके साथ बिलकुल अपने लड़के की सी मुहब्बत करते थे। पढ़ाने को मास्टर रक्खें, सवारी के लिए घोड़े। रईसी ख्याल के आदमी थे। राग—रंग का सामान भी मुहैया था। गाना सीखने का लड़के ने शौक किया तो उसका भी इंतजाम हो गया। गरज जब मगनदास जवानी पर पहुँचा तो रईसाना दिलचास्पियों में उसे कमाल हासिल था। उसका गाना सुनकर उस्ताद लोग कानों पर हाथ रखते। शहसवार ऐसा कि दौड़ते हुए घोड़े पर सवार हो जाता। डील—डौल, शक्ल सूरत में उसका—सा अलबेला जवान दिल्ली में कम होगा। शादी का मसला पेश हुआ। नागपुर के करोड़पति सेठ मक्खनलाल बहुत लहराये हुए थे। उनकी लड़की से शादी हो गई। धूमधाम का जिक्र किया जाए तो किस्सा वियोग की रात से भी लम्बा हो जाए। मक्खनलाल का उसी शादी में दीवाला निकल गया। इस वक्त मगनदास से ज्यादा ईर्ष्‌या के योग्य आदमी और कौन होगा? उसकी जिन्दगी की बहार उमंगों पर भी और मुरादों के फूल अपनी शबनमी ताजगी में खिल—खिलकर हुस्न और ताजगी का समाँ दिखा रहे थे। मगर तकदीर की देवी कुछ और ही सामान कर रही थी। वह सैर—सपाटे के इरादे से जापान गया हुआ था कि दिल्ली से खबर आई कि ईश्वर ने तुम्हें एक भाई दिया है। मुझे इतनी खुशी है कि ज्यादा अर्से तक जिन्दा न रह सकूँ। तुम बहुत जल्द लौट आओं।

मगनदास के हाथ से तार का कागज छूट गया और सर में ऐसा चक्कर आया कि जैसे किसी ऊँचाई से गिर पड़ा है।

मगनदास का किताबी ज्ञान बहुत कम था। मगर स्वभाव की सज्जनता से वह खाली हाथ न था। हाथों की उदारता ने, जो समृद्धि का वरदान है, हृदय को भी उदार बना दिया था। उसे घटनाओं की इस कायापलट से दुख तो जरुर हुआ, आखिर इन्सान ही था, मगर उसने धीरज से काम लिया और एक आशा और भय की मिली—जुली हालत में देश को रवाना हुआ।

रात का वक्त था। जब अपने दरवाजे पर पहुँचा तो नाच—गाने की महफिल सजी देखी। उसके कदम आगे न बढ़े लौट पड़ा और एक दुकान के चबूतरे पर बैठकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिऐ। इतना तो उसे यकीन था कि सेठ जी उसक साथ भी भलमनसी और मुहब्बत से पेश आयेंगे बल्कि शायद अब और भी पा करने लगें। सेठानियॉँ भी अब उसके साथ गैरों का—सा वर्ताव न करेंगी। मुमकिन है मझली बहू जो इस बच्चे की खुशनसीब मॉँ थीं, उससे दूर—दूर रहें मगर बाकी चारों सेठानियों की तरफ से सेवा—सत्कार में कोई शक नहीं था। उनकी डाह से वह फायदा उठा सकता था। ताहम उसके स्वाभिमान ने गवारा न किया कि जिस घर में मालिक की हैसियत से रहता था उसी घर में अब एक आश्रित की हैसियत से जिन्दगी बसर करे। उसने फैसला कर लिया कि सब यहॉँ रहना न मुनासिब है, न मसलहत। मगर जाऊँ कहॉं? न कोई ऐसा फन सीखा, न कोई ऐसा इल्म हासिल किया जिससे रोजी कमाने की सूरत पैदा होती। रईसाना दिलचस्पियॉँ उसी वक्त तक कद्र की निगाह से देखी जाती हैं जब तक कि वे रईसों के आभूषण रहें। जीविका बन कर वे सम्मान के पद से गिर जाती है। अपनी रोजी हासिल करना तो उसके लिए कोई ऐसा मुश्किल काम न था। किसी सेठ—साहूकार के यहॉँ मुनीम बन सकता था, किसी कारखाने की तरफ से एजेंट हो सकता था, मगर उसके कन्धे पर एक भारी जुआ रक्खा हुआ था, उसे क्या करे। एक बड़े सेठ की लड़की जिसने लाड़—प्यार मे परिवरिश पाई, उससे यह कंगाली की तकलीफें क्योंकर झेली जाऍंगीं क्या मक्खनलाल की लाड़ली बेटी एक ऐसे आदमी के साथ रहना पसन्द करेगी जिसे रात की रोटी का भी ठिकाना नहीं ! मगर इस फिक्र में अपनी जान क्यों खपाऊँ। मैंने अपनी मर्जी से शादी नहीं की मैं बराबर इनकार करता रहा। सेठ जी ने जबर्दस्ती मेरे पैरों में बेड़ी डाली है। अब वही इसके जिम्मेदार हैं। मुझ से कोई वास्ता नहीं। लेकिन जब उसने दुबारा ठंडे दिल से इस मसले पर गौर किया तो वचाव की कोई सूरत नजर न आई। आखिकार उसने यह फैसला किया कि पहले नागपुर चलूँ, जरा उन महारानी के तौर—तरीके को देखूँ, बाहर—ही—बाहर उनके स्वभाव की, मिजाज की जॉँच करूँ। उस वक्त तय करूँगा कि मुझे क्या करके चाहिये। अगर रईसी की बू उनके दिमाग से निकल गई है और मेरे साथ रूखी रोटियॉँ खाना उन्हें मंजूर है, तो इससे अच्छा फिर और क्या, लेकिन अगर वह अमीरी ठाट—बाट के हाथों बिकी हुई हैं तो मेरे लिए रास्ता साफ है। फिर मैं हूँ और दुनिया का गम। ऐसी जगह जाऊँ जहॉँ किसी परिचित की सूरत सपने में भी न दिखाई दे। गरीबी की जिल्लत नहीं रहती, अगर अजनबियों में जिन्दगी बसरा की जाए। यह जानने—पहचानने वालों की कनखियाँ और कनबतियॉँ हैं जो गरीबी को यन्त्रणा बना देती हैं। इस तरह दिल में जिन्दगी का नक्शा बनाकर मगनदास अपनी मर्दाना हिम्मत के भरोसे पर नागपुर की तरफ चला, उस मल्लाह की तरह जो किश्ती और पाल के बगैर नदी की उमड़ती हुई लहरों में अपने को डाल दे।

