Dilip Kumar : Abhinay Samrat books and stories free download online pdf in Hindi

Dilip Kumar : Abhinay Samrat

दिलीप कुमार :

अभिनय सम्राट

— विनोद विप्लव

मौजूदा दौर के महानायक माने जाने वाले अमिताभ बच्चन ने एक बार कहा था कि अगर कोई ऐक्टर यह कह रहा है कि वह दिलीप कुमार से प्रभावित नहीं है, तो वह झूठ बोल रहा है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारतीय सिनेमा पर जिस एक षख्स ने सबसे अधिक छाप छोड़ी और जो आज तक अभिनय की कसौटी बना हुआ है वह और कोई नहीं दिलीप कुमार हैं जिन्होंने फिल्मी अभिनय की पूरी अवधारणा को बदल दिया। मषहूर अभिनेता, निर्माता और निर्देषक अपने राजकपूर ने फिल्म षक्ति देखने के बाद दिलीप कुमार को फोन पर बधाई देते हुये कहा था, ‘‘अभी तेरी फिल्म षक्ति देखी, लाले। बस हो गया फैसला कि इस देष में केवल एक ही दिलीप कुमार है। उसके लेवल को कोई छू ही नहीं सकता!'' दिलीप कुमार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने के समय अमिताभ बच्चन ने लिखा थाए ‘‘उत्तम नहीं, सर्वोत्तम हैं दिलीप कुमार।''

भारतीय सिनेमा में 1940 से लेकर 1960 का एक दौर था जब भारतीय दर्षकों के दिलों पर दिलीप कुमार का ही राज चलता था। अभिनय की चलती—फिरती पाठषाला माने जाने वाले दिलीप कुमार ने अपने बलबुते बालीवुड में वैसा मुकाम बनाया जिस तक पहुंचना आज हर अभिनेता के लिये सपना ही बना हुआ है। दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने जितनी फिल्मों में काम किया उससे अधिक फिल्मों को उन्होंने काम करने से इंकार कर दिया — और ठुकराई हुयी ये फिल्में मामुली नहीं थी बल्कि ये थीफ अॉफ बगदाद जैसी विष्व प्रसिद्ध हालीवुड फिल्म तथा प्यासा, बैजू—बाबरा, मदर इंडिया और संगम जैसी चोटी की फिल्म थी लेकिन कम फिल्मों में काम करने के बावजूद उनका वर्चस्व हमेषा बना रहा। आज ज्यादातर लोगों को इस बात पर आष्चर्य होता है कि इस महानायक ने सिर्फ 54 फिल्में क्यों की। इसका उत्तर है यही है कि दिलीप कुमार ने अपनी इमेज का सदैव ध्यान रखा और अभिनय स्तर को कभी गिरने नहीं दिया। आकर चले गए। वह आरंभ से ही इत्मीनान से काम करने के पक्षधर से थे। उन्होंने अपनी प्रतिश्ठा और लोकप्रियता को पैसा कमाने के लिए कभी नहीं भुनाया। इसलिए आज तक वे अभिनय के पारसमणि (टचस्टोन) बने हुए हैं जबकि धूम—धड़ाके के साथ न जाने कितने स्टार,सुपर स्टार और मेगा स्टार आए और चले गये।

फिल्म गंगा—जमुना में दिलीप कुमार का अभिनय हालीवुड के मषहूर निर्देषक डेविड लीन को इतना पसंद आया कि अपनी फिल्म लारेंस अॉफ अरेबिया (1962) में अभिनय करने का प्रस्ताव लेकर खुद भारत आ गये। लेकिन दिलीप कुमार ने यह फिल्म करने से मना कर दिया और उन्हें दी जाने वाली भूमिका बाद में मिस्र के अभिनेता ओमर षरीफ को दिया गया, जो इस फिल्म के बाद हॉलीवुड फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता बन गए। कहा जाता है कि अगर दिलीप कुमार ने यह प्रस्ताव मान लिया होता तो हालीवुड में भारतीय कलाकारों एवं फिल्मकारों के लिये उसी समय से दरवाजे खुल जाते। यही नहीं थीफ अॉफ बगदाद जैसी विष्व प्रसिद्ध फिल्म बनाने वाले हंगेरियन निर्माता—निर्देषक अलेक्जेंडर कोर्डा भी दिलीप कुमार से एक फिल्म बनाने के सिलसिले में मिले थे, लेकिन वह योजना फलीभूत नहीं हुई।

1944 में ज्वार भाटा से अपने अभिनय के कैरियर को षुरू करने वाले दिलीप कुमार ने मेला, षहीद, अंदाज, आजाद, आन, देवदास, नया दौर, मधुमती, यहूदी, पैगाम, मुगल—ए—आजम, गंगा—जमना, तथा राम और ष्याम जैसी फिल्मों के सलोने नायक दिलीप कुमार स्वतंत्र भारत के पहले दो दषकों में लाखों युवा दर्षकों के दिलों की धड़कन बन गए थे। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप के करोड़ों लोग पर्दे पर उनकी चमत्कारी अभिनय कला से अभिभूत हैं। 1953 में फिल्म फेयर पुरस्कारों के श्रीगणेष के साथ दिलीप कुमार को फिल्म ‘‘दाग'' के लिए सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया था। अपने जीवनकाल में दिलीप कुमार कुल आठ बार फिल्म फेयर से सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार पा चुके हैं और आज तक कीर्तिमान है जिसे अभी तक तोड़ा नहीं जा सका।

सभ्य, सुसंस्कृत, कुलीन इस अभिनेता ने ष्वेत—ष्याम सिनेमा और रंगीन के पर्दे पर अपने आपको कई रूपों में प्रस्तुत किया। असफल प्रेमी के रूप में उनकी अविस्मरणीय भूमिकाओं ने उन्हें ट्रेजेडी किंग का दर्जा दिलाया लेकिन उन्होंने यह भी साबित कर दिया कि चाहे हास्य भूमिकाओं या रोमांटिक भूमिकायें हो, वह किसी से कम नहीं हैं।

एक तरफ उनके अभिनय एवं उनका विषिश्ट अंदाज सिनेमा के मर्मज्ञों के लिये अध्ययन का विशय बना रहा तो दूसरी तरफ उनका निजी जीवन सिने प्रेमियों एवं मीडिया कर्मियों के लिये हमेषा कौतुहल का विशय रहा, जिसमें रोजमर्रे के सुख—दुःख, मोहब्बत—नफरत, उतार—चढ़ाव, मिलना—बिछुड़ना, इकरार—तकरार सभी रंग षामिल थे। यही नहीं दिलीप कुमार का निजी और सार्वजनिक जीवन हमेशा कई तरह के विवादों में धिरा रहा लेकिन वह हर विवाद से बेदाग निकलते गये।

दिलीप कुमार वह षख्सियत हैं, जिनके कदमों पर चलते हुए न जाने कितने अभिनेता ऊंचे मुकाम पर पहुंचे हैं। साल—दर—साल बीत जाएंगे, लेकिन दषकों और सदियों बाद भी वे हर नए अभिनेता के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। सच तो यह है कि नई प्रतिभा उनकी फिल्में देखकर सीखती रहेंगी।

यह आष्चर्य की बात है कि व्यापक स्तर पर जनमानस को प्रभावित करने वाले इस कलाकार ने अपने अभिनय एवं अभिव्यक्ति के लिये जिस भाशा का चुनाव किया उस भाशा में उसके जीवन और अभिनय के बारे में कोई पुस्तक नहीं है। यह पुस्तक इस कमी को दूर करने का प्रयास है। वैसे तो दिलीप कुमार जैसे के अभिनय एवं जीवन के विभिन्न आयामों को एक पुस्तक में समेटना मुकिष्ल है लेकिन फिर भी कोषिष की गयी है कि उनके जीवन और अभिनय का कोई महत्वपूर्ण पहलू छूट नहीं जाये। इस पुस्तक के जरिये भारतीय सिनेमा के उस सुनहरे दौर की झलक मिल जायेगी जिस दौर की में फिल्में न केवल मनबहलाव करती थी बल्कि जीवन जीने का सलीका भी सिखाती और तमाम अभावों एवं परेषानियों के बावजूद जीने का हौसला भी देती थी।

— विनोद विप्लव

अनुक्रम

सिनेमा के सफर का पहला कदम / 09

पेषावर से बम्बई का सफर / 15

युसूफ खान से दिलीप कुमार/ 26

स्टारडम की राह पर / 37

‘‘अंदाज'' से बदला अंदाज/ 53

ट्रेजडी किंग का सष्जन / 72

देवदासः दुखांत अभिनय का षिखर/ 105

ट्रेजडी से कामेडी की ओर / 144

रोमांटिक हीरो की छवि / 148

दिलीप कुमार और मधुबाला / 154

अहमं का टकराव / 163

मुगल—ए—आजम / 175

गंगा जमुना / 184

राजनीति का पूर्वाभ्यासि

दिलीप कुमार की जीवन साथी

दूसरे दौर का कैरियर

राजनीति में कदम / 193

फिल्में जो दिलीप कुमार ने छोड़ी

बालीवुड के त्रिदेव

दिलीप कुमार की अभिनेत्रियां

उपाधियां/सम्मान

196

संदर्भ एवं साभार / 208

1

सिनेमा के सफर का पहला कदम

बम्बई (अब मुंबई) के उपनगर मलाड में प्रसिद्ध फिल्म निर्माण कंपनी ‘‘बम्बई टाकीज'' के मुख्यालय में कंपनी की संचालिका और मषहूर अभिनेत्री देविका रानी के दफ्‌तर के बाहर लंबा—चौड़ा नौजवान कमरे के अंदर जाने के लिये बुलावे का इंतजार कर रहा है। इस नौजवान का नाम युसुफ खान है जिसकी तमन्ना क्रिकेट खिलाड़ी बनने की है। उसे उम्मीद है कि एक दिन वह बल्लेवाज के रूप में टेस्ट क्रिकेट में खेलते हुये षतक जमायेगा। उसकेे पिता सरवर खान का फलों का कारोबार है और वह अपने पिता के काम में मदद करता है। पिता को अपने बुद्धिमान पुत्र से काफी उम्मीदें हैं। उन्हें लगता है कि उसके पिता को उम्मीद है कि उनका यह बुद्धिमान बेटा उसका यह उनके कारोबार में चार चांद लगायेगा। सरवर खान का फिल्मों में काम करने वालों ‘‘नचनियों'' से सख्त नफरत है।

कुछ देर में उस नौजवान को बुलावा आता है। कमरे में पहुंचते ही देविका रानी सवाल करती हैं — क्या तुमने फिल्मों में काम किया है।

युवक ने केवल एक षब्द जवाब दिया — नहीं।

देविका रानी पूछती हैं — क्या तुम फिल्मों में काम करना चाहोगे।

फिर एक छोटा सा जवाब — हां।

अगला सवाल — क्या तुम सिगरेट पीते हो

‘‘नहीं''

क्या तुम उर्दू बोलते हो

‘‘हा''

केवल चार सवाल और जवाब में केवल हां या नहीं। युवक के षर्मीलेपन और उसके इतने छोटे जवाब से देविका रानी के मन में कई सवाल पैदा हो गये। क्या यह इतना कम बोलने वाला इसांन उनकी उम्मीद को पूरा कर पायेगा। देविका रानी ने तो इस उम्मीद से उस नौजवान को बुलाया था वह उनकी कंपनी को संकट से उबार सकेगा।

देविका रानी के कंधे पर उस समय ‘‘बंबई टाकीज'' देष की तीन प्रमुख सिने कंपनियों में षुमार है। इस कंपनी की स्थापना उनके पति हिंमाषु राय ने 1934 में की थी। इसके लिये उन्हें सर कोवासजी जहांगीर और सर चुन्नी लाल मेहता जैसे धनी फिनांसरों से मदद मिली थी। उनके पति की मेहनत का नतीजा था कि ‘‘बंबई टाकीज'' भारत में स्थापित पहली पब्लिक लिमिटेड कंपनी बनी जिसे बम्बई स्टॉक एक्सचेंज में भी सूचीबद्ध किया गया था।

लेकिन 1940 में हिंमाषु राय की मौत के बाद एक समय ऐसा लगने लगा कि कंपनी अतीत के गर्भ में समा जायेगी और उनके पति की मेहतनत एवं काबिलियत पर पानी फिर जायेगा। ऐसे में देविका रानी ने इस कंपनी के संचालन का जिम्मा अपने कंधे पर उठाया लेकिन वह कंपनी में बने दो गुटों के झगड़े से तंग आ चुकी थी। एक गु्रप का नेतृत्व अमिया चक्रवर्ती कर रहे थे और दूसरे का नेतष्त्व सषाधर मुखर्जी और राय बहादुर चुन्नीलाल। देविका रानी पर फिल्म निर्माण की जिम्मेदारी थी, लेकिन उनका ज्यादातर समय स्टुडियो में दोनों गुटों के बीच सुलह कराने में ही लगता था। इस आपसी झगड़े के कारण सषाधर मुखर्जी और राय बहादुर चुन्नीलाल का गु्रप मुंबई टाकीज से अलग हो गया और उसने 1942 में फिलमिस्तान का निर्माण किया।

देविका रानी के लिये एक और मुसीबत यह खड़ा हो गयी कि कंपनी के षीर्श स्टार अषोक कुमार भी कंपनी छोड़ने वाले थे। केवल वही नहीं, कई और लोग कंपनी छोड़कर फिलमिस्तान के साथ जुड़ने वाले थे। देविका रानी को यह डर सताने लगा कि उसके पति ने जिस कंपनी को दिन—रात की मेहनत से कामयाबियों की बुलंदी तक पहुंचाया था वह कहीं खत्म न हो जाये। वह कुछ ऐसे नये चेहरों की तलाष में थी जिनके कारण कंपनी को संभाला जा सके और कंपनी को और अधिक उंचाई मिले। ऐसे ही समय में देविका रानी जब निर्देषक अमिया चक्रवर्ती के साथ नैनीताल आयी तब उनकी नजर लंबे—चौड़े कद काठी के पठान नौजवान को देखा था। नौजवान युसुफ अपने फलों के काराबार के सिलसिले में अक्सर हिमालय क्षेत्र — खासकर देहरादुन और नैनीताल आता रहता था, जहां से वह सालाना ठेके के आधार पर फल खरीदता था। देविका रानी को वह नौजवान उनकी उम्मीद के अनुकूल नजर आया और उन्होंने उस नौजवान से कहा, ‘‘अगर हो सके तो, मुंबई में मेरे स्टुडियो में मुझसे मिलो।''

हालांकि नौजवान युसुफ ने इस पेषकष पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया बल्कि नैनीताल से मुंबई लौटने पर ‘‘बंबई टाकीज'' के दफ्‌तर जाकर देविका रानी की बात को भूल गये, जो कि उनके घर से बहुत दूर नहीं था। लेकिन धीरे—धीरे उन्हें लगने लगा कि उनके पिता का फलों का कारोबार बढ़ नहीं रहा है। एक कारण यह था कि दूसरे विष्व युद्ध का फलाें और सब्जियों के कारोबार पर बुरा असर पड़ा था। ऐसे में युसूफ किसी अच्छी नौकरी की तलाष में थे जिसमें अच्छा पगार मिले। उसी समय उनके छोटे भाई नासिर खान भी फिल्म में कैरियर बनाने की कोषिष में लगे थे। लेकिन युसुफ को कभी भी फिल्मों में अभिनय करने का काम नहीं भाया। ं

उन्हीं समय अपने परिवार के करीबी डा. मसानी की सलाह पर उन्होंने ‘‘बंबई टाकीज''जाकर देविका रानी से मिलने का मन बनाया। डा. मसानी कभी हिमांषु राय के निजी चिकित्सक हुआ करते थे। डा. मसानी ने एक सिफारिषी पत्र देकर युसुफ को ‘‘बंबई टाकीज''में प्रोडक्षन कंट्रोलर एस गुरूस्वामी के पास भेजा। जिस दिन युसुफ एस गुरूस्वामी के पास पहुंचा तब कुछ कारणों से स्टूडियो बंद हो गया था और देविका रानी जा चुकी थीं। दूसरे दिन युसुफ को देविका रानी से मुलाकात हुयी, लेकिन इस मुलाकात के मन में कई सवाल एवं षंका के बादल छा गये। देविका रानी को यह सवाल परेषान कर रहा था कि यह युवक अभिनय के बारे में कुछ नहीं जानता था, ऐसे में वह कैसे उनकी उम्मीद पर खरा उतरेगा।

देविका रानी ने इस नौजवान के बारे में अमिया चक्रवर्ती से बात की तो उन्होंने कहा कि वह उस युवक से संतुश्ट हैं। देविका रानी ने अपने सलाहकार हितेन चौधरी से भी बात की, जो बाद में स्टूडियो के प्रोडक्षन नियंत्रक बन गये थे। हितेन चौधरी डा. मसानी के एहसान के बोझ तले दबे थे। वह जानते थे कि यह लड़का उनके दोस्त की सिफारिष पर आया है, जिनका उनपर काफी एहसान थे। हितने चौधरी पर डा. मसानी के कई हजार कर्ज हो गये थे और उन्हें लगा कि जिस व्यक्ति का उनपर इतना एहसान है तो उसके एहसान का बदला चुकाने के लिये एक व्यक्ति को रखना पड़े तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये। उन्होंने ने देविका रानी से कहा कि किसी व्यक्ति की अभिन क्षमता का पता केवल उसे एकबार देखने से नहीं लगता है। जब तक उसे अच्छी तरह से जांचा—परखा नहीं जाये तब तक उसके बारे में कुछ निर्णय नहीं लिया जा सकता है। उसे अपने अभिनय क्षमता को दिखाने का मौका तो दिया जाना चाहिये।

इस तरह से आखिरकार में युसुफ खान के साथ तीन साल का अनुबंंध किया गया जिसे हर साल रिन्यू करना था। वेतन 500 रूपये महीने तय हुआ और सालाना भत्ता 200 रूपये तय किया गया। यह भारतीय सिनेमा में एक सितारे के उदय की षुरूआत हुयी।

2

पेषावर से बम्बई का सफर

युसुफ खान का जन्म पेषावर में जाड़े मौसम में 11 दिसंबर 1992 को एक पठान परिवार में हुआ था। पठान षब्द फतेहमान (यानी विजेता) का बिगड़ा हुआ रूप है। यूसुफ खान की माता आयषा बेगम थीं और पिता गुलाम सरवर खान फलों के व्यापारी थे जो अपने कारोबार के सिलसिले में कलकत्ता (अब कोलकाता), बंबई (अब मुंबई) आदि षहर आया—जाया करते थे। गुलाम सरवर खान का परिवार पूरी तरह से धार्मिक मुस्लिम परिवार था जिसके सदस्य दिन में पांच बार नमाज पढ़ते थे और षुक्रवार को पास की मस्जिद में ‘नमाज ए जोहर' के लिये जाते थे।

दिलीप कुमार का पूरा नाम मोहम्मद युसुफ खान रखा गया। वह अपने परिवार की पांचवी संतान एवं तीसरे पुत्र थे। युनुस खान की बड़ी बहन का नाम सकीना था जिन्हें बाद में आपाजी कहा गया। उनके बड़े भाई नूर मोहम्मद और अयूब थे। अयूब बचपन से ही अक्सर बीमार रहते थे। इस परिवार में चौथी संतान के रूप में जन्मी बच्ची की बचपन में ही मौत हो गयी। युसुफ के जन्म के बाद नासिर का जन्म हुआ जिन्होंने बाद में अपने दम पर अभिनेता के रूप में अपनी पहचान बनायी थी।

युसुफ खान को प्यार से ‘‘लाले'' कहकर बुलाया जाता था। बचपन में युसूफ इतने मोटे और भारी—भरकम थे कि वह बहुत धीमे—धीमे चलते थे। हर षुक्रवार को पूरा परिवार नमाज के लिये पास की मस्जिद जाते थे तो युसुफ के धीमे चलने के कारण परिवार के लोगों को मस्जिद तक पहुंचने में बहुत देर होती थी। ऐसे में उनके पिता मोटे युसुफ को अपने कंधे पर बिठा लेते थे।

मस्जिद पहुंच कर उनके पिता युसुफ को कंधे से उतार देते थे और वजू करते थे। जाड़े के दिनों में मस्जिद के पास की तालाब का पानी जम जाता था और ठंडे पानी में उतरने के लिये बर्फ को तोड़ा जाता था। जब ठंडे पानी से युसुफ का चेहरा धोया जाता था तो उनका चेहरा लाल हो जाता था और पूरी तरह सुन्न पड़ जाता था। कई बार फंटे ओंठ से खून रिसने लगता था। लेकिन नमाज और वजू के दौरान वह चेहरे पर कोई षिकन लाये बगैर अपने पिता का अनुपालन करते थे। इस दौरान चाहे वह पूरी तरह से आज्ञाकारी बने रहते थे, लेकिन बाकी मौकों पर वह अत्यंत षरारती थे।

उनके बचपन का एक पंसदीदा खेल अपने दादा हाजी मोहम्मद खान के पीठ पर चढ़ कर घोड़े की सवारी करना था। घोड़े को तेज दौड़ाने के लिये दादा की दाढ़ी को कस कर खींच लेते थे। उनके दादा अत्यंत अनुषासनप्रिय व्यक्ति थे और अपने परिवार के साथ कड़ाई से पेष आते थे। जब युसूफ के लिये घोड़ा बनने पर उन्हें घर की बुजुर्ग महिलाओं के सामने मजाक का पात्र बनना पड़ता था, लेकिन अपने पोते के लिये यह बर्दाष्त करते थे। एक दिन छोटे युसुफ ने दाढ़ी को जोर से खींच लिया और युसुफ की खुब पिटाई हुयी। इसके बाद तो घोड़े की सवारी का खेल बंद हो गया।

पेषावर में जाड़े के दिनों में जितनी ठंड पड़ती थी गर्मियों में उतनी ही अधिक गर्मी पड़ती थी और पारा 41 डिग्री सेल्षियस तक पहुंच जाता। ऐसे में दोपहर में घर की महिलायें बच्चों को लेकर मकान के तहखाने में चली जाती थी और दिन में कड़ी धूप रहने के दौरान सोती थी। लेकिन युसुफ सोना नहीं चाहते थे और वह चाहते थे कि षहर में हो रही ढेर सारी मजेदार घटनाओं को देखे। जब घर की औरतें गहरी नींद में सो जाती थी तब युसुफ चुपके से घर के बाहर निकल पड़ते थे और बाजार एवं मोहल्ले में घूमते रहते थे। वे पास के पेड़ों पर चोरी छिपे चढते थे और फल तोड़कर खाते थे।

पेषावर का यह षहर सीमा पर स्थित था। इस कारण भारत और अफगानिस्तान को जोड़ने वाली मुख्य सड़क पर हमेषा अजनबियों का जमावड़ा रहता था, जिनके बीच अक्सर झगड़े होते थे और कई बार ये झगड़ हिंसक रूप ले लेते थे। एक बार युसुफ ने दो पठान लडकों को लंबी लाठियों से को खास तरह का हिंसक खेल खेलते हुये देखा। वे एक दूसरे पर लाठियां बरसा रहे थे। दोनों के सिर और षरीर से खून निकल रहा था। उनके कपड़े खून से लथपथ हो गये थे। ये लड़के काफी समय से लड़ रहे थे। यह देखकर वह इतना डर गये कि भागकर अपने घर के तहखाना पहुंंच गये।

एक बार जब वह काबुल गेट स्थित अपने चाचा की दुकान से घर लौट रहे थे, तब सीटियां बनजे लगी और षोर उठने लगा। अचानक भगदड़ मच गयी और ब्रिटिष सैनिकों ने फायरिंग षुरू कर दी। वह एक घर की दीवार के पीछे छिप गये और कुछ देर तक वहीं छिपे रहे। इसी दौरान एक ब्रिटिष सैनिक ने उनका कॉलर पकड़ लिया और उनके चेहरे पर कई तमाचे जड़ दिये। युसुफ वहां से तेजी से घर की तरफ भाग गये।

एक बाद एक ट्रक ने एक पडोसी के तीन बेटों को कुचल दिया और पडोस में औरतें रो रही थीं। युसुफ की मां भी युसुफ को लेकर षोक में षामिल होने के लिये गयी। जब वे पहुंचे तब पुलिस वहां आ चुकी थी और षवों को पोस्ट मार्टम के लिये ले जाया जाना था — लेकिन इसके लिये पडोस के लोग तैयार नहीं थे। दोनों पक्षों में तनातनी हो गयी और मोहल्ले के लोगों ने हथियार निकाल लिये। पुलिस ने फायरिंग षुरू कर दी। युसुफ चने के लिये एक कमरे में पलंग के नीचे छिप गये। बाद में पुलिस ने इस कमरे को बाहर से बंद कर दिया था। जब झगड़ा दूर हो गया और सुलह हो गयी तब उन्होंने चारों तरफ देखा तो पाया कि उस कमरे में उसी बिस्तर पर तीन क्षत विक्षत षवों के बीच थे। इस घटना ने उन्हें अंदर तक हिला दिया।

पेषावर में उन दिनों हिंसा की घटनायें अधिक होने का एक कारण तो यह था कि पठान गर्म खून वाले होते हैं और तुरंत आपा खो बैठते हैं। इसके अलावा वह षहर सीमा पर था जहां हर तरह के लोग आते जाते रहते थे।

उन दिनों चाचा गनी बच्चों के बीच लोकप्रिय थे। सरवर खान पक बागों की देखभाल के लिये उन्हें रखा था क्योंकि वह खुद फल बेचने के लिये बाजार जाते रहते थे। एक दिन युसूफ ने चाचा गनी को एक पेड़ से बंधा हुआ पाया। दिन गुजरते गये और चाचा धनी कमजोर होते गये और एक दिन पेड़ से बंधे हुये ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उसके बाद बच्चे अकेले पड़ गये।

युसुफ जानना चाहते थे कि आखिर चाचा गनी ने ऐसा क्या किया था कि उन्हें ऐसी सजा दी गयी। कई सालों बाद उन्होंने इस बारे में विस्तार से बताया, — ‘‘मेरे दादा के बगीचों की देखभाल का काम मेरे एक मामा, जिनका नाम गनी मामा था, करते थे। मामा गनी एक अच्छे तंदुरुस्त जवान थे। ताकत उनमें इतनी थी कि दोनों कंधों पर एक—एक अच्छा सेहतमंद बच्चा बैठा लेते और काम में लगे रहते। बच्चों से उनको बड़ी मोहब्बत थी और बच्चे भी उनसे खासा प्यार करते थे। एक बार बच्चों ने पाया कि मामा गनी बड़ी—बड़ी जंजीरों में जकड़े हुए हैं। पागलों जैसा जुनून उन पर सवार है। पता नहीं क्यों बुदबुदा रहे हैं। मुझे देखा तो एकदम चिल्लाए, ‘यूसुफ, मेरी जान, मेरे बच्चे, यहां आ मेरे पास!' और उन्होंने दोनों हाथ फैला दिए जैसे उस छोटे युसुफ को वे अपने आगोष में समेट लेना चाहते हों।' दिलीप भाई ने बताया, ‘मैं आगे बढ़ा, मामा गनी के सीने में समा जाने के लिए कि उन्होंने मुझे दोनों बाजुओं से बुरी तरह जकड़ लिया। मैं चीख पड़ा, पर मेरी चीख—पुकार किसी ने किसी ने नहीं सुनी। मामा गनी चीखते ही रहे। बार—बार ‘यूसुफ, मेरी जान', ‘मेरे बेटे' की आवाज लगाते रहे, तब तक जब तक कि खुद निढाल होकर एक ओर लुढ़क नहीं गए। एक गफलत—सी उन पर तारी हो गई थी।

‘बाद में मैंने अपने दादा जी से पूछा कि मामा गनी को जंजीरों से जकड़कर क्यों रखा है? तो जवाब मिला, ‘यूसुफ, गनी अच्छा आदमी नहीं है,' फिर उन्होंने मुझे घुड़क दिया। धीरे—धीरे हम सब बच्चे मामा गनी से खौफ खाने लगे और उनकी तरफ जाना बंद कर दिया। मैं उस समय छोटा ही था। अकसर उनकी चीखों में अपने नाम की पुकार सुनकर रुक नहीं पाता था। चोरी—छिपे वहां पहुंच जाता और दूर से मामा गनी को अपनी मासूम निगाहों से ताकता रहता।'

‘‘अब्बा को जब मेरी इस हरकत का पता लगा तो वे बहुत नाराज हुए। एक दिन वे मुझे अपने साथ ले गए और जबरदस्ती मामा गनी की गोद में बैठा दिया। मामा गनी भी बार—बार ‘यूसुफ, मेरा बेटा' कहते और जोर—जोर से रोते जाते। मुझे ऐसे भींच लिया जैसे कंगाल को जमाने की दौलत मिल गई हो। खूब प्यार किया। बड़ी मुष्किल से मुझे उनसे अलग किया गया। हालांकि मामा गनी को अच्छी खुराक दी जाती थी, पर वे ढलते ही गए और एक दिन उनका इंतकाल हो गया।''

‘‘मेरे दादा जी पैदल हज करके आए थे। उन दिनों हज करना बड़े मायने रखता था। यही सबब था कि इलाके में सब उनके साथ बहुत इज्जत से पेष आते थे। दादा जी सुबह तीन बजे उठकर तहज्जुद की नमाज पढ़ते थे। उन दिनों मामा गनी दादा जी के साथ मुखिया थे और बागों की देखभाल के काम पर तैनात थे। नमाज पढ़ने के बाद दादा जी बगीचों का दौरा करते थे। दो—तीन बार के दौरों में जब उन्हें मामा गनी नहीं दिखाई पड़े, तब उन्होंने उनके बारे में पता लगाया कि आखिर वे जाते कहां हैं? यह भी षक हुआ कि जवान आदमी हैं, किसी गलत सोहबत में तो नहीं पड़ गए। पर किसी को कुछ पता नहीं था। एक दिन दादा जी ने मामा गनी को घेर लिया और पूछा, ‘कहां रहते हो तुम?' यह वो जमाना था कि बुजुर्गों के किसी सवाल के जवाब में झूठ नहीं बोला जाता था। मामा ने कहा, ‘आप मुझसे यह न पूछें कि मैं कहां जाता हूं। वैसे मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि आपके बगीचों से एक पत्ता भी आज तक चोरी नहीं हुआ है। चाहें तो आप जांच करा लें।' लेकिन दादा जी मामले की जड़ तक पहुंचना चाहते थे। उन्हें खुदा का वास्ता दिया, कसम दिलाई और उन्हें सच—सच कहने पर मजबूर कर दिया।'

‘‘मामा गनी ने जो कुछ बताया वह बड़ा हैरतअंगेज और खौफनाक था। रात होते ही मामा गनी एक घोड़े पर सवार होते और निकल जाते। मीलों का फासला तय कर लेते। तेरह—चौदह मील निकल जाने के बाद रास्ते में किसी दरख्त से घोड़ा बांध देते और फिर आगे जाते। पैदल, बड़ी दूर और जहां कोई अकेला आदमी दिखाई पड़ जाता, वहां मामा उस पर षेर की तरह झपट पड़ते और उसे दबोच लेते। फिर धीरे—धीरे उसका गला दबाते। गले से घर्र—घर्र की जो आवाज आती उसे सुनकर उन्हें खूब मजा आता। फिर किसी तेज धार वाले हथियार से उसके गले की नस काट डालते। गले से खून गिरने की जो षक्ल सामने आती और धीरे—धीरे चेहरा सफेद पड़ता जाता और फिर सिर एक ओर को लुढ़क जाता, यह सब देखकर उन्हें बड़ा सुकून मिलता। फिर तेज धार वाले औजार को पोंछकर वे अपनी जेब में रख लेते, घोड़े पर चढ़ते और लौट पड़ते। हर रात उन पर कोई ऐसा खौफ—सा बरपा हो जाता और वह बेबस, बस इस षक के साये में अपने षिकार की तलाष में निकल पड़ते। इस तरह उन्होंने कई आदमी हलाल कर डाले थे।''

‘दादा ने यह जुर्म—इकबाली सुनी और कहा, ‘तुम बहुत गंदे इंसान हो।' मामा गनी उस वक्त होषोहवास में थे। अपनी इस हैवानियत से वे खुद बहुत ज्यादा परेषान थे। उन्होंने खुद दादा जी से कहा कि कोई माकूल सजा उनके लिए तजवीजी जाए। दादा जी ने उनसे ही सजा तजवीज करने का कहा और फिर उनकी ही सलाह पर उन्हें रस्सी से जकड़ दिया गया। पर रात ढलते ही उन पर फिर वही जुनून सवार हो गया और उन्होंने रस्से तोड़ डाले। दूसरा कोई उपाय नहीं था। उनकी ही सलाह पर उन्हें मोटी—मोटी जंजीरों से जकड़ दिया गया। और अब चूंकि इंसान के खून की उनकी हवस पूरी नहीं होती थी, वे धीरे—धीरे घुलने लगे और एक दिन दुनिया से चल बसे।'

पेषावर का इस हिंसक माहौल ने उनके दिलो—दिमाग पर बहुत असर डाला और हो सकता है कि उनकी खास मानसिकता बनती। लेकिन किस्मत ने युसूफ को उस माहौल से दूर एक षांत माहौल में ले गयी। असल में एक दिन उनके छोटे भाई एक घोड़े से गिर गये और उनकी रीढ़ में बहुत चोट लगी। वहां के डाक्टरों ने सुझाव दिया कि उसे बंबई ले जाकर वहां के बड़े सर्जन डा. वी. एल. परमार को दिखाना चाहिये। बंबई के मशहूर क्राफोर्ड मार्केट में सरवर खान की फलों की एक दुकान पहले से थी और अक्सर वह बंबई जाते रहते थे। ऐसे में उन्हें परिवार के साथ बंबई में रहने का फैसला लेने में कोई दिक्कत नहीं हुयी।

जब सरवर खान 1930 के आसापस अपने परिवार को लेकर बंबई आये तब उस समय वह भारत की आर्थिक राजधानी बन चुकी थी और तेजी से सिनेमा की राजधानी बन रही थी। वह अपने परिवा के साथ क्राफोर्ड बाजार के पास मोहम्मद अली रोड के पास नागदेवी स्ट्रीट पर एक मकान में चौथे माले पर किराये पर रहते थे। उस समय भी मुंबई में हमेषा भीड़ भाड़ होती थी और भीड़—भाड़ में युसुफ की मां अएषा बेगम को बहुत दिक्कत होती थी।

यहां आने पर जब अयूब को डा. परमार से दिखाया गया तब उन्होंने कहा कि बंबई का नम वातावरण अयूब के षीघ्र स्वस्थ्य होने के लिहाज से ठीक नहीं है। यहीं नहीं यहां का वातावरण आयेषा बेगम के लिये भी ठीक नहीं था। सरवर खान को सुझाव दिया गया कि वह अपने परिवार को लेकर कोई षुश्क जगह पर चले जायें। सरवर खान ने तय किया कि नासिक से 65 किलोमीटर दूर देवलाली सबसे अच्छी जगह रहेगी जहां कई अच्छे स्कूल भी हैं। देवलाली ब्रिटिष आमी का षिविर था। यहां आर्मी के कई प्रतिश्ठान

जब यह परिवार देवलाली रहने गया तब युसुफ की उम्र आठ साल की रही होगी। यहां युसुफ का दिाखला प्रतिश्ठित बारनेस स्कूल में कराया गया। लेकिन वहां पढ़ाई से ज्यादा ध्यान फुटबाल खेलने पर रहा। उनके पिता को फुटबाल जैसा भाग — दौड़ और धक्का मुक्की वाला खेल पसंद नहीं था। वह चाहते थे कि युसुफ षतरंज जैसे दिमागी खेल पर अधिक ध्यान दे। यह खेल खान परिवार का पसंदीदा खेल था जबकि युसुफ फुटबाल खेलना चाहते थे। ऐसे में बीच का रास्ता यह निकाला गया कि युसुफ दोपहर बाद षतरंज खेलना षुरू करेगे। कुछ समय बाद युसुफ अपनी जगह पर अपने भाई को बिठायेंगे और फुटबाल खेलने चले जायेंगे और कुछ देर फुटबाल खेलने के बाद वापस अपने भाई की जगह पर षतरंज खेलेंगे। षतरंज में रूचि दिखाने के पिता के दवाब के बावजूद फुटबाल के प्रति उनके लगाव में जरा भी कमी नहीं आयी और आखिरकार स्कूल फुटबाल क्लब के सचिव बन गये।

उन्हीं दिनों युद्ध के बादल मंडराने लगे थे और देवलाली को सैनिक छावनी क्षेत्र में तब्दील कर दिया गया। ज्यादातर मकानों को सेना या सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया। इन मकानों में सरवर खान का बंगला भी षामिल था। ऐसे में परिवार ने देवलाली छोड़ना बेहतर समझा और यह परिवार 1937 में बम्बई लौट आया जहां बांद्रा के पाली माला रोड के एक मकान में रहने लगा। यह जगह उस जगह से ज्यादा दूर नहीं है जहां बाद में दिलीप कुमार ने बंगला खरीदा।

यहां युसुफ और उनके छोटे भाई नासिर को अंजुमन—ए—इस्लाम हाई स्कूल में दखिला दिलाया गया जो विक्टोरिया टर्मिनस (वी टी) स्टेषन (जिसे अब छत्रपति षिवाजी टर्मिनस कहा जाता है) के सामने स्थित था। यह स्कूल काफोर्ड मार्केट में सरवर खान की फलों की दुकान से भी ज्यादा दूर नहीं था। इस स्कूल की स्थापना बदरूद्‌दीन तैयबजी ने उर्दू माध्यम में मुस्लिम षिक्षा को बढ़ावा देने के लिये की थी। उस समय युसुफ की उम्र करीब 14 साल की रही होगी और मैट्रिकुलेषन की परीक्षा निकट थी, लेकिन युसुफ को परीक्षा की चिंता नहीं थी और वह क्लास से अधिक खेल के मैदान में रहते थे। यहां उनकी दोस्ती मुकरी से हुयी जिन्होंने बाद में दिलीप कुमार की अनेक फिल्मों में कामेडियन की भूमिका निभाई। मुकरी हालांकि युसुफ खान के सहपाठी नहीं थे बल्कि मुकरी के छोटे भाई सहपाठी थे।

मैट्रिकुलेषन के बाद युसुफ ने विल्सन कालेज में दाखिला लिया। उन्होंने पिता की इच्छा के अनुसार विज्ञान विशय लिया हालांकि वह साहित्य में आगे की पढ़ाई करना चाहते थे। हालांकि वह बहुत प्रतिभाषाली छात्र नहीं थे लेकिन अध्ययनषील छात्र थे। वह पेषावर, देवेलाली और बबई के बीच की दूरियाें को पाटना चाहते थे ओर इसलिये वह साहित्य सोसायटी में षामिल हो गये। उनके हाथ में जो भी किताब लग जाती, उसे पढ़ डालते थे। उनकी पढाकुपने के कारण उनकी अंगे्रजी में सुधार आता गया और उनके लेखों को अक्सर छात्रों के बीच उदाहरण की तरह पेष किया जाता था।

वह अत्यंत गंभीर किस्म के छात्र थे जो ज्यादातर समय अपने ही आप में मग्न रहते थे। अच्छी अच्छी होने तथा अलग—थलग रहने के कारण उनकी रूचि सिनेमा की तरफ बढ़ी और वह ज्यादातर हालीवुड की फिल्में देखते थे। हालांकि वह गंभीर प्रकृति के छात्र थे लेकिन इसके वाबजूद भी वह कालेज छोड़ कर दोपहर का षो देखने चले जाते थे। स्कूल में युसुफ का झुकाव खेलों, खास तौर पर फुटबाल की तरफ था। अभिजात माहौल वाला विल्सन कालेज उन्हें कालेज की तरफ से खेलने की इजाजत नहीं देता था इसलिये उन्होंने पेषेवर तरीके से फुटबाल खेलना षुरू किया। खालसा कालेज हर मैच खेलने के एवज में 15 रूपये देता था। उस इलाके के सिख टैक्सी ड्राइवर मैच में उन्हें खेलते देखने के लिये जमा होते थे और उनका उत्साह बढ़ाते थे। हालांकि इस खेल का ‘‘नाकारात्मक पहलू'' यह था कि इस खेल को देखने के लिये काफी संख्या में लड़कियां भी जुटती थी। दरअसल वह अत्यंत षर्मीले किस्म के थे और जब लोगों, खास तौर पर लड़कियों का ध्यान उनकी तरफ जाता था तो षर्मा जाते थे और इसलिये वह लोगों की निगाहों से बचने की कोषिष में लगे रहते थे। वह इतने षर्मीले थे कि क्लासरूम में अगर उन्हें लड़कियों की झुंड के बीच से होकर अपनी सीट तक जाना पड़े तो ऐसा करने के बजाय वापस चले जाना पसंद करते थे। लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि वह रोमांटिक नहीं थे। हालांकि उनके ज्यादातर रोमांष खामोष होते थे जो उनके मन में पनपते थे और मन में ही खत्म हो जाते थे। लड़कियों को षायद ही कभी पता लगता कि वह किसी के आर्कशण के केन्द्र में हैं।

उस समय न तो उन्हें और न ही उनके छोटे भाई नासिर को इस बात का कभी आभास था कि वे फिल्म स्टार बनेंगे, हालांकि नासिर फिल्मों में जाने का सपना देख रहे थे और इस बारे में कोषिष भी कर रहे थे जबकि दूसरी तरफ युसुफ अपने परिवार के फलते—फूलते फलों के कारोबार में ही हाथ बटाने और इसी के जरिये पैसे कमाने को ज्यादा इच्छुक थे।

उसी समय अनहोनी हो गयी। उसके पिता के व्यापार में गिरावट आने लगी। हालांकि वह विष्व युद्ध का समय था और समानों के कारोबार में लगे व्यापारियों को फायदा हो रहा था और सरवर खान के पास अत्यंत जरूरी सामान — फलों का कारोबार था। उस समय युद्ध के कारण मालों की ढुलाई में दिक्कत आने लगी थी, क्योंकि गाडियों को युद्ध की सामग्रियों की आपूर्ति के काम में लगा दिया गया था। सरवर खान एक समय हर दिन चार से पांच वैगन फल बेचते थे लेकिन अब वह एक सप्ताह में केवल दो वैगन फल बेच पा रहे थे और हर दिन के गुजरने के साथ कारोबार घटता जा रहा था। ऐसे में फल सड़ने लगे और इसलिये फलों का मुरब्बा एवं जैम बनाया जाने लगा। इसके बाद भी काफी फल बच जाते थे। और आखिरकार फलों को फेंकने के बजाय गांव के लोगों को बांटे जाने लगे। सरवर खान को अपने खुद के बागें में भारी घाटा हुआ क्योंकि वे ठेके पर उठाये गये थे।

युसुफ खान उन दिनों को याद करते हुये कहते हैं, ‘‘हमारे कारोबार को बेच दिया गया। इसी तरह से पेषावर तथा देओलाली में हमारे घरों को भी बेच दिया गया। सभी के गहने भी बेच दिये गये। हमने परिवार को अत्यंत संकट में देखा। हमारे पिता का कारोबार बहुत कम हो गया था और वे छोटे कारोबार, प्याज का कारोबार करने लगे, लेकिन उनका दिल उस काम में नहीं लगता था।''

ऐसे में युसूफ खान को अपने परिवार की रोजी—रोटी में मदद करने के लिये कुछ और करना पड़ा। कालेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ने के बाद युसुफ ने पूना में मिलिट्री कानट्रैक्टर वजीर मोहम्मद एंड सन्स के यहों सहायक मैनेजर के तौर पर नौकरी कर ली। उनका मासिक वेतन 36 रूपये था। वहां उन्होंने देखा कि ब्रिटिष अधिकारी फलों की अपनी टोकरी लेकर क्लब में प्रवेष करते थे। उन्होंने वहां फलों की एक दुकान खोलने के लिये कंपनी के मालिक से अनुमति ले ली और इसकी आज्ञा भी मिल गयी। पहले ही दिन उन्होंने 22 रूपये की आमदमी हुयी, जो उनके एक महीने के वेतन का करीब दो तिहाई हिस्सा था। जल्द ही उन्हें डांसिंग नाइट्‌स पर सैंडविच, चाय एवं काफी बेचने का अवसर मिला। उन्होंने इसके लिये आवेदन दिया और उन्हें इसकी भी अनुमति मिल गयी। जल्द ही वह हर महीने करीब एक हजार रूपये कमाने लगे। हालांकि उसी समय एक अध्यादेष आया जिसके तहत केवल सरकारी कांट्रैक्टर को ही आर्मी कैंटीन में सामन बेचने की अनुमति दी गयी थी। इस अध्यादेष के साथ ही युसूफ का काम बंद हो गया और ईद के दिन घर लौटना पड़ा लेकिन अपने साथ वह कई हजार रूपये लेकर आये।

घर लौटने के बाद युसूफ अपने पिता के कारोबार में हाथ बटाने लगे। लेकिन उस समय सरवर खान की उम्र अधिक हो गयी थी और वह कारोबार के सिलसिले में यात्रा करने में दिक्कत होनेे लगी थी और इसलिये युसूफ को सालाना ठेके के आधार पर फलों की खरीद के सिलसिले में हिमालय क्षेत्र खास तौर पर देहरादून और नैनीताल जाना पड़ता था। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात देविका रानी से करायी गयी जो निर्देषक अमिया चक्रवर्ती के साथ आयी थी। वह उन दिनों लबे—चौड़े पठान की तलाष में थी और युसूफ खान की कद—काठी देखकर लगा कि उनकी तलाष पूरी हुयी और उन्होंने युसूफ को मुंबई आकर उनसे मिलने को कहा। यह छोटी सी मुलाकात एक भव्य षुरूआत की आधारषिला बन गयी।

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युसुफ खान से दिलीप कुमार

युसुफ खान को ‘‘बम्बई टाकीज'' में नौकरी पर रख लिये जाने के बाद देविका रानी को उनका नाम बहुत ही बहुत ही परंपरागत लगा इसलिए एक सुविधाजनक स्क्रीन नाम की खोज षुरू हो गयी। युसुफ ने षुरू में ऐसा करने से मना करना चाहा लेकिन वह अपने कठोर पठान पिता की सोच के कारण, जिन्हें उनका ‘‘भांड'' के पेषे में जाना पसंद नहीं था, के कारण ऐसा नहीं कर पाये। उन दिनों फिल्म और थियेटर का करियर बहुत ही दकियानूसी माना जाता था। दिलीप कुमार को लगा कि स्क्रीन नाम के पीछे छिपकर फिल्मों में काम करना उनके लिए ठीक रहेगा और इसलिए उन्होंने नाम बदलने पर कोई आपत्ति नहीं की।

उस समय पंडित नरेन्द्र षर्मा स्टुडियो में लेखक थे और उन्होंने तीन नामों का विकल्प सबके सामने रखा— वासुदेव, जहांगीर और दिलीप कुमार। युसुफ को जहांगीर नाम पसंद आया लेकिन स्टुडियो में कहानी और स्क्रिप्ट लेखक के तौर पर काम करने वाले साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने दिलीप कुमार के नाम का सुझाव दिया क्योंकि वे जानते थे कि देविका रानी गुप्त रूप से अषोक कुमार को हटाने के लिए उसी तरह के नाम वाले षख्सियत की तलाष कर रही हैं। देविका रानी इस नाम के लिए राजी हो गयी।

1970 में बीबीसी पर महेन्द्र कौल को दिये गये एक साक्षात्कार में नाम बदले जाने पर पूछे जाने पर कहा, ‘‘पिटाई के डर से यह नाम रखा। मेरे वालिद फिल्मों के सख्त खिलाफ थे। उनके बहुत ही अजीज दोस्त दीवान बशेश्वरनाथ कपूर थे और जिनके साहबजादे पृथ्वीराज कपूर थे जो फिल्मों में एक्टिंग किया करते थेे। वह अक्सर बशेश्वरनाथ जी से बड़ी शिकायत करते रहते थे कि यह क्या कर रखा है कि तुम्हारा इतना अच्छा नौजवान और सेहतमंद लड़का देखो ये क्या काम करता है। मैं जब फिल्मों में आया तो मुझे खौफ था कि अगर मेरे वालिद को जब यह मालूम होगा तब बहुत नाराज होंगे। उस समय मेरे सामने दो—तीन नाम रखे गये — युसुफ खान, दिलीप कुमार, वासुदेव आदि। मैने कहा कि मेरा नाम युसुफ मत रखियेगा, बाकि जो दिल में आये रख दीजिये। बाद में दो तीन महीने बाद जब इश्तिहार में अपना नाम देखा तो मालुम हुआ कि मेरा नाम दिलीप कुमार हो गया है।''

‘‘बम्बई टाकीज'' में कैरियर की षुरूआत करने के लिये नाम बदलना तो आसान था लेकिन ‘‘बम्बई टाकीज'' में काम करना आसान नहीं था जहां बहुत अधिक सख्ती थी और बहुत ज्यादा अनुषासन था और लेकिन यह जरूर है कि वहां से किसी को निकाला नहीं गया था। इसके अलावा यहां काम करने के दौरान दिलीप कुमार ने एक्टिंग, फिल्म और यहां तक कि अपनी जिंदगी के बारे में भी बहुत कुछ सीखा। वहां फटा—पुराना ड्रेस या भड़कीली कमीज पहनने पर तुरंत डांट पड़ती थी। स्टुडियो के वातावरण के बारे में कुछ सालों के बाद दिलीप कुमार ने कहा था, ‘‘बम्बई टाकीज'' से एक युवा कलाकार के तौर पर जुड़ने पर मैंने पाया कि मुझे उस संस्थान की लाइब्रेरी से काफी पढ़ने की जरूरत है जहां 14 हजार पुस्तकें थीं। मुझे सामान्य पहनावे पहनने थे और अपने व्यवहार को सामान्य रखना था। इसके अलावा उस समय के बेहतरीन साहित्यिक लोगों की संगत में रहना था। उस समय ऐसे कई प्रसिद्ध लोग थे जो सिनेमा में अपनी षुरूआत कर रहे थे।''

नौजवान कलाकारों से हर रोज स्टुडियो आने की उम्मीद की जाती थी चाहे सेट पर उनकी जरूरत हो या नहीं। किसी भी प्रकार की गलती करने पर उनके वेतन से 100 रूपये की कटौती कर ली जाती थी। एक दिन दिलीप कुमार ने हॉकी खेलने और राजकपूर के साथ मेट्रो में मैटिनी देखने का निर्णय लिया। इंटरवल के दौरान वह चाय पीने के लिए बाहर आये और उनकी नजर देविका रानी पर पड़ी। देविका रानी भी लेडी इनाक्षी रामा राव (फिल्म निर्माता मोहन भवनानी की अभिनेत्री पत्नी), बेगम जमषेदजी (उद्योगपति जेआरडी टाटा की पत्नी) और पूरे जीजीभाई परिवार के साथ फिल्म देखने आयी थीं। दिलीप कुमार उन्हें देखकर भौचक्का रह गये लेकिन देविका रानी ने उन्हें षांत भाव से बुलाया और उन लोगों से उनका परिचय ‘‘काम के पाबंद नौजवान'' के रूप में कराया। उन्होंने अपने ड्राइवर को बुलाया और उसे कहा, ‘‘साब को स्टुडियो छोड़ के आओ''। दिलीप कुमार को पूरा विष्वास था कि उन्हें माफ कर दिया गया है लेकिन अगले महीने की पहली तारीख को जब उनका वेतन मिला तो उसमें 100 रूपये काट लिये गये थे।

इस घटना के बार में दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘ऐसे ही एक बार सिनेमा देखने पर फाइन हुआ। राज को और मुझे सिनेमा देखने का बहुत षौक था। हम दोनों अकसर सिनेमा देखने निकल जाते। राजकपूर और मेरे षौक में यह फर्क था कि वह अलग—अलग मूवी देखते थे और मैं एक ही मूवी को तीन—तीन बार लगातार देखता था, यह जानने के लिए ऐसा क्या है जो दूसरे एक्टर कर सकते हैं, मैं नहीं कर सकता। देविका रानी को मालूम पड़ा तो उन्होंने मुझसे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन राजकपूर से जरूर पूछा, ‘तुम अक्सर फिल्म देखने जाते हो क्या? क्या रोज सिनेमा देखते हो?' मैं बहुत खुष हुआ कि चलो मेरी जान छूटी। मैं बच गया। किंतु जब मैं हॉल से बाहर निकला तो मेरे आष्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। सामने देविका रानी खड़ी थीं। उनके साथ कई लोग थे। उन्होंने सबसे मेरा परिचय कराया। मेरे काम की भी बहुत तारीफ की। मैं बहुत खुष था। पर जब पिक्चर दोबारा षुरू हुई तो देविका रानी ने ड्राइवर को बुलाया और कहा, ‘साहब को स्टूडियो ले जाओ!' महीने के आखिर में जब तनख्वाह मिली तो उसमें से सौ रुपए काट लिये गये थे।''

एक और उदाहरण यह है कि एक बार अषोक कुमार जब सेट पर थे तब उनका सिगरेट खत्म हो गया और उन्हें सिगरेट पीने की जोर से तलब थी। उस समय ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो स्टूडियो से बाहर जाकर उनके लिये सिगरेट खरीद कर लाता। अषोक कुमार जानते थे कि देविका रानी के आफिस में सिगरेट का एक पैकेट है लेकिन वह वहां जाकर पैकेट से एक सिगरेट निकालने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि वह पहले ऐसा करते हुये कई बार पकड़े गये थे। अपने गुरू की मदद करने की इच्छा से दिलीप कुमार ने देविका रानी के आफिस से जाकर एक सिगरेट लेकर आ गये। दिलीप कुमार को इस बात का पक्का विष्वास था कि उन्हें सिगरेट निकालते हुये किसी ने नहीं देखा है लेकिन जब महीना पूरा होने पर वेतन मिला तो उसमें 100 रूपया कम था। देविका रानी को न केवल यह पता था कि किसने उनके आफिस से सिगरेट निकाला है बल्कि यह भी पता था कि किसके लिये सिगरेट निकाला गया हैं।

‘‘बम्बई टाकीज'' के समय की बात करते हुए एक बार दिलीप कुमार ने बताया— ‘हम जब वहां काम करते थे तो भड़कीली पोषाक बुषर्ट पहनकर पहुंच जाते तो सौ रुपए फाइन हो जाता था। अगर गंदी या खराब बुषर्ट होती थी तो हिदायत मिलती, ‘कल से ढंग के कपड़े पहनकर आना और कपड़े साफ—सुथरे हों।' पोषाक पर ही नहीं, आदतों पर भी ध्यान दिया जाता था। एक बार मैंने देविका रानी जी के सिगरेट—पैकेट से एक सिगरेट निकाल ली। उन्हें सिगरेट पीने की बहुत आदत थी। साहब, मुझ पर सौ रुपए का जुर्माना कर दिया गया, पर यह जुर्माना सिगरेट निकालने के लिए नहीं किया गया था। उन्होंने मुझसे पूछा, ‘तुम आदतन सिगरेट पीते हो क्या?' मैंने जवाब दिया, ‘नहीं।' उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम आदतन नहीं पीते हो तो आज क्यों पी रहे हो? इसलिए तुम पर फाइन किया गया है कि आदत न पड़े।' आज एक्टर के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है — सोचने के लिए किसके पास वक्त है?'

