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Natak

नाटक

विनोद विप्लव

सलिलमा ‘टे्रजडी किंग' था। गांव की नाटक मंडली का। दूर—दूर तक उसके नाम की धूम थी। सलिममा के अभिनय एवं अंदाज से ऐसी गहरी पीड़ा और करूणा टपकती थी कि पत्थर दिल दर्शकों की आंखों से भी आंसू टपक पड़ते थे। मरने के अभिनय के मामले में तो कोई उसका सानी नहीं था। देखने वालों को ऐसा लगता कि सलिममा वास्तव में मर गया है— जैसा दशहरे की रात गांव में खेले जा रहे ‘गंगा जमुना' नाटक के उस दृश्य में लगा था। उस दृश्य में गोली खाकर वह जिस तरह चीखता हुआ गिरा था, गिर कर देर तक दर्द से छटपटाता रहा था और फिर शांत हो गया— उसे देखकर दर्शकों को ऐसा लगा कि सलिममा वास्तव में मर गया है और वह फिर कभी भी नहीं उठेगा। आंख—कान से कमजोर उसके बूढ़े मां—बाप तो छाती पिटते हुये स्टेज की तरफ दौड़ पड़े थे। ऐसा था सलिममा और उसका फन।

सलिममा अपने मां—बाप का इकलौता पूत था— लेकिन कमाऊ नहीं। वह दिन—रात सिनेमा और नाटक में ही डूबा रहता था। उसका एक ही सपना था— दूसरा दिलीप कुमार बनना। उसे उम्मीद थी कि एक दिन उसका सपना जरूर पूरा होगा। एक न एक दिन वह बम्बई जाएगा और अपने अभिनय की जादू से पूरी फिल्म इंडस्ट्री पर छा जाएगा। वह पागलपन की हद तक दिलीप कुमार का दीवाना था। वह गांव से पांच कोस की दूरी पर स्थित कस्बे के एकलौते सिनेमा घर में लगने वाली हर फिल्म देखता। अगर दिलीप कुमार की फिल्म लगती तब उसके पहले और आखिरी शो के लिये तीसरे दर्जे का टिकट खरीदने वाला वह पहला व्यक्ति होता। हर बार सिनेमा घर से सिनेमा देखकर निकलने के बाद वह दिलीप कुमार बन चुका होता— दूसरा दिलीप कुमार।

सलिममा के मां—बाप की कोई अधिक आकांक्षा—महत्वाकांक्षा नहीं थी। केवल इतनी आकांक्षा थी कि सलिममा ख्ेाती—बाड़ी के काम में उनका थोड़ा हाथ बटाये और उनके मरने के बाद घर बार एवं खेती—बाड़ी की जिम्मेदारी संभाल ले और अपने बाल बच्चों के साथ सुखीपूर्वक जीवन व्यतीत करे। पूर्वजों की मेहरबानी और मां—बाप की मेहनत की बदौलत इतनी तो जमीन थी ही कि अगर ठीक से खेती की जाती तो खाने भर अनाज का पैदा होना मुश्किल नहीं था। सलिममा के मां—बाप उसे समझाते—समझाते थक गये कि गरीबों के लिये सुनहरा सपना पालना पांव में कुल्हाड़ी मारने जैसा है। खुदा ने जितना दिया है, कम नहीं है। लेकिन सलिममा का दीवानापन बढ़ता ही गया। आखिरकार सलिममा के मां—बाप ने अपने पूत के जूनून के साथ समझौता कर लिया। उन्हें उम्मीद थी कि शादी के बाद जब उस पर बाल—बच्चे और घर—गृहस्थी की जिम्मेदारी आएगी और जब उसे आटे—दाल का भाव मालूम होगा तब उसके सिर पर से दिलीप कुमार का भूत उतर जाएगा और सही रास्ते पर आ जाएगा। उन्हें क्या मालूम था कि सलिममा जिधर जा रहा था उधर से वापसी का कोई रास्ता नहीं था। लेकिन सलिममा इतनी जल्दी अपने बूढ़े मां—बाप और गांव वालों से जुदा हो जाएगा, ऐसा न तो उसके बूढ़े मां—बाप ने और न ही गांव के किसी आदमी ने सोचा था।