शाम के वक्त सेठ मक्खनलाल के सुंदर बगीचे में सूरज की पीली किरणें मुरझाये हुए फूलों से गले मिलकर विदा हो रही थीं। बाग के बीच में एक पक्का कुअॉं था और एक मौलसिरी का पेड़। कुँए के मुँह पर अंधेरे की नीली—सी नकाब थी, पेड़ के सिर पर रोशनी की सुनहरी चादर। इसी पेड़ में एक नौजवान थका—मांदा कुऍं पर आया और लोटे से पानी भरकर पीने के बाद जगत पर बैठ गया। मालिन ने पूछा— कहॉँ जाओगे? मगनदास ने जवाब दिया कि जाना तो था बहुत दूर, मगर यहीं रात हो गई। यहॉँ कहीं ठहरने का ठिकाना मिल जाएगा?

मालिक— चले जाओ सेठ जी की धर्मशाला में, बड़े आराम की जगह है।

मगनदास—धर्मशाले में तो मुझे ठहरने का कभी संयोग नहीं हुआ। कोई हर्ज न हो तो यहीं पड़ा रहूँ। यहाँ कोई रात को रहता है?

मालिक— भाई, मैं यहॉँ ठहरने को न कहूँगी। यह बाई जी की बैठक है। झरोखे में बैठकर सेर किया करती हैं। कहीं देख—भाल लें तो मेरे सिर में एक बाल भी न रहे।

मगनदास— बाई जी कौन?

मालिक— यही सेठ जी की बेटी। इन्दिरा बाई।

मगनदास— यह गजरे उन्हीं के लिए बना रही हो क्या?

मालिन— हॉँ, और सेठ जी के यहॉँ है ही कौन? फूलों के गहने बहुत पसन्द करती हैं।

मानदास— शौकीन औरत मालूम होती हैं?

मालिक— भाई, यही तो बड़े आदमियों की बातें है। वह शौक न करें तो हमारा—तुम्हारा निबाह कैसे हो। और धन है किस लिए। अकेली जान पर दस लौंडियॉँ हैं। सुना करती थी कि भगवान आदमी का हल भूत जोतता है वह अॉंखों देखा। आप—ही—आप पंखा चलने लगे। आप—ही—आप सारे घर में दिन का—सा उजाला हो जाए। तुम झूठ समझते होगे, मगर मैं अॉंखों देखी बात कहती हूँ।

उस गर्व की चेतना के साथ जो किसी नादान आदमी के सामने अपनी जानकारी के बयान करने में होता है, बूढ़ी मालिन अपनी सर्वज्ञता का प्रदर्शन करने लगी। मगनदास ने उकसाया— होगा भाई, बड़े आदमी की बातें निराली होती हैं। लक्ष्मी के बस में सब कुछ है। मगर अकेली जान पर दस लौंडियॉँ? समझ में नहीं आता।

मालिन ने बुढ़ापे के चिड़चिड़ेपन से जवाब दिया— तुम्हारी समझ मोटी हो तो कोई क्या करे ! कोई पान लगाती है, कोई पंखा झलती है, कोई कपड़े पहनाती है, दो हजार रुपये में तो सेजगाड़ी आयी थी, चाहो तो मुँह देख लो, उस पर हवा खाने जाती हैं। एक बंगालिन गाना—बजाना सिखाती है, मेम पढ़ाने आती है, शास्त्री जी संस् त पढ़ाते हैं, कागद पर ऐसी मूरत बनाती हैं कि अब बोली और अब बोली। दिल की रानी हैं, बेचारी के भाग फूट गए। दिल्ली के सेठ लगनदास के गोद लिये हुए लड़के से ब्याह हुआ था। मगर राम जी की लीला सत्तर बरस के मुर्दे को लड़का दिया, कौन पतियायेगा। जब से यह सुनावनी आई है, तब से बहुत उदास रहती है। एक दिन रोती थीं। मेरे सामने की बात है। बाप ने देख लिया। समझाने लगे। लड़की को बहुत चाहते हैं। सुनती हूँ दामाद को यहीं बुलाकर रक्खेंगे। नारायन करे, मेरी रानी दूधों नहाय पतों फले। माली मर गया था, उन्होंने आड़ न ली होती तो घर भर के टुकड़े मॉँगती।

मगनदास ने एक ठण्डी सॉँस ली। बेहतर है, अब यहॉँ से अपनी इज्जत—आबरू लिये हुए चल दो। यहॉँ मेरा निबाह न होगा। इन्दिरा रईसजादी है। तुम इस काबिल नहीं हो कि उसके शौहर बन सको। मालिन से बोला—ता धर्मशाले में जाता हूँ। जाने वहॉँ खाट—वाट मिल जाती है कि नहीं, मगर रात ही तो काटनी है किसी तरह कट ही जाएगी रईसों के लिए मखमली गद्दे चाहिए, हम मजदूरों के लिए पुआल ही बहुत है।

यह कहकर उसने लुटिया उठाई, डण्डा सम्हाला और दर्दभरे दिल से एक तरफ चल दिया।

उस वक्त इन्दिरा अपने झरोखे पर बैठी हुई इन दोनों की बातें सुन रही थी। कैसा संयोग है कि स्त्री को स्वर्ग की सब सिद्धियॉँ प्राप्त हैं और उसका पति आवरों की तरह मारा—मारा फिर रहा है। उसे रात काटने का ठिकाना नहीं।