दिलीप कुमार ने मई 1942 को ‘‘बम्बई टाकीज'' स्टूडियो में पहली बार कैमरे का सामना किया तक वह 19 साल पांच माह के थे। इस फिल्म का निर्देषन अमिया चक्रवर्ती कर रहे थे जिन्होंने सुपरहिट फिल्म बसंत का भी निर्देषन किया था और इस फिल्म की सफलता ने उन्हें उस समय के प्रमुख युवा निर्देषकों की कतार में खड़ा कर दिया। अमिया चक्रवर्ती के जूनियर अस्टिेंट उस समय के प्रमुख स्टार के सबसे छोटे पुत्र थे जो चाहते थे कि उनका पुत्र फिल्मी दुनिया में अपने कैरियर की षुरूआत सबसे निचले स्तर से षुरू करे। दिलीप कुमार उन्हें न केवल अच्छी तरह से जानते थे बल्कि कालेज के दिनों में एक साथ फुटबाल भी खेले थे। दरअसल दिलीप कुमार के पिता उस लड़के के दादा लाला बसेष्वर नाथ के बहुत अच्छे दोस्त थे। उसका नाम राज कपूर था जो न केवल फिल्मों में अभिनय करना चाहता था बल्कि फिल्मों के लिये लिखना, फिल्मों का निर्माण करना एवं निर्देषन करना भी चाहता था।

दिलीप कुमार बहुत अधिक षर्मीले थे। किसी लड़की का आमना—सामना होते पसीना छूट जाता था इसलिये क्लास में लड़कियों का सामना होने से बचने के लिये क्लास छोड़कर ही भाग जाते थे। लेकिप उन्हें पहली फिल्म ज्वार भाटा में उस समय की प्रमुख अभिनेत्री मृदुला के साथ सहनायक की भूमिका दी गयी थी। और इस फिल्म के लिये पहले षाफट में उन्हें भागकर हिरोइन को बचाना था। दिलीप कुमार पहली बार कैमरे का सामना होने के अनुभव के बारे में बताते हैं, ‘‘पहले दिन जब मैं कैमरे के सामने आया, तो बहुत घबराया हुआ था। वहां बैठे लोगों ने कहा, तुम्हें यहां से वहां तक भाग कर जाना है, क्योंकि तुमको पता चला है कि तुम्हारी नायिका षायद आत्महत्या करने जा रही है। तुम दौड़ो और उसे बचाओ। तुम्हे तेज दौड़ना होगा। मैं दौड़ पड़ा। मैंने सच में 100 मीटर की रेस लगायी। मैं दौड़ते हुए उन लोगों के सामने से निकल गया। उन्होंने तुरंत कट कहा। मैंने पूछा, क्या हुआ। उन्होंने कहा, तुम बहुत तेज भाग रहे हो, कैमरे को तुम्हें पकड़ने में दिक्कत हो रही है। मैं थोड़ा धीमे भागा, फिर भी उन्होंने कहा कि अभी भी तुम तेज भाग रहे हो। मुझे लगा कि मैं तो कैमरे के सामने बहुत ही अच्छा हूं क्योंकि वह मुझे पकड़ ही नहीं पा रहा है। फिर यह भी लगा कि क्या हीरोइन को बचाने के सीन में आदमी आहिस्ता—आहिस्ता भागेगा? खैर मैं दौड़ा। दौड़ कर आने के बाद मुझे हीरोइन को पकड़ना था। मैं दौड़ता पर हीरोइन के बाजुओं को पकड़ नहीं पाता। ऐसा कई बार हुआ। मुझे उसके बदन को पकड़ने में झिझक आ जाती थी। वे लोग बोलते थे कि बराबर से पकड़ो। मैं जी अच्छा तो कह देता था, फिर से कोषिष करता, लेकिन पकड़ नहीं पाता था। ऐसा तीन से चार बार हुआ। मुझे खुद में काफी अपमानित महसूस हुआ। मैं सोच रहा था कि ये लड़की ही तो है। फिर वह लड़की भी मेरा मजाक उड़ाने लगी कि तुमसे पकड़ा नहीं जाता। एक बार फिर मैं दौड़ते हुए आया और उसे पकड़ लिया। अपने डायलॉग बोले। जब मैंने उसे छोड़ा तो लड़की ने कहा, इतनी जोर से पकड़ लिया आपने। मैंने कहा कि आप सभी तो कह रहे थे बचाना—बचाना है। मैं जब वहां से वापस आया, तो महसूस किया कि यह तो बहुत कठिन काम है।''

बाद में जब बम्बई टाकीज में उन्होंने अपनी जगह बना ली और अषोक कुमार के साथ दोस्ताना बन गये तब एक दिन अपने षर्मीलेपन का जिक्र उनके सामने किया, ‘‘जब मैं अपनी हिरोइन को छूता हूं तो मैं इतना नर्वस हो जाता हूं कि मेरे हाथ ठंडे हो जाते हैं। अपने कैरियर के षुरू में इसी तरह की समस्या का सामना करने वाले अषोक कुमार ने इसका समाधान बताया, ''एक काम करो। षॉट से पहले अपने हाथ को आपस में खूब रगड़ों ताकि हथेलियां गर्म हो जाये। मैं हमेषा ऐसा करता हूं।''

ज्वारभाटा को बनने में असमान्य रूप से काफी लंबा वक्त लगा और आखिरकार बम्बई में बाम्बई टाकीज से जुड़ी मैजेस्टिक टाकीज में 29 नवम्बर, 1944 को रिलीज हुयी। लेकिन दर्षकों की प्रतिक्रिया ठंडी रही। इसका एक कारण यह था कि उसी समय सहगल की फिलम तानसेन और षांताराम की फिल्म षाकुंतलम चल रही थी और दोनों फिल्मों को बॉक्स आफिस पर षानदार सफलता मिल रही थी। इसके अलावा उस समय की प्रसिद्ध अभिनेत्री नसीम बानो, जो बाद में दिलीप कुमार की सास बनी, की फिल्म चल चल रे नौजवान भी हिट साबित हो रही थी। ऐसे में ज्वार भाटा को दर्षकों की खास प्रतिक्रिया नहीं मिली। बम्बई में यह फिल्म करीब 20 सप्ताह चली और उस समय के लिहाज से इस फिल्म ने सिल्वर जुबली नहीं मना सकी क्योंकि सिल्बर जुबली के लिये किसी फिल्म को एक ही थियेटर में लगातार 25 सप्ताह चलना जरूरी था। टाइम्स आफ इंडिया ने 9 दिसंबर, 1944 को इस फिल्म की समीक्षा में लिखा कि इस फिल्म में ऐसे कुछ सर्वश्रेश्ठ अभिनय दृष्य हैं जो कई सालों तक सिनेमा के पर्दे पर देखे गये हैं। हालांकि फिल्म इंडिया ने इस फिल्म की आलोचना की और खास तौर पर दिलीप कुमार की। आज ज्वार भाटा को केवल दिलीप कुमार की पहली फिल्म के रूप में जाना जाता है। ज्वार भाटा के बहुत अधिक सफल नहीं होने के बावजूद उन्होंने दर्षकों की बीच अपनी पहचान बनायी। इसका सबूत दिलीप कुमार को कामेडियन मुकरी के साथ मुंबई लोकल से मलाड जाते समय हुआ। जिस डिब्बे में दिलीप कुमार और मुकरी बैठे थे, उस डिब्बे में दो यूरोपियाई लड़कियां चढी और उन्होंने दिलीप कुमार को पहचान लिया। इनमें से एक लड़की ने मुकरी के पास जाकर उनकी कान में धीमे से पूछा, ''क्या आपके बगल में जो बैठे हैं फिल्म स्टार दिलीप कुमार हैं।'' मुकरी ने उस लड़की को जवाब दिया, ‘‘हां, ये दिलीप कुमार हैं।''

हालांकि दिलीप कुमार ने यह समझ लिया कि मुकरी उन लड़कियों से छेड़खानी कर रहे थे और उन लड़कियों के ट्रेन से उतरने के बाद मुकरी को समझाया कि इंसान को सभ्य, संयमित एवं मर्यादित व्यवहार रखना चाहिये।

इसके कुछ ही समय बाद ही दिलीप कुमार को बम्बई टाकीज की एक ओर फिल्म प्रतिमा में काम करने को मिला जिसका निर्देषन उस समय के मषहूर अभिनेता जयराज कर रहे थे। इस फिल्म में मुकरी भी काम कर रहे थे ओर दोनों को एक ही मेकअप रूम दिया गया था। हालांकि दोनों एक दूसरे को कालेज के दिनों से ही जानते थे लेकिन उन्हें आपस में बहुत अधिक समझने का मौका इससे पहले नहीं मिला था। बहुत बाद में मुकरी ने दिलीप कुमार के बारे में बताया, ‘‘दिलीप कुमार बहुत ही संकोची किस्म के व्यक्ति थे और वह जो करते थे उसे लेकर बहुत सर्तक होते थे, जबकि मैं बहुत नटखट था। जब उन्हें मेरी कोई हरकत पसंद नहीं आती थी तो गुस्से में मेरे सामान मेकअप रूम से बाहर फेंक देते थे।

लेकिन दोनों के व्यवहार में इतने बड़े अंतर के बावजूद दोनों एक दूसरे के बहुत करीब थे और यही कारण है कि दिलीप कुमार की बाद की फिल्मों में मुकरी निष्चित रूप से कोई न कोई भूमिका में होते थे।

प्रतिमा दिलीप कुमार की दूसरी फिल्म थी जबकि मुकरी की पहली फिल्म थी। इस फिल्म में दिलीप कुमार को उनकी तुलना में अधिक स्थापित हिरोइन स्वर्णलता के साथ मुख्य भूमिका निभानी थी। स्वर्णलता एम सादिक की संगीतमय फिल्म रतन की हिरोइन थी। यह फिल्म हिट रही थी। प्रतिमा की कहानी मषहूर साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने लिखी थी। प्रतिमा का निर्माण ज्वार भाटा की तुलना में कम समय में हो गया और यह फिल्म बम्बई में 21 जुलाई 1945 को रिलीज हुयी और ज्वार भाटा की तरह यह फिल्म भी हिट नहीं हुयी। इस फिल्म के प्रचार में कहा गया था कि ‘‘दिलीप कुमार की दूसरी भूमिका आपके दिमाग में पहले रहेगी।''

उन्हीं दिनों देविका रानी बम्बई टाकीज छोड़कर बेंगलूर जाकर रहने लगी जहां उन्होंने रूसी मूल के पेंटर स्वेतस्लोव रोरिख से षादी के बाद मकान बनाया था। देविका रानी के जाने के बाद षिराज अली हाकीम ने मुंबई टाकीज का जिम्मा संभाला, जो फेमस सिने लेबोरेट्रिज के बिल्डर थे तथा उनके मुंबई के महालक्ष्मी में स्टूडियो थे। दिलीप कुमार केा 1942 में बम्बई टाकीज के लिये नियुक्त करने वक्त मुख्य भूमिका निभाने वाले हितेन चक्रवर्ती ने प्रोडक्षन का जिम्मा संभाला और वह स्टूडियो के दिन—प्रतिदिन के कामकाज का संचालन करने लगे। फिल्मों के लगातार फ्‌लाप होने के कारण अपनी प्रतिश्ठा खो रही बम्बई टाकीज को नया जीवनदान देने के लिये उन्होंने न्यू थियेटर के निदेषक तथा प्रसिद्ध सिनेमाटोग्राफर नितिन बोस को एक फिल्म बनाने के लिये आमंत्रित किया और उन्हें मनचाहे विशय पर मनचाहे तरीके से फिल्म बनाने की आजादी दी। नितिन बोस ने फिल्म बनाने के लिये 1906 में लिखी रविन्द्र नाथ टैगोर की प्रसिद्ध कहानी ‘‘नौकाडूबी'' को चुना । यह फिल्म बंगला में मूल षीर्शक से बनी जबकि हिन्दी में इस फिल्म को ‘‘मिलन'' नाम से बनाया गया। इस फिल्म की पटकथा एवं अन्य लिखित सामग्रियां तैयार करने के बाद कलाकारों का चुनाव करना था। इस फिल्म की मुख्य अभिनेत्रियों मीरा मिश्रा और मीरा सरकार के समक्ष मुख्य अभिनेता की भूमिका निभाने के लिये नितिन बोस प्रसिद्ध बंगाली कलाकार अभी भट्‌टाचार्य को लेकर आये। लेकिन सेट पर जब पता चल गया कि हिन्दी में उनका उच्चारण फिल्म की मुख्य भूमिका के लिहाज से सही नहीं है तब हितेन चौधरी ने इस भूमिका के लिये

दिलीप कुमार का नाम सुझाया लेकिन नितिन बोस को दिलीप कुमार के नाम पर संदेह था क्योंकि दिलीप कुमार की पहली दोनों फिल्में कोई खास नहीं कर पायी। लेकिन पहले ही रिहर्सल के बाद नितिन बोस ने दिलीप कुमार के नाम पर मुहर लगा दी। हिन्दी फिल्म के लिये मीरा षंकर की भूमिका के लिये मराठी अभिनेत्री रंजना को लाया गया। राधू करमाकर जो बाद में राज कपूर के स्थायी कैमरामैन बने, ने इस फिल्म के साथ सिनेमाटोग्राफर के रूप में अपने कैरियर की षुरूआत की।

मिलन 14 जून 1947 को मुंबई में रिलीज हुयी और इस फिल्म के जरिये उन्होंने बेहतरीन अभिनेताओं की सूची में अपना नाम दर्ज करा लिया।

इस फिल्म में दिलीप कुमार की भूमिका में स्पश्ट निखार देखा गया और इसका कारण नितिन बोस का मंजा हुआ निर्देषन था। संभवत नितिन बोस ही वह पहले निर्देषक थे जिन्होंने दिलीप कुमार को स्वभाविक अभिनय सिखाया और उन्होंने ही दिलीप कुमार के भीतर के अभिनेता को उभारा। यही कारण है कि मिलन के समय से ही दिलीप कुमार नितिन बोस के प्रषंसक बन गये।

हालांकि मिलन को उस समय व्यावसायिक रूप से बहुत सफलता नहीं मिली और इसका कारण यह था कि उसका मुकाबला अनमोल घड़ी, षहनाई ओर सिन्दूर जैसी हिट फिल्मों से था।

इस फिल्म के बाद दिलीप कुमार ने कुछ समय तक अभिनय में निखार लाने पर ध्यान लगाया और कुछ अंतराल के लिये पर्दे से गायब रहे। इस दौरान उन्होंने हालीवुड की फिल्मों को ध्यान से देखना षुरू किया, जिनके वे फैन रहे थे। पाल मुनी, स्पेंसर त्रेसी, हेनरी फोर्ड, जेम्स स्टेवार्ट, जान गीलगुड, इंग्रिड बर्गमैन, विवीन लेघ और लाना टरनर जैसे अभिनेताओं के अभिनय की षैली को आत्मसात करने के लिये बार—बार उनकी फिल्मों को गहराई से देखते थे।

मिलन के निर्माण के दौरान निर्माता—निर्देषक षंकर हुसैन रिजवी ने दिलीप कुमार को एक फिल्म का प्रस्ताव दिया था। यह फिल्म थी — जुगनू, जिसमें उनकी हिराइन की भूमिका प्रसिद्ध गायिका—अभिनेत्री नूरजहां को निभाना था। हितने चौधरी ने युवा दिलीप कुमार को यह स्वीकार करने की सलाह थी क्योंकि ऐसा करने से उन्हें ‘‘बाहर'' की फिल्म में काम करने का मौका मिलेगा। उस समय बम्बई टाकीज के साथ दिलीप कुमार का तीन साल का अनुबंध फिल्म मिलन के बन जाने के साथ खत्म होने वाला था और वह किसी अन्य कंपनी के साथ काम करने या फ्रीलांस आधार पर काम करने को स्वतंत्र थे।

जुगनू 2 अक्तूबर, 1948 को रिलीज हुयी और यह फिल्म हिट रही। हालांकि फिल्म इंडिया जैसी फिल्मी पत्रिकाओं ने इस फिल्म की खूब आलोचना की और इसे गंदी, अष्लील एवं बेकार फिल्म बताया। फिल्म इंडिया ने इस फिल्म की समीक्षा की अग्रिम कापी बम्बई के गष्ह मंत्री मोरारजी देसाई के पास भेजी और उन्होंने उसी महीने इस फिल्म को प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि कई माह बाद इस फिल्म पर से प्रतिबंध हट गया लेकिन तब तक इस फिल्म के गीत व्यापक रूप से लोकप्रिय हो चुके थे और इस फिल्म पर से प्रतिबंध हट गया तो यह फिल्म अत्यधिक सफल रही, लेकिन तब तक नूरजहां ने नवनिर्मित देष पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया था और जुगनू दिलीप कुमार से साथ उनकी पहली और आखिरी फिल्म रही।

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स्टारडम की राह पर

दिलीप कुमार के लिए 1948 का साल ऐतिहासिक रहा। यह उनके उनके लिए पहला सफल साल साबित हुआ। उसके बाद 1948 से 1961 तक सिर्फ 13 साल में ही उन्होंने 31 फिल्मों में अभिनय किया जो उनके 47 साल के पूरे करियर में की गयी फिल्मों से आधा से भी थोड़ा अधिक ही है। पढ़ाई के दौरान उनकी चार फिल्में रिलीज हुईं जिनमें से तीन फलॉप हुईं और एक विवादास्पद रूप से हिट हुई। इन फिल्मों के लिए उनके लिए निरुत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया आयी ‘‘वह जितना अच्छा कर सकता था, उससे कमतर करने की कोषिष की।'' यह करियर बनाने के लिए काफी नहीं था! लेकिन उनके भाग्य ने करवट बदली और बहुत जल्द उनके प्यार की खबरें आने लगी। तब तक जुगनू की सफलता के बाद वे कई फिल्में साइन कर चुके थे।

जुगनू की सफलता के बाद दिलीप कुमार ने जो फिल्में साइन की, उनमें से तीन फिल्मों का करार फिल्मीस्तान के साथ हुआ जिसकी स्थापना राय बहादुर चुन्नीलाल और सषाधर मुखर्जी ने 1942 में बॉम्बे टॉकीज छोड़ने के बाद की थी। सषाधर मुखर्जी के षाले और दिलीप कुमार के दोस्त और बॉम्बे टॉकीज के सलाहकार अषोक कुमार बॉम्बे टॉकीज के कुछ अन्य सहयोगियों के साथ गोरेगांव के फिल्मीस्तान का हिस्सा थे। भारतीय सिनेमा के पहले ‘‘प्राकृतिक'' अभिनेता एक बड़े स्टार बनने के लिए तैयार थे। हालांकि उन्होंने फिल्मों में मुख्य भूमिका करना जारी रखा। सषाधर मुखर्जी को प्रोडक्षन का कंट्रोलर का पद भार दिया गया। उनका नाम बड़े निर्माताओं में षुमार किया जाता था और उनके नाम कई हिट फिल्में थीं। दोनों ही सांस्कृतिक रूप से पढ़े—लिखे थे और उन्हें फिल्मों का ऐसा सहज ज्ञान और फिल्मों की ऐसी असामान्य समझ थी जिसे दर्षक देखना चाहते थे।

फिल्मीस्तान की पहली तीन फिल्मों में से पहली फिल्म जो कि दिलीप की भी उस साल की पहली रिलीज थी : षहीद। इसकी व्याख्या 1942 के संघर्श के बैकग्राउंड के साथ एक रोमांटिक स्टोरी के रूप में की गयी। इसके रिलीज पर फिल्म इंडिया ने लिखा, ‘‘इस फिल्म में बहुत ही अच्छा रोमांटिक ड्रामा है लेकिन 1942 का आंदोलन कहां है?'' इसके बावजूद, रमेष सहगल द्वारा लिखित और निर्देषित षहीद वास्तव में सही समय पर सही फिल्म थी। सहगल ने खुद अपना करियर लाहौर में पंचोली आर्ट प्रोडक्षन के साथ एक क्लैपर बॉय के रूप में षुरू किया था और वहां काम करते हुए सहायक निर्देषक बन गये। विभाजन के बाद वह बॉम्बे आ गये इंदर राज आनंद के सह लेखक के रूप में पृथ्वी थियेटर के लिए स्टेज नाटक दीवार लिखा। षहीद उनकी दूसरी फिल्म थी लेकिन वह 1950 के दषक के एक बड़े फिल्म निर्माता बन गये।

इस फिल्म में महिला की मुख्य भूमिका में प्रतिभावान और खुबसूरत न्युकमर कामिनी कौषल थी जिन्होंने एक साल पहले ही चेतन आनंद की नीचा नगर से अपने करियर की षुरुआत की थी। नीचा नगर पहली भारतीय फिल्म थी जिसने केन्स समारोह में कई मुख्य अवार्ड प्राप्त किया। अत्यधित षिक्षित, सुसभ्य और संभ्रांत परिवार में जन्मी उमा सूद (नी कष्यप) लाहौर में लेडी मेकलैगन स्कूल और एमिली किनायर्ड कॉलेज की प्रतिभावान छात्रा थी। वह मैट्रिक में पहले नंबर पर और बैचलर ऑफ आर्ट्‌स परीक्षा में तीसरे नंबर पर आयी थी। वह अपने स्कूल और कॉलेज की ड्रामेटिक सोसायटी की एक सक्रिय सदस्य और लाहौर में एक प्रसिद्ध रेडियो कलाकार भी थीं। अपने षर्मीले स्वभाव और बिखरे हुए बालों के बावजूद दिलीप कुमार एक हैंडसम और सौम्य पुरुश थे। दोनों ही कलाकार एक तरह से नये ही थे जिन्होंने षहीद से पहले कुछ ही फिल्मों में काम किया था लेकिन इस फिल्म से उन्होंने अब खुद को व्यक्तिगत रूप से स्थापित और मजबूत कर लिया। पर्दे पर उन दोनों की जोड़ी पूरी तरह से मेल खाती थी।

पर्दे के पीछे वे दोनों पूरी तरह से और परिणाम की परवाह किये बगैर प्यार में पड़ चुके थे। कामिनी कौषल जाने—माने वनस्पति विज्ञान विषेशज्ञ एस। आर। कष्यप की बेटी थीं जो इंडियन साइंस कांग्रेस के अध्यक्ष और विभाजन से पहले पंजाब विष्वविद्‌यालय के डीन थे। कामिनी कौषल जब दिलीप कुमार के संपर्क में आयी तब वह षादीषुदा थीं। कामिनी कौषल की बड़ी बहन की मौत तपेदिक के कारण हो गयी थी। वह अपनी बड़ी बहन को बहुत प्यार करती थी और अपनी बहन की दो बेटियों को पालने के लिये अपनी बहन के पति ब्रह्‌मस्वरूप सूद से हो गयी पोर्ट ट्रस्ट के उच्च रैंक के अधिकारी। बड़ी बहन की दो बेटियाें की देखभाल और भविश्य को देखते हुए ही उनकी षादी की गयी। इतनी बड़ी जिम्मेदारी के बावजूद उन्होंने खुद को खतरे में डाला।

दिलीप कुमार और कामिनी कौषल जल्द ही षादी करना चाहते थे। लेकिन सेना में काम करने वाले कामिनी कौषल के भाई ने दिलीप कुमार को बंदूक दिखाकर मारने की धमकी दी। उनके भाई का मानना था कि उनकी बहन ने अगर दिलीप कुमार से षादी कर ली तो उनकी स्वर्गवासी बहन की बेटियों को पालने में दिक्कत आयेगी। कामिनी कौषल अपने परिवार के दवाब तथा अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण दिलीप कुमार से षादी नहीं की।

इसके अलावा कामिनी कौषल के साथ उनकी दोस्ती में उस समय बाधा आयी जब षहीद की षूटिंग के दौरान ही 27 अगस्त 1948 कों दिलीप कुमार की माता आयषा बेगम का निधन हो गया। दो साल के बाद उनके पति सरवार खान का निधन हो गया। दोनों को देवलाली में दफनाया गया। इस तरह दिलीप कुमार के माता—पिता उन्हें उस उंचाई पर पहुंचते नहीं देख सके जिसे दिलीप कुमार ने कुछ ही सालों में पा लिया था। दिलीप की बड़ी बहन सकीना (जो आपाजी के नाम से जानी जाती थी) परिवार की मुखिया बन गयी।

दिलीप कुमार और कामिनी कौषल की पर्दे पर पर्दे के पीछे की दोस्ती के अलावा फिल्म के मुख्य अंष में दिलीप कुमार और उनके पर्दे के पिता चंद्रमोहन के बीच का मुकाबला भी चर्चा का विशय बन गये। चंद्रमोहन बहुत ही हैंडसम हरी आंखों वाले कलाकार थे और उनकी बहुत प्रतिश्ठा थी। एक बार उन्होंने दावा किया था कि यदि वे अपना कोट सेट पर छोड़ देंगे तो वह भी अभिनय करने लगेगा। यह किसी भी अभिनेता के लिए काफी प्रेरणादायक होना चाहिए जिसने अपना सर्वश्रेश्ठ योगदान दिया, वैसा अभिनेता जिसने हर फिल्म के साथ खुद में सुधार करने को उत्सुक रहा और इस तरह उसने भारतीय फिल्म की प्रकष्ति में बदलाव लाया।

उस समय फिल्म इंडिया ने दिलीप कुमार के प्रदर्षन की काफी तारीफ की। उसने लिखा ‘‘जहां तक अभिनय का संबंध है, दिलीप कुमार ने अपने किरदार को गहराई से महसूस किया है और वे मुख्य भूमिका में पूरी तरह से ढल गये हैं। संवेदनषीलता और खामोष रहना उनकी एक्टिंग की खास विषेशताएं हैं।

उम्मीद के अनुसार इस फिल्म ने षानदार सफलता हासिल की। फिल्म का देषभक्ति का विशय, देष की स्वतंत्रता के को लेकर लोगों में उत्साह फिल्म की सफलता का मुख्य कारण था। पूरे देष में दिलीप के साथ चंद्रमोहन के दृष्य की चर्चा हुई। जब चंद्रमोहन राय बहादुर के रूप में अपने विद्रोही बेटे को बचाने के लिए कोर्टरूम में प्रवेष करते हैं और उसके ब्रिटिष से संबंध को पब्लिक में उजागर करते हैं तो दर्षकों का चेहरा खुषी से खिल उठता है। इस फिल्म में कामिनी कौषल के साथ उनके प्रेम प्रसंग को भी दर्षकों ने उतना ही पसंद किया। फिल्म इंडिया ने लिखा कि ‘‘उन दोनों ने कुछ ऐसे नाजुक, सबसे अंतरंग और सबसे चलायमान प्यार के सीन दिये जैसा भारतीय पर्दे पर पहले कभी नहीं देखा गया था।''

षहीद की सफलता के बाद उसी साल उन्होंने एक अन्य बहुत ही हिट फिल्म दी। यह फिल्म वाडिया मूवीटोन की मेला थी जिसमें उनके साथ नरगिस थी और उसके बाद वह एक बड़े स्टार बन गये। मेला विभाजन के बाद बनी और इसकी कहानी भी विभाजन के बाद की ही थी। संगीत निर्देषक नौषाद और निर्देषक एस। यू। सनी अतिरिक्त सुरक्षा के लिए समुद्र के पास वर्ली में एक अपने आलीषान बंगले में रुके हुए थे। श्रीमती हिला वाडिया ने सलाह दी कि जे।बी।एच। नौषाद के साथ एक फिल्म बनायें जो संगीत के क्षेत्र में पहले से ही एक बड़े स्टार थे। नौषाद इच्छुक थे लेकिन उन्होंने निर्देषक के रूप में एस। यू। सनी के नाम की सलाह दी। यह भी निर्णय लिया गया कि सनी फिल्म के निर्माता होंगे। सह भी हो सकता है कि सनी वास्तव में निर्माता थे और मुस्लिम के खिलाफ विभाजन के बाद का अपना गुस्सा निकालने के लिए वाडिया की छत्रछाया चाहते हों। एस। यू। सनी ने आजम बजीदपुरी को कहानी लेखक के रूप में लिया जिन्होंने 1950 के दषक में दिलीप अभिनीत कई फिल्मों को लिखा।

इस फिल्म की बुनियादी बातों को सुव्यवस्थित किये जाने के बाद नरगिस को मुख्य भूमिका निभाने के लिये साइन किया गया और अभिनेता की भूमिका निभाने वाले किसी युवा एवं ताजगी भरे नये चेहरे की तलाष होने लगी। यह तलाष दिलीप कुमार पर जाकर खत्म हुयी और मेला का निर्माण षुरू हो गया। कई साल बाद दिलीप कुमार ने बताया कि उन्हें मेला के लिये कैसे साइन किया गया। वह कहते हैं, ‘‘चूंकि इस फिल्म के नायक का चुनाव सबसे बाद में किया जाने वाला था। उससे पूर्व इस फिल्म की सभी बातों को अंतिम रूप दे दिया गया—खास तौर पर संगीत को। सन्नी ने इस फिल्म के बारे में मुझे कुछ नहीं बताया। उन्होंने मुझे इस फिल्म का केवल एक गीत सुनाया। यह गीत था — मुकेष और षमषाद बेगम का गाया हुआ — मेरा दिल तोडने वाले। इस गीत से मैं बंध गया। मैंने बिना सोचे इस फिल्म को केवल इस लिये साइन कर लिया क्योंकि मुझे यह गीत अत्यधिक पसंद आया। लेकिन आगे कभी मैंने ऐसा नहीं किया।

चूंकि इस फिल्म में काम करने वाले ज्यादा कलाकार मुस्लिम थे, इलिसये यह सोचा गया कि इसकी षूटिंग परेल स्थित वाडिया स्टुडिया (अब राजकमल स्टूडियो) में नहीं की जाये। इसलिये पूरी यूनिट को फेमस सीने लेबोरेट्रिज एंड स्टुडियोज में ले जायेगा गया, जिसका संचालन जगमोहन रूंटटा कर रहे हैं। उस साल मेला के गीत हिट रहे और साथ ही साथ इस फिल्म ने गोल्डन जुबली मनाया और जब महारानी एलिजाबेथ द्वितीय 1954 में दक्षिण पष्चिम एषिया के दौरे पर भारत आयी तब उन्हें भी यह फिल्म दिखायी गयी।

मेला ने दिलीप कुमार एक महत्वपूर्ण स्टार के रूप में स्थापित कर दिया। इसके अलावा इस फिल्म ने नौषाद, सन्नी और दिलीप कुमार को भी एक साथ लाया और इन तीनों ने आगे कई फिल्में बनायी। इस फिल्म ने अजीम बाजीदपुरी को अग्रिम पंंक्ति के पटकथा एवं संवाद लेखक के रूप में स्थापि कर दिया जिन्होंने आने वाले वर्शों में दिलीप कुमार के लिये कई हिट फिल्मों की पटकथा लिखी। इस फिल्म ने नरगिस और दिलीप कुमार की फिल्मी जोड़ी बनायी। हालांकि दानों वास्तविक जीवन में जोड़ी नहीं बना सके लिये इन्होंने छह से अधिक फिल्मों में काम किया। इस फिल्म के कारण दिलीप कुमार को उस समय की सबसे अधिक हिट फिल्म में काम करने का मौका मिला क्योंकि नौषन ने फिल्म अंदाज के त्रिकोण में दिलीप कुमार को एक कोण के रूप में रखने का सुझाव दिया।

एक हिट फिल्म के बाद नौषाद और उनसे थोड़ा जूनियर दिलीप कुमार अच्छे दोस्त बन गये और दिलीप कुमार के घर पर नौषाद का आना—जाना होने लगा।

उस साल के अंत में फिलमिस्तान की दूसरी फिल्म ‘‘नदिया के पार'' रिलीज हुयी जिसका निर्देषन किषोर साहू ने किया था। किषोर साहू एक कुषल अभिनेता भी थे जिनकी अभिनेता के रूप में पहली फिल्म ‘‘जीवन प्रभात'' 1937 में रिलीज हुयी जिसमें देविका रानी अभिनेत्री थी। वह मंजे हुये कथाकार थे और तकनीकी रूप से कुषल निर्देषक थे। निर्देषक के रूप में नदिया के पार उनकी सातवीं फिल्म थी। नदिया के पार फिल्म की कहानी गांव के एक युवक—युवती की प्रेम कहानी थी जो मिलते हैं, जिनके बीच प्यार हो जाता है और उनका गांव के नदी में त्रासदीपूर्ण अंत हो जाता है। यह पहली फिल्म थी जिसमें दिलीप कुमार की फिल्म के अंत में मौत दिखायी जाती है।

यह फिल्म हिट रही और कालेज के छात्रों को यह फिल्म बहुत पसंद आयी। कामिनी कौषल और दिलीप कुमार की जोड़ी जम गयी। फिल्मी पर्दे के बाहर दोनेां के बीच के प्यार के किस्से भी उड़ने लगे जिसने इस जोड़ी को और लोकप्रिय बना दिया।

उस समय तक उनकी तीन फिलमें लगातार हिट हो चुकी थी और अब उन्हें पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं थी। वह स्टारडम की राह पर चल पड़े थे।

वर्श 1949 में दिलीप कुमार की एक और फिल्म ‘‘घर की इज्जत'' रिलीज हुयी। फैमिली मेलोड्रामा से भरे इस फिल्म में दिल्ीप के लिये अभिनय की षायद ही कोई जगह थी। यह फिल्म अनपढ़ सांस (गुलाब) और पढ़ी लिखी बहु (मुमताज साहनी) के बीच झगड़े के बीच फंस कर अभिनेता षराब का सहारा लेने लगता है।

उसी साल एक और फिल्म ‘‘अनोखा प्यार'' रिलीज हुयी जिसमें दिलीप कुमार के साथ उन दिनों की मषहूर अभिनेत्रियां थी — नरगिस और नलिनी जयवंत। इस फिल्म का निर्देषन बम्बई टाकीज के उनके सहयोगी रहे एम आई धरेमेसे जबकि कहानी एवं पटकथा जिया षरहाडी ने लिखी थी जो फुटपाथ एवं हमलोग जैसी फिल्मों के जरिये 1950 के आरंभ में निर्देषन में भी हाथ आजमाया था। बाद में वह पाकिस्तान और फिर लंदन चले गये। इस फिल्म में वही घिटा—पिटा प्रेम त्रिकोण था जिसमें कोई नयापन नहीं था। संघर्शषील लेखक एक अमीर लड़की के प्यार में पड़ जाता है लेकिन आखिकार उसे असली प्यार फूल बेचने वाली एक गरीब लड़की के साथ होता है।

दिलीप कुमार ने अपने पूरे फिल्मी कैरियर में नलिनी जयवंत के साथ केवल दो फिल्मों में काम किया था, लेकिन बाद में उन्होंने उन्हें याद करते हुये कहा कि उन्होंने जिन अभिनेत्रियों के साथ काम किया उनमें से वह सर्वश्रेश्ठ थी।

कामिनी कौषल के साथ उनकी एक और फिलम षबनम थी। फिल्मीस्तान के साथ उन्होंने जिन तीन फिल्मों में काम किया था उनमें से यह आखिरी थी। कामिनी कौषल और दिलीप कुमार की जोड़ी की मौजूदगी इस फिल्म के हिट होने की गारंटी थी। दोनों के बीच के प्रेम पं्रसगों के उड़ने वाले किस्सों ने इस फिल्म को हिट बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फिल्मी पत्रिका ‘‘फिल्म इंडिया'' ने इस फिल्म की समीक्षा में लिखा था, ‘‘दोनों के बीच प्रेम के दृष्य वास्तविकता का अहसास कराते हैं और ऐसा लगता है कि दोनों कलाकार प्रेम दृष्यों से आनंदित होते हैं।''

इस फिल्म के एक दष्ष्य में जब कामिनी कौषल एक लड़के का पोषाक पहन कर दिलीप कुमार के सामने आयी तब दिलीप कुमार ने उनकी आंखों में गहराई से झांकते हुये कहा, ‘‘टैगोर ने कहा था — तुम्हारी अखें दो निली झीलें हैं और मैं उन में डूब, डूब जाना चाहता हूं।'' यह लाइनें पूरे भारत और पाकिस्तान में खूब लोकप्रिय हुयी थी और युवक इन लाइनों का खूब जिक्र करते थे। ये लाइनें भाविश्य में लिखे जाने वाले रोमांटिक संवादों के लिये आधारषिला भी साबित हुयी।

इस फिल्म का निर्देषन बिभूति मित्रा ने किया था जो बर्मा पर जापानी कब्जे की पष्श्ठभूमि में बनायी गयी थी। इस पष्श्ठभूमि के बावजूद इस फिल्म में मनोरंजन के पूरे मसाले थे। इसमें ग्यारह गीत थे और ढेर सारे नष्त्य थे। यह उन दिनों के हिट फार्मूला था और जिस थियेटर में यह फिल्म रिलीज होती दर्षक फिल्म देखने के लिये टूट पड़ते। हालांकि इस फिल्म ने दिलीप कुमार की प्रतिश्ठा में कोई इजाफा नहीं कर सकी लेकिन सफल फिल्मों की सूची में निष्चित ही जुड़ गयी। इस फिल्म के बाद वह स्टार बनने की राह पर चल पड़े।

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‘‘अंदाज'' से बदला अंदाज

हिन्दी सिनेमा के स्वर्ण युग की एक महत्वपूर्ण फिल्म अंदाज 21 मार्च, 1949 को बम्बई के लिबर्टी सिनेमा घर में रिलीज हुयी थी। यह उस समय की सबसे आधुनिक फिल्म थी। यह फिल्म आज तक की महत्वपूर्ण फिल्मों में षुमार है और आज कई बातों के लिये जानी जाती है। सन्‌ 1949 में महबूब खान ने मेला और षहीद के जरिये फिल्मी दुनिया में स्थापित हो चुके दिलीप कुमार को पहली बार फिल्म अंदाज के जरिये राज कपूर और नरगिस के साथ काम करने का मौका दिया और अंदाज को आषातीत सफलता मिली और दिलीप कुमार भारतीय सिनेमा के ट्रेजेडी किंग के नाम से जाने जाने लगे। इस फिल्म के बाद पहली बार मोहम्मद रफी को राजकपूर की आवाज के रूप में और मुकेष को दिलीप कुमार की आवाज के रूप में इस्तेमाल किया गया। अंदाज ने फिल्म निर्माण की धारा ही बदल दी। फिल्म ‘अंदाज' के बाद बरसों साल प्रेम त्रिकोण पर आधारित फिल्में बनती रहीं, जिसकी चरम परिणति राज कपूर की ‘संगम' फिल्म में हुई। आज भी इस विशय पर फिल्में बनती रही। इस फिल्म में पहली बार दिलीप कुमार ने एंटी हीरो की भूमिका निभाई। यह फिल्म की कहानी को आधार बनाकर षाहरूख खान अभिनीति डर फिल्म बनी जो सुपर हिट रही।

अंदाज में दिलीप (दिलीप कुमार) धनी एवं आजाद ख्याल वाली नीना (नरगिस) को घोड़े पर से गिरने से बचाते हैं और इसके साथ ही दोनों मे दोस्ती हो जाती है। दिलीप कुमार नर्गिस पर फिदा हो जाते हैं, तभी राजेन (राज कपूर) की एंट्री होती है। राज कपूर और नर्गिस पहले से एक—दूसरे से मुहब्बत करते हैं। उस दौर के नजरिए से इसे एक बोल्ड फिल्म कहा जा सकता है, क्योंकि चालीस के दषक में दर्षक किसी एक हिंदुस्तानी औरत की जिंदगी में एक साथ दो पुरूशों की मौजूदगी को स्वीकार करने के लिए मानसिक और सामाजिक रूप से तैयार नहीं थे। इसके बावजूद बेहतरीन तकनीक, यादगार संगीत और षानदार अदाकारी के दम पर यह फिल्म कामयाब रही।

अंदाज एक अर्थ में दिलीप कुमार के कैरियर का मील का पहला पत्थर साबित हुआ। हालांकि इस फिल्म से पहले भी उन्होंने अनेक फिल्मों में बेहतरीन अभिनय किया और इससे पहले भी उनकी कई फिल्में हिट रही लेकिन इस फिल्म में उन्हें स्टार का जो दर्जा और रूतबा हासिल हुआ, उससे पहले अन्य फिल्मों से नहीं हुआ। इस फिल्म ने उन्हें एक महत्वपूर्ण प्रतिभाषाली ऐतिहासिक कलाकार के रूप में स्थापित कर दिया। यही वह फिल्म थी जिससे दिलीप कुमार के नाम के साथ पूरे कैरियर के लिये ट्रेजिडी िंंकग का विषेशण जुड़ गया। कहने की जरूरत नहीं कि इसके बाद दिलीप कुमार को पीछे मुड़कर देखने की जरूरत नहीं पड़ी।

यह फिल्म महबूब खान के लिये भी निर्णायक मोड़ साबित हुयी। अंदाज से पहले की महबूब खान की फिल्में विषुद्ध रोमांटिक एवं संगीतमय फिल्में होती थी, मिसाल के तौर पर अनोखी अदा और अनमोल घड़ी आदि। हालांकि ये फिल्में व्यावसायिक तौर पर काफी सफल रही थी, लेकिन महबूब अपनी फिल्मों को आधुनिक स्वरूप एवं अर्थ देना चाहते थे और अंदाज की सफलता ने उनके लिये ऐसा करने का रास्ता खोल दिया। सभंवत उन्होंने देष को मिली आजादी के बाद देष भर में उत्पन्न उत्साह के माहौल को देखते हुये ऐसा प्रयोग करने को सोचा होगा। इसके पीछे एक कारण उनकी कुछ समय पूर्व हुयी हालीवुड की यात्रा भी हो सकता है। इस यात्रा के दौरान सेसिल डीमिले जैसे षीर्श फिल्मकार, जिसे महबूब खान अपना आदर्ष मानते रहे थे, उन्होंने उन्हें सिनेमा का एक बेहतरीन उदाहरण बताया था।

उस समय भारत में फिल्म उद्योग बदलाव के दौर से गुजर रहा था। पुराने स्टार पर्दे से धीरे—धीरे गायब हो रहे थे जबकि नये चेहरे अपनी पहचान बना रहे थे। नयी तकनीकों का इस्तेमाल हो रहा था और फिल्मों की कहानियां भी बदल रही थी। नयी फिल्म के लिये महबूब की कहानी और पटकथा तैयार थी और वह इसे हालीवुड की परम्पराओं के अनुसार पेष करना चाहते थे। महबूब इस फिल्म के लिये नये चेहरों को लेना चाहते थे, लेकिन ऐसे भी नहीं कि अनुभवहीन हों। उन्होंने नरगिस को इस फिल्म के लिये इस लिये साइन किया क्योंकि उन्होंने ही नरगिस को फिल्म तकदीर में पहला मौका दिया था और अब वह सफल स्टार बन चुकी थी। नरगिस ने राजकूपर को फिल्म में रखने का सुझाव दिया, जिनके साथ वह फिल्म आग में काम कर चुकी थी। दिलीप कुमार को इस फिल्म में रखने का सुझाव संगीतकार नौषाद ने दिया जो मेला में काम करने के दौरान उनसे बहुत प्रभावित हो चुके थे। हालांकि महबूब खान ही वह फिल्मकार थे जिन्होंने फिल्म मिलन में दिलीप कुमार को रखने के सुझाव का विरोध किया था। यहां तक कि उन्होंने हितेन चौधरी से कहा था, ‘‘तुम्हें अपने स्तर पर एक फिल्म बनाने का मौका मिला है, लेकिन मै समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों तुम एक नये अभिनेता को लेकर खतरे मोल ले रहे हो।'' यह 1945 की बात थी। उसके बाद से कई चीजें बदल चुकी थी और 1948 में जब नौषाद ने दिलीप कुमार को फिल्म में रखने का सुझाव दिया, उससे पहले दिलीप कुमार को मेला और षहीद जैसी फिल्मों में सफलता मिल चुकी थी। लेकिन इस बार भी महबूब के स्थायी कैमरामैन फरदूम ईरानी इस सुझाव से सहमत नहीं थे। जब फिल्म की षूटिंग के लिये दिलीप कुमार पहले दिन सेट पर आये तब ईरानी ने महबूब खान से कहा, ‘‘ यह बंदर कौन है।'' हालांकि दिलीप कुमार ने बाद में भी महबूब की कई फिल्मों में काम किया लेकिन वह फरेदूम ईरानी का दिल नहीं जीत सके और दिलीप कुमार के प्रति उनकी नापसंदगी आगे भी जारी रही।

लेकिन दिलीप कुमार ने अंदाज के प्रमुख स्टार के रूप रखे जाने को अपने काम से सही साबित किया। फिल्म पत्रिका ‘‘फिल्म इंडिया' ने अंदाज में दिलीप कुमार के अभिनय को अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्षन बताते हुये लिखा, ‘‘महबूब के निर्देषन में दिलीप कुमार ने अपने अभिनय को व्यापक पैमाने पर सुधार लाया। दिलीप कुमार ने अपने सामान्य प्रदर्षन से उपर उठते हुये निराष प्रेमी दिलीप की भूमिका में चंचल एवं चपल भूमिका की है। उसने अपनी दबी हुयी भावनाओं पर विजय के लिये जिस तरह के संघर्श को परिचय दिया है वह ऐतिहासिक कला का बेहतरीन नमूना है।। यह दिलीप कुमार का अब तक का महानतम प्रदर्षन है।''

मुंबई के लिबर्टी सिनेमा घर में अंदाज ने 28 सप्ताह के दौरान सात लाख रूपये की कमाई की जो कि एक रेकार्ड था। यह फिल्म क्लासिक फिल्म का दर्जा पा गयी और यह फिल्म संकट से जूझ रहे महबूब एवं उनके कलाकारों के लिये वरदान साबित हुयी। दिसंबर, 1949 के अंक में फिल्म इंडिया ने लिखा था, ‘‘फिल्म का प्रीमियर जब होना था उससे एक सप्ताह पहले महबूब की मां का निधन हो गयी, जिसके कारण फिल्म का प्रीमियर टाल दिया गया। महबूब के छोटे भाई की मोटरसाइकिल दुर्घटना में मौत हो गयी। इवैक्यूई अधिसूचना के कारण बांद्रा में महबूब के मकान (बाद में जो महबूब स्टूडियो बन गया) को अटैच कर लिया गया। इस अधिसूचना के कारण महबूब को षरणार्थी धोशित किया गया था। नरगिस की मां का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। दिलीप कुमार पर गुंडों ने वर्ली में हमला किया।‘‘ यह भविश्य के क्लासिक फिल्म की पूर्वपीठिका थी।

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ट्रेजडी किंग का सृजन

फिल्म अंदाज भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ और इस प्रक्रिया में नरगिस, राज कपूर और दिलीप कुमार बड़े स्टार बन गये। लेकिन दिलीप कुमार के लिए अब यह एक समस्या बन गयी क्योंकि अब उन्हें अपनी पहले की इमेज से बाहर निकलना था। वास्तव में, उनकी हर फिल्म के रिलीज से पता चलता है कि उनकी हर अगली फिल्म उनकी स्टार वैल्यू को बढ़ाती चली गयी। आरजू ऐसी फिल्म थी जिसने उनके करियर में कोई योगदान नहीं दिया। इस फिल्म के निर्माता हितेन चौधरी थे और इसे षाहिद लतीफ ने निर्देषित किया था। यह फिल्म लतीफ की पत्नी इस्मत चुघतई की कहानी पर आधारित थी, जो इतिहास के पन्नों में खो गयी।

यदि आरजू को आज याद किया जाता है तो वह इस कारण कि इसने दिलीप कुमार की छवि को एक पीड़ित प्रेमी के रूप में समाहित किया जो सामाजिक प्रतिश्ठा के दबाव में अपनी प्रियतमा को खो देता है। यह इमिली ब्रोंटे क्लासिक वुथेरिंग हाइट्‌स पर आधारित पहली फिल्म थी जिसमें दिलीप कुमार ने हेथक्लिफ की भूमिका की थी, जो एक अनाथ था और जिसे एक धनी भूस्वामी ने लाया था और जो भूस्वामी के बेटे के घष्णा और आतंक के साये में बड़ा हुआ था लेकिन उसकी बेटी उससे प्यार करती थी। इस्मत को इस कहानी में दिलीप कुमार ने संभावित रूपांतरण करने की सलाह दी थी क्योंकि वह सर्वोच्च कोटि के पाठक भी थे।

हालांकि इस सीन के पीछे, अन्य उत्कष्श्ठ कहानी का विकास भी होता रहा। हितेन चौधरी ने कामिनी कौषल को मुख्य भूमिका के लिए साइन किया लेकिन उन्होंने उन्हें षाहिद लतीफ और इस्मत चुघतई को यह बताने से मना कर दिया कि इस फिल्म के लिए दिलीप कुमार को साइन किया जा चुका है। दिलीप कुमार और कामिनी कौषल का अफेयर तीन फिल्म पुरानी थी और जगजाहिर हो चुकी थी, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता था कि यदि वे प्यार में असफल हो जाएंगे तो क्या होगा। दरअसल कामिनी एक षादीषुदा महिला थीं और उनके पति बी।एस। सूद एक सहनषील पुरुश थे। वह इस बात से अनजान नहीं थे कि फिल्म के बारे में क्या बातें की जा रही है। इस्मत याद करते हुए कहती हैं, ‘‘निर्माता दिलीप कुमार और कामिनी कौषल को साइन करने से डरे हुए थे क्योंकि उन्हें इस बात को लेकर डर था कि जब उनका प्यार ठंडा पड़ जाएगा तो कहीं फिल्म का भी अंत न हो जाए।''

इस्मत और षाहिद दोनों ही काफी समझदारी के साथ काम कर रहे थे कि आरजू उनकी जोड़ी की आखिरी फिल्म होगी। एक दिन लोकेषन पर एक बड़े बरगद के पेड़ के छाये में इस्मत ने कामिनी को उनके दिलीप कुमार के साथ संबंध पर लंबी बातचीत करने के लिए बुलाया। वह अपनी पारिवारिक जिंदगी को छोड़कर दिलीप कुमार के साथ षादी करने को तैयार थीं। इस्मत ने उन्हें उनके इस काम का सामाजिक परिणाम के बारे में बताकर ऐसा बड़ा कदम उठाने से रोका। कामिनी हतोत्साहित हो गयी हालांकि इस्मत अपनी बोल्ड छोटी कहानियों के कारण एक सामाजिक विद्रोही के रूप में जानी जाती थीं लेकिन वह कामिनी कौषल को कम से कम नैतिक सहारा देना चाहती थीं।