लेकिन सलिममा गायब हो गया। कहां! यह किसी को मालूम नहीं था। दशहरे की रात को खेले गये गंगा जमुना नाटक के बाद सलिममा गायब हो गया। उस नाटक के आखिरी दृश्य में सलिममा ने मरने का करूणाजनक अभिनय किया था। ऐसा अभिनय जिसे देखकर उसके मां—बाप को तो विश्वास हो गया कि सलिममा अब वहां चला गया है जहां से कोई नहीं लौटता— खुदा के पास। लेकिन गांव वालों का कहना था कि सलिममा सलीम के के पास चला गया है— मुगले आजम में सलीम की भूमिका निभाने वाले दिलीप कुमार के पास।

गांव की नाटक मंडली के कलाकारों का कहना था कि नाटक के उस आखिरी दृश्य में सलिममा पर गोली चलाने का अभिनय निभाने वाले उसके जिगरी दोस्त रज्जू के साथ सलिममा का झगड़ा हुआ। झगड़े के दौरान रज्जू ने सलिममा को ऐसी कड़ी बात कह दी जिससे उसके दिल को गहरी ठेस पहुंची और वह कसम खाकर वहां से चला गया कि वह दूसरा दिलीप कुमार बन कर ही गांव लौटेगा। सलिममा जज्बाती और संवेदनशील था ही। कलाकार जो ठहरा। उस समय तो ऐसा लगा कि उसके दिल को रज्जू की बात से पीड़ा पहुंची है और गुस्सा शांत होते ही वह वापस लौट आएगा। लेकिन वह अपनी कसम निभाने के लिए अपने बूढ़े—कमजोर मां—बाप को बेसहारा छोड़ कर चला गया। ऐसा निष्ठुर था सलिममा।

सलिममा के मरने की बात गांव का कोई आदमी नहीं सोचता था— सिवाय बूढ़े मां—बाप के। सबका कहना था कि सलिममा हीरो बनने के लिए बंबई चला गया। लेकिन पता नहीं कैसे सलिममा के बूढ़े—बाप यह मान बैठे कि उनका बेटा इस दुनिया से सदा के लिए उठ गया है। पता नहीं उनके ऐसा मान लेने का आधार क्या था। ऐसा तो नहीं कि सलिममा के मरने का अभिनय देखकर उसके मां—बाप को गहरा सदमा लगा हो और उनका दिमाग फेल हो गया हो।

गांव के लोगों की भांति भवानी सिंह का भी ऐसा ही मानना था था, जो गांव की नाटक मंडली के माई—बाप थे। मंडली को जीवित रखने तथा हर दशहरे पर नाटक करवाने का श्रेय उन्हें ही जाता था। वह नाटकों के आयोजन के लिए पैसे की कोई कमी होने नहीं देते। तन—मन—धन से इसके लिए समर्पित रहते। सलिममा की प्रतिभा को पहचानने, उसे निखारने और उसे गांव वालों के सामने लाने का श्रेय उनका ही था। यही कारण था कि सलिममा और भवानी सिंह के बेटे रज्जू में खूब छनती थी।

सलिममा और रज्जू लंगोटिया यार थे। जीवन में ही नहीं नाटकों में भी दोनों की दोस्ती बरकरार रहती। ये दोनों दोस्त या भाई की ही भूमिका निभाते। दशहरे की उस रात होने वाले नाटक में भी दोनों ने सगे भाई की भूमिका निभाई थी। सलिममा ने बड़े भाई की और रज्जू ने छोटे भाई की। दोनों भाइयों में गहरा प्रेम—लगाव था। बड़ा भाई परिस्थितिवश डाकू बन जाता है और छोटा पुलिस इंस्पेक्टर। बड़े को गिरफ्‌तार करने की जिम्मेदारी छोटे भाई को सौंपी गयी थी। छोटा भाई बड़े को गिरफ्‌तार कर जेल में बंद कर देता है। बड़ा मौका पाकर जेल से भाग जाता है। छोटे भाई को इसका ज्यों ही पता चलता है वह बड़े भाई को पकड़ने के लिए पीछा करता है। छोटा भाई कर्तव्यपरायणता से भरा हुआ था। अपना कर्तव्य निभाने के लिये वह किसी भी चीज की कुर्बानी दे सकता था। वह बड़े भाई को चेतावनी देता है कि वह अपने आप को कानून के हवाले कर दे अन्यथा वह गोली चला देगा। लेकिन बड़ा भाई अपने छोटे भाई की चेतावनी को सुन कर भी नहीं रूकता है और भागता जाता है। छोटा भाई,जो पुलिस इंस्पेक्टर था और जिसकी भूमिका रज्जू निभा रहा था— आखिरकार अपने बड़े भाई पर जो डाकू था और जिसकी भूमिा सलिममा निभा रहा था, गोली चला देता है। घटना वास्तविक नहीं, नाटक थी— जिसमें सच्चाई कुछ नहीं थी। केवल दिखावा था। रज्जू को खाली पिस्तौल का ट्रिगर दबाना था— गोली चलाने का नाटक करने के लिये । रंगमंच के पीछे से एक व्यक्ति को राइफल से आसमानी फायर करना था— गोली चलने की आवाज करने के लिये। सलिममा को सीने पर हाथ रखना था और अपने कपड़े के पीछे छिपा कर रखे गये रंग भरे गुब्बारे को दबाकर फोड़ना था ,ताकि उसमें भरा खून जैसा लाल रंग बाहर आ जाये और छाती से खून की धारा फूटने का अभाास हो। सलिममा को मरने का अभिनय करना था — ऐसा अभिनय जिसे देखकर दर्शकों को लगे कि वह वास्तव में मर गया है।