मगनदास निराश विचारों में डूबा हुआ शहर से बाहर निकल आया और एक सराय में ठहरा जो सिर्फ इसलिए मशहूर थी, कि वहॉँ शराब की एक दुकान थी। यहॉँ आस—पास से मजदूर लोग आ—आकर अपने दुख को भुलाया करते थे। जो भूले—भटके मुसाफिर यहॉँ ठहरते, उन्हें होशियारी और चौकसी का व्यावहारिक पाठ मिल जाता था। मगनदास थका—मॉँदा ही, एक पेड़ के नीचे चादर बिछाकर सो रहा और जब सुबह को नींद खुली तो उसे किसी पीर—औलिया के ज्ञान की सजीव दीक्षा का चमत्कार दिखाई पड़ा जिसकी पहली मंजिल वैराग्य है। उसकी छोटी—सी पोटली, जिसमें दो—एक कपड़े और थोड़ा—सा रास्ते का खाना और लुटिया—डोर बंधी हुई थी, गायब हो गई। उन कपड़ों को छोड़कर जो उसके बदर पर थे अब उसके पास कुछ भी न था और भूख, जो कंगाली में और भी तेज हो जाती है, उसे बेचौन कर रही थी। मगर दृढ़ स्वभाव का आदमी था, उसने किस्मत का रोना रोया किसी तरह गुजर करने की तदबीरें सोचने लगा। लिखने और गणित में उसे अच्छा अभ्यास था मगर इस हैसियत में उससे फायदा उठाना असम्भव था। उसने संगीत का बहुत अभ्यास किया था। किसी रसिक रईस के दरबार में उसकी कद्र हो सकती थी। मगर उसके पुरुषोचित अभिमान ने इस पेशे को अख्यितार करने इजाजत न दी। हॉँ, वह आला दर्जे का घुड़सवार था और यह फन मजे में पूरी शान के साथ उसकी रोजी का साधन बन सकता था यह पक्का इरादा करके उसने हिम्मत से कदम आगे बढ़ाये। ऊपर से देखने पर यह बात यकीन के काबिल नही मालूम होती मगर वह अपना बोझ हलका हो जाने से इस वक्त बहुत उदास नहीं था। मर्दाना हिम्मत का आदमी ऐसी मुसींबतों को उसी निगाह से देखता है,जिसमे एक होशियार विद्यार्थी परीक्षा के प्रश्नों को देखता है उसे अपनी हिम्मत आजमाने का, एक मुश्किल से जूझने का मौका मिल जाता है उसकी हिम्मत अजनाने ही मजबूत हो जाती है। अकसर ऐसे मार्के मर्दाना हौसले के लिए प्रेरणा का काम देते हैं। मगनदास इस जोश़ से कदम बढ़ाता चला जाता था कि जैसे कायमाबी की मंजिल सामने नजर आ रही है। मगर शायद वहाँ के घोड़ो ने शरारत और बिगड़ैलपन से तौबा कर ली थी या वे स्वाभाविक रुप बहुत मजे मे धीमे— धीमे चलने वाले थे। वह जिस गांव में जाता निराशा को उकसाने वाला जवाब पाता आखिरकार शाम के वक्त जब सूरज अपनी आखिरी मंजिल पर जा पहुँचा था, उसकी कठिन मंजिल तमाम हुई। नागरघाट के ठाकुर अटलसिहं ने उसकी चिन्ता मो समाप्त किया।

यह एक बड़ा गाँव था। पक्के मकान बहुत थे। मगर उनमें प्रेतात्माऍं आबाद थीं। कई साल पहले प्लेग ने आबादी के बड़े हिस्से का इस क्षणभंगुर संसार से उठाकर स्वर्ग में पहुच दिया था। इस वक्त प्लेग के बचे—खुचे वे लोग गांव के नौजवान और शौकीन जमींदार साहब और हल्के के कारगुजार ओर रोबीले थानेदार साहब थे। उनकी मिली—जुली कोशिशों से गॉँव मे सतयुग का राज था। धन दौलत को लोग जान का अजाब समझते थे ।उसे गुनाह की तरह छुपाते थे। घर—घर में रुपये रहते हुए लोग कर्ज ले—लेकर खाते और फटेहालों रहते थे। इसी में निबाह था । काजल की कोठरी थी, सफेद कपड़े पहनना उन पर धब्बा लगाना था। हुकूमत और जबर्र्‌दस्ती का बाजार गर्म था। अहीरों को यहाँ आँजन के लिए भी दूध न था। थाने में दूध की नदी बहती थी। मवेशीखाने के मुहर्रिर दूध की कुल्लियाँ करते थे। इसी अंधेरनगरी को मगनदास ने अपना घर बनाया। ठाकुर साहब ने असाधारण उदारता से काम लेकर उसे रहने के लिए एक माकन भी दे दिया। जो केवल बहुत व्यापक अर्थो में मकान कहा जा सकता था। इसी झोंपड़ी में वह एक हफ्ते से जिन्दगी के दिन काट रहा है। उसका चेहरा जर्द है। और कपड़े मैले हो रहे है। मगर ऐसा मालूम होता है कि उस अब इन बातों की अनुभूति ही नही रही। जिन्दा है मगर जिन्दगी रुखसत हो गई है। हिम्मत और हौसला मुश्किल को आसान कर सकते है अॉंधी और तुफान से बचा सकते हैं मगर चेहरे को खिला सकना उनके सामर्थ्‌य से बाहर है टूटी हुई नाव पर बैठकरी मल्हार गाना हिम्मत काम नही हिमाकत का काम है।

एक रोज जब शाम के वक्त वह अंधरे मे खाट पर पड़ा हुआ था। एक औरत उसके दरवारजे पर आकर भीख मांगने लगी। मगनदास का आवाज पिरचित जान पडी। बहार आकर देखा तो वही चम्पा मालिन थी। कपड़े तारदृतार, मुसीबत की रोती हुई तसबीर। बोला—मालिन ? तुम्हारी यह क्या हालत है। मुझे पहचानती हो।?