एक दिन जब फिल्म अपने आखिरी पड़ाव पर थी और कुछ अंतरंग दष्ष्यों को फिल्माया जाना था, कामिनी अपनी माता और भाई के साथ आयीं। उनका भाई पूरे मिलिट्री यूनिफार्म में था और उसकी बेल्ट के साथ एक पिस्टल भी लगा हुआ था। इसमें कोई संदेह नहीं था कि वे अच्छे इरादे से नहीं आये थे। दिलीप के लिए बंदूक कोई नयी बात नहीं थी। अफवाह यह उड़ी कि उनकी पहली हीरोइन मष्दुला (ज्वार भाटा) के पति भी सेट पर आ गये जब उन्होंने नये हीरो के उनकी पत्नी के साथ उभरते हुए रोमांस के बारे में सुना। उसके बाद यह भी अफवाह उड़ी कि दिलीप उनके क्रोध से बचने के लिए लेडीज क्लॉक रूम में छिप गये।

उस समय यह संकेत ही काफी था। इसके बाद कामिनी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। आरजू रिलीज हो गयी और इसने ठीक—ठाक व्यवसाय कर लिया। फिल्म इंडिया ने इस्मत चुघतई की हिंदू विवाह के आध्यात्मिक षुद्धता का अनादर करने के लिए निंदा की। रिव्यू में कहा गया, ‘‘यह आरजू का घृणित पहलू है जिसने इस फिल्म को लोकप्रिय नहीं होने दिया और यह बॉक्स— ऑफिस पर असफल हो गयी। षाहिद लतीफ का निर्देषन अनाड़ी किस्म का है।'' तथ्य यह था कि उनका अफेयर अपने अंतिम चरण में था जो कलाकारों के व्यवहारों में झलकता था। ‘‘कलाकारों में में से, कामिनी कौषल जो हीरोइन की भूमिका कर रही थीं, ने उत्साह से भरा हुआ अच्छा अभिनय किया। हालांकि उनका विचारात्मक कार्य प्रभाव उत्पन्न करने में असमर्थ रहा। दिलीप कुमार ने बादल की भूमिका बहुत ही उदासीनता के साथ किया। वह उस स्थिति से मीलों दूर दिखाई दिये यहां तक कि तब भी जब कामिनी उनके बिल्कुल करीब बैठी थी।''

दिलीप कुमार और कामिनी कौषल ने उसके बाद कभी एक साथ काम नहीं किया और इस तरह चार फिल्मों में साथ काम करने के बाद वे दोनों एक साथ कभी नहीं लाये। फिल्म इतिहास में दिलीप कुमार—कामिनी कौाल के रोमांस का एक और अध्याय जुड़ गया, जिसके बारे में कहा गया कि इससे प्रेरित होकर 1960 के दषक में गुमराह फिल्म बनी जिसके निर्माता—निर्देषक बी।आर। चौपड़ा थे। चौपड़ा तो यहां तक चाहते थे कि उस फिल्म में दिलीप कुमार प्रेमी की भूमिका करें लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इस फिल्म को करने से मना कर दिया, ‘‘इस फिल्म में प्रेमी को गंभीर नहीं दिखाया गया हैं।'' यह फिल्म बाद में सुनील दत्त, माला सिंहा और अषोक कुमार को लेकर बनी और यह अब भी हिंदी सिनेमा के सदाबहार हिट में से एक है।

चीजें काफी हद तक व्यक्तिगत स्तर पर हो रही थीं क्योंकि उनकी अगली चार फिल्में नरगिस के साथ थी, जो इस मामले में भावनात्मक और पेषेवर रूप से आर। के। फिल्म्स बैनर के प्रति प्रतिबद्ध थीं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि दिलीप कुमार पूरी तरह से पेषेवर थे। हाल ही में टूटे हुए दिल ने अंदाज की सफलता के बाद की गयी भूमिकाओं में ईंधन डालने का काम किया। मेला की भारी सफलता को भुलाया नहीं गया और इस फिल्म में मुख्य खिलाड़ी— नौषाद, एस।यू।सनी और आजम बाजीदपुरी एक अन्य कहानी के साथ आये : बाबुल, जो एक ग्रामीण पोस्टमास्टर की कहानी है जो दो लड़कियों के प्यार में जकड़ा हुआ है, एक षहर की धनी लड़की है जिससे वह प्यार करता है और दूसरी लड़की जो उसके लिए खाना बनाती है और उसके घर की सफाई करती है और उससे प्यार करती है।

दिलीप कुमार एक रीढ़हीन पोस्टमास्टर की भूमिका दी गयी जिसकी जिंदगी त्रासदी में खत्म होती है क्योंकि वह अपनी पसंद को बहुत स्पश्ट ढंग से व्यक्त नहीं कर पाता है। यह फिल्म भी काफी हिट रहीे और फिल्म इंडिया ने इस पिक्चर के द्वारा लंबी छलांग लगाने के लिए दिलीप कुमार की प्रषंसा की, ‘‘ दयनीय दरिद्रता वाला चोटग्रस्त रीढ़हीन प्रेमी जो न तो दिलेरी से प्यार को स्वीकार कर सकता है और न ही उसमें यह कहने की हिम्मत है कि वह क्या चाहता है। यह एक कठिन कार्य था लेकिन दिलीप कुमार ने इस भूमिका को आसानी से चित्रित किया और यादगार बना दिया कि एक ही आदमी अपनी निजी जिंदगी में एक ही क्षण जोष और कुंठा के साथ किस तरह रहता है।''

चंदूलाल षाह एक असामान्य कहानी के लिए दिलीप कुमार को साइन करना चाहते थे जो उनके दिमाग में थी : एक आवारा आदमी, एक नास्तिक, संगीत का अत्यधिक दीवाना, संगीत का मजा लेने के लिए नाचने वाली लड़कियों के घरों में जाने के लिए बदनाम। एक बार जब वे अपने गांव गये तो मंदिर में एक जोगन को भजन गाते हुए सुना। वह उस जोगन को देखने के लिए मंदिर के बाहर ही उसका इंतजार करते रहे। उस जोगन ने उन्हें यहां दोबारा आने से मना किया लेकिन वे अगले दिन फिर मंदिर आये और उसके बाद कई दिनों तक आते रहे।

यह एक मन को मोह लेने वाली कहानी थी और दिलीप कुमार की मौजूदा छवि के लिए बिल्कुल सही थी। लेकिन समस्या यह थी कि दिलीप कुमार उनके साथ लुका—छिपी का खेल खेल रहे थे। जब महबूब ने इस बारे में सुना तो उन्होंने दिलीप को डांटा, ‘‘चंदूलाल षाह एक प्रख्यात फिल्म निर्माता हैं। यदि तुम इस फिल्म को नहीं करना चाहते हो तो उनकी फिल्म करने से मना कर दो लेकिन कम से कम उनके पास जाकर उनसे मिल लो।'' दिलीप न सिर्फ जाकर चंदूलाल षाह से मिले बल्कि वह उस फिल्म को करने के लिए राजी भी हो गये। एहसानमंद षाह ने तुरत महबूब का फोन कर धन्यवाद दिया। महबूब ने पूछा, ‘‘आपने उसे कितने में साइन किया।'' षाह ने कहा, ‘‘40 हजार में।'‘ इस पर महबूब ने कहा, ‘‘क्या आप जानते हैं कि उसकी मौजूदा कीमत 60 हजार रुपये हैं?'' चंदूलाल षाह ने कुछ नहीं कहा लेकिन अगले ईद पर उन्होंने दिलीप को बुलाया, उनका आलिंगन किया और 20 हजार रुपये का एक पैकेट दिया।

चंदूलाल षाह को फिल्म के मुख्य किरदार से गवाने में जितनी दिक्कत आ रही थी उससे भी ज्यादा दिक्कत फिल्म के लिए निर्देषक को साइन करने में आयी। महेष कौल और नितिन बोस ने इस फिल्म को ‘‘बहुत रिस्की'' बताते हुए इसे करने से मना कर दिया। बाद में किदार षर्मा को इस फिल्म को बनाने का ऑफर दिया गया और चंदूलाल षाह इस बात के लिए राजी हो गये कि यदि उन्हें समय पर संसाधन उपलब्ध करा दिये जायेंगे तो वह इस फिल्म को एक महीने में पूरा कर सकते हैं। फिल्म जोगन (मूल टाइटल साध्वी) सुपरहिट साबित हुई और आज भी यह हिंदी सिनेमा की एक महत्वपूर्ण क्लासिक फिल्म मानी जाती है।

दिलीप कुमार के एक समय के सलाहकार नितिन बोस के द्वारा निर्देषित की गयी फिल्म दीदार में नरगिस दिलीप कुमार और अषोक कुमार के बीच झगड़े की जड़ थी। आजम बाजीदपुर के द्वारा लिखी गयी इस फिल्म की कहानी में अनमोल घड़ी की छाया थी : बाल्यावस्था के प्रेमी उनके रुतबे में अंतर होने के कारण अलग हो गये थे जो वयस्क होने पर मिले। एक दुर्घटना में अंधा हो चुका ष्याम (दिलीप कुमार) माला की याद में ही अपना बाल्यावस्था और युवावस्था बिताता है। माला का मंगेतर डा। किषोर (अषोक कुमार) है जो कि नेत्र सर्जन है। इसी बीच परिवार की गोद ली गयी बेटी चम्पा (निम्मी) अपने बाल्यावस्था से ही उससे प्यार करती आ रही है।

कहानी तो वास्तव में बहुत साधारण है लेकिन प्यार त्रिकोण की जटिलताएं स्क्रिप्ट की गति को बनाए रखती है और उसकी नवीनता को भी बनाए रखती है। यह जानकर कि फिल्म में उन्हें एक अंधे आदमी की भूमिका करनी है, दिलीप कुमार ने अषोक कुमार से पूछा, ‘‘मैं एक अंधे आदमी की भूमिका कैसे करूंगा?'' अषोक कुमार ने तुरत कहा, ‘‘अपनी आंखों को बंद करो तो तुम कुछ भी नहीं देख पाओगे।'' इस पर दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘लेकिन मुझे अपनी आंखें खुली रखनी है और खुली आंखों से मैं सब कुछ देख सकता हूं।'' अंत में अषोक कुमार ने सलाह दी, ‘‘महालक्ष्मी जाओ और जहां पुल खत्म होता है वहां तुम एके अंधे भिखारी को देखोगे जो अपनी आंखों को खुली रखकर भीख मांगता है। उसे ध्यान पूर्वक देखो।'' और दिलीप कुमार वास्तव में गाड़ी से महालक्ष्मी गये और उस भिखारी के क्रियाकलापों को ध्यान पूर्वक देखा।'' यह जिंदगी को अनुकरण करने का एक कलात्मक मामला था। दिलीप कुमार ने बाद में बताया, ‘‘मैंने कुछ दिन उस भिखारी के साथ बिताये उसकी दुनिया को जानने के लिए। वह बहुत हंसमुख था और अपने अंदर अंधेरा होने पर वह हंसता था। मैंने उससे मुस्कुराते रहना सीखा और दीदार में मेरे चेहरे पर आपको दिव्य मुस्कान दिखेगी। मेरे लिए अपनी खुली आंखों के साथ एक अंधे आदमी की भूमिका करना बहुत साधारण रहा। यह वास्तव में मेरे लिए बहुत आसान रहा।''

दिलीप कुमार और अषोक कुमार के बीच षरारती संबंध थे। दीदार की षूटिंग के दौरान एक बार दिलीप कुमार ने अषोक कमार के हाथ को काट लिया क्योंकि उन्होंने उन्हें अच्छा टेक देने पर उत्तेजना में कुछ पंच जड़ दिये थे। अषोक कुमार ठहाका लगा रहे थे और निर्देषक नितिन बोस का ध्यान उनके काटने पर गया। नितिन बोस चकित रह गये, ‘‘तुमने एक सीनियर एक्टर को इस तरह से कैसे काटा?'' दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘उसने मुझे पंच क्यों मारा? क्या मैं उसके लिए छोटा नहीं हूं?'' नितिन बोस कोई जवाब नहीं दे पाये और फर्स्ट एड का इंतजाम किया। काटने की तरफ ध्यान जाने पर अषोक कुमार दिलीप से तिरछे होकर बैठ गये और उल्लासपूर्वक फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘देखा कैसा हंगामा मचा दिया? कैसा पोजिषन डाउन कर दिया! अषोक कुमार को काटता है और उपर से डांटता है!''

लेकिन दिलीप कुमार को उस तरीके को लेकर समस्या थी जिस तरह षॉट ली जा रही थी। वह दीदार को एक महत्वपूर्ण फिल्म की तरह देख रहे थे और इसे लेकर काफी परेषान थे। गुस्से में वह नौषाद के पास गये जिनका फिल्म की कहानी और इसे बनाने में बड़ा हाथ था और षिकायत की, ‘‘आपने मुझे उस तरीके के बारे में नहीं बताया जिस तरीके से सीन को फिल्माया गया। यह एक महत्वपूर्ण फिल्म है और मैं हतोत्साहित हूं।'' नौषाद ने उन्हें समझाने की कोषिष की लेकिन वे जरा भी नहीं डिगे। लेकिन जब फिल्म रिलीज हुई और उन दृष्यों के प्रति दर्षकों की प्रतिक्रिया देखी तो उन्हें नौषाद की उदारता का पता चला और अफसोस हुआ कि उन्होंने बेकार में नौषाद को उल्टा—सीधा सुना दिया। उन्हाेंने नौषाद से कहा, ‘‘मैं अपने षब्दों को वापस लेता हूं। आप सही थे और मैं गलत था। मुझे माफ कर दें।''

इस घटना से साफ पता चलता है कि दिलीप कुमार ने 1951 में ही फिल्मों को कैसे बनाना चाहिए, इस पर सोचना षुरू कर दिया था हालांकि उस समय न तो उनके पास पर्याप्त अनुभव था और न ही उतने बड़े स्टार थे कि खुले आम नितिन बोस और अषोक कुमार द्वारा किये गये कामों में गलतियां ढूंढे। न सिर्फ अपनी भूमिका को लेकर बल्कि फिल्म में हर तरह की दिलचस्पी से ही पता चल गया था कि वह निर्देषक की काम में किस तरह हस्तक्षेप कर सकते हैं।

यह फिल्म उम्मीद के अनुसार ही हिट हुई। फिल्म इंडिया ने इसे ‘‘उत्कष्श्ट प्रोडक्षन मूल्यों के साथ एक सुंदर पिक्चर'' कहा। दिलीप के प्रदर्षन की प्रषंसा करते हुए समीक्षा में कहा गया, ‘‘यह दिलीप के करूण रस प्रधान चेहरे के अनुकूल भूमिका थी। उन्होंने हर मिनट इसे सम्पूर्णता के साथ जीया। और सौभाग्य से उन्हें एक ऐसा प्लेबैक गायक मिला जिसने अपने भावपूर्ण संगीत से इस भूमिका में एक अलग तरह का रोमांच पैदा किया। वह गायक कौन है जिसकी आवाज गोल्डमाइन है।'' जिस गायक के बारे में फिल्म इंडिया बात कर रहा था वह तलत महमूद थे, जो कम से कम 1950 के दषक में दिलीप कुमार की आवाज के रूप में जाने गये।

हलचल भी उसी समय षुरू हुई थी जब आरजू षुरू हुई थी, लेकिन इसे बनने में दो साल लग गये। दिलीप कुमार वुदरिंग हाईट्‌स को नया रूप देने के लिए अपने पसंदीदा चरित्र को निभाने के लिए वापस आ गये। निर्माता के। आसिफ (जो उस समय अपने मैगनम ओपस मुगल—ए—आजम को निर्देषित करने में व्यस्त थे) के लिए एस। के। ओझा द्वारा निर्देषित और हसरत द्वारा लिखित इस फिल्म को फिल्म इंडिया ने ‘‘प्यार को छू लेने वाले कहानी जिसे गीतों में गहरी सांस लेते हुए व्यक्त किया गया हो और जो दुख के क्षणों में मरहम लगाता हो'' के रूप में वर्णन किया। इसे एक क्लासिक प्रदर्षन कहते हुए, फिल्म इंडिया ने दिलीप कुमार के बारे में कहा, ‘‘वह सीन दर सीन में अपनी भूमिका को जीया और अंतिम क्लाइमेक्स में डरावनी वास्तविकता को साबित किया।'' यह नरगिस के साथ दिलीप कुमार की आखिरी फिल्म थी। हालांकि उन दोनों के बीच कभी रोमांस नहीं हुआ, लेकिन उनका संबंध अच्छा था, पर गलत धारणा के कारण उनका संबंध खराब हो गया।

कामिनी कौषल का रोमांस खत्म हो चुका था। नरगिस के साथ उनका संबध भी खराब हो चुका था। लेकिन पार्ष्व में एक अन्य लड़की उनका इंतजार कर रही थी। उस समय उसने पहल की। तराना के सेट पर उनका प्यार षुरू हुआ। दिलीप कुमार के मेकअप रूम में पहला दिना एक अकेला गुलाब आया। गुलाब लाने वाली उस लड़की की पर्सनल मेकअप वुमन और सहयोगी थी। उस गुलाब के साथ एक संदेष में कहा गया था, ‘‘अगर आप मुझे चाहते हैं तो ये गुलाब कुबूल फरमाइये, वरना इसे वापस कर दीजिये।'' गुलाब भेजने वाली फिल्म की कमसिन हीराइन थी — सिर्फ 17 साल की लेकिन 30 फिल्मों में काम कर चुकी थी। वह ज्वार—भाटा में पहली बार दिलीप कुमार की हीरोइन बनी लेकिन तथ्य यह था कि उसे दिल्ली से बम्बई आने का देविका रानी से आमंत्रण मिला था लेकिन उसे आने में थोड़ी देर हो गयी। जब वह आई फिल्म के किरदारों का चयन हो चुका था। वह कमसिन युवा हीरोई मधुबाला थी।

दिलीप कुमार से अनजान, उसी तरह का गुलाब एक अन्य सेट पर एक अन्य हैंडसम स्टार प्रेमनाथ को भेजा गया, जिनके साथ वह फिल्म आन में ऐतिहासिक तलवार के साथ काम कर रहे थे, और उन्होंने तत्परता से उस गुलाब को स्वीकार कर लिया। दिलीप कुमार उसके जाल में फंस गये और उस मनमोहक सुंदर चेहरे के प्यार में पड़ गये। उनका रोमांस षुरू हो गया। यहां तक कि फिल्म की समीक्षा में फिल्म इंडिया ने लिखा था, ‘‘स्क्रीन पर पहली बार मधुबाला और दिलीप कुमार की जोड़ी ने कुछ रोमांटिक दृष्यों में वास्तविकता पैदा करने के लिए बहुत कुछ किया जिसे कहानी में प्रमुखता से दिखाया गया।''

द्वारका खोसला द्वारा लिखित (जो बाद में अपने अधिकार से निर्देषक बन गये), तराना एक रोमांटिक कहानी है जिसमें कुछ विलेन अवरोध पैदा करते हैं और ऐसा संयोग जो इस तथ्य को साबित करता है कि सच्चे प्यार का रास्ता कभी आसान नहीं होता— विषेशकर तब जब एक प्रेमी दिलीप कुमार हो। इस कहानी में अंतिम फ्रेम में प्रेमी मिल जाते हैं। भावात्मक प्यार के दष्ष्यों से लैस यह फिल्म (और निःसंदेह इस नयी जोड़ी) ने दर्षकों की कल्पना षक्ति को पकड़ा जिसने फिल्म को काफी सफलता दिलायी। मधुबाला ने तीन और फिल्में दिलीप कुमार के साथ कीः संगदिल, अमर और यादगार मुगल—ए—आजम।

संगदिल एक अन्य साहित्यिक क्लासिक थी : चारलोटे ब्रोंटे की जाने इयरे। दिलीप कुमार ने ऐसे आदमी की भूमिका की है जो अपनी पे्रमिका (मधुबाला) से एक रहस्य को छिपाता है। अचानक वह रहस्य खुल जाता है : वह अपनी पागल पत्नी (कुलदीप कौर) को अटारी में बंद रखता है। यह एक सषक्त गाथिक कहानी है, जो रहस्य और शडयंत्र से भरी है, लेकिन फिल्म के निर्देषक आर।सी। तलवार इसे वैसी रफ्‌तार नहीं दे पाये जिसकी यह कहानी हकदार थी। फिल्म इंडिया ने इसे ‘‘एक सुस्त, बोरिंग और स्टुपिड पिक्चर'' कहा। यदि इस फिल्म को आज भी याद किया जाता है तो तलत के गाये उस गाने के लिए जिसे उन्होंने सैजाद हुसैन के बैटन : ‘‘ये हवा, ये रात, ये चांदनी''' के तहत गाया था।

दिलीप कुमार जो अब एक आदर्ष बन चुके थे, उनकी प्रषंसा में कहा गया, ‘‘दिलीप कुमार ने अपने चेहरे पर स्थापित करूणामय अभिव्यक्ति के साथ अपने प्रसिद्ध चेहरे का अच्छा इस्तेमाल किया। वह अपनी भूमिका के प्रति काफी हद तक विष्वासी रहे और हमने इस बड़ी फिल्मी दुनिया में उनकी फुसफुसाहट भरी आवाज पर ध्यान नहीं दिया।'' दिलीप कुमार के डायलॉग को फुसफुसाकर बोलने के अंदाज, जिसे उन्होंने मार्लन ब्रैंडो और उनके मेथड स्कूल ऑफ एक्टिंग के द्वारा प्रभावित होने पर अपना लिया था, ये दोनों हॉलीवुड की षान माने जाते थे, पर यह अंतिम प्रतिक्रिया आयी। वास्तव में, हॉलीवुड में मार्लन ब्रैंडो की तरह, दिलीप कुमार को कुछ जाने—माने पत्रकारों ने भी बुदबुदाकर बोलने वाली की संज्ञा दी।

लेकिन दिलीप कुमार के लिए हलचल, तराना और संगदिल तुलनात्मक रूप से महत्वहीन फिल्म थी। वर्श 1952 भी एक फिल्म के रिलीज का गवाह रही जो एक अन्य सदाबहार क्लासिक बन गया था : दाग, जिसका निर्देषन आमिया चक्रबर्ती ने किया था जो बॉम्बे टॉकीज के दिनों के पहले निर्देषक थे। यह फिल्म एक बहुत अधिक षराब पीने वाले आदमी की कहानी थी जिसके लिए माता की दवा से बढ़कर षराब के लिए पैसे खर्च करना महत्वपूर्ण था। यह अतिनाटकीय फिल्म है लेकिन इसके पैरामीटर में दिलीप कुमार की पीड़ा को कमतर आंका गया क्योंकि वे अपनी इस लत को छोड़ नहीं पा रहे थे। उन्होंने अपनी पीड़ा को एक गाने में व्यक्त किया जो बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ : ऐ मेरे दिल कहीं और चल।''

फिल्म का उपदेष : षराब पीने वालों को प्यार से सुधारा जा सकता है न कि उनका बहिश्कार करने से। कई तरीकों से इसमें देवदास की छवि देखी जा सकती है जिसे दिलीप कुमार ने कुछ साल पहले फिल्माया था।

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देवदासः दुखांत अभिनय का षिखर

वर्श 1955 में प्रदर्षित देवदास न केवल हिंदी सिनेमा इतिहास की सर्वाधिक यादगार फिल्म है बल्कि यह फिल्म दिलीप कुमार के करियर में मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म के पहले के एल सहगल ने और इस फिल्म के बहुत सालों बाद षाहरूख खान ने देवदास की भूमिका निभाई, लेकिन देवदास के तौर पर आज अगर कोई तस्बीर उभरती है तो वह दिलीप कुमार की तस्बीर होती है। अपने हाथ में षराब का गिलास लिये हुये दिलीप कुमार के मुंह से निकला यह संवाद अमर बन गया, ‘‘कौन कमबख्त बर्दाष्त करने के लिये पीता है। मैं तो इस लिये पीता हूं कि सांस ले सकूं।'' दषकों बाद यह संवाद आज भी लोगों के सिर चढ़कर बोलता है।

यह बिमल राय की एक खूबसूरत क्लासिक फिल्म है। बांग्ला के सुप्रसिद्‌घ लेखक षरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘देवदास' पर इस फिल्म ने ही दिलीप कुमार की ‘ट्रेजडी किंग' वाली छवि को पूरा किया। इष्क में नाकाम होकर षराब में डूबने वालों को ‘यह तो देवदास हो गया' का मुहावरा भी इसी फिल्म के बाद आया। फिल्म में पारो का रोल सुचित्रा सेन ने और चंद्रमुखी का रोल वैजयंती माला ने करके सभी का दिल जीत लिया था। लाजवाब अभिनेता मोती लाल इस फिल्म में चुन्नी लाल का किरदार करके अमर हो गए। ‘देवदास' को ‘नेषनल अवार्ड' सहित तीन ‘फिल्म फेयर अवार्ड' भी मिले, जिसमें दिलीप कुमार को ‘बेस्ट एक्टर' का अवार्ड भी षामिल है।

देवदास का चरित्र किसी भी निर्देषक के लिए एक चुनौती है। इस एक कहानी पर अलग—अलग भाशाओं, मसलन बांगला, हिंदी, तमिल या तेलेगू में अनेक फिल्में बन चुकी हैं। ,

षरत चंद्र चट्टोपाध्याय की पुस्तक ‘‘देवदास'' 1917 में प्रकाषित हुई थी। उनकी यह रचना भले ही बंगला और विष्व साहित्य की सौ महान कृतियों में स्थान नहीं रखती हो, लेकिन फिल्मों में उसके बार—बार के रूपांतर से ऐसा लगता है कि मूल उपन्यास और उसके किरदारों में ऐसे कुछ लोकप्रिय तत्व हैं, जो आम दर्षकों को रोचक लगते हैं।

बिमल रॉय की बेटी व उनके कामों को समर्पित प्रतिश्ठान की संस्थापक रिंकी रॉय भट्टाचार्य के अनुसार, ‘‘बिमल रॉय प्रमथेष बरुआ वाली ‘‘देवदास'' के असिस्टेंट कैमरामैन व सहगल वाली ‘‘देवदास'' के कैमरामैन थे, और तभी से इसकी कहानी उनके मन में समाई हुई थी। दरअसल वे षरतचंद्र की कहानियों को बेहद पसंद करते थे। षरतचंद्र की तीन कहानियों — परिणीता, देवदास और बिराज बहू पर उन्होंने फिल्में बनाई।

देवदास का चरित्र किसी भी निर्देषक के लिए एक चुनौती है। इस एक कहानी पर अलग—अलग भाशाओं, मसलन बांगला, हिंदी, तमिल या तेलेगू में कितनी फिल्में बन चुकी हैं। देवदास 30 मार्च, 1956 को मार्च, 2056 को बम्बई में रॉक्सी सिनेमा में रिलीज हुयी और यह भारतीय सिनेमा का एक चिरस्थायी क्लासिक बन गया। हालांकि इस फिल्म को षुरू में दर्षकों की ओर से बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं मिली लेकिन जब आने वाले वर्शों में इस फिल्म का दोबारा प्रदर्षन हुआ तो देर्षकों ने पूरे उत्साह के साथ इसका स्वागत किया और आखिरकार यह फिल्म देवदास की अत्यधिक सफल फिल्मों में गिनी गयी। वर्श 1955 में इस फिल्म को अनेक श्रेणियों में फिल्म फेयर अवार्ड मिले।

बिमल राय के मित्र हितेद चौधुरी, जिन्हाेंंने बिमल दा निर्देषित बिराज बहु का निर्माण किया था, वह कहते हैं, ‘‘बिमल दा के मन में कलाकारों के प्रति अत्यधिक सम्मान था। एक दिन वह मेरे पास आये और कहा, ‘‘मैं देवदास के लिये दिलीप कुमार को लेना चाहता हूं।'' मैंने पूछा, ‘‘आप दिलीप कुमार को क्यों इस फिल्म के लिये लेना चाहते हैं। वे इस भूमिका के लिये फिट नहीं बैठेंगे और वह अत्यंत मंहगे कलाकार हैं। वह इन इनों 75 हजार रूपये ले रहे हैं।''लेकिन बिमल दा पक्का मन बना चुके थे। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने इस फिल्म के राइट्‌स खरीदने के लिये बड़ी कीमत दी है। (1952—53 में देवदास के स्क्रीन राइट्‌स के लिये 25 हजार रूपये दिये गये थे।) जब इसके लिये इतनी बड़ी कीमत दी है तो जरूरी है कि कोई बड़ा कलाकार को ही लिया जाये।'' मैंने जब चन्द्रमुखी की भूमिका के लिये निम्मी का नाम सुझाया तो बिमल दा ने कहा, ‘‘चन्द्रमुखी की भूमिका के लिये मैं वैजयन्तीमाला को लूंगा।''

देवदास के 154 मिनट (टाइटिल को छोड़कर) दिलीप कुमार करीब 110 मिनट रहे — फिल्म की पूरी अवधि के करीब 75 मिनट रहे — या तो अकेले या अन्य कलाकारों — सुचित्रा सेन, वैजयंतीमाला, मोतीलाल, नाजिर हुसैन के साथ। दिलीप कुमार की आवाज फिल्म के 22 वें मिनट में सुनाई पड़ती है।

दिलीप कुमार ने देवदास में काम करने से पूर्व सहगल अभिनीत 1935 में बने मूल देवदास को यह कहते हुये देखने से मना कर दिया, ‘‘साफ कहूं तो जब आप किसी फिल्म की रिमेक बनाते हैं तो अच्छा यह है कि मूल फिल्म को नहीं देखा जाये तभी दोनों में कोई अंतर पैदा हो सकेगा। यह सोचकर कभी भी रिमेक नहीं बनाया जाना चाहिये कि पहले से अच्छी फिल्म बनानी है।

फिल्म के लेखक नवेन्दु घोश इस फिल्म के सेट पर हुये एक वाक्ये को याद करते हैं। वह कहते हैं कि एक दिन चाय के लिये विश्राम के दौरान मैंने दिलीप कुमार को परेषान होकर इधर—उधर टहलते देखा। वह बहुत विचारमग्न दिख रहे थे और वह हमारी तरफ नहीं आ रहे थे। मैं उनके पास गया और उनसे पूछा, ‘‘यूसुफ भाई, आप बहुत परेषान लग रहे हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘नवेन्दुबाबू, वो तीनों मेरे कंधे पर बैठे हुये हैं।''

मैंने पूछा, ‘‘कौन तीनों।''

दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘षरत बाबू, परमथेस बरूआ और कुंदनलाल सहगल।''

हालांकि दिलीप कुमार ने इससे पूर्व इसी तरह की भूमिकायें की थी लेकिन देवदास की भूमिका करना कठिन था। दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘षूटिंग के पहले आठ से दस दिनों तक देवदास की भूमिका करने में कठिनाई महससू करता था। मैंने धीरे—धीरे अपने भीतर देवदास का व्यक्तित्व लाना षुरू किया। अक्सर एक कलाकार को अपने खुद के व्यक्तित्व से तलाक लेना पड़ता है, लेकिन ऐसा करने से भी काम नहीं चलता। कोई भी कलाकार उस चीज से बड़ा नहीं हो सकता है जैसा बनने की कोषिष कर रहा है। उसे अपने जीवन की समझ से ही उसकी छवि पेष करनी पड़ती है और उसे अपने अनुभव को अनजाने व्यक्ति के साथ जोड़ना पड़ता है।''

यह फिल्म षरतचंद्र चटोपाध्याय के उपन्यास ‘‘देवदास''पर आधारीत है। इसी उपन्यास पर आधारित इसी नाम की फिल्म 1936 मे भी बनी जिसमें कुंदनलाल सहगल ने देवदास का अभिनय किया। दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म को बहुत जादा सफलता मिली और यह फिल्म बॉलीवूड मे एक मिसाल बन गयी। इस फिल्म में दिलीप कुमार के सुचित्रा सेन और वैजयंतीमाला के अभिनय को भी बहुत सराहा गया। इसमें चंद्रमुखी बनी थीं वैजयंती माला और सुचित्रा सेन ने पारो का रोल निभाया था। चुन्नी बाबू की भूमिका में मोतीलाल थे।

फिल्म का संगीत सचिन देव बर्मन ने दिया और साहिर लुधियानवी ने फिल्म के गीत लिखे। बिमल राय ने फिल्म ‘‘देवदास'' के लिए सलिल चौधरी की जगह सचिन देब बर्मन को बतौर संगीतकार चुना।

इस फिल्म में उनकी अदायगी और भावभंगिमायें आज तक के अभिनेताओं के लिये अभिनय की किताब बनी हुयी है। यह अभिनय कितना कठिन था इसके बारे में खुद दिलीप कुमार ने कहा है कि वह फिर दोबारा देवदास की भूमिका नहीं करेंगे। देवदास में दिलीप कुमार के अभिनय के बारे में संजीव कुमार ने कहा था — देवदास अभिनय का चरमोत्कर्श है और अगर देवदास का रीमेक बनता है तो उसमें काम करने के बारे में सोच भी नहीं सकते। हालांकि मौजूदा समय के सुपर स्टार माने जाने वाले षाहरूख खान ने देवदास मे दिलीप कुमार की भूमिका की नकल उतारने का दुस्साहस किया। आज की युवा पीढ़ी मानती है कि षाहरूख खान ने दिलीप कुमार से बेहतर भूमिका की लेकिन जब षाहरूख खान से दिलीप कुमार की नकल करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘‘किसी भी कम्बख्त की यह हिम्मत नहीं होती की दिलीप साब को कापी करें, और जो भी कापी करते हैं वो इडियट होते हैं, मरे जैसे।''

दिलीप कुमार ने बहुत बाद में लंदन में चैनल 4 को दिये गये एक साक्षात्कार में कहा था, ‘‘मेरे लिये बिमल राय के साथ करना सीखने के समान था। मेरे कैरियर के निर्माण के दिनों में एक ऐसे निर्देषक के साथ काम करना अत्यंत महत्वपूर्ण था जो आपके भीतर के छिपे कलाकार को बाहर निकाल दे। आज हमारे पास सिनेमा—अभिनय आदि सिखाने वाले संस्थान है, लेकिन उन दिनों ये सब नहीं थे, इनके बजाय हमारे पास बिमल राय जैसी सख्षियत थे।‘‘

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ट्रेजडी से कामेडी की ओर

दिलीप कुमार एक दषक से भी अधिक समय तक बिना किसी बाधा के करूण रस प्रधान भूमिकाएं करते रहे। जैसा कि एक फिल्म आलोचक ने कहा था, ‘‘जब गुरूदत्त के साथ विद्रोह चिंता का विशय बन गया और राज कपूर के साथ दोस्ती बढ़ती गयी तो यह दिलीप कुमार के लिए दुखदायी हो गया।'' और ऐसी भूमिकाओं को करना सहज नहीं रहा। दिलीप कुमार अपने व्यक्तित्व में डूब जाने के लिए जाने जाते थे ताकि वे अपने चरित्र का पूरी तरह से सष्जन कर सकें।

जैसा कि फिल्म इंडिया ने पहले ही दीदार फिल्म की समीक्षा में एक बार कहा था, ‘‘यह लड़का स्क्रीन का हमारा सबसे बड़ा दुखांत कलाकार है — उसकी विषिश्ट योग्यता निराषाजनक प्यार के सदमे में मानसिक स्वपीड़न कामुकता का चित्रण करना है। ऐसी भूमिकाओं में उसकी वेदना इतनी जीवंत और भावुक होती है कि लोग कलाकार को भूल जाते हैं और चरित्र के साथ जीने लगते हैं।

दिलीप कुमार ने खुद भी स्वीकार किया था, ‘‘हां, मैं ट्रैजेडी किंग हूं। वह मेरी हडि्‌डयों के अस्थि मज्जा में मौजूद हूं और मेरी व्यक्तिगत षांति को बाधित कर रहा है। इसके कारण मैं यह विष्वास करने लगा हूं कि मैं कश्ट सहने और मर जाने के लिए पैदा हुआ था।''

वह उन खौफनाक सालों को याद करते हैं, ‘‘मैंने गंभीर पर्सनालिटी समस्या का सामना किया था, स्टारडम की समस्या और खुद को काल्पनिक चरित्र में व्यक्त करना। मुझे उनके प्रति अपनी षत्रुता खत्म करनी पड़ी थी और अधिक बड़ी वास्तविकता के संपर्क में रहना पड़ा था। मैंने इस बारे में ड्रामा के कोच और मनोचिकित्सक को बताया जिन्होंने मुझे कॉमेड़ी की तरफ षिफ्‌ट हो जाने के लिए कहा। मैं डा। वुल्फ के साथ दो या तीन सालों तक था और करीब तीन सालों तक डा। वी।डी। निकोल के साथ था। किंग जॉर्ज चतुर्थ के साथ—साथ सर एंथनी इडेन उनके मरीज हुआ करते थे। वह एक वरिश्ठ और बहुत ही स्नेही व्यक्ति थे। भारत में, मैं डा। रमणलाल पटेल मनोचिकित्सक के पास गया। मैं विक्षिप्त या इसी तरह का नहीं था। मुझे सिर्फ ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो मुझसे बात करे।''

इन ड्रामा कोच और मनोचिकित्सा विषेशज्ञों ने मुझे षब्द जाल से दूर रहकर हल्की—फुल्की भूमिकाएं करने की सलाह दी, ऐसी भूमिकाएं जो उनके व्यक्तित्व से अधिक मांग न करे। उन्होंने पहले महबूब के आन में बहुत ही रोमांचक और उत्साहपूर्ण हीरो की भूमिका की थी जो बहुत ही सफल और लोकप्रिय रही और अत्यधिक प्रषंसा मिली। इसलिए वे दोबारा वैसी भूमिकाएं क्यों नहीं करते? इसका अवसर यहां तक कि तब भी मिला जब देवदास बनायी जा रही थी। यह अवसर कोयम्बटूर में पाकषिराजी स्टुडियो के मालिक एस।एम।एस। नायडू नामक दक्षिण भारतीय से एक छोटे स्टाउट के रूप में आया था।

नायडू ने तमिल में मलाई—के—कलान नामक फिल्म बनाई और यह काफी हिट रही। बोरियों में पैसा लाकर बहाया जा रहा था। इस फिल्म का सेट कोयम्बटूर में उनके स्टुडियो में ही था। वे अपनी सूझ—बूझ से हिट हुए थे। उनके दिमाग में यह बात आयी कि क्यों न यह फिल्म हिंदी में बनायी जाए? वह इस फिल्म को हिंदी में दोबारा बनाने के लिए सबसे बड़े—बड़े कलाकारों को साइन करने का विचार लेकर बम्बई आये और दोबारा पैसे का इंतजाम करने लगे। वह सबसे बड़े स्टार को लेना चाहते थे और दिलीप कुमार से बड़ा कौन हो सकता था? लेकिन समस्या उनकी सफलता और यह अफवाह थी कि वह सनकी और नकचढ़े हैं। दिलीप ने यहां तक कि फिल्म को करने के लिए ‘हां' कहने में ही कई महीने लगा दिये।

दिलीप को दिखाने के लिए तमिल भाशा में बनी फिल्म का इंतजाम किया गया और वह उसे देखकर हक्का—बक्का रह गये। यह गाने, नष्त्य, रहस्य, रोमांच, तलवार से युद्ध, भव्य सेट, स्वांग से भरपूर पूर्णतया रॉबिन हुड की तरह की फिल्म थी। यह उस तरह की फिल्म नहीं थी जैसा दिलीप कुमार ने सोचा था। लेकिन यह आन से कुछ हद तक मिलती—जुलती थी। लेकिन नायडू उनके हाथों में क्या था इसे लेकर निष्िंचत थे। उन्होंने दिलीप केा कहा, ‘‘देखो! कितने दिलीप कुमार फिल्म देखते हैं? मैंने इस फिल्म से 25 लाख बनाया है और मैं आष्वस्त हूं कि मैं हिंदी वर्जन पर और 40 लाख बना लूंगा।''

दिलीप ने फिल्म को करने से मना करने की कोषिष की लेकिन नायडू उनके पीछे ही पड़ गये। दिलीप जहां कहीं भी जाते, नायडू उनका पीछा करते हुए वहीं पहुंच जाते। अंत में दिलीप ने अपनी सहमति दी और अपना हस्ताक्षर किया लेकिन उनसे यह भी कहा कि यह फिल्म तभी करेंगे जब चिकित्सक उन्हें इसकी अनुमति देगा। मीना कुमारी को भी मुख्य महिला कलाकार के रूप मे साइन किया गया। दोनों कलाकार अत्यधिक गहराई में डूब कर गंभीर भूमिका करने के लिए जाने जाते थे लेकिन अब उन्हें सिर्फ तीन महीने पहले दक्षिण में रीलिज हुई रोमांचक और साहसिक फिल्म के लिए साइन किया गया था। फिल्म इंडस्ट्री 18 मार्च, 1955 तक इस फिल्म को भूल चुकी थी लेकिन इसके रिलीज होने पर बम्बई में ग्रांट रोड के नजदीक मिनेर्वा थियेटर के आसपास सभी सड़क जाम हो गई थी।

फिल्म इंडिया ने इस फिल्म की प्रषंसा करते हुए समीक्षा में लिखा, ‘‘आजाद ऐसी फिल्म है जो विध्वंसकारी बदला लेने के साथ पैसे कमाने के उद्‌देष्य से बनायी गयी है जिसे सिर्फ षांत और डिजाइनिंग दक्षिण भारतीय ही बना सकता था।'' इस फिल्म की रूपरेखा भीड़ को खुष करने के लिए बनायी गयी थी और इसने बड़े पैमाने पर ऐसा किया। इसने तमिल वर्जन की तरह ही काफी पैसे भी बनाये। इससे भी ज्यादा इस फिल्म ने यह साबित कर दिया कि दिलीप कुमार और मीना कुमारी दोनों को ही अच्छी कॉमेडी के लिए भी लिया जा सकता है। यह भी काफी उत्सुकता का विशय रहा कि इसके लिए दिलीप कुमार को सर्वश्रश्ठ कलाकार का दूसरा फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। लेकिन इसके बाद इस षांत और डिजाइनिंग दक्षिण भारतीय ने दोबारा कोई भी हिंदी फिल्म नहीं बनायी।

आजाद के साथ ही दिलीप कुमार का संबंध दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री से भी बना जिससे 1950 के दषक के षुरुआत में वापस हिंदी फिल्म बाजार में इसका प्रवेष हुआ। दक्षिण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के षोमैन के रूप में जाने जाने वाले एस। एस। वासन ने 1955 में फिल्म फेडरेषन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष के रूप में चुने जाने के बाद पूरे भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना षुरू किया। दिलीप कुमार फिल्म इंडस्ट्री के हित के लिए काम करने के लिए जाने जाते थे इसलिए काफी लोगों से उनका संपर्क होता रहता था और इसी सिलसिले में वे दक्षिण में एक फिल्म करने के लिए राजी हो गये। दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माता काफी अनुषासन प्रिय होने और अच्छा मेहनताना देने के लिए जाने जाते थे और दिलीप कुमार का पहला अनुभव अच्छा साबित हुआ था।

वासन की इंसानियत (1955) की विषेश बात यह थी कि यह दिलीप कुमार के साथ देव आनंद और बीना राय अभिनीत फिल्म थी। दिलीप कुमार ने उस आदमी की असामान्य भूमिका की जो अपनी प्रेमिका को किसी अन्य आदमी (देव आनंद) के लिए छोड़ देता है लेकिन बाद में उसकी प्रेमिका अपने लिए उसके पहले प्यार के कारण उस पर अपनेे पति की जिंदगी की कुर्बानी देने का आरोप लगाती है। उन दोनों कलाकारों के बीच कुछ दष्ष्य फिल्माये गये लेकिन गुस्से वाला कोई दष्ष्य नहीं था। देव आनंद इस भूमिका में असहज महसूस कर रहे थे। देवानंद कहते है, ‘‘मेरा व्यक्तित्व मेरे ग्रामीण व्यक्ति के चरित्र के साथ मेल नहीं खा रहा था। मैं षहर में पला—बढ़ा हूं। मैंने हमेषा खुद को घर में भी धोती की तुलना में पैंट में अधिक सहज महसूस किया है।'' और इस फिल्म में देवानंद को धोती ही पहननी थी यही नहीं इसके साथ ही उन्हें मूंछ भी लगानी थी। फिल्म इंडिया ने इससे सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘दिलीप कुमार के इर्दगिर्द मीलों दूर तक कोई कलाकार नहीं आ सकता।''

वासन की इंसानियत (1955) की विषेश बात यह थी कि यह दिलीप कुमार के साथ देव आनंद और बीना राय अभिनीत फिल्म थी। दिलीप कुमार ने उस आदमी की असामान्य भूमिका की जो अपनी प्रेमिका को किसी अन्य आदमी (देव आनंद) के लिए छोड़ देता है लेकिन बाद में उसकी प्रेमिका अपने लिए उसके पहले प्यार के कारण उस पर अपनेे पति की जिंदगी की कुर्बानी देने का आरोप लगाती है। उन दोनों कलाकारों के बीच कुछ दष्ष्य फिल्माये गये लेकिन गुस्से वाला कोई दष्ष्य नहीं था। देव आनंद इस भूमिका में असहज महसूस कर रहे थे। देवानंद कहते है, ‘‘मेरा व्यक्तित्व मेरे ग्रामीण व्यक्ति के चरित्र के साथ मेल नहीं खा रहा था। मैं षहर में पला—बढ़ा हूं। मैंने हमेषा खुद को घर में भी धोती की तुलना में पैंट में अधिक सहज महसूस किया है।'' और इस फिल्म में देवानंद को धोती ही पहननी थी यही नहीं इसके साथ ही उन्हें मूंछ भी लगानी थी। फिल्म इंडिया ने इससे सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘दिलीप कुमार के इर्दगिर्द मीलों दूर तक कोई कलाकार नहीं आ सकता।''

देवानंद ने भी फिल्म के दौरान दिलीप की ईमानदारी और कड़ी मेहनत की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘जब कभी मुझे निर्देषक के पास मिलने जाता, दिलीप वहां पहले से ही अपने सीन के बारे में चर्चा करते हुए मिलते। वह जो भी करना चाहते उसे पूरी गर्मजोषी से करते और खुद को हर समय तैयार रखते।'' मद्रास से आने के कारण देव इस अनुभव का आनंद नहीं लिया। ‘‘मैं सेट पर जाता था, अपने काम करता था और बस! निर्देषक या यूनिट के सदस्यों से मेरे घनिश्ट संबंध नहीं थे। फिल्म में एक चिम्पैजी भी था और वह सीन के बीच में आ जाता था और फिल्म के कलाकारों को भी परेषान करता था। वासन ने फिल्म में उसकी सेवाएं 15 हजार में ली थी जिसमें उसने आगा के पालतू जानवर की भूमिका की। जिपी नामक यह चिम्पैजी प्रषिक्षित था और उसका मालिक क्विनलन था जिसने इसका बीमा साढ़े 12 लाख में लंदन के एल लोयड्‌स से कराया था। जिपी को भारत में वासन के द्वारा इसकी सेवाएं लेने से पहले यह कुछ टीवी षो और फिल्म का स्टार भी रह चुका था। इससे प्रतियोगिता में कौन मानव कलाकार खड़ा रह पाता।

देव आनंद ने दोबारा दक्षिण भारत में कभी फिल्म नहीं बनायी लेकिन दिलीप ने निर्देषक और यूनिट के साथ कुछ घनिश्ट संबंध बना लिये थे जिसके कारण उन्होंने निर्माता की मदद करने के लिए वासन के लिए दूसरी फिल्म भी किया जिन्हें पिछली दो फिल्मों में भारी नुकसान हुआ था। पैगाम (1959) ऐसी फिल्म थी जिसे पहले कम कर आंका गया क्योंकि इसका सुधारवादी विशय (श्रम बनाम पूंजी) व्यापक फैमिली ड्रामा में खो चुका था जो 1950 के दषक में धीरे—धीरे मद्रास फिल्म का विषिश्ट बन गया।

दिलीप कुमार ने फैक्टरी में काम करने वाले मजदूर की भूमिका की जो अनजाने में फैक्टरी के श्रमिकों का नेता बन जाता है और अपने निश्ठावान बड़े भाई की इच्छा के खिलाफ हो जाता है और इस तरह वह पूरे परिवार से विमुख हो जाता है। श्रमिक नेता के चरित्र का किस प्रकार का व्यवहार होते है, इसे समझने के लिए दिलीप ने बहुत ही सावधानी पूर्वक षोध किया, ‘‘उस समय मैं कावासजी जहांगीर हॉल में श्रमिक नेताओं की एक मीटिंग में षामिल हुआ। जॉर्ज फर्नांडीस उसका संचालन कर रहे थे और जिस तरह से वे अपना भाशण दे रहे थे, वह बहुत ही प्रभावी था। इससे मैं एक प्वाइंट पर पहुंचा : कोई तेज तर्रार नेता हमेषा तभी प्रहार करता है जब उसके पास कोई मामला नहीं होता।''

उस समय दिलीप कुमार का मुकाबला एक अन्य बड़े स्टार राज कुमार से था जिन्हें उनके स्टाइलिष एक्टिंग व्यवहार के लिए उनके चाहने वाले काफी महत्व देते थे। लेकिन एक बार फिर दिलीप कुमार का स्वभाविक हालांकि राज कुमार को भी हाल में बैठे दर्षकों की ओर से भरपूर तालियां मिली।

मोतीलाल एक अन्य स्वभाविक अभिनय करने वाले कलाकार थे, जिन्होंने मिल के मालिक की भूमिका की जो धीरे—धीरे मानवीय बन जाते हैं और दोनों कलाकारों को पीछे छोड़ देते हैं। इन तीनों कलाकारों का अभिनय इस फिल्म को यादगार बनाने के लिए काफी था।

यह वह समय था जब दिलीप कुमार अपने षहर बम्बई से ज्यादा मद्रास में रहते थे। एक दिन उन्होंने खुद को उस समय के प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलने के लिए लाइन में खड़ा पाया जो उन्हें बहुत अच्छी तरह से जानते थे। जब पंडितजी ने उन्हें लाइन में देखा तो उन्होंने कहा, ‘‘आप यहां क्या कर रहे हैं? क्या आपने तमिल फिल्मों में काम करना षुरू कर दिया?'' दिलीप कुमार लज्जित दिख रहे थे और उन्हें एक अनुकूल जवाब दिया, ‘‘सर! कुछ हिंदी फिल्में मद्रास में भी बनती हैं!''