सलिममा के इस अभिनय को देखकर दर्शकों की आंख में आंसू आ गये थे। सलिममा के बूढ़े मां—बाप तो छाती पीट—पीट कर ‘हाय सलिममा— हाय सलिममा 'की गुहार करते हुये मंच की तरफ पागलों की तरह बदहवास दौड़ पड़े थे। लेकिन वालेंटियरों ने उन्हें पकड़ लिया था और समझाया था कि ‘यह तो नाटक है और सलिममा तो मरने का नाटक कर रहा था। आप क्यों घबराये हुये हैं। सलिममा के नाटक करने के बेजोड़ अंदाज की यही तो खूबी है कि देखने वालों को ऐसा लगता है कि सलिममा वास्तव में मर गया है— लेकिन यह तो नाटक है— वास्तविकता नहीं । यही तो सलिममा का फन है— जिसका कोई जोड़ नहीं है। अगर उसे मौका मिले तो वह दिलीप कुमार की भी छुट्‌टी कर दे।' वालेंटियर सलिममा के मां— बाप को घेर कर समझा रहे थे और सलिममा के मां— बाप छाती पीट कर चिल्ला रहे थे—‘हाय सलिममा। हाय सलिममा।'

सलिममा ने अनेक बार मरने का अभिनय किया था। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसके मां—बाप को नाटक देखकर विश्वास हो जाये कि सलीममा की जान निकल गयी। यह दुनिया का न तो पहला नाटक था और न ही आखिरी। दुनिया में रोजाना ऐसे कितने नाटक होते हैं जिनमें मरने के दृश्य होते हैं। गांव में ही यह नाटक कई बार खेला गया। मरने की भूमिका हर बार सलिममा ने ही और गोली चलाने की भूमिका हर बार रज्जू ने ही निभाई। सलिममा हर बार बड़े भाई की और रज्जू छोटे भाई की भूमिका निभाता। दोनों के बीच का यह प्रेम नाटक के बाद भी वास्तविक जीवन में बरकरार रहता। दोनों के बीच की दोस्ती इस बात की मिसाल थी कि इंसानी रिश्ते जाति, धर्म और वर्ग भेद से ऊपर है।

रज्जू इज्जतदार, धनी और प्रभावशाली भवानी सिंह की औलाद था जिनका समूचे इलाके में रौब और रूतबा था। दूसरी तरफ सलिमममा गरीब और दीन—हीन मां—बाप की संतान था जिसके सामने खाने के भी लाले पड़े रहते

थे। सलिममा के मां—बाप के पास थोड़ी जमीन थी— लेकिन उस जमीन से खाने भर भी अनाज नहीं उपजता था। दूसरी तरफ रज्जू के साथ किसी तरह का अभाव नहीं था। रूपये— पैसे का उसके लिये कोई मोल नहीं था। तभी तो भवानी सिंह मुखिया के चुनाव में पानी की तरह पैसे बहाते थे।गरीबों का वह दिल खोल कर मदद करते थे। जो भी व्यक्ति कर्ज के लिये अथवा अन्य किसी मदद के लिये उनके दरवाजे पर आता, वह खाली नहीं लौटता। भवानी सिंह उस व्यक्ति को भी कर्ज दे देते जिससे एक ढेला भी लौटने की उम्मीद नहीं होती । उनके लगातार चुनाव जीतने का यही राज था। वह अब