मालिन ने चौंकरक देखा और पहचान गई। रोकर बोली दृबेटा, अब बताओ मेरा कहाँ ठिकाना लगे? तुमने मेरा बना बनाया घर उजाड़ दिया न उसे दिन तुमसे बात करती ने मुझे पर यह बिपत पड़ती। बाई ने तुम्हें बैठे देख लिया, बातें भी सुनी सुबह होते ही मुझे बुलाया और बरस पड़ी नाक कटवा लूँगी, मुंह में कालिख लगवा दूँगी, चुड़ैल, कुटनी, तू मेरी बात किसी गैर आदमी से क्यों चलाये? तू दूसरों से मेरी चर्चा करे? वह क्या तेरा दामाद था, जो तू उससे मेरा दुखड़ा रोती थी? जो कुछ मुंह मे आया बकती रही मुझसे भी न सहा गया। रानी रुठेंगी अपना सुहाग लेंगी! बोली—बाई जी, मुझसे कसूर हुआ, लीजिए अब जाती हूँ छींकते नाक कटती है तो मेरा निबाह यहाँ न होगा। ईश्वर ने मुंह दिया हैं तो आहार भी देगा चार घर से माँगूँगी तो मेरे पेट को हो जाऐगा।। उस छोकरी ने मुझे खड़े खड़े निकलवा दिया। बताओ मैने तुमसे उसकी कौन सी शिकायत की थी? उसकी क्या चर्चा की थी? मै तो उसका बखान कर रही थी। मगर बड़े आदमियों का गुस्सा भी बड़ा होता है। अब बताओ मै किसकी होकर रहूँ? आठ दिन इसी दिन तरह टुकड़े माँगते हो गये है। एक भतीजी उन्हीं के यहाँ लौंडियों में नौकर थी, उसी दिन उसे भी निकाल दिया। तुम्हारी बदौलत, जो कभी न किया था, वह करना पड़ा तुम्हें कहो का दोष लगाऊं किस्मत में जो कुछ लिखा था, देखना पड़ा।

मगनदास सन्नाटे में जो कुछ लिखा था। आह मिजाज का यह हाल है, यह घमण्ड, यह शान! मालिन का इत्मीनन दिलाया उसके पास अगर दौलत होती तो उसे मालामाल कर देता सेठ मक्खनलाल की बेटी को भी मालूम हो जाता कि रोजी की कूंजी उसी के हाथ में नहीं है। बोला—तुम फिक्र न करो, मेरे घर मे आराम से रहो अकेले मेरा जी भी नहीं लगता। सच कहो तो मुझे तुम्हारी तरह एक औरत की तलाशा थी, अच्छा हुआ तुम आ गयीं।

मालिन ने आंचल फैलाकर असीम दियादृ बेटा तुम जुग—जुग जियों बड़ी उम्र हो यहॉँ कोई घर मिले तो मुझे दिलवा दो। मैं यही रहूँगी तो मेरी भतीजी कहाँ जाएगी। वह बेचारी शहर में किसके आसरे रहेगी।

मगनलाल के खून में जोश आया। उसके स्वाभिमान को चोट लगी। उन पर यह आफत मेरी लायी हुई है। उनकी इस आवारागर्दी को जिम्मेदार मैं हूँ। बोलादृकोई हर्ज न हो तो उसे भी यहीं ले आओ। मैं दिन को यहाँ बहुत कम रहता हूँ। रात को बाहर चारपाई डालकर पड़ रहा करुँगा। मेरी वहज से तुम लोगों को कोई तकलीफ न होगी। यहाँ दूसरा मकान मिलना मुश्किल है यही झोपड़ा बड़ी मुश्किलो से मिला है। यह अंधेरनगरी है जब तुम्हरी सुभीता कहीं लग जाय तो चली जाना।

मगनदास को क्या मालूम था कि हजरते इश्क उसकी जबान पर बैठे हुए उससे यह बात कहला रहे है। क्या यह ठीक है कि इश्क पहले माशूक के दिल में पैदा होता है?

नागपुर इस गॉव से बीस मील की दूरी पर था। चम्मा उसी दिन चली गई और तीसरे दिन रम्भा के साथ लौट आई। यह उसकी भतीजी का नाम था। उसक आने से झोंपडें में जान सी पड़ गई। मगनदास के दिमाग में मालिन की लड़की की जो तस्वीर थी उसका रम्भा से कोई मेल न था वह सौंदर्य नाम की चीज का अनुभवी जौहरी था मगर ऐसी सूरत जिसपर जवानी की ऐसी मस्ती और दिल का चौन छीन लेनेवाला ऐसा आकर्षण हो उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसकी जवानी का चॉँद अपनी सुनहरी और गम्भीर शान के साथ चमक रहा था। सुबह का वक्त था मगनदास दरवाजे पर पड़ा ठण्डीदृठण्डी हवा का मजा उठा रहा था। रम्भा सिर पर घड़ा रक्खे पानी भरने को निकली मगनदास ने उसे देखा और एक लम्बी साँस खींचकर उठ बैठा। चेहरा—मोहरा बहुत ही मोहम। ताजे फूल की तरह खिला हुआ चेहरा आंखों में गम्भीर सरलता मगनदास को उसने भी देखा। चेहरे पर लाज की लाली दौड़ गई। प्रेम ने पहला वार किया।

मगनदास सोचने लगा—क्या तकदीर यहाँ कोई और गुल खिलाने वाली है! क्या दिल मुझे यहां भी चौन न लेने देगा। रम्भा, तू यहाँ नाहक आयी, नाहक एक गरीब का खून तेरे सर पर होगा। मैं तो अब तेरे हाथों बिक चुका, मगर क्या तू भी मेरी हो सकती है? लेकिन नहीं, इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं दिल का सौदा सोच—समझकर करना चाहिए। तुमको अभी जब्त करना होगा। रम्भा सुन्दरी है मगर झूठे मोती की आब और ताब उसे सच्चा नहीं बना सकती। तुम्हें क्या खबर कि उस भोली लड़की के कान प्रेम के शब्द से परिचित नहीं हो चुके है? कौन कह सकता है कि उसके सौन्दर्य की वाटिका पर किसी फूल चुननेवाले के हाथ नही पड़ चुके है? अगर कुछ दिनों की दिलबस्तगी के लिए कुछ चाहिए तो तुम आजाद हो मगर यह नाजुक मामला है, जरा सम्हल के कदम रखना। पेशेवर जातों मे दिखाई पड़नेवाला सौन्दर्य अकसर नैतिक बन्धनों से मुक्त होता है।