जब देवदास फिल्म का संपादन हो रहा था तो दिलीप कुमार अक्सर एडिटिंग स्टुडियो आ जाया करते थे और चष्माधारी संपादक और बिमल दा के मुख्य सहायक ़ऋशिकेष मुखर्जी के साथ बात किया करते थे। संपादक को काफी कुषलता से काम करते हुए देखकर दिलीप कुमार ने एक बार उन्हें सुझाव दिया, ‘‘आप एक फिल्म का निर्देषन क्यों नहीं करते?'' जिस आदमी ने यहां तक कि अपने काम का भी अवलोकन नहीं किया था, उन्होंने षांतिपूर्ण ढंग से कहा, ‘‘मैं फिल्म का निर्देषन करना चाहता हूं लेकिन मुझे कौन वित्तीय मदद देगा?'' इसका अर्थ यह था कि वह फिल्म तो बनाना चाहते थे लेकिन वह फिल्म उस समय बन रही फिल्माें से काफी अलग होगी।

‘‘कहानी क्या है?'' दिलीप कुमार ने जानना चाहा। ऋशिकेष मुखर्जी ने कहा कि अगर आप कहानी सुनना चाहते हैं तो मेरे घर पर आइये। उत्सुक दिलीप कुमार वहां चले गये जहां ऋशिकेष मुखर्जी पेईंग गेस्ट के रूप में रह रहे थे। षिश्टाचार पूरा हो जाने के बाद ऋशिकेष ने उन्हें उस कमरे की दीवार दिखाई जहां वे ठहरे हुए थे। वह दीवार नामों और तिथियों से भरी हुई थी और कहीं—कहीं पर भित्ति चित्रण भी किया हुआ था। ऋशिकेष ने कहा, ‘‘यह। यही वह कहानी है जिसे मैं बनाना चाहता हूं। एक कमरे के बारे में फिल्म जो तीन दम्पतियों का घर हैकृकृकृहर किसी के पास कहने के लिए अपनी एक कहानी है।''

दिलीप कुमार मंत्रमुग्ध हो गए। ‘‘मैं इस फिल्म को करूंगा और पैसे पर कभी ध्यान नहीं दूंगा।'' दिलीप कुमार ने वादा किया। ऋशिकेष मुखर्जी ने मुसाफिर को षुरू करने के लिए पैसे का इंतजाम किया। ऋत्विक घटक के द्वारा लिखी गयी मुसाफिर षादी, जन्म और मृत्यु — तीन भागों में घरकी कहानी कहती है। जाहिर है दिलीप कुमार कहानी के तीसरे भाग में उशा किरण और डेजी इरानी के साथ आते हैं। दिलीप कुमार ने एक ऐसे प्रेमी की भूमिका की है जो अपनी अलग रह रही प्रेमिका और उसके बच्चे से अपनी मृत्युषैया पर मिलता है।

कई आलोचकों ने कहा कि यह अतिषयोक्तिपूर्ण है। उनका मानना था कि जहां देवदास खत्म होता है वहीं से मुसाफिर षुरू होता है। सरतचंद्र के उपन्यास में, देवदास पारो के दरवाजे पर आता है लेकिन वह उसकी देखभाल करने में असमर्थ है कृकृकृ यहां तक पारो को उसकी मौजूदगी का पता चलने से पहले ही वह मर जाता है। मुसाफिर में, देवदास राजा के रूप में पुनर्जीवित हुआ है और उमा अपने साथ रहने के लिए उसे राजी कर लेती है ताकि वह उसकी देखभाल कर सके। विडम्बना यह है कि मुसाफिर में देवदास की ही टीम है। इसमें भी कमाल बोस सिनेमाटोग्राफर हैं, आर्ट डिजाइनर सुधेन्दु रॉय, लेखक ऋत्विक घटक और डायलॉग लेखक राजिंदर सिंह बेदी हैं।

मुसाफिर का मुख्य अंष सलील चौधरी के बैटन में दिलीप कुमार का लता मंगेषकर के साथ गाया एक गीत ‘‘लागी नहीं छूटे रामा चाहे जिया जाये'' है। यह दिलीप कुमार का किसी भी फिल्म के लिए गाया पहला और आखिरी गीत है। सालों बाद जब उनसे पूछा गया कि क्या लता मंगेषकर दिलीप कुमार जैसे स्टार के साथ गाने के दौरान नर्वस थीं, तो उन्होंने कहा, ‘‘इसके विपरीत, मैं नर्वस था।'' अपने गाने के प्रयास के बारे में वे कहते हैं, ‘‘एक षाम या षायद रात में इस गाने को बहुत ही लापरवाही से गाया और रिकार्ड किया गया। मेरे लिए, उस समय यह एक सफलता हासिल करने जैसी थी। गीत के बोल इतने अच्छे हैं कि ये किसी को भी आकर्शित कर सकते हैं। संगीत में, इसकी ताल मुझे परेषान करती थी— यदि इसमें कोई ताल नहीं होता, तो मैं इसे और बेहतर ढंग से गाता। लेकिन इसमें ताल षामिल करने पर मुझे अभ्यास करना पड़ा, रियाज करना पड़ा। और उसमें समय लगा— यह इतना आसान नही था।''

दिलीप कुमार—नौषाद—एस।यू।सन्नी की जोड़ी ने दिलीप कुमार के करियर(मेला और बाबुल) के षुरुआती दिनों में दो बड़ी हिट फिल्म दी और पांच साल बाद दो और बड़ी हिट उड़नखटोला (1955) और कोहिनूर (1960) आयी।

उड़नखटोला एक षहरी उड़नखटोला के चालक के बारे में संगीतमय काल्पनिक कहानी है जो काल्पनिक लैंड पर क्रैष लैंड करता है और उसकी दोस्ती एक स्थानीय लड़की से हो जाती है। इस लैंड की रानी भी उससे प्यार करने लगती है और उसे ईर्श्या होने लगती है जब उसे पता चलता है कि व एक साधारण लड़की से प्यार करता है। दिलीप कुमार और निम्मी (जिन्हें फिल्म इंडस्ट्री में अक्सर फीमेल दिलीप कुमार कहा जाता था क्योंकि फिल्म में अधिकतर समय वह मर जाती हैं) ने प्रेमी—प्रेमिका की भूमिका की है जो धरती पर नहीं मिल सकते हैं जबकि टी।आर। सूर्याकुमारी (जिसने हाल ही में मिस मद्रास बनने की सफलता हासिल की थी) ने सुंदर लेकिन घमंडी रानी की भूमिका की थी। उस समय निम्मी दिलीप कुमार को छोड़कर मर जाती है तो वह क्लाइमेक्स तक षोक में डूबा रहता है। जब वह मरता है तो स्वर्ग में उससे मिलता है।

प्यार की इस घिसी—पिटी और अक्सर सुनी जाने वाली कहानी को कल्पना में भव्य बनाने और इसे नया जामा पहनाने के कारण पसंद किया गया। इसके अलावा नौषाद के दिल को छू जाने वाले संगीत ने इसे लोकप्रिय और हिट बना दिया। यह फिल्म इतनी लोकप्रिय हो गयी कि इसे वनरथम के नाम से तमिल में डब कर रिलीज किया गया और दक्षिण में भी उसे उतने ही दर्षक मिले।

दषक की आखिरी फिल्म आजाद की परंपरा में ही रोमांच से भरपूर थी। इसमें कलाकार भी आजाद की ही जोड़ी थी — दिलीप कुमार और मीना कुमारी। यह भी हो सकता है कि यह दिलीप कुमार—नौषाद—एस।यू।सन्नी की टीम को आजाद की सफलता को कैष कराने का प्रयास हो। गीत, नष्त्य और फामूलों से भरी इस फिल्म ने यह साबित कर दिया कि दुखाःत भूमिकाओं के लिये प्रसिद्ध दिलीप कुमार और मीना कुमार समान क्षमता एवं काबिलियत के साथ कामेडी भूमिकायें भी कर सकते हैं। इस फिल्म को देखने के पहुंचने वाले दर्षकों की यह उम्मीद थी टे्रजडी िंकंग और ट्रेजडी क्वीन की यह जोड़ी दुखांत अभिनय की नया अध्याय रचने वाली है लेकिन दर्षकों को यह देखकर हैरानी हुयी कि यह फिल्म गीतों एवं नष्त्य के रंगों से सराबोर थी।

जब दिलीप कुमार को नौषाद साहब से यह पता चला कि इस फिल्म में एक गीत के फिल्मांकन के दौरान उन्हें सितार बजानी है तो उन्होंने ने नौषाद से कहा, ‘‘मैं सितार कैसे बजा सकता हूं।''

नौषाद ने कहा कि उन्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है क्योंकि सन्नी क्लोज अप में उस्ताद अब्दुल हालीम जफर खान की उंगलियों की हलचल को दिखाया जायेगा जिन्होंने ही इस गीत के लिये सितार बजाया है। दिलीप कुमार ने कुछ नहीं कहा, लेकिन उन्हें यह विचार पसंद आया। वह उस्ताद अब्दुल हालीम जफर खान के पास पहुंचे और उनसे सितार सीखने लगे। जब फिल्म के लिये काम षुरू हुआ और एक साल बाद यह दृष्य फिल्माया जाने लगा तो दिलीप कुमार इस दृष्य के लिये खुद सितार बजाने के लिये तैयार थे।

इस फिल्म की एक और विषेशता दिलीप कुमार और फिल्म के खलनायक जीवन के बीच दर्पण रख कर हास्य स्थिति पैदा करना था। इस दष्ष्य को मार्क्स बदर्स की कामेडी ‘‘डक सूप'' (1933 से लिया गया था) हालांकि इस तरह का दष्ष्य पहली बार मूक फिल्म द फ्‌लोरवाकर में था। इस दष्ष्य में खलनायक से बचने के लिये नायक एक दपर्ण के पीछे छिप जाता है लेकिन यह दर्पण वहां से सिखक जाता है और नायक दर्पण की छवि पैदा करने के लिये खलनायक की हरकतों की नकल करता है ताकि खलनायक को दर्पण में अपनी ही छवि दिखने का अहसास हो। इस तरह के दष्ष्य की नकल कई फिल्मों में की गयी है लेकिन दिलीप कुमार ने इस दष्ष्य से जो कामेडी पैदा की उस तरह की कामेडी मर्द में अमिताभ बच्चन को छोड़कर कोई भी पैदा नहीं कर पाया।

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आन : रोमांटिक हीरो की छवि

आन के भारत की पहली टेक्नीकलर फीचर फिल्म होने का गौरव प्राप्त है। यही नहीं यह भारत की पहली फिल्म थी जिसकी षूटिंग हिन्दी, तमिल और अंग्रेजी में हुयी। जब यह फिल्म रिलीज हुयी इसने अंतर्राश्ट्रीय फिल्मकारों का भी ध्यान खींचा और बीबीसी ने दिलीप कुमार का साक्षात्कार किया। आन ने भारतीय सिनेमा को दुनिया के नक्ष पर रखा। आन महबूब प्रोडक्षन की महत्वपूर्ण फिल्म के रूप में जानी जाती है जो अपने समय की चर्चित फिलमों में षामिल हुयी और इसका एक कारण दिलीप कुमार का कुषल अभिनय भी है। इस फिल्म के जरिये दिलीप कुमार की रोमांटिक नायक की छवि बनी। दिलीप कुमार के रोमांचकारी एवं साहसिक अभिनय ने उनकी छवि को नया आयाम दिया जिन्हें इससे पूर्व मुख्य तौर पर गंभीर और करूण भूमिकाओं के लिये जाना जाता था लेकिन इस फिलम ने यह साबित कर दिया कि वह हर तरह की भूमिकायें कर सकने में माहिर हैं। इस फिल्म उनके अभिनय को देखकर ऐसा लगता है कि इस अभिनय से उन्हें खुद भी आनंद लिया। अभिनय की दष्श्टि से आन एक सफल फिल्म है और दर्षकों को कहीं भी अस्वभाविकता नहीं दिखती। दिलीप कुमार जिस पात्र की भूमिका में हैं, उसमें उनका निजी व्यक्तित्व हावी नहीं होता है। इस फिल्म में मुकरी ने सहज और षिश्ट हास्य के द्वारा भरपूर मनोरंजन किया है। मुकरी अक्सर दिलीप कुमार की फिल्मों में रहते थे।

यह फिल्म 1952 की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म थी। यह पहली फिल्म थी जिसने डेढ़ करोड़ रूपये से अधिक की कमाई की। इस कीर्तिमान को तीन साल बाद 1955 में ‘‘श्री 420'' ने तोड़ा। इस फिलम पर हालवुड की फंतासी फिल्म ‘‘द थीफ आफ बगदाद'' का प्रभाव साफ दिखता है।

षकील बदायूंनी के गीत एवं नौषाद के संगीत ने इस फिल्म की कलात्मकता ने चार चांद लगा दिये। इस फिल्म का एक मुख्य आकर्शण नौषाद का संगीत था। इस फिल्म के भव्य दृष्यों के अनुकूल उनहोंने संगीत दिया और इस फिल्म के संगीत के लिये 100 म्यूजिषियनों का इस्तेमाल किया जो कि उन दिनों के लिये दुलर्भ बात थी। इस फिल्म के गानों की मिक्सिंग लंदन में की गयी थी। इस फिल्म के संगीत को खूब प्रषंसा मिली और बीबीसी पर भी बजाया गया।

आन के एक संक्षिप्त संस्करण को 1954 में फें्रच में ‘‘मंगाला फाइले डेस इंडेस'' के नाम से रिलीज किया गया। यह तमिल में डब होने वाली पहली हिन्दी फिल्म थी। सन 1954 में ‘‘सैवेज प्रिंसेस'' के नाम से इस फिल्म का अंग्रेजी संस्करण तथा संक्षिप्त 88 मिनट के जापानी संस्करण भी बनाया गया।

लेकिन महबूब, जिन्हें भारत के सिसेली बी डीमिले कहा जाता है के लिये सबसे खुषी की बात खुद डी मिले से मिली सराहना थी। इस फिल्म का स्क्रीनिंग अमरीका में की गयी और फिल्म देखने के बाद हालीवुड के लीजेंड माने जाने वाले डिमिले ने महबूब को पत्र लिखा, ‘‘मुझे विष्वास हो गया है कि आपके महान देष में ऐसी फिल्में बनाना बिल्कुल संभव है जिन्हें भारत की संस्कष्ति और परम्पराओं के साथ समझौता किया बगैर पूरा देष समझता है और जिन्हें देख कर आंनंदित होता है। मैं उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब आप भारत के रोमांस एवं मैजिक से भरपूर बेहतरीन कहानियों के जरिये हमारे सिनेमा के लिये नियमित रूप से योगदान करेंगे।'' हालांकि अमरीका में की गयी स्क्रीनिंग की तुलना में लंदन में की गयी स्क्रीनिंग के दौरान दर्षकों को अधिक जबर्दस्त प्रतिक्रिया मिली।

जिस समय यह फिल्म रिलीज हुयी थी, उससे मात्र चार साल पहले देष को आजादी मिली थी। स्वतंत्रता की चेतना का उत्साह एवं उमंग था। इस फिल्म के जरिये इस भावना को उकेरा गया कि अगर सत्ता जनता की आकाक्षाओं से कट जाती है तो उसका नाष होना तय है। तलवार की षक्ति से अधिक जनता की षक्ति होती है।

सायरा बानो ने फिल्म फेयर को दिये गये एक साक्षात्कार में अपने पति की भूमिका के बारे में कहा था, ‘‘दिलीप कुमार को इस फिल्म में रोमांटिक एक्षन हीरो की भूमिका निभानी थी। उन्हें फिल्म में रोमांटिक हीरो की भूमिका के अनुसार भांजने के लिये तलवार दिया गया था और सवारी करने के लिये मनमौजी घोड़़ा। दिलीप कुमार ने मुझसे कहा था कि उनके लिये दोनों चीजें प्रतिकूल थी। दिलीप कुमार को प्रेम में ठुकराये हुये युवक के स्थान पर रोमांटिक एक्षन हीरो की भूमिका करनी थी जो एक कठिन कार्य था लेकिन उन्होंने किसी तरह का प्रतिवाद किये बगैर उन्होंने इसे किया। अपनी मूल प्रकष्ति के विपरीत वह इस फिल्म में बर्हिमुखी व्यक्ति बने। इसका उन्हें फायदा भी मिला। अलेक्सान्द्र कोर्दा और ओर्सन वेल्स जैसे सिनेमा की महान हस्तियों और टेक्नीकलर के अविश्कारकों ने इस महान सिनेकष्ति की सराहना की।''

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गंगा जमुना

दिग्गज निर्देषक नितिन बोस के हाथों मंज कर तैयार हुयी ‘‘गंगा जमुना'' अपने समय की न केवल सर्वाधिक सफल फिल्म साबित हुयी बल्कि इसने निर्देषन, संवाद, संगीत, सिनेमाटोग्राफी से लेकर अभिनय जैसी सिनेमा की हर विधा में एक ऐसे मुकाम को हासिल किया जिसकी आज तक मिसाल मिलनी मुष्किल है। इस फिल्म ने न केवल ‘‘दो भाइयों की षत्रुता‘‘ पर बनने वाली दीवार, त्रिषुल और अमर अकबर एंथनाी जैसी फिल्मों के लिये पृश्ठभूमि तैयार की बल्कि दिलीप कुमार तथा अन्य कलाकारों का अभिनय बाद के दिनों के कलाकारों के लिये अभिनय की पाठषाला बन गये और यही कारण है कि अमिताभ बच्चन को कहना पड़ा कि जो ऐक्टर यह कह रहा है कि वह दिलीप कुमार से प्रभावित नहीं है तो वह झूठ बोल रहा है।

हिंदी सिनेमा के कई मर्मज्ञों की राय में ‘‘गंगा जमुना'' एक षसक्त पटकथा, उत्कृश्ट अभिनय और प्रदर्षन और अविस्मरणीय संगीत से भरपूर एक जबर्दस्त क्लासिक है। कई फिल्म जानकारों का कहना है कि सिनेमा के छात्रों को यह सीखने के लिये यह फिल्म अवष्य देखनी चाहिये कि किस तरह से एक कुषल निर्देषन ओर एक कसी हुयी पटकथा और विस्मयकारी अभिनय की बदौलत षानदार मनोरंजक एवं प्रभावषाली फिल्म बनती है।

डकैती ड्रामा पर आधारित टेक्नीकलर में निर्मित फिल्म है जिसका निर्माण दिलीप कुमार ने और निर्देषन नितिन बोस ने किया। फिल्म में दिलीप कुमार, उनके अपने भाई नासिर खान और वैजयन्तीमाला मुख्य भूमिकाओं में है। उस समय तक टे्रजडी किंग से अभिनय सम्राट बन चुके दिलीप कुमार ने फिल्म के हर दष्ष्य में ऐसा सधा हुआ और इतना जीवंत और इतना मार्मिक अभिनय किया है कि दर्षक हर पल बदलती उनकी भाव—भंगिमा, संवाद उच्चारण के तरीके और प्रभावषाली अदायगी को देखकर विस्मित होते रहते हैंं। हालीवुड और बालीवुड के तमाम लीजेंड के महत्व एवं प्रभाव तथा उन सब की ऐतिहासिकता का सम्मान करते हुये के बावजूद यह बिना संदेह के साथ कहा जा सकता है कि दिलीप कुमार ने जितनी सरलता के साथ एक होनहार देहाती युवक के विद्रोही डकैत बनने की कहानी को जीवंत किया है वैसा षायद ही कोई और अभिनेता कर सके।

हालांकि यह दुखद है कि ''गंगा जमुना'' अपनी तमाम खूबियों के बावजूद संभवत भारतीय सिनेमा की सर्वाधिक उपेक्षित क्लासिक बन कर रह गयी। इस फिल्म को न तो दिलीप कुमार के सषक्त अभिनय के लिये, न ही नितिन बोस के षानदार निर्देषन के लिये और न ही नौषाद के अविस्मरणीय संगीत के लिये फिल्मफेयर पुरस्कार मिला। हां, संवाद लेखक वजाहत मिर्जा को जरूर फिल्मफेयर पुरस्कार मिला जो वाजिब भी था। लेकिन अन्य श्रेणियों में इस फिल्म को पुरस्कार से बंचित किया जाना चयन की प्रणाली पर सवाल उठता है। हालांकि 9 वें फिल्म फेयर पुरस्कारों में इस फिल्म को सर्वश्रेश्ठ फिल्म और सर्वश्रेश्ठ निर्देषक सहित सात श्रेणियों में नामित किया गया लेकिन इसे तीन श्रेणियों — सर्वश्रेश्ठ अभिनेत्री (वैजयन्तीमाला) तथा वजाहत मिर्जा एवं वी वाला साहब के लिये दो अन्य पुरस्कार मिले। सर्वश्रेश्ठ फिल्म का पुरस्कार ‘‘जिस देष में गंगा बहती है'' को मिला और सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार इसी फिल्म के लिये राजकपूर को मिला। हालांकि 25 वें बंगाल फिल्म जनर्लिस्ट्‌स एसोसिएषन अवार्ड्‌स में इस फिल्म ने हिन्दी फिल्म की श्रेणी में नौ पुरस्कार जीते तथा 9 वें राश्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्टिफिकेट आफ मेरिट का पुरस्कार मिला।

एक साल बाद दिलीप कुमार को 1962 में केर्लोवी वैरी इंटरनेषनल फिल्म फेस्टिवल में गंगा जमुना में बेहतरीन प्रदर्षन के लिये दिलीप कुमार को ‘‘डिप्लोमा आफ ऑनर'' से सम्मानित किया गया और दो साल बाद 1963 में अमरीका के बोस्टन में इस फिल्म को सर्वश्रेश्ठ फिल्म के लिये सिल्वर वाउल मिला।

गंगा जुमना के किरदार अलग—अलग रंग, षब्दावली, षैली और उच्चारण के संवाद बोलते हैं। यह आष्चर्य की बात है कि मुख्य रूप से उर्दू लेखक होने के बावजूद, वजाहत मिर्जा ने भोजपुरी का सही अंदाज, टोन और षब्दावली को अपनाने में सफलता पायी है। यही नहीं षकील बंदायूनी ने कुछ खालिस भोजपुरी षब्दों के इस्तेमाल से अपने गीतों को नया जामा भी पहनाया। इस फिल्म में जमुना और स्कूल मास्टर को छोड़कर अन्य किरदार भोजपुरी से सजे संवाद कहते हैं. और सबकी अपनी व्यक्तिगत षैली है, चाहे वो गंगा हो, या धन्नो, या मुंषी कल्लू चाचा (दिग्गज चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल का अविस्मरणीय अभिनय), गंगा की माँ या फिर जूनियर कलाकार! उदाहरण के लिए कल्लू चाचा की भोजपुरी कुछ निराले अंदाज में कहे गये अंग्रेजी षब्दों से सजी है। दिलीप कुमार षब्दों के एक जादूगर हैं और वे अपनी संवाद अदायगी से एक अलग ही जादू जगाते हैं। हालांकि दिलीप कुमार का अभिनय एवं भोजपुरी में उनके बोलने का लहजा बेमिसाल है लेकिन वैजयंतीमाला का अभिनय कम आष्चर्यजनक नहीं जो एक दक्षिण भारतीय तमिल होने के बावजूद, भोजपुरी बोली को इस अंदाज से बोलती हैं कि मानो वे यहीं पैदा हुयी थीं।

इस फिल्म में गंगा बने दिलीप कुमार और धन्नो बनी वैजयंतीमाला के बीच की अविष्वसनीय कैमिस्ट्री देखने को मिलती है। यही नहीं इस फिल्म में चरित्र अभिनेता कन्हैय्यालाल ने यादगार अभिनय किया है जो हालांकि फिलम में बुरे दिल के जमींदार हरि बाबू, जिसने गंगा पर अत्याचार किये है, के लिए काम करता है और लेकिन जिसका दिल गंगा के साथ है। इस फिल्म वी. बाबासाहेब का अद्‌भूत आउटडोर षूटिंग है। रफ्‌तार से भरी रेल डकैती के लिए जिसे हॉलीवुड फिल्म जैसा षूट किया गया है और जिसे एक दषक बाद ‘‘षोले'' में दोहराने का प्रयास किया गया था। इसमें बेहतरीन विजुअल दृष्यों की भरमार है। मिसाल के तौर पर हरि बाबू पुलिस और गंगा से बचकर निकल रहा है और अचानक कहीं से उठ रहे धुंए में घिर जाता है। वह जहाँ भी भागने की कोषिष करता है धुंए का बादल उसका पीछा नहीं छोड़ता। हम नहीं जानते यह धुंआ कहाँ से आ रहा है. यह हरि बाबू और दर्षक, दोनो के लिए एक आष्चर्य है. अंत में, धुंए के स्रोत का पता चलता है — यह गंगा द्वारा धन्नो की चिता को आग दिए जाने से आ रहा है।

सेंसर बोर्ड की आपत्ति के कारण इस फिल्म के रिलीज होने में छह माह का बिलंब हुआ। उन दिनों इस बात को लेकर चर्चा थी कि इस फिल्म के रिलीज में इस कारण से बिलंब कराया गया ताकि डकैतों के सुधार विशय पर बनी राज कपूर की फिल्म ‘‘जिस देष में गंगा बहती है'' बॉक्स आफिस पर दिलीप कुमार की टेक्नीकलर ‘‘गंगा जमुना'' से पहले आ जाये क्योंकि यह तय था कि ‘‘गंगा जमुना'' को बॉक्स आफिस पर भारी सफलता मिलनी ही थी।

आखिरकार यह जनवरी 1961 में रिलीज हुयी और 1960 की सर्वाधिक हिट फिल्म बन गयी और बॉक्स आफिस कलेक्षन के हिसाब से यह आज की सर्वाधिक सफल फिल्मों में गिनी जाती है।

स्तंभ लेखक वीर सांधवी के पिता स्वर्गीय रमेष सांघवी दिलीप कुमार के करीबियों में से एक थे। वीर सांघवी की पूर्व पत्नी मालविका सांधवी अपने एक लेख में लिखती हैं — वीर सांघवी बताते हैं कि बचपन की यादों में से सबसे पहला वाकया जो मुझे याद है, वह ‘‘गंगा जमुना'' की रिलीज के वक्त का है जब सेंसर बोर्ड फिल्म को मूल स्वरूप में रिलीज करने की मंजूरी नहीं दे रहा था और उसमें कुछ काटछांट चाहता था। जो दृष्य काटने की बात हो रही है वे फिल्म के लिए कितने जरूरी हैं जब कुमार यह बात समझाने में नाकाम हो गए तो उन्होंने मेरे पिताजी (रमेष सिंघवी, जो दिलीप कुमार के करीबियों में से एक थे) से संपर्क किया जो एक वकील थे। तब यह सिलसिला षुरू हुआ कि रोजाना षाम को मैं थियेटर जाया करता जहां दिलीप और दूसरे लोग फिल्म देख रहे होते। कई मर्तबा देखने के बाद मुझे उसके संवाद ही याद हो गए।

इस फिल्म को सेंसर बोर्ड से पारित कराने के लिये इतने पापड़ बेलने पड़े कि उन्होंने दोबारा फिल्म नहीं बनाने की कसम खा ली। दिलीप कुमार ने एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘इस फिल्म के सेंसर बोर्ड से पास हो जाने के बाद भी मैं दौड़ता रहा और छह माह बाद मोरारजी देसाई के हस्तक्षेप से यह फिल्म सिनेमा घरों तक पहुंच पायी। एक फिल्म बनाने के लिये आपको व्यावसायी बनना पड़ता है, हुडियों पर दस्तख्त करने पड़ते हैं और भारी ब्यार पर लोन लेना पड़ता है। यही कारण है कि मैंने फिर कभी अपने दम पर फिल्म निर्माण नहीं किया।''

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दिलीप कुमार और मधुबाला

दिलीप कुमार ने अपनी मंद मुस्कान और अपनी गहरी षांत आंखों से कई लड़कियों का दिल जीता था लेकिन जब तराना में अभिनय के दौरान दिलीप कुमार जब एक ऊंगली के सामान्य झटके से मधुबाला के चेहरे से बालों के गुच्छे को हटाकर उनकी आंखों में एकटक देखते हैं तो देखते ही रह जाते हैं। और अपना दिल उस फिल्म की खूबसूरत अभिनेत्री को दे बैठते हैं।

इस फिल्म के बाद दोनों के बीच आयी नजदीकियों के कारण पचास के दषक के षुरुआती साल मधुबाला के बेहतरीन साल बन गये थे। वह प्यार में हर्शोन्मत्त और भावविभोर थीं और उनके चेहरे से खुषी टपकती थी। उन दिनों के बारे में गुलषन ईविंग लिखते हैं, ‘‘एक क्षण के लिए उसने मेरे ऊपर इतना विष्वास कर लिया और मुझे भी विष्वास में ले लिया। मेरे साथ बातचीत के दौरान वह बस युसूफ, युसूफ, युसूफ ही बोलती रही। वह इतना ज्यादा प्यार में पड़ चुकी थी कि उसने हर किसी को चकित कर दिया। जब उसके नाम के साथ युसूफ का नाम षामिल हुआ तो वह किलकारी मारने लगी, षरमा गई और पसीने—पसीने हो गई।''

राम दरयानी की यह फिल्म तराना 1951 में रिलीज हुयी। फिल्म इंडिया ने लिखा था, ‘‘इस फिल्म में दिलीप कुमार और मधुबाला की रोमांटिक जोड़ी पहली बार देखी गई है और दोनों ही सफल रहे हैं।''

दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘तराना हमारी पहली फिल्म थी लेकिन इससे पहले 1949 मेंं एक अन्य फिल्म हार सिंगार में उसने मेरे साथ कुछ सीन किए थे, लेकिन वह फिल्म जल्द ही बंद हो गई। महेष कौल इसके निर्देषक थे। मधुबाला के पिता ने एक बार मुझसे यह फिल्म करने के लिए भी कहा था लेकिन अपनी बाध्यता और अन्य कारणों से इसे मैं नहीं कर सका।''

1951 में तराना मधुबाला से काम करने से पूर्व वह उस समय की सभी स्थापित अभिनेत्रिायों— नरगिस, नूरजहां, कामिनी कौषल और निम्मी के साथ काम किया था। दिलीप कुमार को जब खूबसूरत मधुबाला के साथ काम करने की बारी आयी वह 18 साल की थी और वह एक साल पूर्व महल की सफलता से काफी प्रसिद्धी पा चुकी थीं। तराना साइन करने के साथ ही जवांदिल मधुबाला की जिंदगी में एक नया मोड़ आ गया और उन्होंने अपना दिल अपने साथी कलाकार को दे दिया। उन्होंने न तो अपने भविश्य की और न ही तानाषाही पिता की परवाह की और वह षादी को तैयार हो गर्इं। दोनों के बीच पहनी लव स्टोरी की षुरुआत बहुत ही रमणीयता से हुई और इसे देखकर मधुबाला के आकर्शण में डूबे प्रेमनाथ ने अपनी इच्छा को दबाने और खुद को अलग करने का फैसला कर लिया।

तराना के बाद उनकी फिल्म संगदिल (1952) आई जिसका निर्देषन आर। सी। तलवार ने किया था। उसके बाद अमर (1954) आई जिसमें मधुबाला ने मीना कुमारी की जगह पर काम किया। मीना कुमारी ने 15 दिनों तक षूटिंग करने के बाद महबूब खान से मनमुटाव के कारण इस फिल्म को छोड़ दिया था।

अमर अपने समय से बहुत आगे की फिल्म थी। इसके विशय बहुत ही बोल्ड थे और दर्षक इसके अर्थ को समझकर इसकी प्रषंसा कर पाने में असमर्थ थे। इस फिल्म में तीन लोगों के बीच संबंध दिखाए गए थे— वकील (दिलीप कुमार), एक प्रषिक्षित, सामाजिक रूप से जागरुक युवा महिला वाग्दत्ता (मधुबाला) और गांव की एक सामान्य दिमाग की दूध वाली (निम्मी)।

के। आसिफ की मुगल—ए—आजम मधुबाला और दिलीप कुमार की जोड़ी की आखिरी फिल्म थी। हालांकि मुगल—ए—आजम दिलीप कुमार की सर्वश्रेश्ठ फिल्म नहीं थी, लेकिन मधुबाला के साथ उनके प्यार भरे दष्ष्य अभी तक के सबसे यादगार दष्ष्य रहे हैं। दोनों ही कलाकारों ने बहुत ही उत्कष्श्टता, संवेदनषीलता और गहरे भावावेष के साथ काम किया और दर्षकों पर गहरा प्रभाव छोड़ा। आम लोगों और आलोचकों से भरपूर प्रषंसा पाने के बाद उनका स्थान सिनेमा के इतिहास के न भूलने वाले सबसे महत्वपूर्ण दष्ष्यों मेंं सुनिष्चित किया गया। फिल्म के पूरा होने के साथ ही मधुबाला और दिलीप कुमार का साथ खत्म हो गया। 50 के दषक के अन्य प्रसिद्ध कलाकार जोड़ियों से अलग दिलीप कुमार और मधुबाला ने एक साथ सिर्फ चार फिल्मों में काम किया जबकि नरगिस और राज कपूर ने एक दर्जन से अधिक फिल्मों में साथ काम किया। हालांकि दिलीप कुमार और मधुबाला को लेकर कई फिल्में बनाने की योजना थी, लेकिन इन योजनाओं को अंजाम नहीं दिया जा सका। तराना की सफलता के बाद संगदिल, दाग और गोहार नाम की तीन फिल्मों की घोशणा हुई, जिनमें सिर्फ संगदिल पूरी होकर रिलीज हुई। गोहार फ्लोर पर नहीं जा सकी और दाग दिलीप कुमार और निम्मी को लेकर बनाई गई। 1953 में चित्रालेखा फिल्म की घोशणा की गई और यह फिल्म रंगीन बनाई गई। गुरुदत्त की प्यासा में मुख्य भूमिका के लिए पहले दिलीप कुमार, मधुबाला और नरगिस को चुना गया था। बाद में दिलीप कुमार की फिल्म हार सिंगार और नया दौर आई।

हालांकि दिलीप कुमार के साथ बनी उनकी चार फिल्मों में से हर फिल्म गहरा प्रभाव छोड़ती है और ये फिल्में एक साथ कई मायनों में एक दूसरे की पूरक हैं। इन फिल्मों में प्रतिभा और करिष्मा का संगम देखने को मिलता है और इनमें आपस में एक घनिश्ठ संबंध दिखाई देते हैं। इनके अलावा, उनका निजी संबंध भी उनकी पर्दे की भूमिका को विष्वसनीयता प्रदान करते हैं। उन दोनों का एक दूसरे के दिल पर असर था और इस तरह उन्होंने दर्षकों की कल्पना को साकार किया।

दिलीप कुमार के अनुसार, ‘‘मधुबाला की सुंदरता इतनी प्रभावषाली थी कि उसके सामने उसके अन्य कई गुणों को लोग नजरअंदाज कर देते थे। वास्तव में, वह बहुत खूबसूरत थी, हालांकि मैं नहीं सोचता कि उसका चेहरा पूरी तरह से परिपूर्ण था। उसकी नाक थोड़ी सी ऊंची थी, लेकिन उसकी सुंदरता की परिपूर्णता से इसे अलग नहीं किया जा सकता था। एक अभिनेत्राी के रूप में उसका सबसे मूल्यवान गुण उसकी सहजता थी। वह कभी—कभार ही प्रकट होती थी, पूरी तरह से विनीत थी और गमगीन माहौल को भी अचानक जिंदादिल कर देती थी। वह बहुत ही विनोदी स्वभाव की थी, उसे कॉमेडी की समझ थी और वह विभिन्न भावनाओं को व्यक्त करने में पारंगत थी। यदि उसकी कुछ फिल्मों में सामंजस्य की कमी थी तो उसका कारण यह था कि उसमेंं भूमिका की मांग के साथ खुद को ढाल लेने की कमी थी क्योंकि उसे विभिन्न प्रकार के सेटअप के साथ काम करना पड़ता था। काफी लोग उसे दिषानिर्देष देने की भी कोषिष करते थे। मैं सोचता हूं कि मुगले—ए—आजम से उसे अंततः कई प्रकार की प्रेरणा मिली जोे उसकेे कद को ऊंचा करने के लिए जरूरी था। चरित्र की सूक्ष्म रूपरेखा के साथ खुद को पूरी तरह से परिचय कराना ही उसे खुद को श्रेश्ठ साबित करने के लिए प्रेरित किया और इस फिल्म ने मधुबाला के चेहरे को अमर बना दिया।''

मुगल—ए—आजम बनने के दौरान दिलीप कुमार, यहां तक कि जिस दिन की षूटिंग में उनकी जरूरत नहीं भी होती थी, मधुबाला को देखने आ जाते थे। वह मधुबाला के सेट पर चले जाते थे और यदि वह काम कर रही होती थीं, तो कुछ कहते नहीं थे। वह खड़े होकर मधुबाला को देखते रहते थे, दोनों में नजरों का आदान—प्रदान होता था और वह चले जाते थे। लेकिन सिर्फ उनकी मौजूदगी से ही मधुबाला को दुनिया की सबसे बड़ी खुषी मिल जाती थी। अगर उन्हें आने में थोड़ी देर हो जाती तो मधुबाला की आंखें उन्हें ढूंढती रहतीं और जब उन्हें देख लेतीं, उनका दिन सफल हो जाता।

उनके अनुराग की अनन्तता, कांति और चमक के साथ उनके पूरे षरीर में व्याप्त थी। फिल्म इंडिया ने लिखा था, ‘‘मधुबाला ने अंततः अपनी आत्मा दिलीप कुमार के सानिध्य में ही पाई।'' दिलीप कुमार से वह बहुत सावधानी पूर्वक आम जनता की नजरों से दूर मिलती थीं। वह आम तौर पर सुषीला रानी पटेल अथवा के। आसिफ और उनकी पत्नी सितारा देवी के घर पर ही दिलीप कुमार से मिलती थीं। सितारा देवी कहती हैं, ‘‘जब वह हमारे घर आते थे तो आसिफ और मैं बाहर चले जाते थे ताकि वे एकांत में कुछ पल बिता सकें।''

षम्मी कपूर याद कर कहते हैं कि जब वह पूना (अब पुणे) में प्रभात स्टुडियो में नकाब के लिए षूटिंग कर रहे थे तो दिलीप कुमार मधुबाला से मिलने खुद ड्राइव करके मधुबाला से मिलने पहुंचते थे। यहां तक कि उन्होंने मद्रास में जेमिनी की इंसानियत की षूटिंग से कुछ समय निकालकर बम्बई जाकर मधुबाला के साथ ईद मनाई।

यह वह दौर था जब यहां तक कि फिल्म स्टार भी कुछ निजता के अधिकार को पूरी तरह से मना नहीं करते थे और वे प्रत्यक्ष पब्लिसिटी से भी बचते थे। उनका रोमांस स्क्रीन पर ही साफ दिख जाता था। मधुबाला की अर्थपूर्ण आंखें और मुस्कान और दिलीप कुमार की बराबर की भावपूर्ण अभिव्यक्ति इस बात की पुश्टि करते हैं। यहां तक कि आज भी दर्षकों पर मुगल—ए—आजम के रोमांस के सीन का सम्मोहन निरन्तर बरकरार है। ऐसा सच्चाई की उस चमक के कारण हुआ जो उनमें मौजूद थी और जो उनकी संवेदना से खुद ही व्यक्त होती थी। यही बात तराना, अमर या संगदिल में भी विभिन्न कोणों से कही गई है।

जैसे—जैसे उनकी प्रेम कहानी आगे बढ़ी, दिलीप कुमार और मधुबाला में एक महत्वपूर्ण बदलाव आ गया। उनके बीच बातचीत में कोई अवरोध नहीं था और उनके सच्चे प्यार के रास्ते में कांटों या बाधाओं का पता लगाना मुष्किल था। दोनों ही पठान मुस्लिम थे, दोनों अपने करियर की चोटी पर थे, उनकी उम्र भी अनुकूल थी और सबसे महत्वपूर्ण दोनों ही कुंआरे थे और किसी वायदे में बंधे हुए नहीं थे। यदि षादी की उनकी इच्छा होती तो प्रकट रूप से, उन्हें षादी से रोकने वाला कोई नहीं था। लेकिन दोनों एक दूसरे के विरोधी हो गए।

वह स्थिति बिल्कुल अनोखी थी। एक—दूसरे के प्रति दोनों के दिलों में प्यार इतना मजबूत था कि कोई भी व्यक्ति उन दोनों में से किसी की भी जिंदगी में नहीं आ सकता था, फिर भी उन दोनों ने अपने रिष्ते को पूरी तरह से खत्म कर लिया। उनका पांच—छह साल का रोमांस उनके भाग्य के लेख के आगे परास्त हो गया। हालांकि दिलीप कुमार षुरू से अंत तक मधुबाला की तुलना में अधिक सही—सलामत रहे जबकि मधुबाला का घाव कभी भर नहीं पाया। भावुक और छल—कपट से दूर वह अलगाव के सदमे का सामना नहीं कर पार्इं। नादिरा ने एक बार कहा था, ‘‘वह छोटेपन से दूर थी। वह लड़की घृणा के बारे में कुछ नहीं जानती थी। वह सिर्फ प्यार करना जानती थी। प्यार में डूबी हुई। उसके पास देने के लिए बहुत कुछ था।''

मधुबाला में थोड़ा बदलाव आना षुरू हो गया था, यह बदलाव बहुत सूक्ष्म था लेकिन जो लोग उन्हें जानते थे, उन्हें इस बदलाव का अहसास होने लगा था। उनके एक दोस्त ने कुछ इस प्रकार कहा था, ‘‘1951 में, जब मैंने पहली बार उसे जाना, वह हमेषा मुस्कुराती रहती थी, प्रसन्नचित्त रहती थी। मैं उसके षांत दिमाग से ईर्श्या करता था। 1958 में उसकी सुंदरता तो वैसी ही थी लेकिन उसके दिमाग की षांति गायब हो चुकी थी।'' उसी साल फिल्मफेयर ने लिखा था, ‘‘उसकी हंसी में अंतर आ रहा है, सिर्फ इसलिए नहीं कि उसने जिंदगी को जाना है। वह हंसती है क्योंकि दुख को छिपाने के लिए मुस्कान सबसे अच्छा आवरण है। मधुबाला ने संघर्श में खुद का साथ निभाया, उससे प्रभावित हुई, उसका मोह भंग हुआ और उसे भावनात्मक धक्का लगा लेकिन वह अपनी मनमोहक मुस्कान का लबादा ओढ़कर जमीन पर खड़ी रही। परिवार, या पिता के विरोध और व्यवधान ने उसके रोमांस को खत्म कर दिया।'' अताउल्लाह खान इस प्यार को पसंद नहीं करते थे और उन्होंने इस प्यार को तोड़ने का निष्चय कर लिया। मधुबाला के पूरे परिवार का भार अब भी मधुबाला के कंधों पर ही था। उनके पिता कठोर और तानाषाही व्यक्तित्व वाले थे और मधुबाला उनसे भयग्रस्त रहीं। दिलीप कुमार के प्रति मधुबाला के प्यार की गहराई को समझे बगैर उन्होंने उनके प्यार को कुचल दिया। वह उनका विरोध नहीं कर पार्इं और उनकी स्वीकृति के बगैर षादी नहीं की। उनकी खुषी दिलीप कुमार के प्यार और अपने पिता की स्वीकृति के साथ बंधी थी। इस तरह की भावनात्मक निर्भरता पहले कभी देखी नहीं गई थी या अभी तक इसे समझा नहीं जा सका था। उन्हें अपने पिता के लिए खुद को अर्पित कर देने, प्यार और सम्मान देने के बदले कुछ नहीं मिला। वास्तव में, यह कहा गया कि जब दिलीप कुमार ने अपना प्रोडक्षन गंगा जमुना षुरू किया तो उन्होंने यहां तक निर्णय लिया कि वह फिल्म की पूरी आमदनी अताउल्लाह खान को दे देंगे ताकि वह और मधुबाला षादी कर सकें और मधुबाला फिल्मों में काम करना बंद कर दे।

दिलीप कुमार के अनुसार, ‘‘वह बहुत, बहुत आज्ञाकारी बेटी थी। वह कहती थी, ‘‘जब तक मैं अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर लेती, मैं षादी के बारे में सोच भी नहीं सकती।'' षम्मी कपूर कहते हैं, ‘‘अपने परिवार को न छोड़ने की जिद्द उसकी सबसे बड़ी कमी थी। उसे कभी न कभी तो अपने परिवार को छोड़ना ही था। सिर्फ एक कारण से उसने दिलीप कुमार को छोड़ने का निर्णय ले लिया। वह अपने परिवार की खातिर हर चीज छोड़ने को तैयार थी। मधुबाला अपने परिवार के बगैर नहीं रह सकती थी।''

पचास के दषक के मध्य में उन्होंने साफ संकेत दे दिया कि वह एक निर्णय पर पहुंच चुकी हैं। सन्‌ 1955 में, उन्होंने फिल्मफेयर को एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘दुनिया में किसी भी व्यक्ति को मेरे पति के चुनाव के संबंध में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। मैं सिर्फ उसी व्यक्ति से षादी करूंगी जिससे मैं बहुत प्यार करूंगी।''

अगले साल सब खत्म हो गया। दो षक्तिषाली पठानों के अहंकार के झगड़े में उनका तनाव और दुख बढ़ता गया, उनका रिष्ता लड़खड़ाने लगा और पुनर्जीवित नहीं हो सका। देविका रानी ने एक बार कहा था, ‘‘उसके अतिमहत्वाकांक्षी पिता ने उसकी जिंदगी को खत्म कर दिया।'' दिलीप कुमार के प्रति तीव्र विद्वेश और निश्ठुरता ने अताउल्लाह खान को दिलीप कुमार के भविश्य के ष्वसुर न बनने के लिए बाध्य कर दिया। आखिर इन दोनों के बीच ऐसा क्या हुआ, मधुबाला सिर्फ इसका अनुमान ही लगा सकती थीं। अचानक सब कुछ षांत नहीं हुआ। हालांकि दिलीप कुमार के मधुबाला के प्रति प्यार और उनके साथ षादी करने के विचार में कोई परिवर्तन नहीं आया। उन्होंने निष्चय कर लिया था कि एक बार षादी हो जाने के बाद वह पिता और बेटी के बीच के हर बंधन को खत्म कर देंगे।

ओम प्रकाष की उपस्थिति में ढाके की मलमल (1956) के निर्माण के दौरान एक नाटकीय किस्म की घटना के कारण दिलीप कुमार और मधुबाला के बीच के संबंध ने अंतिम आकार ले लिया। ओम प्रकाष फिल्म के सेट पर थे और उन्होंने दिलीप कुमार के पास एक संदेष भिजवाया कि वह उनसे मिलना चाहते हैं। उस समय दिलीप कुमार मधुबाला के साथ उनके मेकअप रूम में थे और वहां का वातावरण बहुत गर्म हो रहा था। ओम प्रकाष से अनुरोध किया गया कि वह बैठ जाएं और वहां जो कुछ हो रहा है उसके गवाह बनें। उन्होंने देखा कि दिलीप कुमार मधुबाला से याचना कर रहे हैं कि वह उनके साथ चलकर षादी कर ले। उन्होंने एक काजी को भी तैयार रखा था जो उनके घर पर उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। वह उसी समय मधुबाला को ले जाना चाहते थे। उन्होंने कहा था, ‘‘मैं आज ही इसके साथ षादी करूंगा।'' लेकिन इसके साथ ही वह एक षर्त भी रख रहे थे जिसके कारण षादी में बाधा आ रही थी— उसे अपने पिता का साथ छोड़ना होगा और वह उनसे कभी नहीं मिलेगी। मधुबाला ने सिर्फ इतना ही कहा कि यह असंभव है, इसके अलावा उन्होंने कुछ नहीं कहा। ‘‘दिलीप साब बार—बार मधुबाला से अनुरोध कर रहे थे। उन्होंने मधुबाला से पूछा कि इसका अर्थ यह हुआ कि वह उनके साथ षादी नहीं करना चाहती है? उन्होंने मधुबाला से कहा कि अगर अभी वह चले गए तो दोबारा वापस नहीं आएंगे। मधुबाला चुप थी। अंत में, वह उठे और उसे अकेला छोड़कर उसकी जिंदगी से चले गए।'' मधुबाला जितनी नेक थीं उतनी ही स्वतंत्रा भी हो सकती थीं। एक या अन्य के बीच में निर्णय करने में उन्होंने अपने परिवार का चुनाव किया। वह यह सोचती हाेंगी कि उनके पिता बहुत कठोर हैं और वह आज जो कुछ भी हैं उन्हीं की बदौलत हैं। वह उनके साथ गहराई से जुड़ी हुई थीं जिसके कारण उनके लिए अपने परिवार को छोड़ना सोच से भी परे था। यह अलग बात थी कि उनके परिवार ने उनकी खुषी की परवाह नहीं की।

चालीस और पचास के दषक की अभिनेत्रिायों में परिवार के प्रति निश्ठा आष्चर्यजनक होती थी। यह युग आर्थिक और भावनात्मक षोशण की कहानियों से भरा पड़ा है। मीना कुमारी, सुरैया, नूतन, कामिनी कौषल और नर्तकी कुक्कू से लेकर बेबी नाज और ईरानी बहनोंडेजी और हनी जैसी बाल कलाकारों के साथ ऐसा ही हुआ। इन सभी का छोटे या बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया। नादिरा कहती हैं, ‘‘उस समय, यह एक रैकेट की तरह चलता था।'' सबसे आष्चर्यजनक बात तो यह थी कि किसी भी कलाकार ने इसका विरोध नहीं किया और अगर किसी ने थोड़ा—बहुत विरोध किया भी, तो उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

दिलीप कुमार और मधुबाला के मामले में, कोई भी निश्कर्श नहीं निकल सका कि कौन सही था और कौन गलत था। देविका रानी ने कई साल बाद कहा था, ‘‘एक तरह से दोनों ही अपने भाग्य से खुद को अलग नहीं कर सके।''

यह संबंध जितनी ऊंंचाई तक पहुंच चुका था उतनी ही विवेकषीलता के साथ टूट भी गया जिसमें भावनाओं का कोई तमाषा खड़ा नहीं किया गया। मधुबाला उसके बाद भी अपने परिवार के साथ थीं। उनकी पसंद अच्छी थी। उन्होंने दिलीप कुमार से प्यार किया लेकिन दोनों के बीच का संबंध षुरू से ही कमजोर और अनिष्चित साबित हुआ। लेकिन वह उनकी जिंदगी का एक अध्याय मात्रा नहीं थे जिसे बंद कर अलग रख दिया जा सके। वह मधुबाला का सम्पूर्ण उद्देष्य थे। दिलीप के प्रति उनके प्यार में कोई बदलाव नहीं आया। उन्होंने जो एक गलती की या एक गलत निर्णय लिया उसके लिए उन्हें प्रेरित किया गया। उन्होंने अपने इस निर्णय के कारण अपने स्वास्थ्य, अपनी खुषी और अपने दिमाग की षांति को रौंद दिया। वह जितनी प्यारी और भावनात्मक लड़की थीं, उनके संबंध में लिया गया निर्णय उतना ही आत्मघाती था।

अगले कुछ वर्शों में अपने टूटे हुए दिल के जख्म को भरने के लिए उन्होंने काम में खुद को व्यस्त रखा और अपने दुख—तकलीफ को भूलने की कोषिष की। उन्हें काला पानी, हावड़ा ब्रिज, चलती का नाम गाड़ी और बरसात की रात जैसी अत्यधिक सफल फिल्मों में काम करके संतुश्टि मिली। व्यक्तिगत रूप से, सामान्य दिखने के लिए उन्होंने काफी प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी रहीं। लेकिन उनका विचारमग्न रहना और एकांत की खोज करना और उनकी मनमोहक मुस्कान और आंखों की चमक का गायब हो जाना किसी से छिपा नहीं रहा। सुषीला रानी पटेल ने कहा था, ‘‘वह हमेषा ही दुखी रही लेकिन उसने इसे हमेषा छिपा कर रखा।'' गुलषन कहते हैं, ‘‘अलौकिक सौंदर्य की मल्लिका होने के बावजूद उसकी आंखें हमेषा उदास रहती थीं, लेकिन उसके होठों पर हमेषा मुस्कान होती थी। लेकिन अपने पुराने सहयोगियों के सामने या अपने मेकअप रूम में उसके गम सिसकी के रूप में प्रकट हो जाते थे।''

उनकी बहन कनीज फातिमा कहती हैं, ‘‘मधु ने मरते समय तक सिर्फ एक व्यक्ति को प्यार किया और वह दिलीप कुमार थे।''

दिलीप कुमार एक बार जब मधुबाला की जिंदगी से निकल गए तो फिर कभी मधुबाला की तरफ झांकने या उनके दुखी एवं टूटे हुए दिल की थाह लेने भी नहीं आए। मधुबाला और दिलीप कुमार के प्यार भरे दोनों दिलों के बीच पैदा हुये अलगाव के कई कारण थे, लेकिन फिल्म नया दौर को लेकर चले अदालती मुकदमे के दौरान दोेनों के बीच एक ऐसी कड़वाहट उत्पन्न हो गई कि जिसने दोनों के बीच के रिष्ते को न केवल हमेषा के लिए खत्म कर दिया बल्कि इसके साथ ही इस रिष्ते को पुनर्जीवित करने की संभावना भी खत्म हो गई। इस मुकदमेबाजी के दौरान दोनों पक्षों की ओर से एक दूसरे के खिलाफ इतना कुछ कहा—सुना गया और इतना कुछ किया गया जिसे भूलना दोनों के लिए असंभव था। कड़वाहट भरे इस दौर की यादें इतनी कड़वी और इतनी दुखदायी थी कि मधुबाला इससे फिर कभी उबर नहीं पाइर्ं और सौंदर्य की मल्लिका मानी जाने वाली मधुबाला के चेहरे से हंसी तथा उनके जीवन से खुषियां एक तरह से गायब हो गई। मधुबाला इस प्रकरण को लेकर अचंभित, दुखी और गुस्से में थीं और उन्होंने इस मामले के षांत हो जाने के बाद भी दिलीप कुमार के साथ मेल—मिलाप करने तथा पुराने संबंधों को पुनर्जीवित करने की कोषिष की, लेकिन दिलीप कुमार ने मधुबाला को माफ नहीं किया। उनकी जिंदगी में यह संकट बी। आर चौपड़ा की नई फिल्म नया दौर के साइन करने के साथ ही षुरू हुआ जिसके हीरो दिलीप कुमार थे। करदार स्टुडियो में 10 दिन की इनडोर षूटिंग पूरी होने के बाद एक दिन चौपड़ा ने कहा कि मधुबाला के साथ काम करना बहुत ही सुखद रहा और उसके कारण कोई समस्या नहीं आई। लेकिन तभी उन्होंने भोपाल के नजदीक एक लंबी आउटडोर षूटिंग की घोशणा कर दी। अताउल्लाह खान ने मधुबाला को षूटिंग के उस लोकेषन पर भेजने से इंकार कर दिया। इसके साथ दोशारोपण और आरोप—प्रत्यारोप का सिलसिला षुरू हो गया और चौपड़ा मधुबाला और उनके पिता को अदालत में ले आए।