विधायक का चुनाव लड़ने की योजना बना रहे थे। ऐसे समय में यह कांड हो गया अर्थात्‌ सलीममा गायब हो गया और उसके मां—बाप को यह अंदेशा हो गया कि सलिममा नाटक करते समय मर गया। भवानी सिंह की सफलता और सम्पन्नता से जलने वालों की तादाद भी कम नहीं थी और कोई शक नहीं कि सलिममा के मां—बाप को उकसाने में उनके विरोधियों का हाथ न रहा हो।हालांकि कोई भी व्यक्ति उनके सामने ऊंची आवाज में बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था— क्या मजाल की कोई उनके सामने उनकी बात काट दे या अनदेखी नहीं कर दे— लेकिन पीठ पीछे मुखालफत करने वाले भी कम नहीं थे।

भवानी सिंह अपने विरोधियों द्वारा फैलाई जा रही अफवाहों को लेकर चिंतित थे। ऐसे समय में पता चला कि सलिममा के मां—बाप भी गायब हो गये। कब, कैसे और कहां! सब की जुबान पर यही सवाल था। इस बारे में अलग—अलग लोगों की अलग—अलग राय थी। गांव में इस तरह की घटनायें पहली बार हो रही थी और इन्हें लेकर अफवाहें फैल रही थी। इन घटनाओं और विरोधियों की अफवाहों से सबसे अधिक चिंतित जाहिर है भवानी सिंह थे। भवानी सिंह ने सलिममा की मां—बाप की देख रेख के लिये अपने दो ‘आदमियों ' की ड्‌यूटी उनके घर में लगा रखी थी। भवानी सिंह की सख्त हिदायत थी कि सलिममा के मां— बाप की पूरी निगरानी रखी जाये। उनका दिमाग ठीक नहीं है और ऐसे में वे कुछ भी कर सकते हैं— कहीं अगर उन्होंने आत्महत्या कर ली या कहीं गांव छोड़ कर चले गये या भूल—भाल या मर मरा गये तो सलीममा को क्या जवाब देंगे— जो कभी—न—कभी गांव आयेगा— कुछ—न—कुछ बनकर। सलीममा उनके लिए बेटा से कम नहीं था और सलीममा के गायब होने का उन्हें कितना दुख है यह तो वही जानते हैं। सलीममा भी बाप की तरह उनकी इज्जत करता था। अब जब सलीममा नहीं है तब सलीममा के मां—बाप और उनके जर—जमीन की देखभाल की जिम्मेदारी तो उन पर ही आ पड़ी है। ये विरोधी लोग तो किसी के दुख और विपत्ति को भी भुनाने की फिराक में रहते हैं।

भवानी सिंह को विश्वास था कि सलीममा के मां—बाप को भगाने में उनके दुश्मनों का ही हाथ है और जैसा डर था वही हुआ। पता नहीं, वे क्या कर बैठे। कुछ भी करें, फजीहत तो उन्हीं की होगी— क्योंकि उनकी देखभाल की जिम्मेदारी तो स्वयं उन्होंने ही उठायी थी। उनके कई हितैषियों और घर के लोगों ने समझाया भी ‘अब भलाई का जमाना नहीं रहा। इस पचड़े में पड़ने से क्या फायदा। दानशीलता और समाज सेवा की भी एक सीमा होती है और इस सीमा के भीतर रह कर ही किसी की मदद करनी चाहिए। हमें भी सलीममा के मां—बाप से सहानुभूति है— लेकिन हम उन्हें सांत्वना ही दे सकते हैं। किसी की लाख मदद कीजिए— जो होना होगा, वह तो होकर ही रहेगा। किसी की किस्मत तो नहीं बदल सकते। अब सलीममा के मां—बाप के भाग्य में यही लिखा था कि उनका इकलौता बेटा ही उन्हें छोड़ जायेगा— तो दूसरा आदमी क्या कर सकता है।' लेकिन भवानी सिंह की नैतिकता इन तर्कों को मानने को तैयार न थी।‘आदमी ही तो आदमी के काम आता है। फिर सलीममा तो कोई पराया आदमी था नहीं। आदमी के बीच खून का संबंध ही सब—कुछ नहीं होता— भावना और लगाव भी एक चीज है।'