तीन महीने गुजर गये। मगनदास रम्भा को ज्यों ज्यों बारीक से बारीक निगाहों से देखता त्योंदृत्यों उस पर प्रेम का रंग गाढा होता जाता था। वह रोज उसे कुँए से पानी निकालते देखता वह रोज घर में झाडु देती, रोज खाना पकाती आह मगनदास को उन ज्वार की रोटियां में मजा आता था, वह अच्छे से अच्छे व्यंजनो में, भी न आया था। उसे अपनी कोठरी हमेशा साफ सुधरी मिलती न जाने कौन उसके बिस्तर बिछा देता। क्या यह रम्भा की पा थी? उसकी निगाहें शर्मीली थी उसने उसे कभी अपनी तरफ चचंल आंखो स ताकते नही देखा। आवाज कैसी मीठी उसकी हंसी की आवाज कभी उसके कान में नही आई। अगर मगनदास उसके प्रेम में मतवाला हो रहा था तो कोई ताज्जुब की बात नही थी। उसकी भूखी निगाहें बेचौनी और लालसा में डुबी हुई हमेशा रम्भा को ढुढां करतीं। वह जब किसी गाँव को जाता तो मीलों तक उसकी जिद्दी और बेताब अॉंखे मुड़दृमूड़कर झोंपड़े के दरवाजे की तरफ आती। उसकी ख्याति आस पास फैल गई थी मगर उसके स्वभाव की मुसीवत और उदारहृयता से अकसर लोग अनुचित लाभ उठाते थे इन्साफपसन्द लोग तो स्वागत सत्कार से काम निकाल लेते और जो लोग ज्यादा समझदार थे वे लगातार तकाजों का इन्तजार करते चूंकि मगनदास इस फन को बिलकुल नहीं जानता था। बावजूद दिन रात की दौड़ धूप के गरीबी से उसका गला न छुटता। जब वह रम्भा को चक्की पीसते हुए देखता तो गेहूँ के साथ उसका दिल भी पिस जाता था ।वह कुऍं से पानी निकालती तो उसका कलेजा निकल आता । जब वह पड़ोस की औरत के कपड़े सीती तो कपड़ो के साथ मगनदास का दिल छिद जाता। मगर कुछ बस था न काबू।

मगनदास की हृदयभेदी दृष्टि को इसमें तो कोई संदेह नहीं था कि उसके प्रेम का आकर्षण बिलकुल बेअसर नही है वर्ना रम्भा की उन वफा से भरी हुई खातिरदरियों की तुक कैसा बिठाता वफा ही वह जादू है रुप के गर्व का सिर नीचा कर सकता है। मगर। प्रेमिका के दिल में बैठने का माद्दा उसमें बहुत कम था। कोई दूसरा मनचला प्रेमी अब तक अपने वशीकरण में कामायाब हो चुका होता लेकिन मगनदास ने दिल आशकि का पाया था और जबान माशूक की।

एक रोज शाम के वक्त चम्पा किसी काम से बाजार गई हुई थी और मगनदास हमेशा की तरह चारपाई पर पड़ा सपने देख रहा था। रम्भा अदभूत छटा के साथ आकर उसके समने खडी हो गई। उसका भोला चेहरा कमल की तरह खिला हुआ था। और आखों से सहानुभूति का भाव झलक रहा था। मगनदास ने उसकी तरफ पहले आश्चर्य और फिर प्रेम की निगाहों से देखा और दिल पर जोर डालकर बोला—आओं रम्भा, तुम्हें देखने को बहुत दिन से आँखें तरस रही थीं।

रम्भा ने भोलेपन से कहा—मैं यहां न आती तो तुम मुझसे कभी न बोलेते।

मगनदास का हौसला बढा, बोला—बिना मर्जी पाये तो कुत्ता भी नही आता।

रम्भा मुस्कराई, कली खिल गईदृमै तो आप ही चली आई।

मगनदास का कलेजा उछल पड़ा। उसने हिम्मत करके रम्भा का हाथ पकड़ लिया और भावावेश से कॉपती हुई आवाज मे बोलादृनहीं रम्भा ऐसा नही है। यह मेरी महीनों की तपस्या का फल है।

मगनदास ने बेताब होकर उसे गले से लगा लिया। जब वह चलने लगी तो अपने प्रेमी की ओर प्रेम भरी दृष्टि से देखकर बोलीदृअब यह प्रीत हमको निभानी होगी।

पौ फटने के वक्त जब सूर्य देवता के आगमन की तैयारियॉँ हो रही थी मगनदास की आँखे खुली रम्भा आटा पीस रही थी। उस शांत्तिपूर्ण सन्नाटे में चक्की की घुमरदृघुमर बहुत सुहानी मालूम होती थी और उससे सूर मिलाकर आपने प्यारे ढंग से गाती थी।

झुलनियाँ मोरी पानी में गिरी

मैं जानूं पिया मौको मनैहैं

उलटी मनावन मोको पड़ी

झुलनियाँ मोरी पानी मे गिरी

साल भर गुजर गया। मगनदास की मुहब्बत और रम्भा के सलीके न मिलकर उस वीरान झोंपड़े को कुंज बाग बना दिया। अब वहां गायें थी। फूलों की क्यारियाँ थीं और कई देहाती ढंग के मोढ़े थे। सुखदृसुविधा की अनेक चीजे दिखाई पड़ती थी।