इस मुकदमे में बम्बई फिल्म उद्योग के कुछ बड़े नाम भी षामिल थे, वे एक दूसरे के विरोध में खड़े हो गए। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान गिरगांव की अदालत में बहुत भारी भीड़ इकट्ठी होती थी, लेकिन यह आष्चर्यजनक बात है कि प्रेस ने इसे सरसरी ढंग से लिया और इसका विस्तृत ब्यौरा नहीं छापा। आज तक इस मुकदमे से जुड़े कोर्ट रूम के रिकार्ड उपलब्ध नहीं हैं।

सालों बाद बी। आर। चौपड़ा के विचार दर्ज हुए। संक्षेप में, उन्होंने मधुबाला को अपनी फिल्म के लिए साइन किया और उनके साथ दस दिन की षूटिंग भी की। इस फिल्म के लिए काफी आउटडोर षूटिंग करनी थी लेकिन भोपाल के निकट जो लोकेषन चुना गया वहां मधुबाला षूटिंग के लिए जाने को तैयार नहीं हुइर्ं। उसके बाद उन्होंने एक अन्य अभिनेत्राी वैजयंतीमाला को साइन कर लिया और उन्होंने मधुबाला से उन्हें भुगतान किए गए 30 हजार रुपये लौटाने को कहा। मधुबाला के पिता ने वह पैसे देने से इंकार कर दिया तो उन्होंने मधुबाला और उनके पिता के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया और फैसला भी निर्माता के पक्ष में आया। उसके बाद उन्होंने इस मामले को खत्म करने का निर्णय लिया। इस मुकदमे में मधुबाला के पक्ष से उनके विचारों को रिकार्ड नहीं किया गया। दिलीप कुमार भी इस विशय पर कुछ नहीं बोले।

सतही तौर पर यह एक सामान्य मामला था। एक निर्माता ने अपने कलाकार की सेहत एवं सुविधा का ख्याल किए बगैर अपनी फिल्म की षूटिंग की जरूरत को ध्यान में रखकर लोकेषन का चुनाव किया जबकि दूसरी तरफ अपनी बेटी की सेहत और अपनी दृश्टि के अनुसार उसकी बेहतरी के लिए एक पिता ने अपनी बेटी को तकलीफ में डालने की अनुमति देने से इंकार कर दिया।

लेकिन दरअसल यह मुद्दा इससे कुछ अधिक था। इसके लिए दोनों पक्षों को षुरू में ही यहां तक कि अनुबंध साइन करने से पहले ही कुछ जानकारियां हासिल करनी और स्पश्टीकरण कर लेना जरूरी था कि फिल्म में लंबे समय तक आउटडोर षूटिंग होगी। इस मामले में अताउल्लाह खान को आउटडोर षूटिंग के बारे में स्पश्ट कर लेना चाहिए था और उन्हें पहले ही बता देना चाहिए था कि मधुबाला कहां जा सकती है और कहां नहीं जा सकती है। दूसरी तरफ, मधुबाला को साइन करने से पहले बी। आर। चौपड़ा और पूरी फिल्म इंडस्ट्री को यह मालूम था कि महाबलेष्वर (अब पुणे में) या बम्बई के नजदीक के स्थानों के अलावा वह कभी लोकेषन षूटिंग के लिए नहीं गर्इं। अताउल्लाह खान ने इस बात को कभी नहीं छिपाया कि वह लोकेषन षूटिंग की इजाजत कभी नहीं देंगे।

इस मामले में किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता इस मामले को सुलझा सकती थी जैसा कि फिल्मी दुनिया में किसी फिल्म के अनुबंध को समाप्त करने के लिए अक्सर होता है।

लेकिन इस मामले में ऐसे किसी प्रयास का साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। इसका समाधान नाटकीय तरीके से हुआ क्योंकि सभी मुकाबला करने को तैयार थे। अताउल्लाह खान किसी भी तर्क को मानने को तैयार नहीं थे और उन्होंने मधुबाला को दूर भेजने से सीधे मना कर दिया। बी। आर। चौपड़ा भी कोई समझौता करने या झुकने को तैयार नहीं थे। एक समाचार पत्रा में दो पेज का विज्ञापन छपा जिसमें एक पेज पर मधुबाला और दूसरे पेज पर वैजयंतीमाला की तस्वीर थी। मधुबाला की तस्वीर पर एक बड़ा क्रॉस का निषान लगाया गया था। जाहिर था बी। आर। चौपड़ा अब वैजयंतीमाला को लेकर फिल्म की षूटिंग को तैयार थे। उन्होंने भोपाल के नजदीक एक रोड—बिल्डिंग प्रोजेक्ट में सारा इंतजाम किया और पहले की बुकिंग कैंसिल की। इस तरह फिल्म के पूरा होने में काफी देर हो गई। खान कोर्ट में जाने की धमकी देने लगे और फिल्म में अपनी बेटी की जगह किसी अन्य अभिनेत्राी को लेने पर चौपड़ा के खिलाफ मामला दर्ज करने की बात करने लगे। लेकिन चौपड़ा ने इससे एक कदम आगे बढ़कर पहले ही मामला दर्ज करा दिया।

अताउल्लाह खान इस बात पर जोर देते रहे कि बम्बई के नजदीक ही उसी तरह के लोकेषन आसानी से उपलब्ध हो जाएंगे और भोपाल का लोकेषन वैसा कुछ खास नहीं है इसलिए वहां जाने की कोई जरूरत नहीं है। इस मामले में उस समय मधुबाला और उनके पिता की तरफ से आर। डी। चड्‌ढा जूनियर वकील थे। उन्होंने कहा कि उनके खिलाफ एक क्रिमिनल मामला दर्ज कराया गया है कि उन्होंने चौपड़ा से 30 हजार रुपये लेकर उन्हें धोखा दिया। उनके अनुसार मधुबाला आउटडोर षूटिंग के लिए तैयार नहीं थीं और आउटडोर षूटिंग इस पैसे का हिस्सा नहीं थी। सभी आरोप—प्रत्यारोप मौखिक ही हुए, एक भी षब्द लिखित रूप में नहीं कहा गया। अताउल्लाह खान ने पैसे लौटाने की मांग यह कहते हुए खारिज कर दी कि यह उनकी बेटी के काम का पारिश्रमिक था और उससे बम्बई से बाहर षूटिंग करने की कोई षर्त नहीं रखी गई थी। उल्टे चौपड़ा ने ही उनकी बेटी को फिल्म से बाहर कर किसी अन्य अभिनेत्राी को ले लिया।

जिस आरोप के आधार पर वह खड़े थे वह दीवानी विवाद था जिसमें पिता और बेटी के खिलाफ निर्माता के द्वारा चयन किए गए लोकेषन पर एक्टिंग करने से मना कर अनुबंध का उल्लंघन करने का मामला दर्ज किया गया था। आपराधिक मामला का मुकदमा दर्ज कराना पूरी तरह से गलत समझा गया। सामान्य षब्दों में, यह धोखाधड़ी का मामला नहीं था। हालांकि चौपड़ा ने आपराधिक मामला दर्ज कराया था, लेकिन अताउल्लाह खान के अनुसार ऐसा पब्लिषिटी पाने के उद्देष्य से किया गया था। चौपड़ा अपनी उम्मीद से अधिक पब्लिषिटी पाने में सफल रहे। मुकदमे के दौरान दो नामी—गिरामी फिल्म कलाकारों को देखने के लिए अदालत में लोगों की भारी भीड़ उमड़ती थी। यह मामला करीब चार महीने तक चला।

चौपड़ा ने अपने हीरो पर कोई विषेश ध्यान नहीं दिया जिसके चारों ओर कहानी घूमती है, न ही अपने लोकेषन पर ध्यान केन्द्रित किया और न ही उन्होंने अताउल्लाह खान के साथ तर्क—वितर्क में अपना समय बर्बाद किया। फिल्म से मधुबाला बाहर जा चुकी थीं। वह अपनी योजना में सफल हो चुके थे। उन्हें दिलीप कुमार के पूरी तरह से साथ निभाने पर विष्वास था, जो उनके षक्ति स्तंभ थे।

चड्‌ढा ने बताया, ‘‘उस समय दिलीप कुमार मधुबाला के प्यार में पूरी तरह डूब चुके थे, लेकिन उन्होंने मधुबाला द्वारा षादी करने से मना करने का प्रतिषोध लेने के लिए मधुबाला के खिलाफ साक्ष्य उपलब्ध कराया और खुद को षत—प्रतिषत चौपड़ा के साथ पेष किया। इस मामले में मधुबाला को यदि जेल भी जाना पड़ता तो दिलीप कुमार को कोई पष्चाताप नहीं होता। वह पूरी तरह से मधुबाला के विरोधी हो गए थे। एक बार इस मामले में कोर्ट में पेषी के अवसर पर मधुबाला ने मुझसे कहा था, ‘‘मुझे आष्चर्य हो रहा है यह वही आदमी है जो मुझसे प्यार करता था और जिसे मैंने प्यार किया?'' इस मामले के दौरान ही दोनों का प्यार खत्म हो गया।''

इसी बीच नया दौर की षूटिंग बहुत तेजी से होने लगी और जल्द ही यह फिल्म पूरी होने के कगार पर आ गई। यहां तक कि यह मामला खत्म होने से पहले ही फिल्म पूरी होकर रिलीज भी हो गई। इस फिल्म का दर्षकों ने भरपूर स्वागत किया और फिल्म इस कदर सफल साबित हुई कि चौपड़ा ने इस मामले को एकतरफा खत्म करना चाहा। इस संदर्भ में चड्‌ढा कहते हैं, ‘‘प्रतिवादी की तरफ से उनके गवाह से सवाल—जवाब के अवसर पर इसका मौका ही नहीं आया। मामले का कोई निश्कर्श नहीं निकला। दूसरे दिन जब हमलोग सुनवाई के लिए अदालत में पहुंचे तो हमें यह देखकर आष्चर्य हुआ कि चौपड़ा ने अपनी अनुपस्थिति को दर्षाते हुए अदालत को एक आवेदन दिया था जिसमें कहा गया था कि वह इस मामले को और आगे बढ़ाने को इच्छुक नहीं हैं और वह इस मामले का खत्म करना चाहते हैं। उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। चौपड़ा को कोई आर्थिक नुकसान नहीं हुआ क्योंकि उन्होंने फिल्म से खूब पैसा कमाया। आपराधिक मामले के साथ सुनवाई का कोई मतलब नहीं था। हमलोग एक लगभग खाली कोर्टरूम में घुसे और अचंभित रह गए क्योंकि हम इस मामले में बिल्कुल दोशमुक्त दिख रहे थे और उम्मीद कर रहे थे कि एक विषुद्ध दीवानी मुकदमे में एक आपराधिक मामला दायर करने के लिए अभियोग पक्ष को कड़ी फटकार लगाई जाएगी। इस मामले ने इतनी कड़वाहट और घृणा पैदा कर दी कि मधुबाला के लिए अपने प्यार को पुनर्जीवित करना संभव नहीं हो पाया। हालांकि किसी के भी दिल की थाह लेना बहुत मुष्किल है लेकिन मुझे महसूस हुआ कि उसे गहरी चोट लगी है।।।।।।''

लोकेषन षूटिंग के लिए असमर्थ होने का असली मुद्दा तो काफी पीछे छूट चुका था। इसमें कई मोड़ आ चुके थे। दरअसल लड़ाई की षुरुआत का मुद्दा कुछ और ही था। दिलीप कुमार के लिए मधुबाला के प्यार और मधुबाला के लिए दिलीप कुमार के प्यार को मधुबाला के पिता की कभी सहमति नहीं मिली। उन्होंने दिलीप कुमार को एक खतरे के रूप में देखा। अताउल्लाह खान का मानना था कि दोनों की षादी के बाद उनकी आमदनी का स्रोत बंद हो जाएगा। दिलीप कुमार ने स्थिति बहुत ही साफ कर दी थी। वह षादी के बाद मधुबाला को एक्टिंग कराना नहीं चाहते थे। मधुबाला भयानक द्वंद की स्थिति में थीं, लेकिन फिर भी वह अपने पिता के क्रोधित होने के डर से षादी का निर्णय नहीं कर पा रही थीं। 1955 में फिल्मफेयर में ‘‘मधुबाला के लिए षादी की घंटी कब बजेगी?'' षीर्शक से एक आलेख भी छपा था। मधुबाला ने स्पश्ट रूप से कुछ चौंकाने वाले वक्तव्य भी दिए थे। वह षादी के बाद फिल्में छोड़ने की बात कर रही थीं। वह जिससे प्यार करती थीं उसके साथ षादी करने के लिए वह दुनिया का सामना करने को तैयार थीं। ऐसे निर्भीक विचार वास्तव में एक आज्ञाकारी और विनीत बेटी के थे। बाद में उन्होंने बल पूर्वक यह घोशणा की, ‘‘हालांकि मैं अपने काम से बहुत प्यार करती हूं लेकिन यदि मैं षादी करूंगी तो अपने करियर को त्याग दूंगी।''

अताउल्लाह खान के भयभीत होने के लिए यह काफी था। उनके कानों में खतरे की घंटी बजने लगी। जब नया दौर की लोकेषन षूटिंग का सवाल आया तो इस दिषा में वह तेजी से सोचने लगे। उनकी अनिच्छा इस बात पर नहीं थी कि वह अपने बेटी को दो महीने के बाद देख पाएंंगे और वह साइट भोपाल से भी दूर था बल्कि उनकी खीज इस बात पर थी कि चौपड़ा उस यूनिट को अपनी मनचाही जगह पर ले जा रहे थे।

सितारा देवी ने बताया कि किस तरह से अताउल्लाह खान ने चुपके से यह बात उठाई कि दिलीप ने उनकी बेटी के साथ खराब व्यवहार किया है और इसलिए वह नहीं चाहते हैं कि दोनों एक साथ काम करेंं।

परोक्ष रूप से इस पूरे विवाद का कारण मधुबाला ही थीं। इस विवाद में मधुबाला के षामिल होने या इस विवाद को तूल देने में योगदान देने से कुछ खास हल्ला—गुल्ला नहीं हुआ। लेकिन उनके बीच लड़ाई अपरिहार्य हो गई थी। एक तरफ अताउल्लाह खान थे तो दूसरी तरफ बी। आर। चौपड़ा और दिलीप कुमार थे। लेकिन इस संकट की घड़ी में मधुबाला अकेली हो गइर्ं।

नया दौर को लेकर षुरू हुआ मामला आखिरकार खत्म हो गया। अताउल्लाह खान अपनी मर्जी के अनुसार अपनी बेटी को दिलीप कुमार से दूर करके वहीं वापस ले आए जहां वह लाना चाहते थे। जब नया दौर सफलता का इतिहास रच रही थी, जब बी। आर। चौपड़ा फिल्म की सिल्वर जुबली की खुषियां मना रहे थे और जब दिलीप कुमार सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का अवार्ड हासिल कर रहे थे, तब यह मामला खत्म हो चुका था। नया दौर से जुड़े सभी लोगों को कुछ न कुछ मिला लेकिन इस मामले में सिर्फ मधुबाला ही थीं जिनके लिए कुछ नहीं बचा था। उनके पास ऐसी भयावह यादें बचीं जो उन्हें भयानक रूप से परेषान कर रही थीं। कोर्टरूम, मामले की सुनवाई, जांच—पड़ताल, आम लोगों की फब्तियां, भीड़ और सबसे अधिक विटनेस बॉक्स में दिलीप कुमार के दिल दुखाने वाले वक्तव्यसब मधुबाला के लिये दुखदायी थे। मधुबाला के लिए यह सोचना कितना दर्दनाक रहा होगा कि दिलों—जान से अधिक प्यार करने वाले दिलीप कुमार ने इस मामले के षुरू होने पर कहा था, ‘‘मैं मधुबाला से प्यार करता हूं और करता रहूंगा'' लेकिन उसी दिलीप कुमार ने अंत में षांत एवं निर्विकार भाव से कह दिया, ‘‘आज के बाद वह मेरे लिए मर गई।'' मधुबाला के पास ऐसी कई डराने वाली यादें रह गई थींउनके जख्मी दिल पर हरदम चोट करने के लिए। इस अजीबो—गरीब नाटक के अंत में न तो दिलीप कुमार के पास कहने के लिए कुछ बचा और न ही मधुबाला के पास सुनने के लिए। उन दोनों के बीच सालों तक बातचीत बंद रही। जिंदगी चलती रही लेकिन मधुबाला के पहले से जख्मी दिल में एक और षूल चुभ गया जो रह—रहकर तड़पाता था।

मधुबाला की छोटी बहन मधुर अपने पिता के विरुद्ध कुछ भी नहीं कहना चाहते हुए भी इस बात से सहमत थीं कि उनके पिता ही मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच विवाद का कारण थे जिनके बीच नौ साल का लंबा प्यार रहा। वह कहती हैं, ‘‘मेरी बहन पिता को बहुत प्यार करती थी और उनकी खातिर उसने दिलीप कुमार को छोड़ दिया। बी। आर। चौपड़ा ने डकैतों से भरे हुए एक क्षेत्रा में फिल्म नया दौर की षूटिंग के लिए आउटडोर जाने से मधुबाला के मना करने के कारण मधुबाला के खिलाफ एक मामला दर्ज कर दिया था। अब्बा मधुबाला को वहां भेजने से डरे हुए थे, इसलिए उन्होंने मधुबाला को वहां जाने से मना कर दिया था। अदालती मुकदमे के दौरान दिलीप कुमार बी। आर। चौपड़ा की तरफ थे और दीदी को तकलीफ पहुंचा रहे थे। दीदी ने दिलीप कुमार से पूछा, ‘‘आप अदालत में मेरे पिता का अपमान कैसे कर सकते हैं? आप बी। आर। चौपड़ा के साथ क्यों हैं? आप हमलोग की तरफ क्यों नहीं हैं?'' यही मुख्य बात थी। वे लोग षादी करना चाहते थे। और इस एक छोटी सी घटना ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी। किसी ने भी खराब भाशा का इस्तेमाल नहीं किया और एक दूसरे के खिलाफ कुछ नहीं कहा। हालांकि बाद में दोनों ने अपने मतभेद को खत्म कर लिया और एक दूसरे को क्षमा कर दिया लेकिन एक खूबसूरत जोड़ी टूट चुकी थी। इस तरह एक छोटी से अनबन ने उनकी जिंदगी को बर्बाद कर दिया। सबसे दुखद बात तो यह है कि वे एक दूसरे को प्यार करते रहे।''

मधुबाला की करीबी रही सुषीला रानी भी इस बात से सहमत हैं कि बी। आर। चौपड़ा के मामले के बाद दोनों अलग हो गए लेकिन इस रिष्ते के टूटने का एक अन्य कारण भी वह मानती हैं। वह कहती हैं, ‘‘मधुबाला के कई चाहने वाले थे उनमें सबसे महत्वपूर्ण दिलीप कुमार थे। वह मेरे भाई के समान थे और मैं उन्हें युसूफ भाई कहती थी। मधुबाला का परिवार बांद्रा में अरबियन विला में रहने आ गया था। जब वह युसुफ भाई से प्यार करने लगीं तो मैं उनकी विष्वासपात्रा थी। वह अपने पिता की जानकारी के बगैर उनसे मिलती थी। वह भी मधुबाला से प्यार करते थे लेकिन वह प्यार गायब हो गया जब दोनों ने अपनी— अपनी षर्तें रख दीं। दिलीप कुमार का निर्देषक के। आसिफ के साथ दोस्ताना संबंध था और मधुबाला फिल्म निर्माता को बिल्कुल पसंद नहीं करती थी इसलिए उसने दिलीप कुमार पर दोस्ती तोड़ने के लिए दबाव डाला। ऐसे में दिलीप कुमार चाहते थे कि मधुबाला फिल्म छोड़ दे। वह अनिच्छा से यह फिल्म कर रही थी। चूंकि वह अपने परिवार का भरण—पोशण करती थी इसलिए वह अपने परिवार के प्रति बहुत निश्ठावान थी।''

जानी—मानी पत्राकार और लेखक बनी रूबेन के अनुसार मधुबाला ने उसकी मदद से उदासीन दिलीप तक पहुंचने के लिए कई असफल प्रयास किया। फिल्मफेयर के लिए लिखे एक आलेख में रूबेन ने लिखा कि जब उन्होंने मधुबाला से अप्वाइंटमेंट लेना चाहा तो वह हतप्रभ रह गई क्योंकि उन्होंने स्टुडियो की बजाय अपने घर में उन्हें बुलाया। वह तब और भी अचंभित रह गई जब उन्हें सीढ़ियों से ऊपर उनके कमरे में बुलाया गया। वह उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक लग रही थीं। उन दोनों की यह मुलाकात करीब दो घंटे चली। मधुबाला ने अन्य विशयोें पर बोलने की बजाय सिर्फ अपने दिल की बात की। ‘‘वह सिर्फ अपने युसुफ खान के बारे में बात करना चाहती थीं। वह अपने संबंध के सभी अंदुरूनी और दर्दनाक पहलू के बारे में बताकर खुद को हल्का महसूस करना चाहती थीं। उन्होंने मेरे कंधे पर अपना सिर रखकर इतना रोया कि उन्हें नियंत्रिात करना मुष्किल हो रहा था।''

रूबेन समझ चुकी थीं कि वह दिलीप को एक संदेष भेजने की कोषिष कर रही थीं। ‘‘वह चाहती थीं कि मैं दिलीप के पास जाकर उन्हें समझाऊं कि उन्होंने उनके साथ कितना बुरा व्यवहार किया और इसके बावजूद वह उन्हें प्यार करती हैं।'' रूबेन कहती हैं कि वह दिलीप कुमार से बात करने की अनुकूल परिस्थिति की तलाष करने लगीं और जब उन्होंने सारी बातें दिलीप कुमार को बताई तो उन्होंने पाया कि दिलीप कुमार यह सब सुनने के मूड में नहीं थे। आखिरी में जब उनसे यह वाक्य कहा : ‘‘युसुफ षी स्टिल कैरिज अ टॉर्च फॉर यू'' तब उन्होंने गुस्से से कहा : ‘‘व्हाट ब्लडी टॉर्च?'' मधुबाला के साथ दो घंटे की बातचीत को यहां तक कि महत्वपूर्ण पहलुओं को भी फिल्मफेयर में प्रकाषित नहीं किया गया क्योंकि फिल्मफेयर की नीति थी कि कलाकारों के तकलीफदेह उद्‌गारों को प्रकाषित नहीं किया जाए।

मुगल—ए—आजम का निर्माण जारी था। इसकी षूटिंग ने निरन्तर दिलीप कुमार और मधुबाला को एक साथ लाया लेकिन उनके घाव नहीं भरे। पुनर्मिलन में नाकामयाब रही मधुबाला अपनी व्यथा और तकलीफ को उस जैसी दुर्भाग्यषाली अनारकली के अपने चरित्रा में व्यक्त किया। इस फिल्म में दोनों की भूमिका उच्च कोटि की थी और दोनों की षूटिंग साथ—साथ होती रही लेकिन दिलीप कुमार और मधुबाला एक दूसरे से बातचीत नहीं करते थे। यह सब वैसा ही हो रहा था जैसा अताउल्लाह खान चाहते थे, लेकिन क्या वह यह सब इस कीमत पर चाहते थे? लेकिन उन्होंने इस तबाही के लिए कोई समझौता करने की कोषिष नहीं कि ताकि उनकी बेटी की जिंदगी में खुषहाली आ सके।

दिलीप कुमार ने मधुबाला से प्यार अवष्य किया लेकिन वह उनके साथ अपनी षर्तों पर ही षादी करना चाहते थे। मधुबाला के पिता भी मधुबाला को प्यार करते थे, लेकिन वह अपनी षर्तों पर अड़े रहे और स्थिति बद से बदतर होती गई। अंत में, दोनों ही अपनी—अपनी षर्तों पर अड़े रहकर इस खुबसूरत लड़की की बर्बादी का तमाषा देखते रहे।

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मुगल—ए—आजम

के। आसिफ की क्लासिक, विषाल बजट वाली, भव्यतम और ऐतिहासिक रोमांटिक फिल्म मुगल—ए—आजम सिर्फ एक फीचर फिल्म नहीं थी, यह एक सपने के साकार होने और एक व्यापक सोच के खूबसूरत यथार्थ में बदलने सरीखा था।

करीमुद्दीन आसिफ (1924—1971) ने पष्थ्वीराज कपूर, मजहर खान और सितारा देवी अभिनीत फिल्म फूल (1944) को निर्देषित करने और दिलीप कुमार और नरगिस अभिनीत फिल्म हलचल का निर्माण करने के बाद उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षी फिल्म मुगल—ए—आजम षुरू की।

हालांकि इस फिल्म के मुख्य प्रेरक बल और ऊर्जा का केंद्रीय स्रोत तो के। आसिफ ही थे, लेकिन फिल्म की सफलता में किसी एक व्यक्ति का हाथ नहीं था। अविष्वसनीय रूप से प्रतिभावान लोगों ने, जिनमें से सभी अपने चुने हुए क्षेत्रा में षिखर पर थे, इस फिल्म के निर्माण में अपना बेहतरीन योगदान दिया। नाटकीयता, गीत—संगीत, सेट, नष्त्य, परिधान, डायलॉग, फोटोग्राफी और अलग—अलग यूनिटों के बीच के सर्वोत्तम संयोजन ने एक दूसरे का पूरक बना दिया और एक महान फिल्म का निर्माण संभव हुआ। इस पूरी फिल्म में किसी एक व्यक्ति के काम को अलग करके देखना मुष्किल है। मुगल—ए—आजम बनने में नौ साल का समय लगा जो कि एक कीर्तिमान है। यह फिल्म 1951 में, जब आसिफ ने अंधेरी के मोहन स्टुडियो के दो स्टेज को अपने अधिकार में लेकर काम षुरू किया बननी षुरू हुई और अगस्त 1960 में पूरे नौ साल बाद यह रिलीज हुई।

मुगल—ए—आजम में मुगल राजकुमार सलीम और दरबार की नर्तकी अनारकली की प्रेम कहानी को चित्रित किया गया जो कि दंत कथा से कुछ अधिक नहीं है। जब के। आसिफ ने एक बार फिर इसे पर्दे पर लाने का निर्णय लिया तब तक इसी विशय पर कम से कम चार फिल्में बन चुकी थीं। इस विशय पर बनी पहली फिल्म द लव्स ऑफ ए मुगल प्रिंस थी। यह एक बड़े बजट की मूक फिल्म थी जिसे द ग्रेट ईस्टर्न फिल्म कारपोरेषन ऑफ इंडिया ने 1928 में बनाया था। उससे पहले 1926 में आर्देषिर ईरानी ने इम्पेरियल फिल्म्स की स्थापना की और सुलोचना को बतौर अभिनेत्राी लेकर अनारकली रिलीज की। 1928 में ही प्रदर्षित इस अत्यंत सफल फिल्म का निर्देषन आर। एस। चौधरी ने किया था। जब फिल्मों में आवाज की षुरूआत हुई तब उन्होंने 1935 में डी। बिलिमोरिया को सलीम और सुलोचना को दोबारा अनारकली की भूमिका में लेकर दोबारा फिल्म बनाई। सन्‌ 1953 में नंदलाल जसवंतलाल ने बीना राय और प्रदीप कुमार को मुख्य भूमिका में लेकर फिल्मीस्तान के लिए अनारकली बनाई। उस समय सुलोचना ने राजकुमार सलीम की मां की भूमिका की। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत ही सफल साबित हुई। इस फिल्म का संगीत सी। रामचंद्र ने दिया था जो कि उन दिनों बहुत प्रचलित रहा। उसके बाद 1955 में वेदांतम राघवैय्‌या की अनारकली तमिल और तेलगु में बनी और 1966 में कुंचको ने मलयालम में बनाई।

के। आसिफ ने इसी विशय पर 1944 में सप्रू, चंद्रमोहन और नरगिस को सलीम, अकबर और अनारकली की भूमिका में लेकर फिल्म बनानी षुरू की थी। लेकिन 1946 में चंद्र मोहन की मृत्यु हो गई तथा आसिफ को आर्थिक मदद करने वाले षिराज अली हाकिम पाकिस्तान चले गए जिससे फिल्म बंद हो गई। उसके बाद दो और अनारकली की घोशणा की गई। फिल्मकार की ओर से बनने वाली सलीम—अनारकली के निर्देषक कमाल अमरोही थे और मधुबाला मुख्य भूमिका में थीं लेकिन कुछ कारणों से यह फिल्म भी बंद हो गई। फिल्मीस्तान की अनारकली जिसके निर्माता एस। मुखर्जी थे, नियत समय पर पूरी हो गई और 1953 में यह रिलीज हुई तथा यह बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही। उसी दौरान हलचल की सफलता के बाद के। आसिफ ने मुगले—ए—आजम पर दोबारा काम षुरू किया।

जब यह फिल्म आखिरकार पूरी तरह बनकर रिलीज हुई तो हर मामले में इतिहास रचा गया। इस फिल्म को उम्मीद से कहीं अधिक सराहना और सफलता मिली। यह फिल्म न केवल उस समय तक की सर्वश्रेश्ठ फिल्म साबित हुई बल्कि आज तक यह फिल्म भारत के सर्वोत्कष्श्ट फिल्मों की सूची में अपना स्थान षिखर पर बनाए हुए है। जब मुगल—ए—आजम रिलीज हुई तो इसने बॉक्स आफिस पर रेकार्ड तोड़ सफलता हसिल की। यह फिल्मी दुनिया के जानकारों के साथ—साथ आम लोगों के लिए आकर्शण का केन्द्र बन गई। इस फिल्म को हमेषा की टॉप 10 फिल्मों में षामिल किया गया।

इस फिल्म की असीमित सफलता का एक बड़ा कारण कलाकारों का उचित चयन था। पहले के कलाकार पूरी तरह बदल दिए गए। चंद्र मोहन की जगह पष्थ्वीराज कपूर को लिया गया जिनके दमदार अभिनय, संवाद अदायगी, चेहरे की बदलती भाव—भंगिमा और षानदार व्यक्तित्व का ओज पर्दे पर बहुत ही प्रभावषाली रूप से दिखता है। अकबर की भूमिका के लिए इससे बढ़िया चुनाव कोई और हो ही नहीं सकता था। पष्थ्वीराज कपूर अकबर के चरित्रा के साथ इस तरह घुल—मिल गए कि जब तक वे अपने अंदर एक षासक की आत्मा को महसूस नहीं करने लगते थे षूटिंग षुरू नहीं करते थे।

जोधाबाई की भूमिका में दुर्गा खोटे ने प्रभावकारी भूमिका करते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ी है। मुराद ने आज्ञाकारी मान सिंह की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। अजीत ने एक निश्ठावान और विष्वासी राजपूत दोस्त के चरित्रा को जीवंत किया। निगार सुल्ताना ने महत्वाकांक्षा से भरी शडयंत्राकारी कनीज की भूमिका को परिपूर्णता के साथ पर्दे पर जीया जबकि जाने—माने कलाकार कुमार ने आजाद एवं उग्र मूर्तिकार की भूमिका के साथ पूरा न्याय किया।

के। आसिफ ने अनारकली की भूमिका के लिये मधुबाला को लिया और अनारकली के रूप में मधुबाला का प्रदर्षन इतना षानदार रहा कि मुगल—ए—आजम के रिलीज होने के इतने साल बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि अनारकली की भूमिका मधुबाला के सिवा और कोई कर ही नहीं सकता है और इसलिए ही पर्दे पर अनारकली को दोबारा लाने की कोषिष किसी ने भी नहीं की।

के। आसिफ ने इसी विशय पर 1944 में यह फिल्म बनाने की योजना बनायी थी तब सलीम की भूमिका के लिये सप्रू, को चुना था लेकिन 1946 में चंद्र मोहन की मष्त्यु हो गई। बाद में जब के आसिफ ने दोबारा यह फिल्म बनानी षुरू की तब सलीम का चरित्र निभाने के लिये सप्रू की जगह पर दिलीप कुमार को चुना। हालांकि दिलीप कुमार खुद को ऐतिहासिक चरित्र के लायक नहीं समझते थे। इस फिल्म में एक महत्वपूर्ण भूमिका करने वाले अजीत कहते हैं, ‘‘युसुफ साब (दिलीप कुमार) बार—बार कहते थे कि वह सलीम की तरह नहीं दिखते हैं और न ही कभी दिख सकते हैं। लेकिन फिल्म की सफलता को देखकर लगता है कि के। आसिफ का चुनाव बिल्कुल सही था और इस चुनाव के अनुसार भारत के सबसे रोमांटिक हीरो को अपनी रुचि के विरुद्ध कला और सौंदर्य प्रेमी सलीम की भूमिका करनी थी इसलिए दिलीप कुमार को अपनी सफलता को लेकर संदेह था। लेकिन मुगल—ए—आजम के रोमांटिक क्षणों को जिस खूबसूरती से पिक्चराइज किया गया, उसे देखकर ऐसा लगता है कि ऐसा दिलीप कुमार के बिना संभव ही नहीं था।

मुगल—ए—आजम में षानदार कलाकृतियां, बेमिसाल भव्यता और उत्कृश्ठ संवाद थे, लेकिन सारी भव्यता एवं उत्कृश्ठता से अधिक गौरवपूर्ण था एक कनीज के प्रति एक राजकुमार का प्यार जो इस फिल्म का मूल केन्द्र बिन्दु है। इस मानवीय कथा के साथ दर्षकों ने अपने आप को जोड़ा और उसके बाद इस फिल्म के प्रति जो प्रतिक्रिया दिखाई वह अभूतपूर्व थी। इस प्यार ने तमाम वर्गीय भेदभाव और बंदिषों एवं सीमाओं को तोड़ दिया। मुगल साम्राज्य का वारिस दरबार की एक नर्तकी की रक्षा में अपने सम्राट पिता के खिलाफ खड़ा हो जाता है और यह बात दर्षकों के दिल में सीधी उतरती है। परम्परागत आज्ञाकारी प्रेमियों के विपरीत मुगल—ए—आजम का सलीम अपने माता—पिता और साम्राज्य की ओर से उसके सामने रखी गई षर्तों एवं नाजायज मांगों को ठुकरा कर बगावत पर उतर जाता है। पहले की अनारकली के सलीम के विपरीत वह न तो सम्राट के सामने भीरु बन जाता है और न ही अपने प्यार को छिपाने के लिए अपने प्यार पर कफन डाल देता है बल्कि सम्राट को चुनौती देता है। वह अकबर के सामने सम्राट के एक राजपूत राजकुमारी के साथ बेमेल विवाह को लेकर सवाल उठाता है और अपनी पसंद एवं मर्जी की लड़की से षादी करने के अपने अधिकार के पक्ष में आवाज बुलंद करता है।

के। आसिफ अधिक षिक्षित नहीं थे इसके बावजूद की समझ और उनका सौंदर्यबोध भी काबिले तारीफ था। इस फिल्म में एक सीन है और आज भी जो इस सीन को देखता है वह इसके भीतर के सौंदर्यबोध और काव्यात्मकता का स्पर्ष करता है। राजकुमार सलीम अपने हाथ में एक बड़े पंख से अनारकली के चेहरे को धीरे—धीरे स्पर्ष कर रहे हैं। यह रात का समय है। पूरे माहौल में पूरी तरह से चुप्पी है लकिन दूर से राग आ रहा है। खामोष वातावरण में बिखरे फूलों की खुषबू के बीच में अनारकली जाग रही है। कोई षब्द नहीं बोला गया। आसिफ का प्रयास खामोषी का ऐसा आभामंडल पैदा करना था जहां एक दूसरे के भावों की अभिव्यक्ति केवल मूड के द्वारा हो और जिसमें बाहरी हस्तक्षेप कम से कम हो। एक दूसरे को स्पर्ष किए बगैर प्यार की ऐसी अभिव्यक्ति दर्षकों के दिल की गहराई में उतर जाती है।

षषि कपूर कहते हैं, ‘‘ऐसे सीन की सफलता काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि इनमें षामिल कलाकार किस गहराई तक एक दूसरे में डूबे हैं।'' दिलीप कुमार और मधुबाला ने भावनाओं की गहराई से प्रगाढ़ता को अभिव्यक्त करते हुए आसिफ के फिल्मांकन में जीवन भर दिया।

फिल्मफेयर द्वारा 1989 में ‘‘हमारी फिल्मों में सर्वाधिक अविष्मरणीय दष्ष्य'' पर कराए गए एक सर्वेक्षण में पता चला कि वर्शों का समय बीत जाने के बाद भी इस सीन का विलक्षण प्रभाव जरा भी कम नहीं हुआ। षम्मी कपूर कहते हैं, ‘‘मैं तब भी महसूस करता था और अब भी महसूस करता हूं कि मुगल—ए—आजम में मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच के प्यार के सीन बहुत उत्तेजक थे। विषेशकर वह सीन जिसमें बैकग्राउंड में षास्त्राीय संगीत बजाया जा रहा था। दिलीप कुमार प्रेमातुर मधुबाला को एक पंख से प्रेमस्पर्ष कर रहे हैं, दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं, उनमें तीव्र भावात्मकता है, पूरा परिवेष बहुत ही उत्तेजक हो गया था।'' उनके भाई षषि कपूर कहते हैं, ‘‘आप उस सीन की सुगंध हर समय महसूस कर सकते हैं। यह कवि की ऐंद्रियता का रूप है। मेरे पास इसकी उत्कष्श्टता को व्यक्त करने के लिए कोई षब्द नहीं है। यहां तक कि आज भी मैं जब इसे याद करता हूं तो उसी तरह इसकी तीव्रता को महसूस करता हूं जब मैंने पहली बार इसे देखा था।''

लेखक—कवि जावेद अख्तर कहते हैं, ‘‘पूरा विचार, विजुअल इफेक्ट खासकर सीन का लय बहुत ही ऊंचे दर्जे का है। मैंने इस फिल्म को सालों पहले देखा है और मैं अब भी इसे याद करता हूं। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मेरे दिमाग पर इसका कितना गहरा प्रभाव है।''

निर्माता—निर्देषक सुभाश घई कहते हैं, ‘‘सलीम अनारकली के होठों पर एक पंख रखते हैं और यह संकेत एक चुंबन से अधिक अभिव्यक्ति भरा है। के। आसिफ ने इस सीन की बहुत अच्छी तरह कल्पना की थी।''

इस यादगार प्यार के सीन के बारे में महेष भट्ट कहते हैं, ‘‘जब दिलीप कुमार मधुबाला के मादक चेहरे को एक सफेद पंख से गुदगुदा रहे हैं, तब दोनों चेहरों का बहुत ही अधिक क्लोजअप षॉट लिया गया। यह संभवतः भारतीय पर्दे पर फिल्माया गया सबसे अधिक कामोत्तेजक सीन है।''

दरअसल यह भावनाओं की निश्ठा थी जो कलाकारों की आंखों में झलकती थी जिसने इस सीन के महत्व एवं प्रभाव को बढ़ा दिया। गहरी मानवीय संवेदना को दर्षाने वाले अनेकानेक कलाकारों ने ऐसे सीन को करने का अथक प्रयास किया, लेकिन विषुद्ध अहसास के थोड़े प्रयास के बिना वे अब भी अर्थहीन हैं।

अभिनेत्राी रेखा कहती हैं, ‘‘हिंदी फिल्मों में आमतौर पर षब्दों के जरिए भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। लेकिन जो भावनाएंं बिना कुछ कहे ही व्यक्त की जाए वह बोल कर व्यक्त की गई भावनाओं से अधिक सुंदर एवं आकर्शक होती हैं, खास तौर पर प्यार के मामले में। सालों से मेरे सबसे पसंदीदा प्यार का सीन मुगल—ए—आजम में दिलीप कुमार और मधुबाला के बीच का प्यार का सीन है। इस दृष्य में दिलीप कुमार जिस तरह से अपनी प्रेमिका के चेहरे को एक पंख से सहला रहे हैं उससे अत्यंत गहरी कामोत्तेजक भावना का इजहार होता है। बड़े गुलाम अली खान का संगीत मधुबाला के लंबे बालों से गुजरता हुआ दर्षकों को छू जाता है। मधुबाला की आंखों में जिस तरह से भावनाएं बहती हुई प्रतीत होती है उससे यह दृष्य अत्यंत प्रभावकारी बन गया है। दोनों के दिलों में एक दूसरे के प्रति कुछ न कुछ मलाल होने के बावजूद प्यार के इस दृष्य में जो प्रेम का निर्मल एवं स्वच्छ प्रवाह बहता है वह वाकई अविष्वसनीय है।''

इस फिल्म की षूटिंग 1959 में पूरी हो गई और इसका प्रीमियर 5 अगस्त, 1960 को बम्बई के नवनिर्मित प्रतिश्ठित मराठा मंदिर में हुआ। मुगल—ए—आजम के रिलीज ने उत्साह के ऐसे दृष्य की रचना की जिसे भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। पूरे देष के 150 सिनेमा घरों में एडवांस बुकिंग की खबर अखबारों की सुर्खियांं बनी। इस खबर के बाद पहली पंक्ति में सीट पाने के लिए बॉक्स ऑफिस की खिड़की खुलने से पहले से ही रात भर हजारों लोग लाइन में खड़े रहते थे। विषेशकर बॉम्बे थियेटर में एडवांस बुकिंग रोकनी पड़ी क्योंकि सात सप्ताह तक बुकिंग हो चुकी थी।

मुगल—ए—आजम ऐसी पहली फिल्म थी जिसकेे लिए अखिल भारतीय प्रेस षो आयोजित किया गया। के। आसिफ ने इस षो के लिए देष भर से 60 प्रसिद्ध फिल्म समीक्षकों को अपने मेहमान के तौर पर बम्बई आमंत्रिात किया। मुख्य अतिथि के तौर पर महाराश्ट्र के तत्कालीन मुख्य मंत्राी वाई। बी। चौहान के साथ प्रसिद्ध फिल्मी षख्सियतों ने इस ग्रैंड प्रीमियर की षोभा बढ़ाई। उसके बाद बम्बई के जहांगीर आर्ट गैलरी में फिल्म निर्माण में इस्तेमाल किए गए विभिन्न प्रकार के सामानों और सम्पत्तियों की प्रदर्षनी लगाई गई।

मराठा मंदिर के ओपेरा हाउस के चारों तरफ के लेन कारों के जमावड़े के कारण बंद हो गए। अजीत कहते हैं, ‘‘मुगल—ए—आजम के प्रीमियर की तरह न तो कभी कोई प्रीमियर हुआ और न होगा।'' वह रात ऐसे समारोह के लिए याद की जाती रहेगी जब वह रात धरती के सितारों से झिलमिला उठी। राज कपूर, षम्मी कपूर, गीता बाली, नसीम बानो, सायरो बानो, वहीदा रहमान, राजेन्द्र कुमार, गुरूदत्त, गीता दत्त, मीना कुमारी, कमाल अमरोही कृकृकृकृ और सैंकड़ों अन्य कलाकार। फिल्म उद्योग पूरे उत्साह के साथ उपस्थित हुआ और आसिफ ने मेजबान की भूमिका निभाई। इस ग्रैंड प्रीमियर के बाद उनके घर पर भी एक षानदार पार्टी दी गई।

मुगल—ए—आजम इतिहास की सबसे मंहगी फिल्मों की सूची में षामिल हो गई थी। इस फिल्म के निर्माण पर लगभग एक करोड़ रुपये खर्च हुए जबकि उस समय ए—ग्रेड की फिल्म का औसत बजट 10 लाख रुपये से अधिक नहीं होता था।

13

राजनीति का पूर्वाभ्यास

मुगले आजम 1960 की सफलता के बाद दिलीप कुमार के लिये गंगा जमुना लगातार बहुत बड़ी कामयाबी साबित हुयी।

उस समय दिलीप कुमार 39 वर्श के थे और उस समय तक उन्होंने कामयाबियों एवं सष्जनात्मकता की उंचाई को छू लिया था। हालांकि उसके बाद उनके कैरियर की उडान जारी रही लेकिन बाद की कुछ ही फिल्में बहुत अच्छा कर पायी लेकिन उनके कैरियर के लिये कभी कोई खतरा नहीं उपस्थित हुआ क्योंकि अभिनय के मामले में उनकी कोई सानी नहीं थी। यही नहीं उनके अभिनय की नकल करने वाले अभिनेताओं की एक पीढ़ी का उदय हो गया और वह नये दौर के अभिनेताओं के लिये रोल मॉडल बन गये। वह जानते थे एक प्रमुख अभिनेता के रूप में उनका एक सुनहरा अतीत रहा है इसलिये उन्होंने कई बार फिल्मों से संन्यास लेने के बारे में भी सोचा।

उन्होंने अपने कैरियर के एक दौर में राजनीति में भी हाथ आजमाने के बारे में सोचा। उनकी अगली फिल्म लीडर को लेकर फिल्म इंडिया ने फिल्म की समीक्षा की षुरूआत इस तरह से की — दिलीप कुमार इन दिनों फिल्म निर्माताओं के लिये बौद्धिक नेता गये हैं और वह षीघ्र ही देष के राजनीतिक नेता बनने के सपने देखने लगे हैं। भारत के पूर्व रक्ष मंत्री वी के कृश्ण मोहन से अपनी निकटता के चलते यह बहुत संभव है कि राजनीतिक नेता बनने के सपने को पूरा करने के लिये अगले चुनाव के मैदान में उतरें। पर्दे पर राजनीतिक नेता की जो छवि बनायी गयी है उससे अपने भावी सपने को पूरा करने में उन्हें काफी मदद मिलेगी।

1957 के चुनाव में वी के कष्श्ण मेनन के साथ उनकी निकटता को खूब उछाला गया जब राजकपूर एवं देवानंद के साथ दिलीप कुमार ने कष्श्ण मेनन के लिये प्रचार किया जो उस समय के युवा वामपंथी नेता थे ओर देष के युवकों के लिये उम्मीद की किरण के रूप में प्रचारित किये गये। उस समय कई लोगों ने उनकी फिल्म लीडर को उनकी महत्वाकांक्षा का विज्ञापन भी बताया। कई लोगों का मानना था कि यह फिल्म कभी बननी नहीं चाहिये थी क्योंकि दिलीप कुमार के एक दषक के लंबे षानदार कैरियर की ताबूत में यह पहली कील साबित हुयी। मुगले आजम की सफलता के बाद उन्होंने स्वीकार भी किया था कि मुगले आजम और गंगा जमुना की सफलता के बाद दिलीप कुमार थोड़ा बेचैन हो गये थे। उन्हें यह पता नहीं था कि उन्हें किस दिषा में आगे बढ़नी चाहिये। उनके लिये अभिनय थोड़ा बोरिंग होने लगा था क्योंकि एक के बाद एक फिल्में जिनमें वह काम कर रहे थे उनमें दोहराव हो रहा था। टे्रजडी फिल्मों से उबने के बाद उन्होंने कई फिल्मों में हल्के—फुल्के अभिनय किये लेकिन उनसे उनकी छवि में कोई और इजाफा नहीं हो पाया।

उनके आसपास के लोगों ने उन्हें निर्देषन के क्षेत्र में ही आगे बढ़ने का सुझाव दिया। हालांकि यह विचार उन्हें पसंद भी आया लेकिन उन्हें महसूस हुआ कि वह इसके लिये तैयार नहीं थे। वह कहते हैं, ‘‘ इसलिये मैंने पहला फौरी कदम उठाया। मैंने अपनी खुद की कहानी तथा लीडर के लिये संवाद लिखना षुरू किया। यह मजेदार प्रयोग था हालांकि मैं स्वीकार करता हूं कि मैंने कुछ गलतियां की। लेकिन यह मजेदार था। मैंने बहुत कुछ सीखा और सबसे महत्वपूर्ण यह कि मुझे आत्म विष्वास पैदा हुआ।

यह पूरी तरह से सही नहीं है क्योंकि उन्होंने गंगा जमुना की कहानी के लिये भुगतान किये थे हालांकि फिल्म उद्योग में हर व्यक्ति को फिल्म के संवाद में फेरबदल करने की दिलीप कुमार की आदत के बारे में पता था। दरअसल जब के एन सिंह जैसे वरिश्ठ अभिनेआ ने दिलीप कुमार को षिकस्त के सेट पर दिलीप कुमार को संवाद को अपने तरीके से लिखने पर व्यंग्य कहा, ‘‘क्या गलत है। क्या संवाद लिखने वाला मर गया है।''

लीडर एक आदर्षवादी पत्रकार की कहानी है जिसकी भूमिका दिलीप कुमार ने निभायी है। वह राजनीतिक सभाओं में बाधा डालता है राजनीतिज्ञों एवं उनके समर्थकों को यह बताता है कि सही देषभक्ति क्या है। एक दिन एक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ, जिसकी भूमिका मोतिलाल निभायी थी, की हत्या हो जाती है और इस हत्या के आरोप में पत्रकार को गिर्‌फ्‌तार किया जाता है। पत्रकार जेल तोड़कर भाग जाता है और अपनी बेगुनाही का सबूत जुटाता है।

फिल्म लीडर के रिलीज होने के यह माना जाने लगा कि यह एक नये कैरियर की षुरूआत की आदर्षवादी पृश्ठभूमि थी। यह फिल्म सषाधर मुखर्जी ने बनायी थी जिनका कामयाब फिल्मनिर्मार्ता के रूप में षानदार रेकार्ड था और महत्वपूर्ण बात यह कि फिल्मिस्तान के दिनों से ही उनका झुकाव दिलीप कुमार के प्रति कायम रहा था। ऐसे में दिलीप कुमार ने न केवल कहानी लिखी बल्कि निर्देषन में भी सहयोग किया हालांकि आधिकारिक तौर पर निर्देषन का श्रेय श्री मुखर्जी के बड़े बेटे राम को दिया गया। यह पहला मौका था जब दिलीप कुमार ने सार्वजनिक तौर पर किसी फिल्म का निर्देषन किया। इससे पहले वह केवल निर्देषकों को अपने सुझाव देते थे हालांकि कई मौकों पर उन्होंने फिल्म के कई हिस्सों का निर्देषन भी किया था। कई साल बाद दिलीप कुमार ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि लीडर का निर्देषन एस मुखर्जी, राम और खुद उन्होंने किया था।

लीडर हालांकि बाक्स आफिस पर फ्‌लाप नहीं हुयी थी लेकिन दिलीप कुमार के स्तर के हिसाब से वह बहुत अच्छी नहीं रही। तीन अलग—अलग निर्देषकों द्वारा निर्देषित होने के कारण यह फिल्म सुसंगत नहीं बन पायी और इसमें निरंतरता की कमी थी लेकिन इसकी मुख्य कमजोरी इधर—उधर से उठाकर जोड़ी हुयी कहानी थी जैसा कि 1960 के दषक में हिन्दी फिल्म जगत की एक परम्परा बन गयी थी। दिलीप कुूमार के सिनेमा जगत में अवतरिक होने के बाद से यह पहला मौका था जब अपने पात्र को आधार देने के लिये कोई मजबूत कहानी नहीं थी। संभवत यही कारण था कि वह षीघ्र ही अपनी अगली फिल्म ‘‘दिल दिया, दर्द लिया'' में अपने चिर—परिचित अंदाज में आ गये।

फिल्म निर्देषक अब्दुल रषीद करदार उमर खैय्‌याम की जीवनी पर फिल्म बनाना चाहते थे थे उन्होंने इसमें भूमिका के लिये दिलीप कुमार को 2 लाख रूपये की साइनिंग रकम भी दे दी थी। दिलीप कुमार के पाली हिल स्थित घर का कई चक्कर लगाने के बाद उन्हें उमर खैय्‌याम पर फिल्म बनाने का विचार छोड़ना पड़ा। दिलीप कुमार ने उन्हें समझाया कि इसके बदले वह ‘‘अंदाज'' जैसी कोई फिल्म बनायें। जाहिर है कि वह कोई सुरक्षित भूमिका निभाना चाहते थे। करदार के पास अंग्रेजी लेखिका इमिली ब्रॉन्टी के उपन्यास वदरिंग हाइट्‌स पर आधारित एक पटकथा थी लेकिन वह इस बात को लेकर आष्वस्त नहीं थे कि यह पटकथा दिलीप कुमार को दिखानी चाहिये या नहीं क्योंकि वह अंदाज एवं हलचल में हीथक्लिफ सरीखी भूमिका को दो बार कर चुके थे।