इसी कारण भवानी सिंह ने जोखिम को महसूस करते हुए भी सलीममा के मां—बाप की देखरेख का जिम्मा उठाया। वह तो इस बात के लिए तैयार थे कि अगर सलीममा के मां—बाप को मानसिक अस्पताल में भर्ती कराने की जरूरत आ पड़ी तो वह खर्चा उठायेंगे। लेकिन सलीममा के मां—बाप के गायब हो जाने से भवानी सिंह की सारी योजना धरी की धरी रह गयी। उन्होंने सलीममा के मां—बाप की निगरानी रखने की ड्‌यूटी संभालने वाले आदमियों को भरपूर डांट पिलाई और सड़ी—गली गालियां सुनाई। अगर पहलेे का माहौल होता तो उनकी खाल उधेड़ देने और नौकरी से निकाल देने में भवानी सिेह तनिक कोताही नहीं बरतते— लेकिन आज ऐसा करना उनके राजनीतिक भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो सकता था, क्योंकि ऐसा करने पर वे विरोधी गुट में शामिल होकर उनके लिए सरदर्द बन सकते थे। वैसे भी ऐसा करने से कुछ हासिल तो होता नहीं। उन्होंने अपने कई लगुओं—भगुओं को सलीममा के मां—बाप की तलाश करने और मिल जाने पर उन दोनों को हर हाल में गांव लाने की जिम्मेदारी देकर विभिन्न दिशाओं में रवाना किया।

भवानी सिंह सलीममा और उसके मां—बाप के रहस्यमय ढंग से गायब हो जाने के कारण उत्पन्न परिस्थितियों और आगामी चुनाव में उसके असर के बारे में अपने खास—खास आदमियों के साथ बातचीत कर रहे थे तभी उनके एक चेले ने दारोगा जी के दो सिपाहियों के साथ गांव आने की सूचना दी। भवानी सिंह को आज पहली बार अहसास हुआ कि उनके विरोधी कितने सक्रिय थे।

वैसे भवानी सिंह के लिए दारोगा जी का गांव आना कोई चिंता की बात नहीं थी — क्योंकि दारोगा जी पर भवानी सिंह के कई तरह के कर्ज और अहसान थे। भवानी सिंह यह अच्छी तरह जानते थे कि दारोगा जी किसी न किसी आर्थिक तंगी में थे और इस तंगी से उबरने के लिए गांव आये थे। भवानी सिंह के लिए सबसे अधिक चिंता की बात यह थी कि आखिर उनके किस दुश्मन ने ऐसे बेसिर—पैर की बात फैलाई है। अगर इस बात को फैलने से रोका नहीं गया और विरोधियों की जुबान बंद नहीं की गयी तो अगला चुनाव समर उनके लिए हल्दी घाटी साबित हो सकता है। सलीममा के मां—बाप का तो चलो दिमाग फिर गया है— लेकिन ऐसा कौन है जो ऐसी बातें पुलिस तक पहुंचा रहा है। पुलिस का मुंह तो फिर भी बंद किया जा सकता है लेकिन पीठ पीछे अफवाह फैलाने वालों के मुंह कैसे बंद रखे जा सकते हैं।

दारोगा जी ने जिस समय भवानी सिंह की भव्य हवेली के बैठक खाने में प्रवेश किया उससे थोड़ी देर पहले भवानी सिंह ने छमिया से पैर और सिर दबवाया था और अब तक उसकी कोमल अंगुलियों की गुदगुदी महसूस कर रहे थे। सिर दबाने से वह कुछ हल्का और अच्छा महसूस कर रहे थे। लेकिन दारोगा जी ने भवानी सिंह को जो बात बतायी उसे सुन कर वह चिहुंक पड़े— जैसे किसी बिच्छू ने डंक मारा हो। भवानी सिंह उठ कर खड़े हो गये— क्या....

‘हां हुजूर, वे दोनों सलीममा के मां—बाप ही थे।'

आपका होश तो ठिकाने है..... आप क्या कह रहे हैं दारोगा जी.....लगता है अब सलीममा के मां—बाप को नहीं पहले आपको ही पागलखाने में भर्ती कराने की जरूरत है। वे दोनों थाना तक कैसे पहुंच सकते हैं।'

क्यों नहीं पहुंच सकते हुजूर। मैं दोनों को पहचानता हूं। वे खुद भी तो कह रहे थे कि वे सलीममा के मां—बाप हैं। ऐसे रो—कलप रहे थे— विश्वास मानिये— जैसा कोई अपने के मर जाने पर ही रो सकता है।'

‘दारोगा जी। आप क्या कह रहे हैं— आपको मालूम है। लगता है, आपको किसी ने मेरे खिलाफ बरगला दिया है।'