एक रोज सुबह के वक्त मगनदास कही जाने के लिए तैयार हो रहा था कि एक सम्भ्रांत व्यक्ति अंग्रेजी पोशाक पहने उसे ढूढंता हुआ आ पहुंचा और उसे देखते ही दौड़कर गले से लिपट गया। मगनदास और वह दोनो एक साथ पढ़ा करते थे। वह अब वकील हो गया। था। मगनदास ने भी अब पहचाना और कुछ झेंपता और कुछ झिझकता उससे गले लिपट गया। बड़ी देर तक दोनों दोस्त बातें करते रहे। बातें क्या थीं घटनाओं और संयोगो की एक लम्बी कहानी थी। कई महीने हुए सेठ लगन का छोटा बच्चा चेचक की नजर हो गया। सेठ जी ने दुख क मारे आत्महत्या कर ली और अब मगनदास सारी जायदाद, कोठी इलाके और मकानों का एकछत्र स्वामी था। सेठानियों में आपसी झगड़े हो रहे थे। कर्मचारियों न गबन को अपना ढंग बना रक्खा था। बडी सेठानी उसे बुलाने के लिए खुद आने को तैयार थी, मगर वकील साहब ने उन्हे रोका था। जब मदनदास न मुस्काराकर पुछादृतुम्हों क्योंकर मालूम हुआ कि मै। यहाँ हूँ तो वकील साहब ने फरमाया—महीने भर से तुम्हारी टोह में हूँ। सेठ मक्ख्नलाल ने अता—पता बतलाया। तूम दिल्ली पहुँचें और मैंने अपना महीने भर का बिल पेश किया।

रम्भा अधीर हो रही थी। कि यह कौन है और इनमे क्या बाते हो रही है? दस बजते—बजते वकील साहब मगनदास से एक हफ्ते के अन्दर आने का वादा लेकर विदा हुए उसी वक्त रम्भा आ पहुँची और पूछने लगी—यह कौन थे। इनका तुमसे क्या काम था?

मगनदास ने जवाब दिया— यमराज का दूत।

रम्भादृक्या असगुन बकते हो!

मगन—नहीं नहीं रम्भा, यह असगुन नही है, यह सचमुच मेरी मौत का दूत था। मेरी खुशियों के बाग को रौंदने वाला मेरी हरी—भरी खेती को उजाड़ने वाला रम्भा मैने तुम्हारे साथ दगा की है, मैंने तुम्हे अपने फरेब क जाल में फाँसया है, मुझे माफ करो। मुहब्बत ने मुझसे यह सब करवाया मैं मगनसिहं ठाकूर नहीं हूँ। मैं सेठ लगनदास का बेटा और सेठ मक्खनलाल का दामाद हूँ।

मगनदास को डर था कि रम्भा यह सुनते ही चौक पड़ेगी ओर शायद उसे जालिम, दगाबाज कहने लगे। मगर उसका ख्याल गलत निकला! रम्भा ने आंखो में अॉंसू भरकर सिर्फ इतना कहा—तो क्या तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे?

मगनदास ने उसे गले लगाकर कहा—हॉँ।

रम्भादृक्यों?

मगनदृइसलिए कि इन्दिरा बहुत होशियार सुन्दर और धनी है।

रम्भादृमैं तुम्हें न छोडूँगी। कभी इन्दिरा की लौंडी थी, अब उनकी सौत बनूँगी। तुम जितनी मेरी मुहब्बत करोगे। उतनी इन्दिरा की तो न करोगे, क्यों?

मगनदास इस भोलेपन पर मतवाला हो गया। मुस्कराकर बोला—अब इन्दिरा तुम्हारी लौंडी बनेगी, मगर सुनता हूँ वह बहुत सुन्दर है। कहीं मै उसकी सूरत पर लुभा न जाऊँ। मर्दो का हाल तुम नही जानती मुझे अपने ही से डर लगता है।

रम्भा ने विश्वासभरी आंखो से देखकर कहा—क्या तुम भी ऐसा करोगे? उँह जो जी में आये करना, मै तुम्हें न छोडूँगी। इन्दिरा रानी बने, मै लौंडी हूँगी, क्या इतने पर भी मुझे छोड़ दोगें?

मगनदास की अॉंखे डबडबा गयीं, बोलादृप्यारी, मैने फैसला कर लिया है कि दिल्ली न जाऊँगा यह तो मै कहने ही न पाया कि सेठ जी का स्वर्गवास हो गया। बच्चा उनसे पहले ही चल बसा था। अफसोस सेठ जी के आखिरी दर्शन भी न कर सका। अपना बाप भी इतनी मुहब्ब्त नही कर सकता। उन्होने मुझे अपना वारिस बनाया हैं। वकील साहब कहते थे। कि सेठारियों मे अनबन है। नौकर चाकर लूट मार—मचा रहे हैं। वहॉँ का यह हाल है और मेरा दिल वहॉँ जाने पर राजी नहीं होता दिल तो यहाँ है वहॉँ कौन जाए।

रम्भा जरा देर तक सोचती रही, फिर बोली—तो मै तुम्हें छोड़ दूँगीं इतने दिन तुम्हारे साथ रही। जिन्दगी का सुख लुटा अब जब तक जिऊँगी इस सूख का ध्यान करती रहूँगी। मगर तुम मुझे भूल तो न जाओगे? साल में एक बार देख लिया करना और इसी झोपड़े में।

मगनदास ने बहुत रोका मगर अॉंसू न रुक सके बोलेदृरम्भा, यह बाते ने करो, कलेजा बैठा जाता है। मै तुम्हे छोड़ नही सकता इसलिए नही कि तुम्हारे उपर कोई एहसान है। तुम्हारी खातिर नहीं, अपनी खातिर वह शात्ति वह प्रेम, वह आनन्द जो मुझे यहाँ मिलता है और कहीं नही मिल सकता। खुशी के साथ जिन्दगी बसर हो, यही मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। मुझे ईश्वर ने यह खुशी यहाँ दे रक्खी है तो मै उसे क्यो छोड़ूँ? धनदृदौलत को मेरा सलाम है मुझे उसकी हवस नहीं है।