हीथक्लिप एक ऐसा किरदार है जिससे दिलीप कुमार बहुत अधिक प्रभावित थे। तीन फिल्मों में इस तरह की भूमिका निभाने के अलावा उन्होंने आदमी जैसी कई अन्य फिल्मों में भी इस पात्र से प्रभावित भूमिकायें की। हीथ क्लिफ नाकाम इर्श्यालु प्रेमी है जो प्रतिषोध की आग में जल रहा है। दिलीप कुमार ने इस किरदार को संतप्त और उत्पीड़ित प्रेमी का एक नया आयाम दिया जिसे बचपन से ही प्रताड़ित किया गया और बाद में जिसकी प्रेमिका को उससे अलग कर दिया गया। आखिरकार वह वथेरिंग हाइट्‌स में रहने वालों से खूनी बदला लेता है। इस फिल्म में इस किरदार के नाकारात्मक पहलू को हटा दिया गया और दर्षकों की सहानुभति पाने के लिये इस किरदार को तर्कसंगत बनाया गया — जैसा कि हिन्दी फिल्मों के नायकों के लिये जरूरी माना जाता है। दिलीप कुमार ने बाद में कहा कि उन्होंने इसे रिमेक बनाने पर जोर नहीं लेकिन ऐसा हो गया।

दरअसल दिलीप कुमार ने नाकारत्मक पहलुओं वाले नायक की भूमिका निभाना अधिक पंसद किया। मिसाल के तौर पर बाबुल, दीदार, षिकस्त, देवदास और सर्वाधिक उल्लेखनीय फिल्म अमर है। आरंभ के दौर की हर फिल्म में दिलीप कुमार का किरदार कुछ इस तरह का रहा मानो वह नायिका या सहनायिका से प्यार करते हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं होता था और जिसके कारण नायिका या सहनायिका को आखिर में त्रासदी झेलनी पड़ती है। बाबुल में बेला (नरगिस), दीदार में चंपा (निम्मी), अमर में निम्मी, और देवदास में चन्द्रमुखी (वैजयंतीमाला)। वह छवि के चक्रव्यूह में फंस गये थे और इसका आभास जब हुआ तो काफी देर हो चुकी थी। बहुत बाद में उन्होंने इसे कबूल करते हुये कहा कि उनकी छवि ऐसी बन गयी थी, लेकिन वह इससे तब तक निकल नहीं सकते थे जबतक दर्षक उस छवि को पसंद करना बंद नहीं कर दे। बार बाद दोहराव हो रहा था — इस तरह का किरदार उनके लिये खुद एक मजहब बन गया।

उस समय किसी चिर परिचित विशय पर किसी पुराने किरदार को निभाने का विचार से उन्हें खुषी हो सकती थी लेकिन वह अपने आप को महज अभिनेता के रूप में नहीं देखते थे इसलिये वह फिल्म निर्माण में भी हाथ डालने लगे लेकिन सार्वजनिक तौर पर इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे।

करदार कहते हैं, ‘उन्हें पटकथा देने के बाद मैंने उन्हें छह माह तक नहीं देखा। जब वह मिले तब उन्होंने 80 दष्ष्यों को बदल दिया था। मैं कुछ नहीं कर सकता था। मुझे उनके अनुसार चलना था। मैं पीछे हट नहीं सकता था क्योंकि मैंने फिनांसरों, वितरकों एवं अन्य कलाकारों को वचन दे चुका था।''

दुर्भाग्य से करदार की मुष्किल यहीं खत्म नहीं हुयी। इस फिल्म की षुटिंग के लिये मांडु के एक दुगर्म ‘‘जहाज महल'' को चुना गया। मांडू तत्कालीन मालवा रियासत की राजधानी थी और आज यह पष्चिमी मध्य प्रदेष में है। जहाज महल के हिस्से को, जिसमें सदियों पहले राजा बाज बहादुर रहते थे, एक आधुनिक गेस्ट हाउस में तब्दील कर दिया था। कहा जाता था कि उसके निकट ही बाज बहादुर की प्यारी रानी रूपमति को नाचते हुये देखा जाता था।

निर्माता—निर्देषक ए आर करदार अस्सी सदस्यों की विषाल यूनिट के साथ लगभग एक महीने तक मांडू में रहे। जब षूटिंग नहीं होती थी तो प्राण हंसी—मजाक से सबको हंसाते रहते थे।

प्राण ने एक बार कुछ पत्रकारों को इस फिल्म की षूटिंग के दौरान घटी कुछ रोचक घटनायें बतायी थी। उन्होंने बताया कि जब ए आर करदार जिन्में सभी मियांजी मांडू में अपनी पहली रात को सपने में रानी रूपमति को नाचते हुये देखा। अगली सुबह वह बुलबुल की तरह चंहक रहे थे, परन्तु अगले दिन वह एकदम खामोष हो गये। प्राण ने इसका मजेदार कारण बताते हुये कहा — लगता है पिछली रात मियांजी के सपने में बाज बहादुर आ गये थे।''

कहा जाता है कि दिलीप कुमार ‘‘दिल दिया दर्द लिया'' की ष्ूाटिंग के सेट पर अक्सर निर्देषक करदार पर हाबी हो जाते थे, जो निर्देषन में कहीं अधिक अनुभवी थे। सेट पर वह तानाषान बन जाते थे। पहले दिन वह अपनी मर्जी से षॉट करते थे और दूसरे दिन उसे खारिज कर देते थे। इस तरह से चार साल की षूटिंग हुयी और चार लाख फीट लंबी रील बनी जिसे काट—छाट कर फिल्म का रूप दिया गया। करदार कहते हैं, ‘‘मैं इस फुटेज से आठ फिल्में बना सकता था। दिलीप कुमार उनके लिये वाटरलू साबित हुये।

हालांकि इस फिल्म को १९६७ में फिल्म फेयर पुरस्कार में दो श्रेणियों में नामांकित किया गया — सर्वश्रेश्ठ अभिनेता पुरस्कार के लिये दिलीप कुमार और सर्वश्रेश्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार प्राण।

दिल दिया दर्द लिया बाक्स आफिस पर फ्‌लाप रही और करदार बर्बाद हो गये। उनका कैरियर खत्म हो गया। वह कहते हैं, ‘‘मैंने दिलीप कुमार के साथ केवल इसलिये काम करने का फैसला किया क्योंकि उनके पहले पंसद के अभिनेता राज कपूर एक साल के लिये उपलब्ध नहीं थे और मेरी पत्नी बहार की इच्छा थी कि मैं दिलीप कुमार के साथ काम करूं, जो उनकी बहन के पति महबूब खान के अत्यंत प्रिय थे। दिलीप कुमार ने किसी को भी खुषी नहीं दी। उन्होंने फिल्मकारों के जीवन में मुष्किल पैदा की।''

कई वर्श बाद में दिलीप कुमार ने इस बारे में कहा, यह दुर्भाग्यपूर्ण था। एक समय उन्हें बम्बई का सबसे बड़ा फिल्म टायकून माना जाता था लेकिन बाद में उनका पतन षुरू हो गया। बॉक्स आफिस पर उनकी छह से सात फिल्में फ्‌लाप हो गयी थी। उनके फिल्म निर्माण का बहुत बेहतरीन कौषल था लेकिन वह अक्सर जरूरी चीजों की कटौती करते थे और वह कम बजट में काम चलाना चाहते थे। उन्होंने फिल्म टेक्नोलॉजी में जो प्रगति हुयी उसका लाभ नहीं उठाना चाहते थे। साथ ही साथ बाजार की मांग की भी अनदेखी करते थे जिसके उन्हें निराषा हाथ लगती थी।

दिल दिया दर्द लिया ने करदार के कैरियर को खत्म किया लेकिन इस फिल्म ने दिलीप कुमार के कैरियर पर भी कुछ समय के लिये विराम लगा दिया।

हालांकि यह फिल्म बॉक्स आफिस पर नहीं चली और करदार जैसे कई लोगों के लिये यह फिल्म दुखद साबित हुयी लेकिन फिल्म में खलनायक की सषक्त भूमिका निभाने वाले प्राण का अनुभव अच्छा रहा। प्राण इस फिल्म से जुड़ी स्मष्तियों को ताजा करते हुये कहा कि दिलीप कुमार ने उन्हें उनके अभिनय के मामले में काफी मदद की। उन्होंने कभी भी रिटेक को लेकर आपत्ति नहीं जतायी, जबकि अन्य कलाकारों से अपने अभिनय में सुधार करने का कहा जाता था। इस फिल्म में अपनी भूमिका के बारे में प्राण का कहना था, ‘‘हालांकि यह फिलम ज्यादा नहीं चली मगर मेरी खल पात्र की भूमिका बड़ी ही विषिश्ठ थी। यह मेरे श्रेश्ठ प्रदर्षनों में एक था और यह फिल्म आज तक की मेरी प्रिय फिल्मों में से एक है।''

प्राण कहते हैं, ''दिल दिया दर्द लिया'' में मेरा प्रदर्षन दिलीप साहब के कारण इतना अच्छा हुआ।‘‘ इसका कारण बताते हुये प्राण कहते हैं, ‘‘अधिकांष फिल्मों में, मैं कभी जोर से नहीं हंसा, मगर दिल दिया दर्द लिया'' के किरदार की यह मांग थी। यही एकमात्र फिल्म थी जिसमें मैंने किरदार की दुश्टता को और उंचाइयां देने के लिये द्वेशपूर्ण अट्‌टहास का प्रयोग किया। दिलीप साहब ने मेरे काम में काफी मदद की। उनका हमेषा यह मत रहा कि हर दष्ष्य में अपनी पूर्णता होनी चाहिये तभी वह अच्छा बन सकेगा। दष्ष्य की उपस्थित प्रत्येक कलाकार द्वारा बेहतरीन प्रदर्षन करने पर ही दष्ष्य अच्छा बनेगा। इसलिये वे दष्ष्य या साथी कलाकारों पर ज्यादा प्रभाव नहीं डालते थे। वे दूसरे कलाकार द्वारा अपना काम और बेहतर करने की गुहार लगाने पर भी बार—बार ‘‘रीटेक'' नहीं करते। वे अपने पेषे और फन के पक्के उस्ताद हैं।''

मनोज कुमार ने बताया कि दिल दिया दर्द लिया की षूटिंग के बाद प्राण साहब ने मुझे बताया था कि दिलीप साहब खुद अपने हाथों से मेकअप करते थे और वे कितना उम्दा काम करते थे। उन्होंने मेरे लिये जबर्दस्त डॉयलॉग लिखे। उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि मैंने बहुत खूबसूरती से डॉयलगा बोले, बल्कि विनम्रता से सदा यही कहते थे कि दिलीप साहब ने मुझसे कितनी अच्छी तरह से काम लिया।''

प्राण कहते हैं कि उनके काम में उन्हें दिलीप कुमार से मदद मिली और दिलीप साहब भी प्राण के कौषल से लाभान्वित हुये। किसी भी षॉट के बाद वे प्राण की परख के कारण उनकी तरफ देखकर यह निष्चित करते थे कि षॉट ठीक हुआ या नहीं।

छह साल में उनकी दो फिल्में रिलीज हुयी और दोनों फ्‌लाप हुयी। इसके बाद दिलीप कुमार के चाहने वाले भी यह सोचने लगे कि दिलीप कुमार अपनी सीमा को पार कर चुके हैं। कुछ लोगों का मानना था कि मुगले आजम और गंगा जमुना की सफलता के बाद षिखर तक पहुंचने पर ही उन्हें फिल्मी कैरियर से संन्यास ले लेना चाहिये था।

लेकिन दिलीप कुमार के पास और भी रास्ते थे।

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दिलीप कुमार की जीवन साथी

मई 1942 की बात है। अचानक एक खबर सुनने को आयी और गॉसिप पत्रिकाओं और प्रमुख समाचार पत्रों में छा गयी। आखिर वह कोई सामान्य खबर नहीं थी। असंभव संभव हो गया था। फिल्मी दुनिया के सबसे वांक्षित बैचलर एक जानी—मानी अभिनेत्री के साथ षादी कर रहे थे। वह वहीदा रहमान थीं। हालांकि इस खबर को सुनकर काफी लोगों को आष्चर्य नहीं हुआ। वह दिलीप कुमार के साथ दिल दिया दर्द दिया में अभिनेत्री की भूमिका कर रही थीं। इसके अलावा वह उनकी दो और फिल्मों में को—स्टार की भूमिका कर रही थीं जिनकी सूटिंग षुरू हो चुकी थी। ये फिल्में थीं— राम और ष्याम तथा आदमी। इसके अलावा दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच रोमांस को लेकर भी खबरें छपती रहती थीं। लेकिन फिर भी इस खबर ने फिल्मी दुनिया का झकझोर दिया क्योंकि यह एक पेषेगत नुकसान था। लेकिन बजाय इनके वह युवा अभिनेत्री सायरा बानो थीं जिन्होंने उनके साथ कभी काम नहीं किया था। सायरा बानो पूर्व अभिनेत्री नसीम बानो की बेटी थीं। नसीम बानो दिलीप कुमार से मुष्किल से एक साल बड़ी थीं और उन्होंने दिलीप कुमार के साथ फुटपाथ फिल्म में काम किया था। सबसे मजेदार बात तो यह है कि दिलीप कुमार एकमात्र ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने मां और बेटी दोनों के साथ अपोजिट भूमिका की।

सायरा बानो दिलीप कुमार की आदर्ष दुल्हन की पसंद पर मुष्किल से खरा उतर रहीं थीं। फिल्मफेयर ने 1953 में दिलीप कुमार के हवाले से लिखा ‘मैं जिंदगी से क्या चाहता हूं' इसमें दिलीप कुमार ने लिखा, ‘‘यदि मैं षादी करता हूं तो मैं एक चीयरफुल पार्टनर चाहूंगा जो मुझे मेरे परिवार, मेरे दोस्तों और मानवता से संबंधित मेरी जिम्मेदारी से मुझे अलग करने की कोषिष न करे। मैं एक अल्ट्रा माडर्न लड़की नहीं चाहता हूं जिसके रहन—सहन में मर्यादा के बारे में तुच्छ विचार हों, जिसके विचार गलत हों और मानव अखंडता जैसे जिंदगी में मायने रखने वाली चीजों के बारे में तुच्छ मान्यताएं हों। मैं यह भी चाहता हूं कि समय—समय पर वह मुझे मेरे साथ छोड़ दे और यदि मैं दोशी था तो वह मुझसे सवाल—जवाब न करे।''

अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण दिलीप कुमार ने वैवाहिक जीवन में प्रवेष करने का निर्णय अपेक्षाकृत विलंब से स्वीकार किया। 11 अक्टूबर 1966 को जब उन्होंने 25 वर्शीय अभिनेत्री सायरा बानो के साथ षादी की, तब उनकी उम्र 44 की हो गई थी, जबकि उनके दर्षक दो दषकों से उनके विवाह की प्रतीक्षा कर रहे थे।

स्वयं दिलीप कुमार भी ष्द मोस्ट इलिजिबल बैचलरष् संबोधित किए जा रहे थे। विवाह की घोशणा से सिने—जगत में खुषी की लहर दौड़ गई थी। निकाह परंपरागत मुस्लिम रीति से हुआ।

बरात की अगुवाई पापा पष्थ्वीराज कपूर ने की थी। दूल्हे मियाँ सेहरा बाँधकर घोड़ी पर चढ़े थे और आजू—बाजू राज कपूर, देव आनंद चल रहे थे। इस विवाह का खूब प्रचार हुआ था और बड़ी संख्या में लोग आए थे। संगीत और आतिषबाजी की धूमधाम के बीच जोरदार दावत हुई थी।

यह सर्वविदित है कि सायरा बानो गुजरे जमाने की अभिनेत्री नसीम बानो की बेटी हैं। नसीम ने अहसान मियाँ नामक एक अमीर आदमी से प्रेम विवाह किया था। अहसान मियाँ ने नसीम की खातिर कुछ फिल्मों का निर्माण भी किया।

सायरा का जन्म 23 अगस्त 1941 को मसूरी में हुआ था। सायरा की नानी षमषाद बेगम दिल्ली की एक गायिका थीं, जिन्होंने सोहराब मोदी की फिल्म ष्खून का खूनष् में अभिनय भी किया था (पार्ष्‌व गायिका षमषाद अलग हैं)। बाद में नसीम और अहसान का रिष्ता टूट गया।

भारत—पाक विभाजन के बाद अहसान कराची जा बसे। नसीम मुंबई में बनी रहीं। बाद में वे अपनी बेटी सायरा और बेटे सुल्तान को लेकर लंदन में जा बसीं। सायरा की स्कूली षिक्षा लंदन में हुई। छुट्टियों में वे मुंबई आती थीं, तभी से परवरदिगार से यह प्रार्थना करने लगी थीं कि मुझे अपनी माता जैसी अभिनेत्री बना दो और जब मैं बड़ी हो जाऊँ तो श्रीमती दिलीप कुमार कहलाऊँ।

अक्टूबर 1966 के विवाह से सायरा का एक और सपना पूरा हुआ। हिन्दी फिल्मों की लोकप्रिय नायिका वे पहले ही बन चुकी थीं। लंदन से लौटकर फिल्मी दुनिया में सायरा 1959 में ही दाखिल हो गई थीं। माता नसीम के पुराने हितैशी फिल्मालय केएस मुखर्जी ने सायरा को फिल्म ष्जंगलीष् में रिबेल स्टार षम्मी कपूर के साथ लांच किया था और इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। विवाह से पूर्व थोड़े समय सायरा और जुबली स्टार राजेंद्र कुमार के बीच रोमांस भी चला था।

नसीम और मुखर्जी के कहने पर दिलीप कुमार ने सायरा को षादीषुदा और बाल—बच्चेदार राजेंद्र कुमार से दूर रहने के लिए प्यार से समझाया था और बदले में खुद दिलीप कुमार ने सायरा को अपनी खातून—ए—खाना (धर्मपत्नी) बनाया।

सन्‌ साठ में नसीम बानो ने पाली हिल इलाके में दिलीप कुमार के बंगले के पास ही जमीन खरीदी थी। जब सायरा प्लॉट देखने गईं, तभी वे दिलीप कुमार की बहनों से मिलने भी गईं। दिलीप घर में ही थे।

ष्जंगलीष् (1961) के बाद सायरा ने षम्मी कपूर के साथ ष्ब्लफ मास्टरष् और मनोज कुमार के साथ ष्षादीष् फिल्म में काम किया। ये ष्वेत—ष्याम फिल्में कोई खास सफल नहीं रहीं। इसके बाद विष्वजीत के साथ उनकी फिल्म ष्अप्रैल फूलष् बॉक्स अॉफिस पर सफल रही। इसके बाद आई राजेंद्र कुमार के साथ उनकी फिल्म ष्आई मिलन की बेलाष्। बस यहीं से सायरा—राजेंद्र कुमार के रोमांस के चर्चे षुरू हुए और जुबली स्टार की पत्नी षुक्ला, जो तीन बच्चों की माँ बन चुकी थीं, संकटग्रस्त हो गईं। नसीम बानो को भी अपनी बेटी की नादानी पर बहुत गुस्सा आ रहा था। बहरहाल, ष्आई मिलन की बेलाष् के बाद सायरा—राजेंद्र की जोड़ी ने ष्अमनष् और ष्झुक गया आसमानष् फिल्में दीं।

वे दोनों के। आसिफ की फिल्म ष्सस्ता खून, महँगा पानीष् में भी लिए गए थे, लेकिन दिलीप—सायरा की षादी के बाद आसिफ ने इस फिल्म को नहीं बनाने का फैसला किया। स्वयं आसिफ ने दिलीप की बहन अख्तर से विवाह किया था और वे अपने साले की जिंदगी में कोई खलबली नहीं चाहते थे।

लेकिन सायरा के लिए उनका बचकाना सपना निष्चित रूप से सही साबित हुआ। वह कुछ समझ नहीं पा रही थीं, ‘‘युसुफ साब हमेषा एक पारिवारिक दोस्त की तरह थे लेकिन जब मैंने उन्हें अपने किषोरावस्था के षुरूआत में 13—14 साल की उम्र में देखा था, मैंने अपना दिल उन्हें दे दिया और मैं यह जानती थी कि यह आदमी सिर्फ मेरे लिए है। मैं जानती थी कि मैं श्रीमती दिलीप कुमार बनना चाहती थी।''

सायरा बानो 1930 और 1940 के दषक की एक बड़ी कलाकार नसीम बानो की बेटी थी और उनके पति मोहम्मद अहसान थे जिन्होंने अपनी अभिनेत्री पत्नी के साथ 1940 के दषक में ताजमहल पिक्चर्स नामक एक प्रोडक्षन कंपनी की स्थापना की थी। सायरा का जन्म 23 अगस्त, 1941 को मसूरी में हुआ था। विभाजन के बाद अहसान पाकिस्तान चले गये जबकि नसीम भारत में ही रह गयीं। बाद में नसीम लंदन में बस गयीं जहां सायरा और उनके भाई सुल्तान ने षिक्षा ग्रहण की। वर्श 1959 में लंदन से लौटने के बाद सायरा ने जंगली फिल्म में षम्मी कपूर की अभिनेत्री के रूप में फिल्मी करियर की षुरूआत की।

यह फिल्म सुपरहिट रही और सायरा सुपरस्टार के रूप में स्थापित हो गयीं। उनकी अन्य हिट फिल्में ब्लफ मास्टर, अप्रैल फूल, दूर की आवाज, आओ प्यार करें और प्यार मोहब्बत थीं जिनमें उन्होंने फिल्मी दुनिया के नामी गिरामी अभिनेताओं के साथ काम किया। लेकिन दिलीप कुमार ही अभ्िोनत्री बनने का सपना अब तक पूरा नहीं हुआ था क्योंकि दिलीप कुमार उनके साथ फिल्म नहीं करना चाहते थे। उनका मानना था कि सायरा उनके साथ फिल्म करने के लिए बहुत छोटी हैं। लेकिन सायरा ने उस समय के प्रख्यात अभिनेताओं के साथ काम करना जारी रखा। राजेन्द्र कुमार के साथ उनकी पहली फिल्म आयी मिलन की बेला को काफी सफलता मिली और उसके बाद उन्होंने उनके साथ अमन और झुक गया आसमान साइन की। जैसा कि होना ही था, उन दोनों का पर्दे पर का रोमांस उनकी वास्तविक जिंदगी पर भी हावी हो गया और गॉसिप पत्रिकाओं ने उन दोनों के बारे में लिखना षुरू कर दिया।

नसीम बानो पर्दे की पीछे की फिल्मी दुनिया से अनजान नहीं थीं और उन्होंने उनकी दोस्ती का विरोध करना षुरू कर दिया कि राजेन्द्र कुमार न सिर्फ हिन्दू हैं बल्कि वह एक षादीषुदा पुरूश हैं जिनके तीन बच्चे हैं। दिलीप कुमार और उनके लंबे समय के परामर्षदाता सषाधर मुखर्जी ने सायरा से बात की। लेकिन सायरा ने उनकी बात नहीं मानी। नसीम के बार—बार अनुरोध करने पर दिलीप कुमार अनिच्छा से, सायरा बानों से कुछ बार बातचीत करने को तैयार हो गये।

सायरा के जन्मदिन की पार्टी में भी 23 अगस्त, 1966 को यह मुद्‌दा उठा। दिलीप कुमार को भी आमंत्रित किया गया था लेकिन वे पहले ही वहां न आ पाने के लिए एक क्षमा याचना संदेष भिजवा चुके थे। जब पार्टी पूरे षबाब पर थी तो राजेन्द्र कुमार अपनी पत्नी के साथ वहां आए। उन्हें देखकर सायरा बहुत परेषान हो गयी क्योंकि पिछले कुछ सप्ताह से उन्होंने खुद को बहुत नियंत्रण में रखा था। नसीम बानो को लगा कि यह मुद्‌दा हाथ से निकल सकता है, वे दौड़कर दिलीप कुमार के घर गयीं और वे उनसे उनके घर आकर स्थिति को संभालने के लिए विनती करने लगीं। दिलीप कुमार उन्हें मना नहीं कर पाये और वे सायरा के जन्मदिन की पार्टी में आने को तैयार हो गये। सायरा अपने जन्मदिन पर अपने बचपन के आयडल का देखकर बहुत रोमांचित हो गयीं और एक तमाष होने से रूक गया।

छह सप्ताह के बाद एक घोशणा हुई जिसे सुनकर पूरा देष स्तब्ध रह गया। दिलीप कुमार और सायरा बानो की 2 अक्टूबर, 1966 को इंगेजमेंट हो गयी थी। किसी को समझ में नहीं आया कि यह अफेयर कब हुआ।

दरअसल सायरा बानो की जन्म दिन पार्टी वाले दि नही दिलीप कुमार कुमार से एक बार फिर अनुरोध किया गया कि वे सायरा बानो की एक षादीषुदा आदमी से प्यार करने की इस मूखर्तापूर्ण हरकत पर उन्हें समझायें। दिलीप कुमार सायरा बानो से अनुरोध पर अनुरोध करते रहे कि वह राजेन्द्र कुमार का साथ छोड़ दे। अंत में सायरा बानोे ने कहा, ‘‘मैं उसका साथ छोड़ दूंगी यदि आप मेरे साथ षादी करने को राजी हो जाते हैं!'' उसके बाद क्या हुआ, यह वास्तव में कोई नहीं जानता है लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि दिलीप कुमार उनसे षादी के लिए राजी हो गये।

इंगेजमेंट के तुरंत बाद यह दम्पति कलकत्ता चला गया— दिलीप कुमार को स्क्रिप्ट सत्र में भाग लेना था और फिल्म संघर्श के लिए लोकेषन की तलाष करना था और सायरा को झूक गया आसमान की षूटिंग करनी थी। षादी की तारीख 4 नवंबर की तय हुई लेकिन लोग उनकी षादी को लेकर इतने उत्सुक थे कि यह दम्पति जहां भी साथ जाता था उनके समर्थक उन्हें एक साथ देखने के लिए इकट्‌ठा हो जाते थे। इसलिए षादी की तारीख को आगे बढ़ाने का निर्णय लिया गया क्याेंकि षादी हो जाने के बाद उन्हें देखने की लोगों की उत्सुकता कम हो जाती।

जैसी उम्मीद की गयी थी, यह षादी फिल्मी दुनिया की सबसे ग्लैमरस षादियों में से एक थी। राजकपूर से कृश्णा से षादी उनके फिल्म स्टार बनने से काफी पहले ही हो चुकी थी और देव आनंद ने कल्पना कार्तिक से षादी गुपचुप तरीके से की थी और षादी समारोह फिल्म टैक्सी ड्राइवर के सेट पर आयोजित किया गया जिसकी षूटिंग वे लोग कर रहे थे। दिलीप कुमार की षादी अलग थी। वह पहले से ही काफी बड़े स्टार थे और उनकी षादी के लिए लोग वर्शों से इतजार कर रहे थे। पृथ्वी राज कपूर ने बारात की अगुआई की थी। इस बारात में पूरा फिल्म जगत उनकी बारात में षामिल हुआ और दिलीप कुमार के समसामयिक कलाकार राज कपूर और देव आनंद उस घोड़ी पर चढ़ गये जिसपर दुल्हा बैठा था। उन दिनों के प्रसिद्ध विलेन और दिलीप कुमार के साथ नौ फिल्मों में सह कलाकार के रूप में कार्य करने वाले प्राण को षादी में षामिल होने के लिए हवाई जहाज से बम्बई आये। पूरा फिल्म उद्योग वहां जमा हो गया था और दिलीप कुमार के घर से लेकर सायरा बानो के घर तक, जो थोड़ी ही दूरी पर था, फैन्स गली में लाइन बनाकर खड़े थे। यह आयोजन तड़के सुबह तब तक चला जब तक यह षादीषुदा दम्पति परम्परागत सुहाग रात के लिए नहीं चला गया।

प्राण इस यादगार षादी के बारे में बताते हैं दिलीप कुमार की षादी बहुत जल्दी में 11 अक्तूबर, 1966 को होनी तय हुयी। सभी निकट मित्रों ने उनकी षादी में षरीक होने की हर संभव कोषिष की। प्राण बताते हैं , ‘‘जिस दिन उनकी षादी थी, मैं कष्मीर में था और वहां मूसलाधार बारिष हो रही थी, मगर मुझे किसी भी तरह उनकी षादी में षामिल होने के लिये बाम्बे पहुंचना था। खराब मौसम के कारण उड़ाने रद्‌द हो रही थी, तभी उनका फोन आया और बोले आज मेरी षादी हो रही है और तुम्हें आना ही होगा। उनकी षादी में षामिल होने के लिये कष्मीर से बॉम्बे पहुंचने की यात्रा अत्यंत रोमांचक थी। दरअसल कुछ समय बाद अचानक बारिष थम गयी और मैं दिल्ली पहुंच गया। मगर दिल्ली से बाम्बे की फ्‌लाइट की टिकट नहीं मिल रही थी। मुझे बहुत बेचैनी हो रही थी। तभी वहां दो सरदार जी पहुंचे, जो हवाई अड्‌डे पर मुझसे मिलने आये मेरे मि; स्वराज सुरी के परिचित थे। पता चला कि उनमें से एक उसी फ्‌लाइट से बाम्बे जाने वाले हैं जिसमें मैं जाना चाहता था। सूरी ने उनसे कहा, ‘‘प्राण साहब बड़ी मुष्किल में हैं। उन्हें दिलीप साहब की षादी में षामिल होने के लिये इसी फ्‌लाइट से बाम्बे पहुंचना जरूरी है, मगर उन्हें टिकट नहीं मिल रही है।‘‘ उन्होंने तुरंत कहा, ‘हम आपको अपनी टिकट दे देते हैं।'' उन्होंने अपने लिये अगली सुबह की टिकट ले ली और उस फ्‌लाइट की अपनी टिकट मुझे दे दी।'' उनका सामान अंदर जा चुका था इसलिये उन्होंने अपना र्बोडिंग पास और सामान का टोकन मुझे दे दिया और कहा कि मेरा सामान वे कल ले आयेंगे। इस तरह मैं उसी दिन बॉम्बे पहुंच गया मगर देर होने जोन के कारण कन्वेयर बेल्ट से उनका सामान लेना भूल गया। मैं घर पहुंचा और जल्दी से स्नान करके विवाह स्थल की ओर भागा।''

विवाह के समय नवविवाहित जोड़े से षरारतपूर्ण हंसी—मजाक किया जाता है। दिलीप साहब के मित्रों ने भी ऐसा ही कुछ करने को ठानी। प्राण साहब बताते हैं — राज कपूर, मैं और मित्र मंडली के अन्य लोगों ने पहले तो जमकर षराब पी, फिर षोर मचाते हुये उनके बेडरूम के दरवाजे पर जोरदार दस्तक दी और सुहागरात में जबरदस्ती दरवाजा खुलावाकर उन्हें सबसे दुआ—सलाम करने पर मजबूर किया।

इस चट मंगनी और पट षादी के तुरत बाद दम्पति मद्रास चला गया जहां दिलीप कुमार बी। नागी रेड्‌डी की फिल्म राम और ष्याम की षूटिंग कर रहे थे जिसमें वह अपने करियर में पहली बार दोहरी भूमिका कर रहे थे। स्पश्ट था कि यह कामकाजी हनीमून था लेकिन सायरा की खुषी का तो ठिकाना ही नहीं था। आखिर फिल्मी दुनिया के सबसे वांक्षित बैचलर और उनके बचपन के सपनों के हीरो से उनका गठबंधन जो हो चुका था।

मद्रास में सायरा ने पाया कि जिस व्यक्ति से उनकी षादी हुई है वह गंभीर स्वभाव का होने के बावजूद वास्तव में काफी विनोदी स्वभाव का था। नये—नवेले दम्पत्ति की निजता को ध्यान में रखते हुए उन्हें रहने के लिए एक अलग बंगला दिया गया। बंगले के चारों तरफ उजाड़ होने के बावजूद वे दोनों डिनर के बाद टहलने निकल जाते। सायरा अक्सर सुनसान सड़क पर चलते हुए दिलीप कुमार से आगे निकल जातीं और दिलीप कुमार उनके पीछे—पीछे चलते हुए थोड़ा नाराज होते हुए कहते, ‘‘क्या तुम्हेे नहीं लगता कि तुम अपने पति के साथ टहल रही हो।' या वह कहते, ‘‘देखो पेड़ पर एक औरत है और वह मुझे पुकार रही है। उसके हाथ लंबे और लंबे होते जा रहे हैं।''

रात में जब लाइट बंद कर दी जाती, तो वह चुपके से घर से निकल जाते और खिड़कियों पर पत्थर फेंकने लगते।

ये सब चीजें वास्तव में सायरा हो डराती थीं।

सायरा बानो षादी के बाद भी फिल्मों में काम करती रहीं और दिलीप कुमार ने भी उन्हें फिल्म छोड़ने के लिए कोई दबाव नहीं डाला। हालांकि कुछ फिल्में सायरा की नयी जिंदगी पर भी असर डाल रही थीं। ऐसी ही एक फिल्म के। आसिफ की राजेन्द्र कमार— सायरा बानो अभिनीत सस्ता खून महंगा प्यार थी। के। आसिफ की षादी दिलीप कुमार की बहन अख्तर के साथ हुई थी। उन्होंने इस फिल्म के पूरा हो जाने के बाद भी इसे चुपचाप डिब्बे में बंद कर दिया ताकि इस फिल्म से दिलीप कुमार को चोट न पहुंचे। हालांकि यह फिल्म बहुत अच्छी बनी थी और इसके हिट होने की पूरी गारंटी थी। इस फिल्म के कुछ भाग षाहब अहमद के फिल्मों के संगह ‘‘फिल्म ही फिल्म'' में अब भी देखे जा सकते हैं। सायरा ने फिल्मों में काम करना जारी रखा और उनकी हेराफेरी और विक्टोरिया नं0 203 जैसी फिल्में काफी सफल हुई। उन्होंने दिलीप कुमार के साथ भी तीन फिल्में की— गोपी (1970), सगीना (1974) और बैराग (1976)। और उसके बाद अचानक अपने करियर की बुलंदी पर उन्होंने फिल्माें में काम न करने का निर्णय लिया।

सालों बाद स्क्रीन से बातचीत से उन्होंने इसका कारण बताया। एक बार, उनकी षादी के तुरंत बाद ही, जब वह रवि चौपड़ा की फिल्म जमीर के लिए अमिताभ बच्चन के साथ काम कर रही थी, जो उन्हें दिल्ली होते हुए कष्मीर जाना था। दिलीप कुमार भी अपने कुछ व्यक्तिगत काम से उसी समय दिल्ली आये थे। वे दोनों सिर्फ दो घंटे ही एयरपोर्ट पर साथ रह सके। जब वे अलग हुए और अपने—अपने हवाई जहाज में सवार हुए तो सायरा की इच्छा हुई कि वह वापस चली जाए और युसुफ साब के साथ कुछ और समय बिताये। इस घटना के बाद उन्होंने महसूस किया ‘‘मैं षादी को पर्याप्त समय नहीं दे पा रही हूं और उसी दिन मैंने निर्णय लिया कि अब काम नहीं करूंगी। काफी हो गया! अब मैं घर में ही रहूंगी।

हालांकि जब वह खाली होती थी तब अक्सर अपने निर्णय पर विचार करती थीं क्योंकि वह कहती हैं, ‘‘मुझे लगता है कि कोई भी महिला अपनी नौकरी करते हुए भी अपनी षादी को अच्छी तरह कायम रख सकती है। क्योंकि मैंने अपना काम छोड़ने के बाद महसूस किया कि जब मेरी षादी हुई थी और फिल्मों में भी काम कर रही थी, वह मेरी जिंदगी के सबसे बेहतरीन साल थे। कोई

भी महिला षादी के बाद भी काम कर अपनी खुद की पहचान कायम रखती है तो यह अच्छी बात है।''

षादी के बाद सायरा को लगा कि युसुफ साब पूरी तरह निर्भर व्यक्ति हैं। ‘‘वह एक कवि, एक सपने देखने वाले की तरह हैं। उनका हर समय ध्यान रखना रखना पड़ता है। उनमें बचपना नहीं है लेकिन बच्चे की तरह हैं। वह नहीं जानते हैं कि उनका रूमाल कहां है, उनका चेकबुक कहां है। ऐसे आदमी के साथ रहने पर आपको उसके लिए हर चीज करना होगा। इसलिए नहीं कि वह नहीं जानते हैं कि इसे कैसे करना है, बल्कि इसलिए कि वे पूरी तरह से निर्भर व्यक्ति हैं। हालांकि मैने उनकी हर जरूरतों को पूरा करने की कोषिष की, लेकिन मैं नहीं जानती हूं कि मुझे इसमें कितनी सफलता मिली।''

सायरा ने जब पहली बार युसुफ साब के लिए खाना बनाया, उसे याद कर वह कहती हैं, ‘‘मैं खाने की बहुत षौकीन हूं लेकिन मैं बहुत अच्छी रसोइया नहीं हूं। मेरी मां और नानी बहुत अच्छा खाना बनाती हैं। मैंने युसुफ साब के लिए पहली बार चेन्नई में खाना बनाया। मैंने अपनी मां के निर्देषन में आलू मटर और गार्लिक चिकन बनाया। युसुफ साब मेरे बनाये खाने को खाकर बहुत खुष हु क्योंकि मैंने इसे बहुत प्यार से बनाया था।''

जहां तक युसुफ साब के भोजन की बात है, वह कहती हैं, ‘‘युसुफ साब मूलतः हरी सब्जी खाने वाले व्यक्ति हैं। उन्हें गोभी के कोफ्‌ते और बैंगन की बुरहानी सब्जी पसंद है और सालन उनके हिसाब से होना चाहिए। यह बहुत तेल—मसाले वाला नहीं होना चाहिए। उन्हें पपीता और केला बहुत पसंद है। कभी—कभी मेरे मांसाहारी होने पर चिढ़ाते हैं। मेरी मां ने मुझमें हरी सब्जियां और फल खाने की आदत बहुत डालनी चाही, लेकिन मैं इसे कभी पसंद नहीं किया लेकिन अब मुझे तुरई भी खानी पड़ती है।

दिलीप कुमार के लिए उनका परिवार हमेषा उनकी जिंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा। उनके करियर के षुरूआत में ही उनके माता—पिता की मौत हो जाने के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई नूर मोहम्मद के प्रति हमेषा बहुत आदर दिखाया। हालांकि वह उनके बहुत करीब नहीं थे, वह अयूब के करीब थे। दुर्भाग्य से, अयूब का हमेषा स्वास्थ्य खराब रहता था और वर्श 1954 में किडनी खराब होने के कारण उनकी मौत हो गयी। उनकी बड़ी बहन आपाजी पूरे परिवार की मां थी और खान परिवार में हर चीज उनकी मर्जी से ही होता था। सभी छोटे भाई—बहनों को अच्छी षिक्षा दी गयी थी लेकिन दिलीप कुमार की तरह किसी की पहचान नहीं बन पाई। अहसान और असलम ने अमरीका में पढ़ाई की लेकिन अहसान अमेरिकन पत्नी के साथ वहीं बस गया और अहसान भारत वापस आया और निर्माता बन गया। नासिर खान ने अपने करियर की षुरूआत एक फिल्म स्टार के रूप में की लेकिन विभाजन के बाद वह भी सफल नहीं हो पाया। दिलीप कुमार ने उन्हें दोबारा स्टार बनाने की बहुत कोषिष की लेकिन वह नहीं बन सका।

इस तरह, दिलीप कुमार हमेषा एक ऐसी लड़की से षादी करना चाहते थे जो उनके परिवार के साथ एडजस्ट कर सके और उनके साथ रह सके। सायरा कहती हैं, ‘‘उनका बहुत बड़ा परिवार था और उनके कई भाई—बहन थे और उनमें से कुछ दुर्भाग्य से विधवा या तलाकषुदा थीं और उनका घर एक दयालु परिवार बन गया था। हर समय कोई आता—जाता रहता था। जब उन्होंने देखा कि हर समय घर में बहुत लोगों के रहने के कारण मैं उस पारिवारिक घर में असहज महसूस कर रही हूं और मैं बीमार हो गयी तो वे मुझे वहां से मेरे अपने घर में ले आए। यह बहुत बड़ी चीज थी जो उन्होंने मेरे लिये किया और यह मेरे लिए सबसे बड़ा उपहार था कि उन्होंने मुझे मेरे लोगों के साथ रहने दिया।

एक तरफ जहां दिलीप कुमार को बहुत बड़ा एडजस्टमेंट करना पड़ा, वहीं सायरा को भी कुछ एडजस्टमेंट करना पड़ा। ‘‘जब आपकी षादी एक पठान से होती है, तो हर चीज उसकी तरह से होता है। यह कम्प्रोमाइज करने का कोई बड़ा मुद्‌दा नहीं है बल्कि आपस में तालमेल बिठाने की बात है। और यदि आप महिला हैं तो आपको अधिक कम्प्रोमाइज करना पड़ेगा।'' सायरा हंसते हुए कहती हैं।

दिलीप कुमार ने अपनी षादी पर आखिरी षब्द कहा, ‘‘ मैंने हमेषा अपनी मर्जी से जिंदगी जी है और मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं है। मैं एक महीने के लिए आउटडोर लोकेषन पर रहता हूं और पूरी आवारागर्दी करता हूं। षादी जीवन में एक ठहराव लाता है। मैं अपनी स्वतंत्रता अचानक नहीं खो सकता, मैं खुद में धीरे—धीरे बदलाव लाउंगा लेकिन निष्चित रूप से बदलाव लाउंगा।

15

दूसरे दौर का कैरियर

सायरा बानो दिलीप कुमार के लिए बहुत ही भाग्यषाली साबित हुई। लड़खड़ाते हुए अपने करियर की षुरुआत करने के बाद उन्होंने चार जबर्दस्त सफल फिल्में दीं — राम और ष्याम (1967), आदमी (1968), संघर्श (1969) और गोपी (1970)। खासकर इनमें से पहली तीन फिल्में उनके दमदार प्रदर्षन के लिए जानी जाती हैं।

राम और ष्याम तमिल फिल्म एंगा वीटू पिल्लई की रीमेक थी और यह प्रिंस एंड द पॉपर लोक कथा पर आधारित थी जिसमें दोहरी कॉमेडी है। यह फिल्म एक रूप रंग वाले दो लोगाें के द्वारा पैदा की गयी हास्यात्मक परिस्थितियों पर केंद्रित है। दिलीप कुमार ने इससे पहले हल्की भूमिकाएं की थी लेकिन राम और ष्याम ने दोहरे हंसी—मजाक के षुद्धतम प्रवृति को पेष किया। अपनी जिंदगी में पहली बार दोहरी भूमिका निभाने वाले दिलीप कुमार इसके साथ षहर गए। हालांकि ष्याम धमा चौकड़ी मचाने वाली मसखरा था जबकि राम दिलीप कुमार के अपने पहले के ‘‘व्हिप्ड डॉग'' की भूमिका की आनंददायक पैरोडी थी। इस फिल्म ने गजब (धर्मेन्द्र), सीता और गीता (हेमामालिनी), अंगूर (संजीव कुमार) और चालबाज (श्रीदेवी) जैसी दोहरी भूमिका वाली फिल्मों के लिए प्रेरणा दी।

वैजयंतीमाला और माला सिंहा को मुख्य भूमिका निभानी थी और वैजयंतीमाला को एक लाख रुपये की साइनिंग राषि भी दे दी गयी लेकिन उनकी तारीख और कार्यक्रम मेल नहीं खा रहे थे। निर्माता नागी रेड्‌डी ने दिलीप कुमार के साथ एक अलग तारीख की रूपरेखा तय की और उसके बाद वैजयंतीमाला से उन्हीं तारीखों के लिए सहमति हासिल करने के लिए संपर्क किया। जब उन्हें दिलीप कुमार के साथ अपनी तारीख का सामंजस्य स्थापित करने के लिए कहा गया तो उन्होंने गुस्से से कहा, ‘‘यदि दिलीप कुमार दिलीप कुमार हैं तो मैं भी वैजयंतीमाला हूं।'' अंत में वहीदा रहमान को उस भूमिका के लिए तैयार किया गया और मुमताज को जीवन में पहली बार दिलीप कुमार के साथ काम करने का मौका मिला और उन्होंने वह भूमिका बहुत ही जोष और जीवंतता के साथ की।

राम और ष्याम में दिलीप कुमार ने जुड़वां भाइयों — राम और ष्याम की भूमिका निभाई थी जो अपनी जीजा गजेन्द्र की साजिष से बचने की कोषिष करते हैं। गजेन्द्र की भूमिका प्राण ने बड़ी कुषलता के साथ निभाई थी। इस फिल्म की कहानी इस तरह की थी कि दिलीप कुमार और प्राण का कई दृष्यों में आमना —सामना होता है। दिलीप कुमार और प्राण के मारपीट के दृष्य बड़ी चतुराई के साथ सोचे गये थे। जिन दृष्यों में गजेन्द्र सीधे साधे और भोले भाले राम को चाबूक से मारते हैं, वे इतने प्रभावषाली थे कि चाबुक की हर चोट पर दर्षक तड़प उठते थे। काफी साल बाद फरवरी 2000 में प्राण के एक प्रषंसक षहनाज वालजी ने प्राण को एक ईमेल भेजा जिसमें उन्हेांने लिखा, मैं आपकी हर फिल्म को बहुत प्रसंद करता हूं, मगर राम और ष्याम को सबसे अधिक याद करता हूं। इस फिल्म में आपने मुझे सचमुच डरा दिया था। मुझे अभी भी याद है कि जब आप दिलीप कुमार (राम) को पीटने के लिये चाबूक लेकर आते थे तो मैं अंदर तक सिहर उठता था।''

प्राण के अभिनय ने गजेन्द्र के लिये दर्षकों के दिल में इतनी दहषत और नफरत भर गयी थी कि जब दिलीप कुमार (ष्याम) पलटवार करते हुये उन्हें उन्हीं की उसी चाबुक से मारते हैं तो पूरा हॉल तालियाें से गूंज उठता था।

इस फिल्म में दिलीप निर्देषक का काम खुलेआम कर रहे थे। प्राण ने अपनी जीवनी में लिखा है, ‘‘दिलीप साब निर्देषन का वास्तविक काम करते थे हालांकि उस फिल्म का निर्देषक कोई और था। और वे अपने काम से सभी सहयोगियों की मदद करते थे।'' उनकी स्वीकष्ति सिर्फ परोक्ष रूप से नहीं थी जैसा कि वे चाहते थे क्याेंकि जैसा कि प्राण कहते हैं, ‘‘जब जब सीन में सभी कलाकार अपना बेहतरीन अभिनय नहीं कर लेते थे, तब तक सीन ओके नहीं होता था।''

तमिल षिवाजी गणेषन अभिनीत अलायामाणी पर आधारित फिल्म आदमी में दिलीप कुमार ने वैसे आदमी का नियंत्रित प्रदर्षन किया जो अपने प्रतिघात की इच्छा को जाहिर नहीं होने देता है और उसकी अत्यधिक ईर्श्या उसके करीबी दोस्त (मनोज कुमार) और उसकी प्रेमिका (वहीदा रहमान) की जिंदगी को बर्बाद कर देती है। आदमी अत्यंत जटिल विशय पर बनी फिल्म थी। दिलीप कुमार ने वैसे आदमी की भूमिका की है जिसके दो चेहरे हैं : आम लोगों की मदद करने वाला परोपकारी चेहरा जिसके पीछे एक बहुत ही जटिल आदमी का चेहरा है जिसका क्रूर दिमाग वाला किसी को मदद नहीं करने की प्रवष्ति ने एक दोस्त की उसके बाल्यावस्था में ही हत्या कर दी। यह एक कलाकार के द्वारा पूरी संजीदगा से किया गया अभिनय है और यह मनोज कुमार और वहीदा रहमान दोनों के प्रदर्षन से मेल खाता है।

इस फिल्म के बनने के दौरान कई पंडितों ने भविश्यवाणी की कि यह फिल्म बुरी तरी से असफल होगी और ए। भीम सिंह मूर्छित होने के कगार पर थे। उनकी भविश्यवाणी इस तथ्य पर आधारित थी कि इस फिल्म में दिलीप कुमार और मनोज कुमार थे, ये दोनों ही निर्देषक के काम में और फिल्म के काम में लगातार हस्तक्षेप करने के लिए जाने जाते थे। मनोज कुमार कहते हैं, ‘‘आदमी सिर्फ एक आदमी दिलीप कुमार का प्रयास था और इसमें उस तरह का कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया जैसा कि अधिकतर लोग कहते हैं। यह उस आदमी के अपने काम के प्रति समर्पण और अनुराग था जिसका जिम्मा उसने लिया था और वह उसे अपनी बेहतरीन क्षमता के साथ देखना चाहता था।'' भीम सिंह ने इसके बारे में क्या कहा यह भावी पीढ़ी के लिए रिकार्ड नहीं किया गया क्योंकि पंडित गलत साबित हुए और फिल्म न सिर्फ संगत साबित हुई बल्कि सुपरहिट भी हुई।

आदमी में सहनायक की भूमिका के लिये पहले मनोज कुमार की जगह पर धमेन्द्र को चुना गया था मगर उनके आखिरी समय पर इंकार कर देने पर मनोज कुमार ने यह भूमिका निभाई। यह जानते हुये भी उनके आदर्ष अभिनेता — दिलीप कुमार उन पर पूरी तरह छा जायेंगे, फिर भी उन्होंने यह भूमिका क्यों स्वीकार की। मनोज कुमार आज भी मानते हैं कि वह दिलीप कुमार के जबरदस्त प्रषंसक हैं और खुद दिलीप कुमार ने उनसे ‘‘आदमी'' में काम करने के लिये आग्रह किया था। हालांकि यह भी कहा जाता है कि मनोज कुमार को प्राण ने यह भूमिका करने के लिये तैयार किया था। दरअसल प्राण ने ही फिल्म के निर्माता वीरप्पा को इस भूमिका के लिये धर्मेन्द्र का नाम सुझाया था, अतः बिना कारण बताये धर्मेन्द्र के हट जाने से प्राण को बुरा लगा और निर्माता की समस्या को हल करने के लिये उन्होंने मनोज कुमार को इसके लिये राजी किया।

संघर्श रोमियो और जूलियेट की लोक कथा पर आधारित थी जिसकी पष्श्ठभूमि ठग (वैसे चोर जो देवी काली को बली चढ़ाने के लिए यात्रियों की रीति— रिवाजों के अनुसार हत्या कर देते थे) के दो षत्रु परिवार थे। इस तरह यह फिल्म 19वीं षताब्दी के षुरुआत के घटनाक्रम में रखी गयी। दिलीप कुमार ने युवा आदमी की भूमिका की जो षत्रुता चले आ रहे परिवारों का दुखद परिणामों के साथ अंत करने की कोषिष करता है। सामंती बैकग्राउंड ने फिल्म को एक ऐसा किरदार दिया जो दिलीप कुमार को उनके वास्तविक उम्र के साथ भूमिका निभाने का मौका दिया। उनके साथ वैजयंतीमाला थीं लेकिन उनके संबंध इतने ठंडे थे कि ये दोनों कलाकार यहां तक कि फिल्म के मुद्‌दे पर भी बात नहीं करते थे। लेकिन प्रोफेषनल होने के कारण फिल्म में कहीं भी यहां तक कि रोमांटिक दष्ष्यों में भी यह नोटिस नहीं किया गया। फिल्म में ध्यान देने वाली विषेश बात दिलीप कुमार और युवा संजीव कुमार के बीच उम्र का अंतर होने के साथ मुकाबला वाले दष्ष्य थी।

फिल्म का स्क्रिप्ट निर्देषक एच।एस। रवैल की पत्नी अंजना रवैल ने बंगाली साहित्यकार महाष्वेता देवी के उपन्यास से लिखी थी।

गोपी का निर्देषन भी भीम सिंह ने किया था, जो कि ष्याम के चरित्र के विस्तार से कुछ अधिक नहीं था। यह एक मस्तमौला और मसखरा चरित्र था जो कि गांव की लड़कियों के साथ हंसी—मजाक करता था और गांव में धमा चौकड़ी मचाता रहता था। वह अपने बड़े भाई (ओम प्रकाष) और भाभी (निरूपा राय) जिनका वह वास्तव में बहुत आदर करता था और पूजा करता था, उनकी मदद करने के बजाय हर तरह की षरारतें किया करता था। फिल्म में हीरो का दिल सोने का दिखाया गया है लेकिन विलेन के द्वारा पैदा की गयी परिस्थितियों के कारण उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। गोपी घर तो छोड़ देता है लेकिन एक जमींदार के परिवार में ‘‘मां जी'' (दुर्गा खोटे) के स्नेह तले आश्रय पाता है।

दिलीप कुमार ने करीब 15 साल बाद ओम प्रकाष के साथ फिल्म में काम किया। ओम प्रकाष ने फिल्म आजाद में एक अनाड़ी पुलिस कांस्टेबल की भूमिका की थी और इन दोनों कलाकारों की कॉमेडी ने दर्षकों को खूब मनोरंजन किया था। लेकिन आजाद के सेट पर ऐसा कुछ हुआ कि उसके बाद इन दोनों कलाकारों ने साथ काम नहीं किया। दरअसल बात यह थी कि ओम प्रकाष ने मद्रास में आदमी फिल्म को देखा और वह दिलीप कुमार के अभिनय से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत फोन कर दिलीप कुमार को षाबासी दी। उसके बाद करीब डेढ़ दषक से चली आ रही गलत धारणा और दूरी पल भर में गायब हो गयी। उसका नतीजा यह हुआ कि इन दोनों महान कलाकारों ने गोपी में भाई के रूप में षानदार प्रदर्षन किया। ओम प्रकाष ने सगीना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन उनके बीच अनबन के इन 15 सालों में दर्षकों ने क्या खोया, यह हम कभी नहीं जान सकते।

दिलीप कुमार की उम्र 50 साल के लगभग थी लेकिन इस फिल्म में उन्हें 24—25 साल के युवा आदमी की भूमिका करनी थी। उनका उत्कष्श्ट अभिनय भी उम्र के इस अंतर को भर नहीं पाया जिसे फिल्म में साफ—साफ देखा जा सकता है। यह पहली फिल्म थी जिसमें उनके अपने वास्तविक उम्र की झलक दिख जाती है। यह फिल्म इसका भी एक उत्कष्श्ट उदाहरण है कि इस नियंत्रणहीन कलाकार के साथ क्या हुआ। हालांकि ष्याम राम और ष्याम का अभिन्न हिस्सा था जबकि गोपी जीवन के हास्य से काफी बड़ा है और यह स्पश्ट है कि पूरी फिल्म एक ही किरदार के इर्द—गिर्द घूमती रहती है। यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो सफल रही लेकिन एक फिल्म के रूप में यह दिलीप कुमार के अपने गिरते हुए दर्जे को उपर उठाने में असफल रही।

दास्तान अफसाना की एक हुबहू रीमेक थी, जिसने 1950 के दषक में दिलीप कुमार को वापसी का मौका दिया। दिलीप कुमार ने तब सोचा कि यह भूमिका ‘‘दोहरी भूमिका'' किसी के लिए भी चुनौतीपूर्ण है जिसने इस तरह की भूमिकाएं करनी छोड़ दी हो। उन्होंने गंभीरता से महसूस किया कि इस भूमिका के लिए कही अधिक परिपक्व कलाकार की जरूरत है और इसलिए उन्होंने बी। आर। चौपड़ा को अधिक अनुभवी कलाकार को साइन करने के लिए कहा। यह फिल्म पूरी हुई और इसमें मुख्य भूमिका अषोक कुमार ने निभाई लेकिन निर्माता— निर्देषक बी। आर। चौपड़ा ने षपथ लिया कि वह दिलीप कुमार के साथ दोबारा इसका रीमेक बनायेंगे। दास्तान इसी का परिणाम थी।

दिलीप कुमार ने एक बार फिर दोहरी भूमिका निभायी— एक सौम्य अध्ययनरत जज और चंचल मौज—मस्ती करने वाले कलाकार की। यह दो विपरीत स्वभाव वाले आदमी के लिए किया गया अपनी तरह का उत्कष्श्ट अभिनय था और दिलीप कुमार के चरित्र का चित्रांकन अत्यंत उत्कष्श्ट कोटि का था लेकिन यह फिल्म बार—बार दोहरायी जाने वाली पुराने फैषन की फिल्म से अधिक साबित नहीं हुई। कुषाग्र बुद्धि वाले चौपड़ा को बाद में यह अहसास हुआ कि इस फिल्म में क्या गलत हुआ। ‘‘जब हम अफसाना बना रहे थे, यह एक नया, ऑफ बीट और बोल्डविशय था, लेकिन 23 साल बीत जाने के बाद इसका नयापन खत्म हो गया। हम इस मूल तथ्य को भूल गये और मेरे हिसाब से फिल्म के असफल होने का यही कारण था। हमने गलत समय में इस फिल्म का रीमेक बनाया।''

हालांकि सुप्रसिद्ध बंगाली निर्देषक तपन सिंहा कहते हैं कि ‘‘मैंने यह कभी नहीं सोचा कि मैंने सगीना की स्क्रिप्ट पूरी कर ली है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि युवा दिलीप कुमार ने इस फिल्म के साथ पूरा न्याय किया था। यह एक फैक्टरी वर्कर की कहानी है जिसे फैक्टरी का मालिक श्रमिकों का नेता बनने के लिए चालाकी से तैयार कर लेता है। श्रमिकों का नेता अपने नये स्टेटस से खुद को बहुत गौरवान्वित महसूस करता है और उसमें स्वार्थ की भावना आ जाती है। इस तरह वह अपने उन सहयोगियों को खुद से दूर कर देता है जिसे वे अपना समझते थे और जिस पर उनकी उम्मीद टिकी थी। लेकिन अंत में वह खुद को दोशी महसूस करता है।

सगीना (हिंदी)/सगीना महाटो (बंगाली) ऐसी फिल्म है जिसे कम से कम 10 साल पहले बन जाना चाहिये था क्योंकि इसके मजबूत नक्सलाइट विशय के साथ इसकी कहानी उस समय जब यह फिल्म बनी थी, उसके साथ संगत नहीं थी। इसके अलावा, मुख्य चरित्र के साधारण विस्तार ने अच्छा काम किया लेकिन दिलीप कुमार एक बार फिर उधम मचाने वाले किरदार के रूप में

आये जब उन्हें अपने पिछले चरित्र से बाहर निकल जाना चाहिए था। यह आष्चर्य की ही बात है कि दिलीप कुमार ने यह फिल्म की।

बैराग दिलीप कुमार की खुल्लमखुल्ला रोमांटिक भूमिका वाली आखिरी फिल्म थी। इस फिल्म में उन्होंने तिहरी भूमिका की : पिता और दो बेटों के रूप में, जबकि उस समय उन्हें सिर्फ पिता की भूमिका करनी चाहिए थी। यह पहली बार हुआ कि एक सुप्रसिद्ध आदमी ने एक फिल्म में तीन भूमिकाएं की (संजीव कुमार को छोड़कर जिन्होंने फिल्म नया दिन नयी रात में नौ भूमिकाएं की, जो फिल्म पहले दिलीप कुमार को ऑफर की गयी थी लेकिन उन्होंने मना कर दिया था)। यह अन्य दिलीप कुमार के क्लोन कादर खान की भी पहली फिल्म थी जिन्हें दिलीप कुमार ने उनके नाटक में देखने के बाद बुलाया था। दिलीप कुमार के बड़े भाई नासिर खान को एक डॉक्टर के रूप में केमियो में रखा गया जो पिता का इलाज करते हैं जिन्होंने गंगा जमुना के बाद पहली बार भूमिका की थी। विडम्बनावष नासिर खान की इसके बाद 1976 में दिल के तीव्र दौरे से मौत हो गयी, उसके बाद उन्होंने बैराग में उनके काम को पूरा किया।

इस फिल्म का एक अन्य रोमांचक पहलू यह था कि द इकोनॉमिस्ट ने दिलीप कुमार और सायरा बानों के साथ इस फिल्म के एक फोटोग्राफ का इस्तेमाल भारत में उदारीकरण के 10 साल पूरे होने पर इससे संबंधित स्टोरी को रेखांकित करने के लिए इसके कवर (2001) पर किया। एक फ्‌लॉप फिल्म को इससे ज्यादा सम्मान और क्या मिल सकता था!