‘हुजूर मैंने आपका नमक खाया है। इसलिए तो मैं पहले हुजूर के पास आया हूं, ताकि आपको सतर्क कर दूं। पर यकीन मानिये वे दोनों आज ही सलीममा की हत्या की रिपोर्ट लिखाने आये थे। वे कह रहे थे कि नाटक खेलने के दौरान सलीममा गोली से मर गया और उसकी लाश को छिपा कर बाद में नदी में बहा दिया गया।'

‘उन दोनों ने जो कहा उस पर आपने विश्वास कर लिया और सलीममा की हत्या की तहकीकात करने गांव आ गये। आपको मालूम नहीं कि वे दोनों पागल हो चुके हैं। उन्हें तो मेरे दुश्मनों ने बहका दिया है। मेरे खिलाफ कितनी बड़ी साजिश रची जा रही है— आपको पता नहीं। दुख तो इस बात का है कि जिन्हें मैंने जीवन भर अपना समझा वही मेरे खिलाफ साजिश में शामिल हो गये। सलीममा को तो मैं दूसरा बेटा मानता था और आज सलीममा के कारण मुझे ऐसी जिल्लत उठानी पड़ रही है।'

‘मैंने हुजूर का नमक खाया है। मैं तो पहले ही समझ गया था कि ये दोनों पागल हैं और हुजूर के दुश्मनों की चाल में फंस गये हैं, लेकिन ड्‌यूटी निभाने का नाटक तो करना ही पड़ता है। वैसे भी आपके दर्शन करने के सौभाग्य कहां मिलते हैं। बहुत दिन से आपका आशीर्वाद लेने को सोच रहा था। संयोग से यह बहाना भी मिल गया। सोचा दोनों काम हो जायेगा— जांच भी और आपसे इनाम भी.....।'

‘आपका इनाम तो वहीं पहुंच जाता, दारोगा जी। इत्तला भर भिजवा देते। आजकल माहौल खराब चल रहा है। गांव में पुलिस आने की बात पर ही लोग मेरे खिलाफ तरह—तरह की अफवाहें फैला देंगे।'

‘हुजूर इतना क्यों सोचते हैं। हम हैं किसलिए। कोई गड़बड़ नहीं होगी। मैं तो दो—चार लोगों के बयान लूंंगा। बस। मेरी ड्‌यूटी खत्म। उसके बाद आप जो कहेंगे— वही होगा। आखिर आपका नमक खाते रहे हैं।'

गांव में पुलिस आने की खबर से युवकों में आतंक फैल गया था। युवक जहां—तहां छिप गये थे। बुजुर्ग और महिलायें भी घर में कैद हो गयी थी। बच्चों को पुलिस की हकीकत और खौफ से क्या लेना—देना। उन्हें पुलिस से कैसा भय। लिहाजा भवानी सिंह की हवेली के बाहर अधनंगे बच्चे और कुछ बूढ़ी औरतों की भीड़ इकट्‌ठी हो गयी थी। भवानी सिंह और दारोगा जी, दोनों सिपाहियों और अपने आदमियों के साथ हवेली से बाहर निकले। बच्चों को उन्होंने डांट कर भगाया— लेकिन बच्चे तो बच्चे ठहरे— भागने की बजाय उनके पीछे लग गये। भवानी सिंह ने अपने आदमियों को भेजा कि गांव से लोगों को बुला लाये— ‘उन्हें डरने की जरूरत नहीं है। दारोगा जी गांव का मुआयना करने आये हैं।' कुछ ही देर में वहीं युवक, घुंघट डाले औरतें और बुजुर्ग जमा होने लगे। कुछ देर में पूरा गांव जमा हो गया था। भवानी सिंह ने दारोगा जी को दो—चार नहीं दस—बीस लोगों के बयान दिलवा दिये।

‘.....सलीममा तो मेरा प्राण था। हम दोनों तो लंगोटिया यार थे। उसके मन में क्या था, यह मुझसे ज्यादा कोई नहीं जान सकता है। उसका एक ही सपना था— मुंबई जाकर अपना भाग्य चमकाना, लेकिन पैसे नहीं होने के कारण नहीं जा पा रहा था। मैंने तो उसे कहा था कि अभी एक—दो साल ठहरो। जब बाबूजी चुनाव जीत जायेंगे तो वह मुंबई भेजने की और वहां ठहरने की व्यवस्था कर देंगे। इतने बड़े शहर में अनजान आदमी कहां ठहरेगा— कोई पक्की व्यवस्था तो हानी चाहिए। सलीममा मान भी गया था। लेकिन पता नहीं उस दिन नाटक में उसके मन को क्या ठेस पहुंची कि वह गांव छोड़कर चला गया। मैंने तो उसे रात पता नहीं पता नहीं किस बात पर मजाक में उससे कह दिया कि क्या खाकर दिलीप कुमार बनोगे। अगर ऐसे ही आदमी दिलीप कुमार बनने लगे तो हो गया फिल्मी दुनिया का कल्याण। इतनी सी ही बात थी। मैंने तो यह बात मजाक में कही थी। मुझे क्या मालूम था कि सलीममा इतनी गंभीरता से ले लेगा। उसके जाने से तो मैं अकेला पड़ गया हूं.....।' यह था रज्जू का बयान।