रम्भा फिर गम्भीर स्वर में बोली—मै तुम्हारे पॉव की बेड़ी न बनूँगी। चाहे तुम अभी मुझे न छोड़ो लेकिन थोड़े दिनों में तुम्हारी यह मुहब्बत न रहेगी।

मगनदास को कोड़ा लगा। जोश से बोला—तुम्हारे सिवा इस दिल में अब कोई और जगह नहीं पा सकता।

रात ज्यादा आ गई थी। अष्टमी का चॉँद सोने जा चुका था। दोपहर के कमल की तरह साफ आसमन में सितारे खिले हुए थे। किसी खेत के रखवाले की बासुरी की आवाज, जिसे दूरी ने तासीर, सन्नाटे न सुरीलापन और अँधेरे ने आत्मिकता का आकर्षण दे दिया। था। कानो में आ जा रही थी कि जैसे कोई पवित्र आत्मा नदी के किनारे बैठी हुई पानी की लहरों से या दूसरे किनारे के खामोश और अपनी तरफ खीचनेवाले पेड़ो से अपनी जिन्दगी की गम की कहानी सुना रही है।

मगनदास सो गया मगर रम्भा की आंखों में नीद न आई।

सुबह हुई तो मगनदास उठा और रम्भा पुकारने लगा। मगर रम्भा रात ही को अपनी चाची के साथ वहां से कही चली गयी मगनदास को उसे मकान के दरो दीवार पर एक हसरत—सी छायी हुई मालूम हुई कि जैसे घर की जान निकल गई हो। वह घबराकर उस कोठरी में गया जहां रम्भा रोज चक्की पीसती थी, मगर अफसोस आज चक्की एकदम निश्चल थी। फिर वह कुँए की तरह दौड़ा गया लेकिन ऐसा मालूम हुआ कि कुँए ने उसे निगल जाने के लिए अपना मुँह खोल दिया है। तब वह बच्चो की तरह चीख उठा रोता हुआ फिर उसी झोपड़ी में आया। जहॉँ कल रात तक प्रेम का वास था। मगर आह, उस वक्त वह शोक का घर बना हुआ था। जब जरा अॉसू थमे तो उसने घर में चारों तरफ निगाह दौड़ाई। रम्भा की साड़ी अरगनी पर पड़ी हुई थी। एक पिटारी में वह कंगन रक्खा हुआ था। जो मगनदास ने उसे दिया था। बर्तन सब रक्खे हुए थे, साफ और सुधरे। मगनदास सोचने लगा—रम्भा तूने रात को कहा था—मै तुम्हे छोड़ दुगीं। क्या तूने वह बात दिल से कही थी।? मैने तो समझा था, तू दिल्लगी कर रही हैं। नहीं तो मुझे कलेजे में छिपा लेता। मैं तो तेरे लिए सब कुछ छोड़े बैठा था। तेरा प्रेम मेरे लिए सक कुछ था, आह, मै यों बेचौन हूं, क्या तू बेचौन नही है? हाय तू रो रही है। मुझे यकीन है कि तू अब भी लौट आएगी। फिर सजीव कल्पनाओं का एक जमघट उसक सामने आया— वह नाजुक अदाएँ वह मतवाली अॉंखें वह भोली भाली बातें, वह अपने को भूली हुई—सी मेहरबानियॉँ वह जीवन दायी। मुस्कान वह आशिकों जैसी दिलजोइयाँ वह प्रेम का नाश, वह हमेशा खिला रहने वाला चेहरा, वह लचक—लचककर कुएँ से पानी लाना, वह इन्ताजार की सूरत वह मस्ती से भरी हुई बेचौनी—यह सब तस्वीरें उसकी निगाहों के सामने हमरतनाक बेताबी के साथ फिरने लगी। मगनदास ने एक ठण्डी सॉस ली और आसुओं और दर्द की उमड़ती हुई नदी को मर्दाना जब्त से रोककर उठ खड़ा हुआ। नागपुर जाने का पक्का फैसला हो गया। तकिये के नीच से सन्दूक की कुँजी उठायी तो कागज का एक टुकड़ा निकल आया यह रम्भा की विदा की चिट्टी थी—

प्यारे,

मै बहुत रो रही हूँ मेरे पैर नहीं उठते मगर मेरा जाना जरूरी है। तुम्हे जागाऊँगी। तो तुम जाने न दोगे। आह कैसे जाऊं अपने प्यारे पति को कैसे छोडूँ! किस्मत मुझसे यह आनन्द का घर छुड़वा रही है। मुझे बेवफा न कहना, मै तुमसे फिर कभी मिलूँगी। मै जानती हूँ। कि तुमने मेरे लिए यह सब कुछ त्याग दिया है। मगर तुम्हारे लिए जिन्दगी में। बहुत कुछ उम्मीदे हैं मैं अपनी मुहब्बत की धुन में तुम्हें उन उम्मीदो से क्यों दूर रक्खूँ! अब तुमसे जुदा होती हूँ। मेरी सुध मत भूलना। मैं तुम्हें हमेशा याद रखूगीं। यह आनन्द के लिए कभी न भूलेंगे। क्या तूम मुझे भूल सकोगें?