इस फिल्म के बारे में कहा गया कि इसका निर्देषन असित सेन ने किया था लेकिन वास्तव में असित सेन के साथ दिलीप कुमार ने भी इस फिल्म का निर्देषन किया। उसके बाद फिल्म के तकनीकी विभाग में दिलीप कुमार के निरंतर हस्तक्षेप की बातें बाहर आने लगी और यहां तक कि उनके फैन इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते थे। लेकिन परिपूर्णता और व्यावसायिकता के बहाने यह सब हुआ और दिलीप कुमार अपनी हर फिल्म की दोबारा षूटिंग और रिमेकिंग करते थे।

दिलीप कुमार का बचाव बहुत ही साधारण था। ‘‘दर्षक यहां तक कि खराब फिल्मों में भी गुणात्मक कार्यों की प्रषंसा करते हैं, कलाकार इसके लिए अधिक जिम्मेदार माना जाता है, इसलिए किसी भी उत्पाद का सर्वश्रेश्ठता के मानक पर खरा उतरना जरूरी है। जैंने कभी भी सक्षम निर्देषक के साथ हस्तक्षेप नहीं किया। जब मैंने चीजों को खराब होते देखा तो मैंने उसमें बदलाव करने की सलाह दी जो अधिक प्रभावी साबित हो। यह टीम में समझौते से होता है। मैं इसे हस्तक्षेप नहीं कह सकता।''

इन सबके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस समय के बाद की फिल्में (गोपी, सगीना, दास्तान) अच्छे विशय और पूरी तरह से योग्य भूमिकाओं के बावजूद अपने पूरे सामर्थ्य को दर्षाने में असफल रहीं। क्या इसके लिए दिलीप कुमार जिम्मेदार थे? या ये सभी दुर्भाग्ण्पूर्ण प्रोजेक्ट थे? हर मामले में दिलीप कुमार ने अपना निर्णय सुनाया। उन्होंने अपना सर्वश्रेश्ठ प्रदर्षन किया। आखिर में उन्होंने अपने रिटायरमेंट की घोशणा कर दी जिसे सुनकर पूरी इंडस्ट्री में षोक की लहर फैल गयी।

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने अपने काम में स्थिरता आना महसूस किया। मैं एक ही तरह की फिल्मों में एक ही जैसी भूमिकाएं करके उब चुका था। इसलिए ब्रेक लेना ही ठीक लगा। इसलिए जब तक मेरे पास भविश्य के लिए कोई लक्ष्य नहीं होगा, मैंने फिल्मों में काम करना पूरी तरह से छोड़ दिया है। मैं नहीं जानता कि मुझे आगे क्या करना हैकृकृकृकृ। मैं अपने समय को कैसे व्यतीत करूंगा.....। लेकिन तब, जिंदगी एक जुआ है, क्या यह सही नहीं है?''

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पब्लिक मैन की प्राइवेट जिंदगी

काफी साल पहले ऐसी खबरे थीं कि एक समय दिलीप—सायरा के बीच अस्मां नामक एक खूबसूरत महिला आकर खड़ी हो गई। खबरों के अनुसार 30 मई, 1980 को उसने बंगलौर में दिलीप कुमार से षादी की। समय रहते दिलीप साहब ने उससे छुटकारा पा लिया, लेकिन तीन साल तक वे झूठ बोलते रहे कि उनकी कोई दूसरी षादी नहीं हुई है। ऐसा माना जाता है कि दिलीप साहब के दिल में पिता कहलाने की एक ललक थी, जिसे वे षायद अस्मां के जरिये पूरी करना चाहते थे।

यह एक तरह का स्कैंडल ही था जिसके बारे में सुनकर उनके फैन को गहरा धक्का लगा। छोटी—मोटी फिल्मी पत्रिकाओं में इस बारे में कुछ महीनों तक चर्चा होने के बाद अंत में फरवरी 1982 में इस स्कैंडल का पर्दाफाष हो गया जब ‘‘करंट'' साप्ताहिक ने उनके निकाहनामा को प्रकाषित किया जिससे यह साबित होता था कि मोहम्मद युसुफ खान और आसमा बेगम पति— पत्नी हैं और इसके साथ ही दिलीप कुमार का आसमा नामक किसी महिला के साथ षादी से महीनों तक किये गये इंकार का भी अंत हो गया। वास्तव में, इन महीनों के दौरान वह इस महिला को सिर्फ सामाजिक तौर पर ही जान पाये थे। लेकिन इस बारे में चर्चा करने वाले लेखकों ने आखिरकार आसमा के बारे में पता लगा ही लिया कि वह हैदराबाद की जानी—मानी उच्च वर्गीय रईस थी जो फास्ट लाइफ को पसंद करती थीं। देर रात तक पार्टियों में षामिल रहना, घुड़सवारी करना, रेस में हिस्सा लेना, रम्मी खेलना और संगीत सुनना उन्हें पसंद था। दिलीप कुमार के साथ उनका रोमांस कुछ साल पहले हैदराबाद में षुरू हुआ था, और बम्बई के पैपाराजी की निरीक्षण करने वाली आंखों से दूर यह बंगलौर के गार्डन सिटी, हिमाचल प्रदेष के सुंदर सोलन हिल्स, दिल्ली के प्रतिश्ठित मुगल इलाकों से लेकर पंचगनी और पुणे के टर्फ क्ल्ब में परवान चढ़ा।

यह रोमांस बंगलौर में होटल वेस्ट के एक सुइट में 30 मई 1981 को आयोजित एक गुप्त षादी समारोह में अपनी पराकाश्ठा पर पहुंच गया और वे दोनों निकाह के बंधन में बंध गये। निकाह कराने वाले काजी मौलाना हाफिज अब्दुल हाफिज जुनेदी थे और गवाह के रूप में आसमा के चाचा अमानुल्ला खान और आसमा की दोस्त और विष्वासी अनु वर्मा थी। इस निकाह में षामिल हर व्यक्ति इस निकाह को गुप्त रखने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध था क्योंकि दिलीप कुमार को दुनिया को और खासकर अपनी पहली पत्नी सायरा बानो को यह खबर सुनाने के लिए कुछ समय की जरूरत थी। उसके बाद राज्य सभा के लिए दिलीप कुमार के नाम पर विचार किया जाने लगा लेकिन दूसरी षादी ने इस मौके पर पानी फेर दिया।

लोगों के जेहन में सवाल यह था कि आखिर दिलीप कुमार ने दूसरी षादी क्यों की? इस बारे में दिलीप कुमार के द्वारा दी गयी सफाई को भी जानिये। इस विवाद के चरम पर पहुंच जाने पर उन्होंने सफाई दी थी, ‘‘आसमा सिर्फ मेरी पारिवारिक दोस्त थी जिसे मैं आठ सालों से जानता था लेकिन उनसे सिर्फ नौ बार ही मिला था। आखिरी बार जब हम लोग मिले तो हमारे कुछ दोस्तों ने हम दोनों के साथ षरारत की और हम दोनों को रात भर के लिए एक कमरे में बंद कर दिया। हम लोगों के सभ्य और सुसंस्कृत होने के नाते, वहां हमारे बीच कुछ भी गलत नहीं हुआ लेकिन जब आसमा ने अपने पति के सामने इस घटना को स्वीकार किया तो उन्होंने उन्हें अपने घर से निकाल दिया।

खुद को दोशी और जिम्मेदार महसूस करते हुए, दिलीप कुमार ने उनकी आर्थिक मदद करने की पेषकष की जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। दिलीप ने कहा था, ‘‘ऐसी स्थिति में एक सभ्य आदमी और क्या कर सकता था, इसलिए मैंने उनके साथ षादी कर ली।'' वास्तव में दोस्तों के द्वारा किये गए एक निर्दोश मजाक की उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी! इस मामले में और कुछ न पहचाने जाने वाले कारणों के कारण, दिलीप की दूसरी पत्नी को उनकी पहली पत्नी की तुलना में खान के परिवार ने अधिक स्वीकार किया क्योंकि नयी दुल्हन को दिलीप कुमार के 48, पाली हिल के बंगले में लाया गया था जहां खान के परिवार रूके हुए थे। आसमा कुछ नहीं चाहती थी, वह सिर्फ एक ही चीज चाहती थी — आजादी। लेकिन यहां उन्हें किसी संरक्षिका के बगैर घर से बाहर निकलने की स्वीकृति नहीं दी गयी थी। इसके अलावा दुनिया षायद ही दिलीप कुमार के इस अविवेकपूर्ण कार्य के कारण को खोज पाये।

इस बारे में सायरा बानो पर संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि इस स्कैंडल के बारे में चर्चा किये जाने वाले महीनों के दौरान वह भी दिलीप कुमार की तरह ही इसका विरोध करती रहीं। इसके कुछ महीनों के बाद इस स्कैंडल के बारे में चर्चा चरम पर पहुंच जाने पर एक फिल्मी पत्रिका को उन्होंने बताया था कि उन्हें साब के अविवेकपूर्ण निर्णय के बारे में पहली बार आभास तब हुआ जब उन्होंने नौकरों को साब की जिंदगी में एक नयी महिला के आने के बारे में कानाफूसी करते हुए सुना। जब उनका सामना दिलीप से हुआ, तो पहले तो उन्होंने इसे सिर्फ अफवाह बताया, जिससे हर फिल्म स्टार प्रभावित होता है। हालांकि वह कुरान लिये हुए थे और उन्होंने इसकी कसम खायी। बाद में, जब समाचार पत्रों ने इस संबंध में प्रमाण पेष करना षुरू किया, तो वह अधिक दिनों तक इंकार नहीं कर सके। सायरा ने कहा था, ‘‘मिसेज दिलीप कुमार बनना मेरा बचपन से ही सपना रहा था। लेकिन आज यह दुःस्वप्न बन गया।''

सायरा ने उस ‘‘आदर योग्य'' कारण पर वास्तव में विष्वास नहीं किया जो उन्हें दिया गया था। वह बहुत परेषान थीं और इसलिए उन्होंने कहा था, ‘‘वह किसी अन्य महिला को सम्मान और अपनी पत्नी को अपमान कैसे दे सकते है?'' वह उस अफवाह से भी परेषान थीं, जो जंगल की आग की तरह फैलती जा रही थी कि दिलीप ने बच्चे पैदा करने के लिए दूसरी षादी की ताकि उनका कोई वारिस हो। उस अफवाह को इस तथ्य से भी बल मिला कि सायरा ने सिर्फ कुछ महीने पहले ही 1981 में एक समयपूर्व बच्चे को जन्म दिया था। इस अफवाह का खंडन करते हुए, उन्होंने स्पश्ट रूप से कहा, ‘‘दुनिया में ऐसा कोई भी डॉक्टर नहीं है जो कह सके कि मैं बच्चे पैदा नहीं कर सकती।''

दिलीप सायरा के समर्थन में खड़े थे। उन्होंने कहा, ‘‘मुझसे गलती हो गयी! किससे गलती नहीं होती? यदि तुम मेरे समर्थन में खड़ी हो तो तुम्हें मुझे इस गलत मामले से बाहर निकालने में मदद करनी होगी जिसमें मैं फंस चुका हूं।'' सायरा ने निर्णय लिया वह अपने पति के साथ खड़ी रहेगी और उनके लिए लड़ेगी। एक फिल्मी पत्रिका के साथ साक्षात्कार में उन्होंने स्पश्ट रूप से कहा, ‘‘मैं अपने पति के लिए अपनी जान दे सकती हूं लेकिन मैं उन्हें किसी के साथ षेयर नहीं कर सकती।''

मामला ठंडा पड़ता जा रहा था लेकिन आसमा ने प्रेस को साक्षात्कार देना षुरू कर दिया था। दिलीप ने , सही या गलत तरीके से, उन पर दबाव बनाने के लिए निकाहनामा के सबके सामने आने पर संदेह करना षुरू कर दिया था। इससे बुरा और क्या हो सकता था! षादी के गवाह अनु वर्मा और अमानुल्लाह खान भी प्रेस को अपना वक्तव्य देना षुरू कर दिया, जिससे आसमा ने इंकार नहीं किया। इस षादी से संबंधित सभी लोगों से प्रेस को वक्तव्य दिये जाने के बाद, दिलीप उनका मकसद जानने के लिए वास्तव में चिंतित हो गये और आसमा को तलाक देने पर विचार करने लगे। यह अक्टूबर 1982 की बात थी।

वास्तव में तलाक जनवरी 1983 में हुआ। अक्टूबर 1982 से जनवरी 1983 के बीच दिलीप कुमार आसमा के पास सिर्फ तीन बार गये : एक बार जब उन्हें हिस्टीरिया का दौरा पड़ा और वह नंगे पांव घर से बाहर दौड़ गयीं, दूसरी बार जब उन्होंने काफी मात्रा में नींद की गोली ले ली थी और अंतिम बार जब उन्होंने भूख हड़ताल किया था। और फिर भी, दिलीप नरम नहीं पड़े। उन्होंने 16 साल पुरानी अपनी पत्नी के साथ ही रहना पसंद किया। दिलीप ने आसमा पर सरकारी दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिए बार—बार दबाव बनाया और उन्हें तीन लाख रुपये का मेहर दिया।

अंत में एक संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ : ‘‘हमने अपने व्यक्तिगत कारणों से और परिस्थितियों को देखते हुए अपनी षादी को आपसी समझौते से तोड़ दिया है। हमारे मन में एक दूसरे के प्रति पूरा आदर और सम्मान है और कोई कड़वाहट या विद्वेश नहीं है। हम आगे की जिंदगी में खुष रहने के लिए एक दूसरे को षुभकामना देते हैं। निकाहनामा के सभी समझौतों को इस्लामी रीति—रिवाजों से पूरा कर लिया गया है।'' सरकारी तौर पर तलाक 22 जनवरी, 1983 को हुआ और उसके बाद दिलीप कुमार राजकमल स्टुडियों में रमेष तलवार की दुनिया की षूटिंग में षामिल हुए।

एक दषक बाद स्टारडस्ट ने आसमा के साथ बातचीत को प्रकाषित किया, जिसमें उन्होंने कहा, ‘‘मैं ज्यादा परवाह नहीं करती। मैंने ऐसा क्या किया जो मुझे खोना पड़ा?'' कोई भी महिला जिन चीजों के लिए जीती है, अपनी प्रतिश्ठा, अपने बच्चे, अपना प्यारकृकृकृकृकृ। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मेरे लिए जिंदगी का कोई मतलब नहीं है।''

सायरा बानो ने इस प्रसंग के बारे में कहा था, ‘‘यह कोई परियों की कहानी नहीं है। मेरे बच्चे नहीं हुए और मुझे आर्थिक सुरक्षा की भी जरूरत नहीं हुई। उन पर मैंने भावनात्मक भरोसा किया था। अब मेरी आंखे खुली हुई हैं। मैं दिन के उजाले में सपने कभी नहीं देखती। षादी सिर्फ सहुलियतों को व्यवस्थित करना है। हम एक अच्छी तरह से तालमेल रखने वाले दम्पति हैं, आप जिसे सबसे अच्छा दम्पति कर सकते हैं, हम उससे भी कहीं अधिक हैं।''

दिलीप कुमार ने उसके बाद इस प्रसंग के बारे में कभी कुछ नहीं कहा।

चाहे जो भी हो, निजी जीवन में तमाम उतार—चढ़ाव एवं तमाम अफवाहों बावजूद सायरा बानो और दिलीप कुमार की जोड़ी को आदर्ष मानी जाती है। आज जब वह अल्जाइमर की बीमारी की वजह से स्मष्ति लोप से ग्रस्त हैं, उनके लिये सायरा बानो ही उनकी याददाष्त का एकमात्र सहारा है और वह परछांई की तरह हर जगह उनका साथ देती है और षायद ही कभी अकेला छोड़ती है। दोनों यदा—कदा पार्टियों और फिल्मी प्रीमियर के मौके पर वे नजर भी आते हैं।

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अपनी भूमिकाओं में चरित्र को जीवंत किया

हर स्टार की जिंदगी में एक समय ऐसा आता है जब वह अपनी वास्तविक उम्र को लंबे समय तक छिपा नहीं पाता है। तब उसे रिटायर होने या चरित्र भूमिकाएं करने, इन दोनों के बीच चुनाव करने के लिये दबाव बनाया जाता है। चरित्र भूमिकाओं में अक्सर पिता, चाचा, डॉक्टर, बॉसकृकृकृकृकृकृया इसी तरह के कम समय तक पर्दे पर आने का मौका मिलता है। रिटायर होने या न होने का निर्णय अक्सर आर्थिक भी होता है। कई बार स्टार को इच्छा के बगैर ही मुख्य भूमिका से पूरी तरह से गुमनामी में जाना पड़ता है।

दिलीप कुमार ने रिटायर होने की तब सोची जब वह मुगल—ए—आजम और गंगा जमना की भारी प्रसिद्धी से प्रफुल्लित थे। उस समय वह करीब 40 वर्श के थे और रिटायरमेंट उन्हें गार्बो के रहस्यपूर्ण वातावरण में ले जाता। समय बीतता गया और वह अधिक फिल्में करने लगे। उनके लिए यह सही भी हो सकता था क्योंकि राम और ष्याम और आदमी जैसी फिल्मों में उन्होने इसे साबित भी कर दिया। हिंदी सिनेमा में इन दो फिल्मों के बगैर निष्चित रूप से कुछ कमी रह जाती। लेकिन दास्तान और बैराग जैसी अन्य फिल्मों का क्या, जो पूरी तरह से अव्यवस्थित साबित हुई।

बैराग 1976 में रिलीज हुई और भारी असफल साबित हुई। वह फिल्म में पूरी तरह से छाये रहे और उनकी भूमिका के आगे सारी भूमिकाएं काफी छोटी रहीं। स्पश्ट रूप से वह इस भूमिका के लिए काफी उम्रदराज थे। उसके बाद कुछ सालों के लिए वह बैठ गये और अगले कदम के बारे में विचार करने लगे। फिल्में तो उन्हें तब भी मिल रही थी लेकिन वैसी किसी भी भूमिका का ऑफर उन्हें नहीं मिल रहा था जिस पर वह अभिमान कर सकते। हिंदी सिनेमा में चरित्र भूमिकाएं अक्सर ‘‘डैडी—अंकल'' की तरह की ही होती हैं और ऐसी भूमिकाओं को करने पर यहां तक कि अषोक कुमार भी अपमानित महसूस करते थे। और तब उनके एक समय के सह कलाकार मनोज कुमार एक ऑफर लेकर उनके पास आये, जो उन्हें एक नयी दिषा देता। मनोज कुमार कहते हैं, ‘‘क्रांति मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन अध्याय था। जब मैंने दिलीप कुमार से क्रांति में काम करने के लिए पूछा तो वह रोमांचित हो गये और कहा कि उन्हें मेरे साथ काम करके बहुत खुषी होगी। उन्होंने सिर्फ पांच मिनट में क्रांति की कहानी सुनी और उन्हें हां कहने में सिर्फ एक मिनट लगा।''

मनोज कुमार यह बातचीत काफी रोमांचक महसूस हुई, ‘‘वह व्यक्ति जिसे डराने—धमकाने वाला माना जाता था और लेखक, निर्देषक और कलाकारों की आलोचना करने और उनके काम में गलतियां निकालने के लिए जाना जाता था, उसने मेरी लिखी कहानी में एक लाइन का भी फेर बदल नहीं किया और किसी भी सीन में बदलाव नहीं किया।'' दिलीप कुमार ने ऐसा तब भी नहीं किया जबकि वह फिल्म में प्रमुख व्यक्ति की भूमिका में न होते हुए भी प्रमुख भूमिका में थे और यह भूमिका सिर्फ उन्हीं के लिए लिखी गयी थी। आखिरकार, मनोज कुमार एक सवाल—जवाब करने वाले कलाकार तो हो सकते थे लेकिन कुछ ही लोग ऐसे थे जो लेखक और निर्देषक के रूप में उनसे मैच कर सकते थे विषेशकर देषभक्ति की उनकी अपनी षैली में। इसके अलावा, बड़े—बड़े कलाकारों से काम लेने से पहले, मनोज ने यह महसूस किया कि उन्हें अपनी फिल्म में सभी स्टारों के साथ न्याय करना होगा वरना यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल हो सकती थी।

क्रांति के सीन ने यह संकेत दे दिया कि दिलीप कुमार को क्या करना होगा और क्या नहीं करना होगा। निर्माताओं के लिए यह स्पश्ट हो गया कि वह वैसी फिल्मों को करना चाहते हैं जिसमें वे कुछ कर सकें। वैसी फिल्म जिसकी स्क्रिप्ट में उनकी भूमिकाओं को स्पश्ट तौर पर रेखांकित किया गया हो। सलीम—जावेद द्वारा लिखित रमेष सिप्पी की षक्ति में उन्हें उस युग के स्टार अमिताभ बच्चन के खिलाफ रखा। यह फिल्म षुरू से ही काफी पसंद की गयी। रमेष सिप्पी का एक निर्देषक के रूप में षानदार रिकार्ड रहा है, सलीम—जावेद अपनी सृजनात्मकता की उंचाई पर थे और अमिताभ बच्चन का सुपरस्टार के रूप में आधिपत्य था और इसके अलावा वह एक बहुत ही अच्छे एक्टर भी थे।

षक्ति दिलीप कुमार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती भी रही और उन्होंने उसका सामना भी किया। दिलीप कुमार की भूमिका की रूप रेखा पर इस फिल्म के एक लेखक सलीम खान ने कहा, ‘‘हमलोग बहुत आष्चर्यचकित थे कि हमने जो चरित्र लिखा था, उन्होंने उस चरित्र को एक पूरा नया आयाम दिया। ऐसा बहुत कम होता है कि आपने एक बहुत ही उचित स्क्रिप्ट दिया हो और आपने जो सोचा हो फिल्म उससे परे जा रही हो। दिलीप कुमार ने चरित्र को समझा और इसे अपने तरीके से विस्तार किया।''

षक्ति में अपने पिता से नाराज एक बेटे का उत्कृश्ट मनोवैज्ञानिक चित्रण किया गया जो अपनी ड्‌यूटी को सभी चीजों से उपर रखता है। दुर्भाग्यवष बॉक्स ऑफिस का ऐसा दबाव रहा कि कोई भी लेखक उन्हें पूरी तरह से नजरअंदाज नहीं कर सकता था। इसके बावजूद, अमिताभ बच्चन के साथ उनकी नाटकीय लड़ाई के बारे में काफी बात हुई। युवा अभिनेता के बारे में दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘अमिताभ बच्चन अपने आप में एक परिपूर्ण एक्टर हैं, उत्कृश्ट बर्ताव करने वाले हैं लेकिन मैं महसूस करता हूं कि वह खुद को एक परिपाटी में फंसने से रोक सकते थे।'' ऐसा उन्होंने इस तथ्य की परवाह न करते हुए बिल्कुल सपाट चेहरे से कहा कि एक एक्टर के रूप में उन्होंने खुद को एक इमेज में बांध लिया।

लेकिन दिलीप कुमार अब अन्य प्रकार की इमेज के लिए तैयार थेः यह इमेज एक ईमानदार आदमी की थी जो एक महत्वपूर्ण घटना के कारण अपराध की ओर रुख कर लेता है जो उसे बची हुई ईमानदारी की निरर्थकता का अहसास दिलाती है। यह विशय एक मराठी नाटक आश्रुुन्ची झाली फुले से लिया गया जिसे मधुसूदन कालेकर ने लिखा और हिंदी में आंसू बन गये फूल के नाम से बनाया गया। इसमें अषोक कुमार ने ईमानदार आदमी से अपराध में प्रवीण आदमी की मुख्य भूमिका की। अपनी पूरी जिंदगी में गलत आदमी की भूमिका करने वाले इस आदमी के ईमानदार से अपराधी बनने के दूसरे पक्ष को जोड़ने के कारण एक्टर के हीरो और विलेन, एक ही समय में दोनों तरह की भूमिकाएं करने के कारण लोगों ने पसंद कियाा गया। हमने देखा है कि वह हमेषा नकारात्मक भूमिका निभाने के लिए इच्छुक रहते थे।

फिल्मांकन और कहानी में कुछ परिवर्तन के साथ दिलीप कुमार ने अपनी अगली तीन फिल्मों में इस तरह की भूमिकाएं कीः सुभाश घई द्वारा निर्देषित विधाता (1983), यष चौपड़ा द्वारा निर्देषित मषाल (1984) और रमेष तलवार द्वारा निर्देषित दुनिया (1984)। इस बीच उन्होंने सिर्फ एक अन्य फिल्म पूरी की वह बी। आर। चौपड़ा की मजदूर जो नया दौर और फागुन की याद दिलाती है लेकिन इसे षहरी बैकग्राउंड में फिल्माया गया। यह एक साफ सुथरे ढंग से निर्देषित और एक्टिंग की गयी फिल्म थी। दिलीप कुमार के इसमें काम करने के कारण यह एक हाई प्रोफाइल फिल्म थी जिसपर लोगों ने अधिक प्रतिक्रिया नहीं दी। श्रम बनाम पूंजी के मुद्‌दे को उठाने के अलावा, यह फिल्म पिता (दिलीप कुमार) और उनके पोशित बेटे (राज बब्बर) के बीच मुकाबला और फिल्म की उत्कृश्ट रचना ने दर्षकोंं को अपनी ओर आकृश्ट किया।

विधाता बनने के दौरान सुभाश घई के साथ दिलीप कुमार के सानिध्य के कारण दो युवा निर्देषकों ने उन्हें दो और फिल्मों कर्मा और सौदागर के लिए साइन किया। हालांकि कर्मा में तीन मुख्य हीरो (अनिल कपूर, जैकी श्रॉफ और नसीरुद्‌दीन षाह) पर फोकस किया गया था और दिलीप कुमार ने जेलर के चरित्र को उभारा था जो एक खतरनाक अपराधी (अनुपम खेर) का मुकाबला करता है। सौदागर में एक बार फिर दिलीप कुमार राज कुमार का मुकाबला करते हैं, जो फिल्म का मुख्य अंष बन गया जबकि इस फिल्म के मुख्य कलाकार (मनीशा कोइराला और विवेक मुश्रान, दोनों की पहली फिल्म थी) काफी कमजोर थे। फिल्म की प्री—रिलीज पब्लिसिटी में लोकेषन पर दोनों ने नाटकीय रूप से लड़ाई की लेकिन वास्तविक फिल्म काफी संतुलित दिखी।

सुभाश घई खुद में एक मजबूत निर्देषक हैं जिन्होंने अपने कलाकारों के साथ हस्तक्षेप करने के मामले में कभी दयालुता नहीं दिखायी। फिर दिलीप कुमार के साथ उनका गठबंधन कैसे विकसित हुआ जो खुद को निर्देषक के काम से अलग नहीं रख सकते थे? सुभाश कहते हैं, ‘‘हमारे बीच विचारों में अंतर रहा लेकिन हमलोग सेट पर जाने से पहले इसका हल निकालने की कोषिष करते थे। हमलोग अपना होमवर्क पूरी तरह से पूरा कर लेते थे जिससे काम आसान हो जाता था। वास्तव में, यदि आप अच्छे हैं तो दिलीप कुमार नामक यह कलाकार आपके काम में पूरी तरह से षामिल होने में रुचि रखता है। वह अपने काम में पूरी तरह से डूब जाते हैं लेकिन वह बैठकर उदासीनता, अकुषलता और धोखेबाजी के कारण काम को प्रभावित होते हुए नहीं देख सकते। इस आदमी का पेषेवराना अंदाज, उनका पूरा समर्पण, उनकी ईमानदारी और काम के प्रति उनकी दीवानगी अद्‌भुत थी''

अपने प्रषंसकों को दिलीप कुमार एक अन्य आष्चर्यचकित करने वाली चीज भी दी, कि वह उस उम्र (60 वर्श से अधिक उम्र) में भी रोमांस कर सकते थे और इससे बचकर निकल भी सकते थे। उस समय की उनकी लगभग सभी फिल्मों में एक रोमांटिक पैच होता था और दर्षक इसके हर क्षण का आनंद उठाते थे। सिर्फ दिलीप कुमार इससे निकल भी सकते थे क्योंकि जब वह वहीदा रहमान (मषाल), नंदा (मजदूर), नूतन (कर्मा, कानून अपना अपना) के साथ रोमांस करते थे, तो वह ऐसा अलग स्टाइल से करते थे और इसके हर क्षण में विष्वसनीयता पैदा कर देते थे।

दिलीप कुमार की इस समय की बाकी बची हुई फिल्में जो यादगार साबित नहीं हुई, वे हैंः धरम अधिकारी (1986), कानून अपना अपना (1989) और इज्जतदार (1990)। आग का दरिया हालांकि 1991 में पूरी हो गयी थी, लेकिन यह कभी रिलीज नहीं हुई जबकि किला 1990 के दषक के षुरुआत में ही पूरी हो गयी थी लेकिन 1998 में रिलीज हुई। उन्होंने इन फिल्मों को क्यों साइन किया, यह फिल्म उद्योग में अब भी एक असुलझा हुआ रहस्य बना हुआ है लेकिन उन्होंने इसका जवाब दिया, ‘‘चयनात्मकता षुरू से ही मेरा हॉलमार्क रहा है और इसने मुझे लंबे समय तक अस्तित्व में रहने के लिए सक्षम बनाया। आज आप अच्छी और खराब फिल्मों के बीच चुनाव नहीं कर सकते हैं। आपको खराब और डरावनी फिल्मों के बीच चुनाव करना होगा। तो फिर यदि मैंने खराब फिल्मों का चुनाव किया तो आप मुझे दोशी ठहराएंगे?

दिलीप कुमार ने कहा था, ‘‘नयी पीढ़ी के निर्देषकों के साथ करने में मैं उत्तेजित हो जाता हूं। एक पत्रिका को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, ‘‘मैं यह नहीं कह सकता कि काम करने का नया तरीका मेरे स्वभाव से मेल खाता हैं। हमारी फिल्में फास्ट फुड की तरह होती जा रही हैं और इसकी अंधाधुंध रफ्‌तार हमें कहीं नहीं ले जा रही हैं। अब ध्यान केंद्रित करने के लिए समय नहीं है, आत्मसात करने और प्रकट करने के लिए वातावरण नहीं है। इसलिए मैंने दोबारा अभिनय छोड़ने का निर्णय लिया। लेकिन वे निर्देषन को इच्छुक अवष्य थे।

इज्जतदार जैसी फिल्म करने का सकारात्मक पहलू सिर्फ यह था कि फिल्म के निर्माता सुधाकर बोकाड़े ने उन्हें अपने लिए एक फिल्म निर्देषित करने को कहा था। बोकाड़ो कहते हैं, ‘‘यह इज्जतदार के निर्माण के दौरान हुआ। मेरे निर्देषक के। बपैय्‌या बीमार हो गये और सिड्‌युल कैंसिल कर दिया गया। लेकिन जब दिलीप कुमार को इसे निर्देषित करने के बारे में पूछा गया तो वै तैयार हो गये और षूटिंग षुरू हो गयी। जब मैं उन्हें सेट पर देखता था तो मंत्रमुग्ध हो जाता था। मैं उनके निर्देषन के स्टाइल से काफी प्रभावित था और उससे भी अधिक उस तरीके से जिससे उनके निर्देषन में दूसरे कलाकार काम करते थे।''

महत्वहीन फिल्मों में अपनेे एक्टिंग का करियर खत्म होता देख दिलीप राजी हो गये और कलिंगा की घोशणा कर दी गयी। दिलीप कुमार ने फिल्म को एक आकार देने और निर्देषन के प्रति अपनी रुचि का संकेत दिया। ‘‘कलिंगा मस्खरापन, मुक्केबाजी और जोष का मिला—जुला रूप हो सकता है। फिल्म में सामग्रियों की गणना नहीं की जाती है, ये तो दर्षक करते हैं। वे फिल्म को पसंद कर सकते हैं या उसकी आलोचना भी कर सकते हैं। मैं कलिंगा के साथ निष्चित रूप से कोई क्रांति नहीं ला रहा हूं। मैं किसी भी अन्य निर्देषक की तरह इसके आकलन की उम्मीद कर सकता हूं।''

फिल्म के ग्राउंड पर आने के बाद कुछ गलतफहमियां पैदा हो गयीं और इसका फिल्मांकन रोक दिया गया। फिल्म को पूरा करने के लिए अन्य निर्देषक से बात की जाने लगी लेकिन इसी बीच इसका समाधान ढूंढ लिया गया। दिलीप कुमार फिल्म को पूरा करेंगे क्योंकि सुधाकर बोकाड़े का दिलीप कुमार में अब भी काफी विष्वास था। लेकिन उस समय बोकाड़े की खुद की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनकी अपनी जिंदगी परीक्षण के दौर से गुजर रही थी और फिल्म कभी पूरी नहीं हो पायी।

दिलीप कुमार ने एक दषक से भी अधिक समय से किसी फिल्म में काम नहीं किया है। इसमें संदेह है कि वे अब फिल्मों में काम करेंगेक। लेकिन उनमें हमेषा कुछ करने की जिज्ञासा मौजूद रही। वह कहते हैं, ‘‘आपको हमेषा आगे बढ़ते रहना चाहिए। ठहराव का अर्थ मौत है। हर अनुभव आपकी बढ़त में योगदान करेगा और आप जितना ज्यादा वष्द्धि करेंगे उतने ज्यादा समय तक आप जीवित रहेंगे। मैं अब भी जीवित हूं और सीख रहा हूं।''

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एक कलाकार की आत्मा

1950 के दषक में राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार हिंदी सिनेमा के तीन दिग्गज अभिनेता बन गये थे। और इनमें से हर किसी ने अपना खुद का अधिकार क्षेत्र कायम कर रखा था जिससे वे अपने प्रषंसकों के दिलों पर राज करते थे। संगीत भी मनोरंजन सिनेमा का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका था और हर ‘‘किंग'' के अपने ‘‘इन—हाउस'' संगीतकार होते थे : राज कपूर और षंकर जयकिषन, देव आनंद और एस। डी। बर्मन, दिलीप कुमार और नौषाद। हालांकि दिलीप कुमार ने ओ। पी। नैय्‌यर (नया दौर), सलील चौधरी (मधुमति) और षंकर जय किषन (दाग) जैसे संगीत निर्देषकों के साथ भी हिट फिल्में दी थी। उनके अधिकतर ब्लॉकबस्टर और उनके कई हिट गीत का श्रेय नौषाद को जाता है।

संगीत की तरह ही ‘‘आवाज'' — ‘‘एक्टर की आत्मा'' भी उतनी ही महत्वपूर्ण थी, जैसा कि राज कपूर ने कहा था! मोहम्मद रफी के दिलीप कुमार की आवाज के रूप में जाने जाने से पहले तलत महमूद उनकी आवाज थे। और तलत से पहले मुकेष थे। लेकिन नौषाद ही थे जो इन सभी की आवाज की कलाबाजी के द्वारा इनसे दिलीप का अनुकरण कराते थे।

नौषाद ने इस सष्जनात्मक संबंध को कम कर आंका और यह कहकर इसे मान्यता दी, ‘‘दिलीप कुमार के साथ मेरा संबंध इस तथ्य से जरूर प्रकट हो गया कि यह अभिनेता अपनी कला में उसी तरह का समर्पण भाव लाया जैसा मैंने अपनी कला में किया था। यह सुनिष्चित करने के लिए कि यह समर्पण कभी कम नहीं होगा, मैंने हमेषा एक समय में सिर्फ एक ही फिल्म पर काम किया— और उसी तरह से दिलीप कुमार ने भी किया।''

हालांकि अनिल बिस्वास पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अनोखा प्यार में ‘‘याद रखना चांद तारों इस सुहानी रात को'' के अंष के साथ मुकेष को दिलीप कुमार की आवाज के रूप में इस्तेमाल किया। इसके अलावा नौषाद ने उसी मुकेष को मेला और अंदाज में दिलीप कुमार के लिए अधिक अनुकूल तरीके से इस्तेमाल किया। मुकेष उस समय सहगल के मोह के बंधन में बंधे थे। जब सहगल को षाहजहां में उस्ताद के लिए ‘‘जब दिल ही टूट गया'' गाते सुना, तो उन्होंने दूसरा कुंदन लाल सहगल बनने का निर्णय कर लिया था। नौषाद भी मुकेष की अनोखी आवाज को उतना ही साबित करने का प्रयास कर रहे थे और यह भी कि उन्हें सहगल की नकल उतारने की जरूरत नहीं है। इसका परिणाम मेला के हिट संगीत में दिखा जहां मुकेष ने हिट लय के साथ तेज उतार—चढ़ाव में गाया : ‘‘गाये जा गीत मिलन के'', ‘‘धरती को आकाष पुकारे'', मैं भंवरा तू फूल'' और ‘‘मेरा दिल तोड़ने वाले ''। मोहम्मीद रफी ने भी हिट एकल गीत गाया, ‘‘ये जिंदगी के मेले।''

नौषाद ने वैसा ही उम्दा लय बाद में भी दिया जब उन्होंने मुकेष से गवाया, ‘‘टूटे ना दिल टूटे ना'', ‘‘हम आज कहीं दिल खो बैठे'', ‘‘तू कहे अगर जीवन भर''। और फिल्म अंदाज में दिलीप कुमार के लिए ‘‘झूम झूम के नाचो आज'' में एकल गीत ‘‘यूं तो आपस में'' के लिए रफी का इस्तेमाल किया जिसे राज कपूर पर फिल्माया गया। उस समय जब राज कपूर चुनिंदा फिल्मों में काम कर रहे थे, मुकेष आग (राम गांगुली) और बरसात (षंकर जय किषन) में उनकी आवाज बने।

जब मुकेष राज कपूर की आवाज बन गये थे, तो यह सोचा जाने लगा कि तलत दिलीप कुमार की आवाज बन जायेंगे और थोड़े समय के लिए ऐसा हुआ भी! वास्तव में, बाद में तलत ने कहा, ‘‘मैं उनके लिए गाकर, उनकी आवाज कहे जाने पर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। तलत महमूद ने दिलीप कुमार के लिए पहली बार फिल्म आरजू (‘‘ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल'') और बाबुल (‘‘मिलते ही आंखें दिल हुआ दीवाना किसी का'') में गाया। कुछ संगीतकारों ने कुछ सुंदर गीतों के लिए दिलीप कुमार पर उनकी आवाज का इस्तेमाल किया : ‘‘ऐ मेरे दिल कहीं और चल'' (दाग), ‘‘सीने में सुलगते हैं अरमान'' (तराना), ‘‘ये मेरा दीवानापन है'' (यहूदी) और ‘‘षाम—ए—गम की कसम'' (फुटपाथ)। लेकिन उनकी आवाज दिलीप कुमार की आवाज के साथ सबसे अधिक उपयुक्त तब लगी जब उन्होंने देवदास में दिलीप के लिए गाया। लोग इस बात को मानने से इंकार कर रहे थे कि इसे तलत ने गाया है। उन्होंने कहा कि ‘‘मितवा लागी ये कैसी'' गीत में दिलीप कुमार ने खुद गाया है। वर्श 1958 के आखिरी में षंकर जय किषन ने यहूदी में दिलीप के दर्द को प्रकट करने के लिए तलत की आवाज का इस्तेमाल किया, लेकिन उस समय ऐसा इसलिए हो सका क्योंकि उस समय वे मुकेष से गवाने को इच्छुक नहीं थे जो उस समय राज कपूर की छवि से बिल्कुल मेल खाते थे।

1950 के दषक में आवाज कलाकार की छवि का एक अभिन्न हिस्सा बन चुकी थी : मुकेष राज कपूर के करियर के षुरुआत में ही उनकी ‘‘आत्मा'' बन चुके थे, लेकिन ऐसा 1950 के दषक के मध्य में हुआ कि देव आनंद के लिए किषोर कुमार और दिलीप कुमार के लिए मोहम्मद रफी की जोड़ी लोकप्रिय हो गयी।

मोहम्मद रफी ने दिलीप कुमार के लिए पहली बार जुगनू (‘‘यहां बदला वफा क्या'') में फिरोज निजामल के नेतष्त्व में गाया, लेकिन उसके बाद उन्होंने दिलीप कुमार के लिए नौषाद के नेतष्त्व में दीदार (‘‘मेरी कहानी भूलने वाले तेरा जहां आबाद रहे'') में गाया जिसे दर्षकों ने काफी पसंद किया। नौषाद ने नाटकीय अंदाज में अमर के सेट पर, दिलीप कुमार के गले पर अंगुली रखकर कहा, ‘‘मेरे षब्दों पर ध्यान दो! इस गले के लिए सिर्फ एक की आवाज फिट हो सकती है और वह आवाज है रफी की।'' दिलीप कुमार—नौषाद—मोहम्मद रफी की तिकड़ी ने दीदार (‘‘मेरी कहानी भूलने वाले'') से लेकर संघर्श (‘‘मेरे पैरों में घुंघरू'') तक एक सनसनी पैदा कर दी और उड़नखटोला (1955) में ‘‘मोहब्बत की राहों में चलना संभल के'', ‘‘ना तूफां से खेलो ना साहील से खेलो'' और ‘‘ओ दूर के मुसाफिर हम को भी साथ ले ले रे'' मील का पत्थर साबित हुआ जो फिल्म दिल दिया दर्द लिया में गीत दर गीत : ‘‘कोई सागर दिल को बहलाता नहीं'', ‘‘दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या क्या ना किया, दिल दिया दर्द लिया'' और ‘‘गुजारे हैं आज इष्क में हम उस मुकाम से'' चोटी पर पहुंच गया।

हालांकि लीडर, दिल दिया दर्द लिया और संघर्श के संगीत को काफी सफलता मिली जबकि ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्‌लॉप हो गयीं और नौषाद को कहना पड़ा, ‘‘1964—68 के चरण में दिलीप कुमार की मेरे साथ कुछ महत्वपूर्ण फिल्मों के असफल होने का कारण न तो मैं था या वह थे। हम दोनों ने अपनी प्रकष्ति को कायम रखते हुए इन फिल्मों को भी अपना बेहतरीन दिया था।'' यहां तक कि राम और ष्याम की सफलता भी इस जोड़ी को बचा नहीं सकी जिसने दो दषकों में ऐसा बेहतरीन संगीत दिया था। निर्माता अन्य संगीतकारों : कल्याणजी आनंदजी (बैराग), एस।डी। बर्मन (सगीना) और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (दास्तान) की ओर रुख करने लगे।

नौषाद ने इसके बाद दिलीप कुमार की फिल्मों के लिए कभी संगीत नहीं दिया। लेकिन दिलीप कुमार की आवाज के रूप में रफी की पसंद भाग्यषाली साबित हुई।

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दिलीप कुमार को गुस्सा क्यों आता है?