‘.....दारोगा बाबू। इस गांव में कोई पहली बार नाटक तो हुआ नहीं। हर साल नाटक होते रहते हैं— मालिक की कृपा से। वे तो इस गांव के लिए देवता समान हैं। गांव के लिए बहुत—कुछ किया उन्होंने। सलीममा का तो उन्होंने जीवन ही बनाया। अब सोचिये, सलीममा की खातिर उन्हें ऐसी बदनामी सुनने को मिल रही है। मालिक पर क्या गुजरती होगी। सलीममा के मां—बाप तो पगला गये हैं। मैं तो कहता हूं कि उन्हें पागलखाने में भर्ती कराना जरूरी है।' यह था रामुआ का बयान जिसे मंच के पीछे से हवाई फायर करना था।

‘सलीममा के मरने की बात बिल्कुल बकवास है। मालिक के दुश्मनों की करतूत है। उनके दुश्मन नहीं चाहते कि मालिक चुनाव जीतें। मैं तो वर्षों से मालिक की सेवा करता रहा हूं। मैं मालिक के स्वभाव को खूब जानता हूं। मालिक संत स्वभाव के हैं, इसलिए ऐसी बातें सुन कर सहन कर रहे हैं। मालिक ने तो सलीममा के लिए क्या नहीं किया। मालिक मुझे माफ करें। लेकिन आज मैं सच बात कह कर ही दम लूंगा। सलीममा नमक हराम था। वह छोटे मालिक से दोस्ती का फायदा उठाकर घर में आ जाता था और इधर—उधर तांक—झांक करता था। उसकी नजर बुरी थी। मैं तो इस घर में वर्षों से नौकर हूं। मेरे लिए यह बर्दाश्त करना मुश्किल था कि एक गैर आदमी तांक—झांक करे। सलीममा को मैंने चेतावनी दी थी कि वह नमक हरामी न करे। तब जानते हैं दारोगा जी— उसने मुझे मार डालने की धमकी दी। वह छोटी बहू पर बुरी नजर रखता था। एक बार तो मैंने सलिममा को छोटी बहू के साथ एकांत में.....।'

भवानी सिंह की क्रोध भरी नजर से अपना वाक्य पूरा किये बगैर अचानक चुप हो जाने वाला यह मिश्री लाल था जो मां—बाप के मरने के बाद से ही उनका कर्ज चुकाने के लिए भवानी सिंह के घर में नौकर का काम करता था।

‘सच तो यह है हुजूर कि सलीममा के मां—बाप का दिमाग क्रैक कर गया है। हम सभी नाटक देख रहे थे। हमें तो ऐसा नहीं लगा कि सलीममा मर गया है। हो सकता है कि बैलून में जो लाल रंग भरा हुआ था— वह फूट कर बाहर आया और सलीममा के मां—बाप ने समझ लिया कि सलीममा के सीने से खून निकल आया। इससे दोनों को सदमा लगा हो और उनका दिमाग फेल हो गया है।' यह था राम लाल।

‘मुझे भी यही लगता है कि सलीममा के मां—बाप पागल हो गये हैं।' भवानी सिंह ने अपना अंतिम निष्कर्ष सुनाया।

‘क्यों आप लोग क्या समझते हैं। क्या सलीममा के मां—बाप पागल हैं।' दारोगा जी ने गांव वालों से पूछा।

एक साथ कई स्वर उभर पड़े— ‘पागल हैं हुजूर। पागल हैं।'

‘हम पागल नहीं हैं दारोगा बाबू' यह सलीममा के बाप थे जो भीड़ के बीच से पता नहीं कहां से पैदा हो गये। उनके पीछे सलीममा की बूढ़ी माई थी।

भवानी सिंह को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। ये कहां से आ गये। उनके आदमी ऐसे जाहिल हैं कि उन्हें कच्चा चबा जाने का मन करता है। भवानी सिंह गुस्से से दांत चबानेे लगे थे लेकिन इस समय कुछ कर पाने में असमर्थ थे। भीड़ बूढ़े—बुढ़िया को आंख फाड़ कर देख रही थी।