तुम्हारी प्यारी

रम्भा

मगनदास को दिल्ली आए हुए तीन महीने गुजर चुके हैं। इस बीच उसे सबसे बड़ा जो निजी अनुभव हुआ वह यह था कि रोजी की फिक्र और धन्धों की बहुतायत से उमड़ती हुई भावनाओं का जोर कम किया। जा सकता है। ड़ेढ साल पहले का बफिक्र नौजवान अब एक समझदार और सूझ—बूझ रखने वाला आदमी बन गया था। सागर घाट के उस कुछ दिनों के रहने से उसे रिआया की इन तकलीफो का निजी ज्ञान हो गया, था जो कारिन्दों और मुख्तारो की सख्तियों की बदौलत उन्हे उठानी पड़ती है। उसने उसे रियासत के इन्तजाम में बहुत मदद दी और गो कर्मचारी दबी जबान से उसकी शिकायत करते थे। और अपनी किस्मतो और जमाने क उलट फेर को कोसने थे मगर रिआया खुशा थी। हॉँ, जब वह सब धंधों से फुरसत पाता तो एक भोली भाली सूरतवाली लड़की उसके खयाल के पहलू में आ बैठती और थोड़ी देर के लिए सागर घाट का वह हरा भरा झोपड़ा और उसकी मस्तिया अॉखें के सामने आ जातीं। सारी बाते एक सुहाने सपने की तरह याद आ आकर उसके दिल को मसोसने लगती लेकिन कभी कभी खूद बखुद—उसका ख्याल इन्दिरा की तरफ भी जा पहूँचता गो उसके दिल मे रम्भा की वही जगह थी मगर किसी तरह उसमे इन्दिरा के लिए भी एक कोना निकल आया था। जिन हालातो और आफतो ने उसे इन्दिरा से बेजार कर दिया था वह अब रुखसत हो गयी थीं। अब उसे इन्दिरा से कुछ हमदर्दी हो गयी । अगर उसके मिजाज में घमण्ड है, हुकूमत है तकल्लूफ है शान है तो यह उसका कसूर नहीं यह रईसजादो की आम कमजोरियां है यही उनकी शिक्षा है। वे बिलकुल बेबस और मजबूर है। इन बदते हुए और संतुलित भावो के साथ जहां वह बेचौनी के साथ रम्भा की याद को ताजा किया करता था वहा इन्दिरा का स्वागत करने और उसे अपने दिल में जगह देने के लिए तैयार था। वह दिन दूर नहीं था जब उसे उस आजमाइश का सामना करना पड़ेगा। उसके कई आत्मीय अमीराना शान—शौकत के साथ इन्दिरा को विदा कराने के लिए नागपुर गए हुए थे। मगनदास की बतियत आज तरह तरह के भावो के कारण, जिनमें प्रतीक्षा और मिलन की उत्कंठा विशेष थी, उचाट सी हो रही थी। जब कोई नौकर आता तो वह सम्हल बैठता कि शायद इन्दिरा आ पहुँची आखिर शाम के वक्त जब दिन और रात गले मिले रहे थे, जनानखाने में जोर शारे के गाने की आवाजों ने बहू के पहुचने की सूचना दी।

सुहाग की सुहानी रात थी। दस बज गये थे। खुले हुए हवादार सहन में चॉँदनी छिटकी हुई थी, वह चॉँदनी जिसमें नशा है। आरजू है। और खिंचाव है। गमलों में खिले हुए गुलाब और चम्मा के फूल चॉँद की सुनहरी रोशनी में ज्यादा गम्भीर ओर खामोश नजर आते थे। मगनदास इन्दिरा से मिलने के लिए चला। उसके दिल से लालसाऍं जरुर थी मगर एक पीड़ा भी थी। दर्शन की उत्कण्ठा थी मगर प्यास से खोली। मुहब्बत नही प्राणों को खिचाव था जो उसे खीचे लिए जाताथा। उसके दिल में बैठी हुई रम्भा शायद बार—बार बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी। इसीलिए दिल में धड़कन हो रही थी। वह सोने के कमरे के दरवाजे पर पहुचा रेशमी पर्दा पड़ा हुआ था। उसने पर्दा उठा दिया अन्दर एक औरत सफेद साड़ी पहने खड़ी थी। हाथ में चन्द खूबसूरत चूडि़यों के सिवा उसके बदन पर एक जेवर भी न था। ज्योही पर्दा उठा और मगनदास ने अन्दरी हम रक्खा वह मुस्काराती हुई उसकी तरफ बढी मगनदास ने उसे देखा और चकित होकर बोला। ”रम्भा!” और दोनो प्रेमावेश से लिपट गये। दिल में बैठी हुई रम्भा बाहर निकल आई थी।

साल भर गुजरने के वाद एक दिन इन्दिरा ने अपने पति से कहा। क्या रम्भा को बिलकुल भूल गये? कैसे बेवफा हो! कुछ याद है, उसने चलते वक्त तुमसे या बिनती की थी?

मगनदास ने कहा— खूब याद है। वह आवाज भी कानों में गूज रही है। मैं रम्भा को भोली दृभाली लड़की समझता था। यह नहीं जानता था कि यह त्रिया चरित्र का जादू है। मै अपनी रम्भा का अब भी इन्दिरा से ज्यादा प्यार करता हूं। तुम्हे डाह तो नहीं होती?

इन्दिरा ने हंसकर जवाब दिया डाह क्यों हो। तूम्हारी रम्भा है तो क्या मेरा गनसिहं नहीं है। मैं अब भी उस पर मरती हूं।

दूसरे दिन दोनों दिल्ली से एक राष्ट्रीय समारोह में शरीक होने का बहाना करके रवाना हो गए और सागर घाट जा पहुचें। वह झोपड़ा वह मुहब्बत का मन्दिर वह प्रेम भवन फूल और हिरयाली से लहरा रहा था चम्पा मालिन उन्हें वहाँ मिली। गांव के जमींदार उनसे मिलने के लिए आये। कई दिन तक फिर मगनसिह को घोड़े निकालना पडें । रम्भा कुए से पानी लाती खाना पकाती। फिर चक्की पीसती और गाती। गाँव की औरते फिर उससे अपने कुर्ते और बच्चो की लेसदार टोपियां सिलाती है। हा, इतना जरुर कहती कि उसका रंग कैसा निखर आया है, हाथ पावं कैसे मुलायम यह पड़ गये है किसी बड़े घर की रानी मालूम होती है। मगर स्वभाव वही है, वही मीठी बोली है। वही मुरौवत, वही हँसमुख चेहरा।

इस तरह एक हफते इस सरल और पवित्र जीवन का आनन्द उठाने के बाद दोनो दिल्ली वापस आये और अब दस साल गुजरने पर भी साल में एक बार उस झोपड़े के नसीब जागते हैं। वह मुहब्बत की दीवार अभी तक उन दोनो प्रेमियों को अपनी छाया में आराम देने के लिए खड़ी है।

—— जमाना , जनवरी 1913