‘सलीममा की लाश को इन लोगों ने नदी में बहा दिया था। सलीममा मेरे सामने ही गोली लगने से तड़प—तड़प कर मर गया था। मुझे तो पकड़ कर घर में बंद कर दिया था— इन लोगों ने। सलीममा के हत्यारे को नहीं छोड़िये दारोगा बाबू— आपके पांव पड़ता हूं।' सलीममा के बूढ़े बाप दारोगा जी के पैरों पर गिर कर गुहार करने लगे थे।

‘अरे ई दोनों तो एकदम पगला गये हैं दारोगा जी। इनकी बात पर विश्वास मत कीजिए। हम सब क्या झूठ बोल रहे हैं। गोव के सब लोग झूठ बोल रहे हैं और ई सत्य हरिश्चंद्र बनने चले हैं। अरे इन्हें जल्दी पागलखाना भेजना जरूरी है.....।' यह परमेश्वर था।

‘ऊपर वाला सब देखता है। कीड़े पड़े तुम्हें।' सलीममा की मां विक्षिप्त हो गयी थी।

सलीममा के बाप ने बालेश्वर का हाथ पकड़ लिया ‘तू तो सब देखते हलहीं कि कैसे ई सब सलीममा के लहास गायब कर देलकै। तू ही कहते हलहीं कि तू अपन आंख से देख ले है। चुप काहे हा हो। साहेब से बता देे न।' सलीममा के बाप विनती कर रहे थे।

‘सलीममा के बाबू तोरा दिमाग ठिकाने पर तो है। हम तोरा का कहा था। मालिक हम इसे कुछ नहीं कहा। ई पागल हो गये हैं। सब गांव वाले को फंसाने के चक्कर में हैं। हम कुछ नहीं कहा मालिक। हम तो कुछ जानते ही नहीं हैं। तू हमरा से कौन जनम के दुश्मनी निकाल रहला ह सलीममा के बाबू।' बालेश्वर भवानी बाबू से रहम की भीख मांग रहा था।

‘तू तो सच बोल द भैया। तू भी तो वहीं हल.....।' सलीममा की मां भीख मांग रही थी— सच्चाई के लिए। लेकिन सच्चाई इतनी सस्ती चीज साबित नहीं हुई।

‘दारोगा साहब आप बेकार ही इन दोनों पागलों की बात में आकर अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। यहां कुछ नहीं हुआ। इन दोनों को तो सलीममा के गांव से भाग जाने का सदमा लगा है और तभी से पागलों जैसी हरकते कर रहे हैं।' यह पंडित रामसुख थे।

भवानी सिंह ने भी कहा,‘पंडित जी ठीक कह रहे हैं। क्या दारोगा जी। अब आपका काम हो गया होगा।

‘दारोगा बाबू हम पागल नहीं हैं। ई सब रज्जू आव भवानी के दलाल हैं। अरे भइया। कोई तो खुदा से डरो। वह सब देख रहा है। दारोगा साहब हम झूठ ना कह रहली ह। हमर बेटवा के ई सब मार के नदिया में फेंक देले।' सलीममा के बाबू दुहाई दे रहे थे। उन्होंने दारोगा जी के पैर पकड़ लिये।

दारोगा जी कलम और डायरी कब का बंद कर चुके थे। वह भवानी सिंह के साथ हवेली चलने को तैयार थे— जहां से उन्हें अपना इनाम लेना था। वह सलीममा के बाप को धकेल कर आगे बढ़ गये।

भीड़ भी वहां से छंटने लगी थी— सब खामोश थे। सलीममा के मां—बाप गुहार कर रहे थे— ‘कोई तो बोल द भईया इतना कठजात मत बन। भगवान सब देख रहलन ह।' लेकिन कोई बोल नहीं रहा था। केवल सलीममा के मां—बाप का करूण स्वर उभर रहा था। दोनों छाती पीट रहे थे कराह रहे थे— छटपटा रहे थे— वैसे ही जैसे सलीममा मरने का अभिनय करते समय छटपटाता था— जिसे देख कर पत्थर दिल भी पिघल जाते थे और जिसे देखने के लिए दर्शक दौड़े चले आते थे लेकिन सलीममा के मां—बाप को छटपटाते देखने के लिए वहां कोई नहीं बचा था— सब वहां से खिसक गये थे।