1960 के दषक तक दिलीप कुमार के स्क्रीन नाम वाले वास्तविक युसुफ खान के बारे में बहुत कम लोगों को पता था। हालांकि उनके प्रषंसक संभवत यह जानते थे कि उनका वास्तविक नाम युसुफ खान है और वे उत्तरी पष्चिमी सीमांत प्रांत पेषावर से आये पठान थे। वास्तव में, कुछ पत्रिका के आलेखों में उसक का वास्तविक नाम प्रकाषित हो चुका था और इसलिए यह बात गुप्त नहीं थी और जाहिर तौर किसी स्क्रीन नाम के पीछे के असली नाम को दबाने का कोई मामला नहीं था। यह उसी तरह से एक स्क्रीन नाम रखा गया था जिस तरह जैसे सुविधा के लिए या व्यावसायिक कारणों से अनेक कलाकारों ने अपने असली नाम की जगह पर अलग स्क्रिन नाम रखे थे। यह वास्तविकता छिपी नहीं थी दिलीप कुमार वास्तव में युसुफ खान थे और इससे किसी को कोई ऐतराज नहीं था। वह एक बहुत ही सुषिक्षित और सुसंस्कृत कलाकार थे और हैं और उस्ताद विलायत खान या बिस्मिल्लाह खान की तरह ही भारत के गौरव थे और रहेंगे।

यह जरूर है कि बंटवारे के तुरंत बाद कई मुस्लिमों ने यह सोचकर अपने नाम बदल लिये कि मुस्लिम नाम होने से उन्हें भारत में बसने में मुष्किल आ सकती है। हालांकि युसुफ खान का नाम बदलकर दिलीप कुमार रखे जाने का कारण मुस्लिम पहचान से होने वाली परेषानी नहीं थी बल्कि दिलीप कुमार के लिये व्यक्तिगत कारण था जबकि देविका रानी की कंपनी ‘‘बंबई टॉकीज'' के लिये व्यावसायिक कारण था।

व्यक्तिगत कारण के बारे में दिलीप कुमार कई बार बता चुके हैं। जब वह अपनी पहली फिल्म में काम कर रहे थे तो अपने नाम बदलने के बारे में उन्होंने कहा था, ‘‘मैंने अपना नाम इसलिए बदला क्योंकि मैं खुद को छिपाना चाहता था। मेरे पिता मेरे एक्टर बनने के विचार के बिल्कुल खिलाफ थे इसलिए मैंने सोचा कि नाम बदल लेना ही ठीक रहेगा।''

‘‘बंबई टॉकीज'' के लिये नाम बदलने का व्यवसायिक कारण यह था कि उन दिनों ‘‘बंबई टॉकीज'' को अशोक कुमार के विकल्प की तलाश थी और इसलिये जब दिलीप कुमार को नौकरी पर रखा गया तो उनके लिये अशोक कुमार से मिलता जुलता नाम दिया गया।

वैसे भी जब युसूफ खान ने दिलीप कुमार का नाम लेकर सिनेमा की दुनिया में प्रवेष किया था तब ऐसे एक भी मुस्लिम अभिनेता का उदाहरण नहीं था जिसने सिनेमा की दुनिया में एक खास मुकाम बनाया हो, हालांकि उन दिनों ऐसी कई मुस्लिम अभिनेत्रियां थी जिन्होंने अपनी पहचान बनायी थी और इनमें से कई ने तो स्टार का दर्जा हासिल किया था। इनमें गोहर, नसीम एवं सरदार अख्तर प्रमुख थी। हालांकि बाद में अनेक मुस्लिम महिलाओं को भी हिन्दू नाम दिये गये। मिसाल के तोर पर महाजबीन को मीना कुमारी का नाम दिया गया तो बेगम मुमताज जहां को मधुबाला का नाम मिला। नाम में इस तरह का परिवर्तन केवल भारत में ही नहीं हालीवुड में भी देखा गया है। मिसाल के तौर पर अर्बिबाल्ड अलेक्सान्द्र लीच को कैरी ग्रांट के नाम से मैरियन मोरिसन को जान वायने और नोरमा जीन को मर्लिन मुनरो के नाम से जाना गया। हालांकि दिलीप कुमार का नाम बदले जाने के समय न तो देविका रानी और न ही दिलीप कुमार और न किसी अन्य ने यह सोचा था कि हिन्दू नाम अधिक स्वीकार्य होंगे या मुस्लिम नाम, बल्कि यह एक व्यावसायिक आधार पर फैसला था। हालांकि उस दौरान और बाद के दिनों में भी कई मुस्लिम कलाकारों एवं फिल्मकारों ने अपना खास मुकाम बनाया। इनमें — कमाल अमरोही, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, मजरूह सुल्नानपुरी, नौषाद, मोहम्मद रफी, तलत महमूद और के. आसिफ के नाम गिनाये जा सकते हैं जिन्होंने अपने मुस्लिम नामों को कायम रखते हुये भी कामयाबियां हासिल की। आज बालीवुड में ऐसे अनेक मुस्लिम अभिनेता हैं जो मूल नाम के साथ ही लोेगों के दिलों पर राज कर रहे हैं, मिसाल के तौर पर षाहरूख खान, आमिर खान और सलमान खान।

दिलीप कुमार के पूरे फिल्मी कैरियर की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपने पूरे फिल्मी जीवन में केवल एक फिल्म — मुगले आजम में मुस्लिम किरदार निभाया। इस कालजयी फिल्म में उन्होंने मुगल बादषाह अकबर के बेटे सलीम की भूमिका निभायी। जबकि उनके समकालीन गुरूदत्त ने चांदवी का चांद (1960) सहित कुछ फिल्मों में मुस्लिम किरदार की भूमिका निभायी। राजेन्द्र कुमार ने मेरे महबूब (1963) और राज कुमार ने पाकीजा (1971) में मुस्लिम किरदार की भूमिका निभार्यी बाद में अमिताभ बच्चन ने सौदागर (1973) में मुस्लिम किरदार की भूमिका निभायी। मुस्लिम होने के बावजूद दिलीप कुमार ने मुख्य तौर पर हिन्दू किरदारों को ही पर्दे पर जिया। फिल्म गंगा जमुना में जिसे खुद लिखा और निर्मित किया, उसमें वह आखिरी दष्ष्य में कष्श्ण की मूर्ति के सामने ‘‘हे राम'' कहते हुये दम तोड़ते हैं। इस तरह से दिलीप कुमार ने अपनी फिल्मों एवं अपनी भूमिका के जरिये धर्मनिरपेक्षता की भावना को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

तथ्य यह था कि दिलीप कुमार बहुत धार्मिक थे जैसा कि हर दूसरा भारतीय पैदा होता है, जैसा कि बिमल राय प्रोडक्षन्स के प्रोडक्षन कंट्रोलर प्रेमजी अक्सर कहा करते थे। उस समय दिलीप कुमार नैनीताल में मधुमति की षूटिंग कर रहे थे और उन्हें सुख—सुविधा पहुंचाने की जिम्मेदारी प्रेम जी की थी। एक दिन एक पुजारी दिलीप कुमार के पास आया और उसने एक मंदिर की मरम्मत करने के लिए दिलीप कुमार से सहायता मांगी। दिलीप कुमार ने प्रेमजी को बुलाया और उन्हें पुजारी को एक हजार रुपये दे देने को कहा। कुछ दिनों बाद, एक मौलवी दिलीप के पास मस्जिद की मरम्मत के लिए मदद की प्रार्थना करने आया। दिलीप ने तुरंत प्रेमजी को उसे एक हजार रुपये दे देने को कहा। उन दिनों एक हजार रुपये बहुत बड़ी राषि होती थी इसलिए प्रेमजी ने दिलीप से अकेले में कहा कि आप पैसे को दान देने में सावधानी बरतें। इस पर दिलीप धीरे से हंसे और सिर को उपर उठाते हुए कहा कि उनके लिए भगवान या अल्लाह एक ही हैं।

जैसा कि स्तंभ लेखक और एचटी मीडिया के सलाहकार वीर सांघवी, ‘‘यदि आप भारतीय धर्म निरपेक्षता की सफलता का उदाहरण चाहते हैं तो दिलीप कुमार इसके लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं। वह सही मायने में देषभक्त मुस्लिम हैं। और भारत ने उन्हें उनकी जीवन में ही एक प्रसिद्ध व्यक्ति के रूप में सम्मानित किया है।

मरहूम बैरिस्टर रजनी पटेल की पत्नी और समाजसेवा के कामों में सक्रिय बकुल पटेल दिलीप कुमार को राखी बांधती हैं। वह बकुल कहती हैं, ष्चाहे बाढ़ हो या सूखा राहत की बात, हम जिस अभियान की षुरुआत करते वह उसमें षामिल होने वाले षुरुआती लोगों में होते। साथ ही वह अपने साथियों से भी मदद जुटाते।ष्

लेकिन वास्तव में, चीजें उतनी सामान्य नहीं थी। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कितने सफल रहे, दिलीप कुमार यह कभी नहीं भूले कि वह एक मुस्लिम हैं।'' पहला धक्का उन्हें 1960 के दषक के मध्य में तब लगा जब पहली बार निर्माता दिलीप कुमार गंगा जमना के साथ सेंसर में दिक्कत आई।

सेंसर ने फिल्म को लेकर कुछ आपत्ति दर्ज की, उनमें से मुख्य आपत्ति मरते हुए गंगा के आखिरी षब्द थे : ‘‘हे राम!'' दिलीप कुमार इस आपत्ति केा समझ नहीं पाये। आखिरकार ये गांधी के आखिरी षब्द थेकृकृ ऐसे षब्द जिसे कोई भी हिंदू अपने आखिरी क्षणों में अपने आप दोहरायेगा। और यही बात दिलीप कुमार ने कही और वहां चुप्पी छा गयी। और उसके बाद प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसमें हस्तक्षेप किया और उसके पास फिल्म पास हो गयी लेकिन दिलीप उस चुप्पी को नहीं भूल पाये। लेकिन उन्हें माफ कर दिया क्योंकि वह किसी भी राश्ट्रीय कारण के लिए हमेषा तैयार रहते थे, चाहे वह धन जुटाने की बात हो, या मोर्चे पर जवानों का मनोरंजन करने का मामला हो।

मामला एक बार फिर बिगड़ गया जब 1960 के दषक के षुरू में बंगाल पुलिस ने दिलीप कुमार के घर में छापा मारा और उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इल्जाम लगाकर उन्हें गिरफ्‌तार कर लिया। उनके विरुद्ध साक्ष्य एक जवान लड़के को सहारा देने का था जो पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्ला देष) से गैरकानूनी रूप से यहां आया था और बिमल राय, दिलीप कुमार के घरों और महबूब खान के यूनिट के लिए काम करता था। उस लड़के को इन तीनों घरों से निकाल दिया गया और वह कलकत्ता चला गया जहां वह सिटी मजिस्ट्रेट के बेटी से प्यार करने लगा। मजिस्ट्रेट ने उस लड़के के खिलाफ षिकायत दर्ज करायी जो लड़की के साथ गिरफ्‌तार हुआ।

थर्ड डिग्री का इस्तेमाल किये जाने के बाद लड़के ने स्वीकार किया कि वह पाकिस्तानी जासूस है और बिमल राय, दिलीप कुमार और महबूब खान ने उसकी मदद की। इस मामले को सुलझाने के लिए बंगाल पुलिस ने इन तीनों फिल्मी लोगों के घरों में छापा मारने के लिए गष्ह मंत्रालय से अनुमति हासिल की। वास्तविकता यह थी कि दिलीप कुमार एक पूरी तरह से स्थापित फिल्म स्टार थे जो अपनी खुद की सुरक्षा को मुष्किल से खतरे में डालते थे और उन्हें इन सब चीजों से कोई लेना—देना नहीं था। महीनों तक बम्बई में लोगों की जुबान पर इस मुद्‌दे को लेकर अफवाह कायम रहा जब तक कि साक्ष्य के अभाव में यह मामला ठंडा नहीं पड़ गया। एक बार फिर, दिलीप कुमार इस मुद्‌दे को भूलकर अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गये।

वीर सांघवी कहते हैं कि उन्हें अच्छी तरह याद है कि मेरे पिता (वकील रमेष सिंघीवी, जो दिलीप कुमार के करीबियों में से एक थे) के चेहरे पर उस वक्त कैसे हैरत भरे भाव थे जब दिलीप कुमार ने उन्हें यह बताया कि वह पाकिस्तानी जासूस होने के आरोप में गिरफ्तार होने के कगार पर थे। उन दिनों दिलीप कुमार भारत के ‘‘महान धर्मनिरपेक्ष'' लोगों में से एक थे, एक ऐसे फिल्म अभिनेता जो अपने राश्ट्रवाद से खास लगाव रखते। आखिर कोई कैसे सोच भी सकता है कि ऐसा षख्स एक जासूस हो सकता है? असल में वह नाम को लेकर हुई गफलत थी जिसे बाद में तमाम षिकायतों के बाद सही कर लिया गया था। इसके बावजूद उनकी देषभक्ति पर सवाल उठाए गए, फिर भी राश्ट्रवादी आदषोर्ं के प्रति दिलीप कुमार की दृढ़ता डगमगाई नहीं।

1960 के दषक में, विषेशकर 1993 में मुम्बई में बम ब्लास्ट होने के बाद दिलीप कुमार के चारों ओर विवाद कायम रहा। यहां तक कि बम ब्लास्ट से तुरंत पहले उनकी दुबई यात्रा पर भी सवाल उठने लगे। दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘दुबई की मेरी यात्रा को बम ब्लास्ट या दाउद इब्राहिम से जोड़ना क्या सही है? मैं वहां मार्च 1993 में एक फिल्म प्रतिनिधि मंडल के साथ गया था जिसे चैरिटी के लिए एक क्रिकेट मैच खेलना था। मैं वहां अकेला नहीं गया था। मेरे साथ कुछ अन्य कलाकार भी गये थे।'' उसके बाद पाकिस्तान गणतंत्र दिवस समारोह में जाने के लिए उनकी निंदा की गयी जबकि वास्तव में वह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मुख्य सचिव के साथ भारतीय फिल्म उद्योग के रिसेप्षन पर थे।

दिलीप कुमार ने इन अफवाहों को फैलाने वाला का कभी विरोध क्यों नहीं किया? दिलीप कहते हैं, ‘‘मैं वास्तव में यह नहीं समझ पाया कि लोग मेरे पीछे क्यों पड़े हैं। मैंने क्या किया है? मैं बहुत अपमानित, बहुत असहाय महसूस करता हूं। इस उम्र में, मेरे परिचय, मेरे चरित्र के बारे में सवाल क्यों हो रहे हैं? मेरी प्रतिश्ठा, मेरा नाम, मेरा महत्व, हर चीज दांव पर लगी है। आप ही मुझे बतायें कि मैं मेरे मामले का मुकाबला कैसे करूं? मैं हर व्यक्ति के पास जाकर यह नहीं कह सकता, भाई! मैं निर्दोश हूं!'' दुखद बात तो यह है कि उनकी विष्वसनीयता खतरे में पड़ गयी है क्योंकि आसमा के मामले के दौरान वे पब्लिक में झूठ बोलते पकड़े गये थे। लेकिन वह मामला पूरी तरह से व्यक्तिगत था!

दिलीप कुमार अपनी पूरी जिंदगी हमेषा एक कांग्रेसी रहे— यहां तक कि एक बार को छोड़क रवह हमेषा स्पश्ट रूप से इस धर्म निरपेक्ष पार्टी के साथ रहे। यह वह समय था जब वह अल्पसंख्यक मुष्किल समुदाय के पक्ष में खड़े हुए थे जब उन्होंने 1997 में लखनउ में आयोजित अखिल भारतीय मुस्लिम ओबीसी सम्मेलन में बोले थे। लेकिन वह एक अस्थायी अवधि थी, जो कि वातावरण के साथ कुछ निराषा के कारण हुआ था, लेकिन उसके बाद वह बहुत जल्द कांग्रेस में वापस आ गये।

लेकिन इन सब की तुलना उस हंगामे से नहीं की गयी जो तब उठा था जब दिलीप कुमार को पाकिस्तान के द्वारा सबसे उंचे सिविलियन अवार्ड निषान—ए—इम्तियाज से नवाजा गया था। इसके विरोध में षिव सेना सबसे आगे थे। इस मामले के दो साल पहले उन्हें पार्टी ने यह कहते हुए क्लीन चिट दे दिया था, ‘‘हमारी महत्वपूर्ण समझ के यह मामला बीच में ठंडा पड़ गया। हालांकि मौजूदा सरकार जब तक पावर में नहीं आयी, विषेशकर सेना अधिक निश्पक्ष और चिंताषील रही। वे सुनने के लिए तैयार थे।'' लेकिन कुछ अन्य सुर्खियों में रहने वाले लोगों ने इस लड़ाई में भाग लिेया। एक तो उद्योगपति रौनक सिंह थे जिन्होंने कहा, ‘‘आप पिछले 50 साल या इससे भी अधिक समय से भारत में हर अच्छी चीजों का आनंद उठाते रहे हैं और एक फिल्म कलाकार के रूप में भारतीयों का प्यार और स्नेह पाते रहे, सभी प्रतिश्ठित पुरस्कारों को प्राप्त किया। और अब आपने अचानक अपना रुख बदल लिया और कहते हैं कि आप पाकिस्तान को प्यार करते हैं क्योंकि आप पेषावर में पैदा हुए थे?''

देष को जवाब देने के लिए उनके विरोध में जो हो—हल्ला मचाया गया, उसे देखते हुए ‘‘षत्रु देष से मिलने वाले किसी भी पुरस्कार को लेने से मना कर देना चाहिए था। लेकिन इस बारे में दिलीप कुमार ने कहा, ‘‘निषान—ए—इम्तियाज'' पुरस्कार को राजनीति से कोई लेना—देना नहीं है। अंतरराश्ट्रीयकरण और सार्वभौमिकरण के इस युग में, हर किसी को अव्यवहारिक होने की बजाय एक—दूसरे के साथ एक साथ रहना सीखना चाहिए। भारत और पाकिस्तान को षांति और दोस्ताना व्यवहार के साथ रहना चाहिए क्योंकि दोनों देष के लोग षांति चाहते हैं।'' दोनों देषों के बीच तनाव को कम करने के लिए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी से अनुरोध किया और पूछा कि इसके लिए उन्हें क्या करना चाहिए। कूटनीतिज्ञ वाजपेयी ने इसका निर्णय उनके विवेक पर छोड़ दिया।

इस तथ्य के साथ कि वह एक मुस्लिम हैं, उन्हें क्या करना चाहिए? आखिरकार, मोरारजी दसाई की जाति पर कोई संदेह नहीं किया गया था जब उन्हें वही पुरस्कार से 1990 में सम्मानित किया गया था। इस निंदा भरे कार्य पर टिप्पणी करते हुए दिलीप कहते हैं, ‘‘इस इल्जाम के बावजूद, दिलीप कुमार आगे बढ़ता रहा। ईष्वर की कष्पा से वह लोगों की षुभकामनाएं और प्यार का आनंद उठाते रहे। लेकिन यह सब उन्हें बिना किसी मेहनत के नहीं मिल गया, उन्होंने यह सब बहुत कड़ी मेहनत से हासिल किया। उन्होंने इसे निवेष कहा, इसके लिए उन्होंने न सिर्फ मेहनत की, बल्कि ईमानदारी और लोगों की मदद करके हासिल किया। मैं अंदर से मजबूत और निर्भीक हूं। किसी भी प्रकार की निंदा मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैंने किसी भी प्रकार के कड़वापन को पोशित करने की कोषिष नहीं की क्योंकि कड़वापन तुच्छ होता है।''

दिलीप कुमार मार्च 1998 में पाकिस्तान दिवस के अवसर पर ऐवान—ए—साद्र (प्रेसिडेंसी) में एक आकर्शक समारोह में पाकिस्तान के राश्ट्रपति रफीक तरार से पुरस्कार लेने पाकिस्तान गये। वहां उन्होंने पाया कि पाकिस्तान में कई वर्गों के काफी संख्या में वैसे लोग हैं जो यह नहीं चाहते कि यह पुरस्कार किसी भारतीय को दिया जाये। उन पर देषद्रोही होने का कलंक लगाया गया जिसने हिंदू नाम रख लिया और उसके बाद भारत में ही रहना पसंद किया। इस्लामी जमायत—ए—तलाबा जैसे कुछ संगठन ने उन्हें खुलेआम धमकाया और कहा, ‘‘उसे खुद की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि हम इसे बर्दाष्त नहीं करेंगे।'' लेकिन फिल्म स्टार मोहम्मद अली जैसे कुछ अन्य लोग भी थे जिन्होंने कहा, ‘‘मनोरंजन के क्षेत्र में किसी भी प्रकार की राजनीति और सीमा नहीं होनी चाहिए और इस तथ्य से दिलीप कुमार और सायरा बानो भी इत्तिफाक रखते हैं।'' दिलीप कुमार ने सार्वजनिक रूप से कहा कि वह भारत के लोगों की तरफ से इस पुरस्कार को प्राप्त कर रहे हैं। भारत वापस आने पर उन्होंने इस तथ्य को भी यह लाने की कोषिष की कि सीमा के दोनों तरफ के आम आदमी षांति और दोस्ताना माहौल चाहते हैं, लेकिन उनकी बात कोई नहीं सुन रहा था।

आज, वह एक भारतीय मुस्लिम की अपनी पहचान से सुविधाजनक महसूस करते हैं। वह कहते हैं, ‘‘यह एक पहचान है जो उन्हें (भारतीय मुस्लिम) दी गयी। मैं व्यक्तिगत तौर पर कहता हूं कि मैं इसके साथ सुविधाजनक महसूस करता हूं। मैं एक भारतीय हूं और उसी तरह से एक मुस्लिम हूं जिस तरह से मेरे दोस्त सुभाश घई और यष चौपड़ा हिंदू हैं और हम सब साथियों को भारतीय होने पर गर्व है।''

दलीप कुमार पर ‘‘नेहरूज हीरा : दिलीप कुमार इन द लाइफ अॉफ इंडिया'' नाम से किताब लिखने वाले अर्थषास्त्री मेघनाद देसाई कहते हैं, ‘‘मेरे लिए तो वह अब भी वह कई दषकों से हिंदी सिनेमा के महानतम अभिनेता हैं और रहेंगे।''

मेघनाद देसाई बताते हैं, ‘‘मैं उनसे अगस्त, 1997 में मिला जब पाकिस्तान के नागरिक सम्मान ‘‘निषान—ए—इम्तियाज'' को लेकर उनके खिलाफ बहुत विरोध प्रदर्षन हो रहे थे। उनका व्यवहार बहुत मित्रवत था और वह खुषमिजाज किस्सागो की तरह अपना पूरा वक्त हमें देने को तैयार थे। मगर जब विरोध प्रदर्षन होने लगे तो वह कुछ असहज हो गए। इसलिए मैंने किताब लिख डाली कि कैसे उनकी फिल्में नेहरू के जीवनकाल में भारत की बदलती राजनीति को प्रतिङ्‌क्षबबित करती थीं।

मेघनाथ देसाई के अनुसार दिलीप कुमार का भौतिकता से परहेज करने वाला रवैया उन्हें वामपंथी मित्रों का दुलारा बनाता है। देसाई बताते ह, ‘‘एक बार जब हम उनके पास गए तो सायरा जी पहले आईं और वे बाद में आए। उन्होंने हमें बताया कि ‘‘मुगल—ए—आजम'' के रंगीन संस्करण का सूत्रधार बनने के लिए एक बड़ा कारोबारी समूह उनको 75 लाख रुपये की पेषकष कर रहा था। वह उसे नहीं करना चाहते थे। निष्चित रूप से इसे लेकर उन दोनों में बहस हुई थी। जब वह आए तो वह मुझे भूल गए कि मैं कौन हूं और उन्होंने यही समझा कि हम कारोबार से जुड़े लोग हैं जो सायरा की गुजारिष पर वहां आए। उन्होंने हमें बताया कि वह पैसों की परवाह नहीं करते। उनके लिए रिष्तों की अहमियत ज्यादा है। करीब पौने घंटे के बाद मुझे महसूस हुआ कि क्या हो रहा था। इसलिए मैंने उन्हें याद दिलाया कि मैं कौन हूं तब जाकर कहीं वह हमसे फिर मित्रवत हुए। यह भी एक तथ्य है कि उनके समकालीन राज कपूर और देव आनंद जैसे दूसरे अभिनेता अभिनय के अलावा ं फिल्म निर्माण में भी सक्रिय हुए, वहीं दिलीप कुमार ने हमेषा खुद को अभिनय तक ही सीमित रखा।

मालविका साघंवी एक वाक्ये का जिक्र करती हुयी लिखती हैं, ‘‘उनका नायकत्व केवल बड़े रुपहले पर्दे तक ही सीमित नहीं रहा। 1980 के दषक में मुंबई के चौपाटी बीच पर एक नेता की षादी के मौके पर मैंने देखा कि दिलीप कुमार और बाल ठाकरे आमने—सामने बातें कर रहे हैं। कुमार लंबे समय से ठाकरे की आलोचना का षिकार बने हुए थे। अपने चिरपरिचित कटाक्ष करने वाले अंदाज में ठाकरे ने कहा, ‘‘क्यों दिलीप भाई, मैं आपसे क्या कह सकता हूं?'' मैंने देखा कि कुमार ने एकदम पठानी अंदाज में कहा, ‘‘ाप क्या कह सकते हो? बेहतर यही होगा कि आप कुछ भी न कहें।ष् फिर यह महान अभिनेता वहां से रुखसत हो गया। असली नायक अपने संवाद भी खुद ही लिखते हैं।''

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राजनीति में कदम

लीडर हालांकि कामयाब फिल्म नहीं थी, लेकिन इस फिल्म में भविश्य के लिये एक संकेत भी छिपे थे। वोट और राजनीति के सही चेहरे को दिखाने वाली इस फिल्म की पटकथा खुद दिलीप कुमार ने फिल्मालय स्टूडियो में एक पेड़ के नीचे बैठकर लिखी थी। पूरी कहानी वोट की राजनीति और उद्योगपति—राजनीतिज्ञों के संबंधों की थी। यह तब की बात है, जब देष को आजाद हुए डेढ़ दषक हुए थे। वह पंडित नेहरू का स्वप्न—काल था। राजनीति का आज जो स्वरूप है, वह उसी समय से गंदा होने लगा था। फिल्म में आचार्य जी (मोतीलाल) वैसे ही राजनीतिक किरदार थे, जो जनता के प्रति समर्पित थे। ईमानदारी और सेवा की राजनीति करते थे और जनता को भी उसी रास्ते पर ले जाना चाहते थे। चुनाव में वोट को बेचने को अपनी जमीर बेचने के बराबर समझते थे, लेकिन दूसरी तरफ काला करने वाले उद्योगपति दीवान महेंद्रनाथ (जयंत) थे, जो आचार्य जी के विचारों को खतरनाक मानते थे। उन्हें रुपये की ताकत पर भरोसा था और वे वोटों को खरीदने के हिमायती थे। कहानी में एक अखबार था यंग लीडर, जिसके संपादक थे विजय खन्ना यानी दिलीप कुमार।

यह फिल्म छोटे बजट से षुरू हुई थी और ब्लैक एंड व्हाइट में बनाने का फैसला किया गया था। बाद में विचार बदलकर बजट को बड़ा कर दिया गया। फिर भी फिल्म ज्यादा चल नहीं पाई। काफी नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन फिल्म की चर्चा खूब हुई। इसी फिल्म से अमजद खान ने बतौर सहायक निर्देषक फिल्मों में प्रवेष किया था। दिलीप कुमार ने इस फिल्म में अभिनय के कई रंग दिखाए। कॉमेडी, ट्रैजिडी, चुलबुली, गंभीर, प्यार करने वाला आदि। हालांकि फिल्म के नहीं चलने के बावजूद उन्हें इस रोल के लिए श्रेश्ठ अभिनेता का फिल्म फेअर अवार्ड मिला था। इसमें षकील बदायूंनी का एक गाना था, जिसके बोल थे अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं।।। इस गीत को मोहम्मद रफी ने पंडित नेहरू के समक्ष गाया था। जिस समय लीडर बननी षुरू हुई, उस समय भारत—चीन युद्ध चल रहा था। युद्ध को ध्यान में रखते हुए ही षकील बदायूंनी से यह गीत लिखने के लिए कहा गया था।

दिलीप कुमार आजादी के बाद हुये पहले आम चुनाव के समय से कांग्रेस पार्टी के करीब रहे और समय—समय पर पार्टी के लिए प्रचार कार्य भी करते रहे हालांकि बाद में कुछ समय के लिए कांग्रेस से उनका मोहभंग भी हो गया था, लेकिन आत्मसम्मान के मामले में अत्यंत संवेदनषील दिलीप कुमार ने दोस्ती की खातिर राजनीति के आँगन में कदम रखा और अपनी पसंद के उम्मीदवारों के लिए चुनाव प्रचार में भाग लेते रहे।

कांग्रेस की ओर से वे राज्यसभा सांसद तो रहे लेकिन सक्रिय राजनीति में उन्होंने कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई। इस क्षेत्र से उनका नाता प्रायः फिल्म उद्योग के हितों की देखरेख तक सीमित रहा, फिर भी जवाहरलाल नेहरू, षाहनवाज खान, मौलाना आजाद और फखरुद्दीन अली अहमद से अपने रिष्तों पर उन्हें सदैव नाज रहा।

सबसे पहले नेहरूजी ने ही उन्हें युवक कांग्रेस के एक सम्मेलन में भाशण देने के लिए बुलाया था और बाद में कहा था कि हमारे संगठन में ऐसे बहुत कम लोग हैं जो दिलीप कुमार जैसी कुषलता से अपनी बात कह सकें।

विदेष—पलट और वामपंथी कृश्ण मेनन 1957 में जब उत्तर मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़े तो नेहरूजी की मंषानुसार दिलीप—देव—राज की त्रिमूर्ति ने उन्हें समर्थन देकर जितवा दिया। 1962 में भी इस त्रिमूर्ति ने मेनन का साथ नहीं दिया, क्योंकि तब तक रक्षामंत्री के रूप में वे कुख्यात हो चुके थे और भारत—चीन युद्ध में हम राश्ट्रीय षर्म झेल चुके थे। 1967 के चुनाव में मेनन एक अदने—से प्रत्याषी से हार गए थे।

साठ के दषक में आरंभिक वशोर्ं में दिलीप कुमार को राजनीति में मोहभंग का सामना भी करना पड़ा, जब एक जासूसी प्रकरण के सिलसिले में उनके घर और दफ्तर पर दबिष दी गई।

दिलीप कुमार की कंपनी सिटीजन फिल्म्स के प्रॉडक्षन विभाग के एक कर्मचारी का संबंध पड़ोसी देष से पाया गया था। वह पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेष) का था और इस महानायक ने उसे निरापद आदमी समझकर रख लिया था। छापे की कार्रवाई में सरकार को ऐसी कोई सामग्री हाथ नहीं लगी, जिसके आधार पर दिलीप कुमार को आरोपित किया जा सके। लेकिन इस कार्रवाई से वे बहुत आहत हुए और उन्हें इस बात का यकीन हो गया कि मुसलमान होने के कारण उन पर संदेह किया गया। इस मामले में नेहरूजी के जीवनकाल में ही सरकार ने संसद में बयान देकर स्पश्ट किया था कि ष्अराश्ट्रीय गतिविधियोंष् से दिलीप कुमार का कोई संबंध नहीं है।

इस घटना के बाद वे राजनीति में और भी संभलकर चलने लगे और अपने आपको केवल चुनिंदा—प्रत्याषियों के चुनाव प्रचार तक सीमित कर लिया। दिलीप कुमार की राजनीति का लक्ष्य भाईचारे और सांप्रदायिक सद्‌भाव के लिए काम करना और संविधान के सेक्यूलर ढाँचे की रक्षा करना मात्र है।

सन 1981 में दिलीप कुमार मुंबई के षेरिफ नियुक्त हुए और इस किरदार को भी उन्होंने बखूबी अंजाम दिया। इस कार्यकाल में उन्होंने विकलांगों की काफी मदद की। बाबरी मस्जिद कांड के बाद दिलीप कुमार ने अपनी ष्लो—कीष् रजनीति को तिलांजलि दे दी और वे काफी मुखर हो गए।

अब वे किसी एक पार्टी के समर्थक नहीं हैं। राश्ट्रीय एकता, अखंडता और षांति के लिए होने वाले सम्मेलनों—समारोहों में लगातार षिरकत करते रहे हैं। प्रेस—जगत के प्रतिनिधि उनसे अकसर राश्ट्रीय मुद्दों पर राय पूछते रहते हैं

राज्यसभा में कांग्रेस सदस्य रहे। फिल्म उद्योग की समस्याओं के निराकरण के लिए भी वे सदैव सक्रिय रहे।

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फिल्में जो दिलीप कुमार ने छोड़ी

आज ज्यादातर लोगों को इस बात पर आष्चर्य होता है कि इस महानायक ने सिर्फ 54 फिल्में क्यों की। लेकिन इसका उत्तर है दिलीप कुमार ने अपनी इमेज का सदैव ध्यान रखा और अभिनय स्तर को कभी गिरने नहीं दिया। इसलिए आज तक वे अभिनय के पारसमणि (टचस्टोन) बने हुए हैं जबकि धूम—धड़ाके के साथ कई सुपर स्टार, मेगा स्टार आए और आकर चले गए।

लारेंस अॉफ अरेबिया

दिलीप कुमार को हॉलीवुड की बड़े बजट की फिल्म ‘‘लारेंस अॉफ अरेबिया'' (1962) काम करने का आफर मिला था जिसके उन्होंने ठुकरा दिया। बड़े बजट की हॉलीवुड फिल्म थी। आज इसके लिये यह कहते हुये दिलीप कुमार को दोशी ठहराया जाता है कि अगर उन्होंने यह पेषकष स्वीकार कर ली होती तो भारतीय कलाकारों और फिल्मकारों के लिये उसी समय हॉलीवुड के लिये दरवाजे खुल जाते।

अपने समय की प्रसिद्ध फिल्म ‘‘लारेंस अॉफ अरेबिया'' उन्हें जो रोल दिया जा रहा था, वह बाद में मिस्र के अभिनेता ओमर षरीफ को दिया गया, जो इस फिल्म के बाद हॉलीवुड फिल्मों के लोकप्रिय अभिनेता बन गए।

‘‘लारेंस अॉफ अरेबिया'' फिल्म का प्रस्ताव लेकर डायरेक्टर डेविड लीन स्वयं भारत आए थे और ‘‘गंगा—जमना'' के सेट पर दिलीप कुमार से मिले थे।

उस समय हालीवुड के किसी निर्माता, कम से कम डेविड लीन जेसे स्थापित निर्माता के लिये व्यावसायिक तौर पर किसी एशियाई अभिनेता से अपनी किसी फिल्म में काम कराने के बारे में सोचना लगभग असंभव था, लेकिन इसके बावजूद डेविड लीन ने यह फैसला लिया था। दिलीप कुमार ने डेविड लीन से कहा था कि अगर मुख्य भूमिका (टाइटिल रोल) दें तो करने को तैयार हैं, लेकिन टाइटिल रोल के लिये पीटर ओ' टूले को अनुबंधित किया जा चुका था। दिलीप कुमार को जो भूमिका दी जा रही थी वह सहनायक की थी जिसे बाद में ओमर षरीफ ने निभाया, लेकिन दिलीप कुमार इसके लिये तैयार नहीं थे।

इस बारे में पूछे जाने पर दिलीप कुमार ने कहा था, ‘‘मैं सफलता का स्वाद चख कर घर का सुख ले रहा था। तभी डायरेक्टर डेविड लीन ने मुझे ‘लॉरेंस अॉफ अरेबिया' में उमर षरीफ का किरदार अॉफर किया। मैंने मना कर दिया। एलियन जैसे माहौल में काम करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी। डेविड लीन ने मेरी भावनाएं समझीं। हम लंबे समय तक संपर्क में रहे। मुझे इसका कतई अफसोस नहीं कि मैंने हॉलीवुड फिल्म नहीं की। बॉलीवुड मेरा घर है, मेरा सिनेमा है।''

ताजमहल

थीफ अॉफ बगदादष् जैसी विष्व प्रसिद्ध फिल्म बनाने वाले हंगेरियन निर्माता—निर्देषक अलेक्जेंडर कोर्डा भी दिलीप कुमार से ‘‘ताजमहल'' फिल्म बनाने के सिलसिले में मिले थे, लेकिन वह योजना फलीभूत नहीं हुई। इस बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ‘‘अपने खुद के बाजार में आपकी खास अहममियत होती है। उन क्षेत्रों में पैर पसारने का क्या मतलब है जहां आप ‘‘नहीं'' कह नहीं सकते। इसके अलावा विषय वस्तु से भी कोई संबंध नहीं है।

संगम

अंदाज की अभूतपूर्व कामयाबी के बाद जब दिलीप कुमार, राजकपूर एवं नरर्गिस की तिकड़ी ने लोकप्रियता के षिखर को छू लिया तब राजकुमार ने इस तिकड़ी को लेकर एक और फिल्म बनाने का सपना देखना षुरू किया। उस समय तक आग एवं बरसात के साथ राजकपूर अभिनेता के साथ—साथ निर्माता—निर्देषक के रूप में स्थापित हो चुके थे राज कपूर चाहते थे कि वह उन्हीं तीनों को लेकर एक फिल्म बने जो अंदाज में थे। नरगिस आर के फिल्म का हिस्सा बन चुकी थी और दिलीप कुमार से साथ राजकपूर की कालेज के दिनों से दोस्ती थी इसलिये उन्हें लगा कि ऐसा संभव हो सकता है।

उनके पास ऐसी फिल्म के लिये कथावस्तु भी थी। उनकी फिल्मों के पटकथा लेखक इंदर राज आनंद 1948 में ही ‘‘घरौंदा'' नाम से पटकथा लिखी थी। उस समय राजकपूर आग बना रहे थे। राजकपूर इसी पटकथा पर फिल्म बनाने के सिलसिले में नरगिस और दिलीप कुमार के समक्ष प्रस्ताव रखा। राजकपूर को इसमें कोई मुश्किल नजर नहीं आ रही थी लेकिन दिलीप कुमार की सोच कुछ अलग थी। दिलीप कुमार को ऐसा लगा कि कि इस फिल्म में उनके किरदार के साथ पूरा न्याय नहीं हो पायेगा। वह धीरे—धीरे इस प्रस्ताव से दूर होते गये और इस फिल्म की पटकथा राजकपूर के अलमारी में पड़ी रही और करीब 15 साल बाद जब उन्होंने अपनी पहली रंगीन फिल्म बनाने की सोची तो उन्हें इस पटकथा की याद आयी और उन्होंने दिलीप कुमार की जगह पर राजेन्द्र कुमार और नरगिस की जगह पर वैजयन्तीमाला को लेकर संगम नाम से फिल्म बनायी जो बॉक्स आफिस पर अत्यधिक सफल रही।

मदर इंडिया

मेहबूब की फिल्म ष्मदर इंडियाष् में नरगिस के पुत्र का रोल निभाने के साथ—साथ सुनील दत्त ने उनमें अपना जीवन साथी खोज लिया, लेकिन दिलीप कुमार ने यही भूमिका निभाने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं नरगिस के साथ सात फिल्मों में (अनोखा प्यार, मेला, अंदाज, बाबुल, जोगन, दीदार और हलचल) में प्रेमी की भूमिका कर चुका हूँ। अब उनका बेटा कैसे बन सकता हूँ।

अंदाज और आन जैसी मेहबूब खान की फिल्मों को कामयाब बनाने में दिलीप कुमार का महत्वपूर्ण योगदान था और ऐसे में यह स्वभाविक था कि वह अपनी अगली फिल्म ‘‘मदर इंडिया'' की मुख्य भूमिका के लिये दिलीप कुमार को चुनते। यह फिल्म 1940 में बनी महबूब खान की फिल्म ‘‘औरत'' की रिमेक थी जिसमें उनकी पत्नी सरदार अख्तर की नायिका की भूमिका में थी। दिलीप कुमार बुरे बेटे — बिरजू की भूमिका निभाने को तैयार भी हो गये थे और उन्होंने महबूब खान को इस बात के लिये भी मना लिया था कि फिल्म का शीर्षक ‘‘मदर इंडिया'' की तुलना में अगर ‘‘दिस लैंड आफ माइन'' ज्यादा बेहतर रहेगा और इसलिये जब बांद्रा के महबूब स्टुडियो में सात जनवरी, 1955 को इस फिल्म का मुहुर्त हुआ तब प्रेस में किये गये प्रचार के लिये दिलीप कुमार का बताये हुये शीर्षक का इस्तेमाल किया गया। बताया जाता है कि इस फिल्म की पहली कास्टिंग में नरगिस नहीं थी और इसलिये ‘‘फिल्म इंडिया'' ने लिखा था, ‘‘महबूब अभी भी फिल्म की हिरोइन की भूमिका के लिये किसी उपयुक्त लड़की की तलाश कर रहे हैं जो दिलीप कुमार की मां की भूमिका में भी जंच सके।

इस तरह फिल्म की आरंभिक दौर की कास्टिंग में दिलीप कुमार पूरे मन से थे और इसलिये इस पत्रिका ने लिखा, ‘‘दिलीप कुमार को अपनी चाहत के अनुसार भूमिका मिली है और यह भूमिका उन भूमिकाओं से अलग है जिन्हें वह निभाते रहे हैं।''

जब दिलीप कुमार ने इस भूमिका में दिलचस्पी लेनी शुरू की तो ‘‘दिस लैंड आफ माइन'' की पटकथा विकसित होने लगी और जैसा कि अमर के मामले में हुआ था, दिलीप कुमार ने पटकथा में दखल देना शुरू कर दिया और सुझाव दिया कि यह फिल्म बुरे बेटे बिरजु के चारों तरह घुमनी चाहिये। लेकिन महबूब खान का कहना था कि चूंकि यह महिला प्रधान फिल्म है इसलिये यह फिल्म खेतिहर महिला एवं उसके दोनों पुत्र के आसपास घुमेगी। महबूब को उस समय तक यह भी लगने लगा था कि इस महिला प्रधान फिल्म में हिरोइन की भूमिका के लिये केवल नरगिस ही उपयुक्त रहेगी। दिलीप कुमार ने दूसरी अभिनेत्रियों को रखने का सुझाव दिया और इनमें से कई का स्क्रीन टेस्ट भी लिया गया लेकिन महबूब खान के दिमाग में नरगिस का नाम ही बैठा हुआ था। जब नरगिस को रखे जाने का फैसला महबूब खान ने कर लिया तब ऐसे में दिलीप कुमार के लिये नरगिस के बेटे की भूमिका करना मुश्किल हो गया। हालांकि महबूब खान ने दिलीप कुमार को डबल रोल करने — पहले उनके पति और बाद में बेटे की भूमिका करने का सुझाव दिया लेकिन बात बनी नहीं और अंत में ये दो भूमिकायें क्रमशः राजकुमार और सुनील दत्त को दी गयी। हालांकि इस फिल्म के बाद दिलीप कुमार ने कभी भी महबूब खान के साथ काम नहीं किया।

बैजू बाबरा

1952 में मेहबूब की टेक्नीकलर फिल्म के समानांतर विजय भट्ट की म्यूजिकल फिल्म ष्बैजूबावराष् भी प्रदर्षित हुई थी, जिसमें भारत भूशण और मीना कुमारी नायक—नायिका के रूप में आए थे। नौशाद के संगीत निर्देशन में मोहम्मद रफी द्वारा गाये गये ‘‘ओ दुनिया के रखवाले'' और ‘‘तू गंगा की मौज'' जैसे अमर गीतों के कारण यह फिल्म आज भी याद की जाती है।

जब विजय भट्ट, इस फिल्म की योजना बना रहे थे तब दिलीप कुमार मेला, अंदाज, बाबुल, जोगन और दीदार जैसी फिल्मों की बदौलत एक बड़े स्टार का दर्जा पा चुके थे। उस समय हालांकि विजय भट्ट, भी एक बड़े निर्माता माने जाते थे लेकिन वह नये कलाकारों को लेकर फिल्म बनाने को तहरीज देते थे। लेकिन बैजू बाबरा के लिये वह दिलीप कुमार और नरगिस को लेना चाहते थे। नरगिस को 50 हजार रूपये देने की बात तय हो चुकी थी और उन्हें दस हजार रुपए की अग्रिम राषि दे भी दी गई थी।

जब विजय भट्ट ने दिलीप से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि आजकल मैं प्रति फिल्म डेढ़ लाख रुपए ले रहा हूँ। विजय भट्ट ने कहा कि यह राषि तो हमारे बजट के हिसाब से बहुत ज्यादा है। तब दिलीप कुमार ने कहा कि वह उनके लिए सवा लाख रुपए में काम कर देंगे। लेकिन यह राशि भी विजय भट्ट के लिये बहुत बड़ी थी। आखिर यह बातचीत यह कहकर बंद हो गयी कि ‘सोचकर फैसला किया जायेगा और फिर मिला जायेगा।''

जबतक विजय भट्‌ट इस बारे में कुछ और सोचते नरगिस बीमार हो गईं और उन्होंने काम करने में असमर्थता प्रकट करते हुए अग्रिम धन लौटा दिया।

इसके बाद मीना कुमारी सिर्फ 20 हजार रुपए में ‘‘बैजू बावरा'' में काम करने को राजी हो गईं। विजय भट्‌ट की कंपनी प्रकाश पिक्चर की फिल्म ‘‘एक ही भूल'' से ही मीना कुमारी बाल कलाकार के रूप में अगाज हुआ था। इसी बीच एक मित्र के साथ भारतभूशण विजय भट्ट से मिले और भट्ट को लगा कि ‘‘बैजू बावरा'' के रोल के लिए वे उपयुक्त रहेंगे। उन्होंने सिर्फ 6 हजार रुपए में भारत भूशण को साइन कर लिया।

फिल्म में नौषाद का संगीत था, वे नायक—नायिका के बदलने से खुष नहीं थे। विजय भट्‌ट ने उनसे कहा, ‘‘हम बहुत मेहनत करेंगे और एक अच्छी फिल्म बनायेंगे। अगर हम दिलीप कुमार और नरगिस को लेते हैं तो इस फिल्म के हिट हो जाने का श्रेय उन दोनों को जायेग, लेकिन अगर उनके बगैर यह फिल्म हिट हो गयी तो इसका सेहरा हमारे सिर बंधेगा।

सबको पता है कि यह फिल्म और इसका संगीत भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर बन गया। फिल्म के संगीत की वजह से फिल्म खूब चली और भारत भूशण—मीनाकुमारी रातों रात स्टार बन गए।

प्यासा

प्यासा की कहानी मुख्य रूप से दिलीप कुमार को ही ध्यान में रखकर लिखी गयी थी। उस समय दिलीप कुमार निर्विवाद रूप से ट्रेजडी किंग बन चुके थे। ट्रेजडी के बादषाह की अपनी छवि अंदाज से बनायी थी और देवदास के रिलीज होने के बाद यह छवि और पुख्ता हो गयी। इस दौरान रिलीज हुयी अन्य फिल्मों में भी उनकी यही छवि दिखी। निर्देषक गुरूदत्त भी चाहते थे कि इस फिल्म की मुख्य भूमिका दिलीप कुमार ही करें। प्यासा में काम करने के प्रस्ताव एवं फिल्म की पटकथा को लेकर एस गुरूस्वामी को दिलीप कुमार के पास भेजा गया जो गुरूदत्त के खासमखास माने जाते थे और जो बम्बई टाकीज में दिलीप कुमार के आने से पहले से काम कर रहे थे। गुरूदत्त इस फिलम में काम करने के एवज में दिलीप कुमार को कोई भी कीमत देने को तैयार थे।

लेकिन दिलीप कुमार को इसका कथानक पसंद नहीं आया। इसके अलावा वह दोबारा देवदास जैसी भूमिका करने को तैयार नहीं थे। इस तरह आखिरकार ने उन्होंने ''प्यासा'' में काम करने से इनकार कर दिया था। दिलीप कुमार के इंकार के बाद गुरूदत्त यह भूमिका किसी अन्य अभिनेता को देना नहीं चाहते थे और आखिरकार उन्होंने खुद यह भूमिका निभायी। इस बीच यह अफवाह उड़ी कि गुरुदत्त को दिलीप कुमार पसंद नहीं करते थे, जबकि हकीकत में ऐसा कुछ नहीं था।

गुरुदत्त निर्देषित और अभिनीत फिल्म प्यासा और बी आर चोपड़ा निर्देषित ‘‘नया दौर'' दोनों 1957 में प्रदर्षित हुईं और दोनो ने बॉक्स आफस पर षानदार कामयाबी हासिल की। प्यासा देष के बेहतरीन क्लासिक की सूची में दर्ज हो गयी। न केवल भारत में बल्कि दुनिया भर में यह बेहतरीन कलात्मक फिल्म के रूप में आज भी सराही जाती है। प्यासा के प्रीमियर में दिलीप कुमार भी गए थे और उन्होंने गुरुदत्त और प्यासा की मुक्तकंठ से प्रषंसा की।

यह सही है कि दिलीप कुमार ने ‘‘प्यासा'' फिल्म में काम किया होता, तो वह दिलीप साहब की एक और सफल फिल्म होती, लेकिन अगर गुरुदत्त ने उस फिल्म में काम नहीं किया होता तो सिनेमा जगत षायद गुरुदत्त जैसे अभिनेता से बंचित हो जाता।

दिलीप कुमार ने जिन अन्य फिल्मों के प्रस्ताव ठुकराये उनमें प्रमुख है कागज के फूल, दिल दौलत और दुनिया, नया दिन नई रात, जबरदस्त और द बैंक मैनेजर।

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बालीवुड के त्रिदेव

50 और 60 के दषक में हिन्दी सिनेमा पर दिलीप कुमार, राज कपूर और देवानंद की त्रिमूर्ति का वर्चस्व था। तीनों के बीच पेषेगत प्रतिद्वंद्विता के बावजूद सदभाव और सौहार्द्र था।

राजकपूर के साथ अपने संबंध के बारे में दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘राजकपूर के साथ मेरे निजी संबंध बहुत ही खास थे क्योंकि हम दोनों पेषावर में बचपन से ही एक दूसरे को जानते थे और खालसा में कालेज के दिनों में भी हमारी दोस्ती थी जहां हम दोनों आर्ट्‌स विशयों के छात्र थे। हम कॉलेज फुटबाल टीम में थे और हम बहुत ही जुनून के साथ मैच खेला करते थे। राज बहुत ही अच्छा गोलकीपर एवं रेफरी था। वह इतना हैंडसम था कि लड़कियां उसे देखकर चिल्लाती थी और उसे अपने प्रति लड़कियों के आकर्शण से मजा आता था। बम्बई टाकीज में बाद में हमारी मुलाकात हुयी और राज को इस बात से खुषी हुयी कि मैं भी उसी पेषे

में आ गया जिसमें वह मुझे ले जाना चाहता था। हम भाई की तरह थे। हमने पत्रकारों को जो मर्जी हो, हमारे बारे में लिखने की छूट थी लेकिन हमारे संबंध मधुर बने रहे।

देव पष्चिमी रंग—ढंग वाला था और उसकी अपनी व्यस्ततायें थी। जिस तरह से हम और राज अक्सर मिलते थे उस तरह से हमारी देव से मुलाकात नहीं होती। कई बार लिखा गया कि हम तीनों के बीच कटु प्रतिस्पर्धा थी लेकिन इस तरह की धारणा लोगों के मन में इस कारण से बनी कि अभिनेता के रूप में हम तीनों ने एक ही तरह की सफलता हासिल की और बॉक्स आफिस पर हमारी फिल्में एक समान तरीके से सफल होती रही।

देव अपने साथ के को—स्टार और टेक्नीषियन के साथ काफी सहयोगात्मक थे। उनके चेहरे पर हमेषा एक मुस्कुराहट रहती थी, जो आज तक किसी और के पास नहीं है। मुझे ‘इंसानियत' में देव के साथ स्क्रीन षेयर करने का मौका मिला। यह काफी अच्छा अनुभव रहा। उन्होंने मेरी डेट्‌स से अपनी डेट्‌स मिलाने के लिए अपनी होम प्रोडक्षन फिल्म की डेट्‌स कैंसिल की। वे जूनियर आर्टिस्ट को कभी भी अनदेखा नहीं करते थे। हम लोग हमेषा एक—दूसरे के सभी पारिवारिक कार्यक्रमों में पूरे परिवार के साथ षामिल हुआ करते थे। हमने कभी भी प्रोफेषनल रिष्तों को अपने बीच नहीं आने दिया। तीनों का साथ में बिताया सबसे यादगार पल है, देष के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिलना। इस मुलाकात के दौरान हमने उनसे कई मुद्दों पर चर्चा की। मैं देव आनंद को देव कहता था और वे मुझे लैले।

दिलीप कुमार के दोनों से दोस्ती थी। लेकिन राज साहब के साथ उनके बड़े नजदीकी रिष्ते थे। दोनों ही पाकिस्तान के पेषावर षहर में एक ही मोहल्ले, एक ही सड़क के रहने वाले थे। बिलकुल भाइयों जैसा रिष्ता था उनका। देव साहब थोड़ा अलग किस्म के षख्‌स थे, लेकिन उनके साथ भी दिलीप कुमार ने बड़ी दोस्ती निभाई।

एक बार देव अपनी फिल्म ‘‘हरे रामा हरे कृश्णा'' की षूटिंग के सिलसिले में मुमताज के साथ काठमांडू जा रहे थे, तब किसी पार्टी ने मुसीबत खड़ी कर दी और ऐलान किया कि वो इस फिल्म की षूटिंग नहीं होने देंगे। वो लोग देव को रोकने एयरपोर्ट तक पहुंच गए, तब दिलीप जी एयरपोर्ट तक गए और देव की हिफाजत में वहां खड़े रहे। सायरो बानो और दिलीप साहब दोनों ने फिल्म इंडस्ट्री के कई लोगों को इकट्ठा किया और देव के लिए एयरपोर्ट में जाकर डट गए। तब जाकर सही सलामत देव काठमांडू रवाना हो सके।

दिलीप कुमार ने देवानंद के निधन पर द हिन्दू को दिये साक्षात्कार में देवानंद से जुड़ी स्मष्तियों को साझा किया है जिससे पता चलता है कि उस समय दोनों के बीच कितनी घनिश्ठता थी। दिलीप कुमार कहते हैं — ‘‘मैं देव आनंद से बस एक साल बडा था। हम तीनों ने लगभग एक ही समय चालीस के मध्य में अपने कैरियर का आगाज किया था। मुझे अभी भी देव की और मेरी मधुर यादें है जब हम लोकल ट्रेन में काम की तलाष में स्टुडियो का चक्कर लगाते थे। थोड़े ही समय में ही हमने घनिश्ठ संबध स्थापित कर लिया और देव पारिवारिक मित्र हो गये खासकर मेरे छोटे भाई नासिर खान के।

१९४० के उत्तरार्ध में हम फिल्मों में अपना पैर जमाने लायक हो गये। राज और मैंने ”षहीद“, ”अंदाज“ और ”बरसात“ से स्टारडम पा लिया। देव ”जिद्‌दी“ और ”बाजी“ से परवान चढ़ा। हमारे बीच षुरुआत से ही उदार पेषेवर संबंध था और परस्पर एक अनकही नैतिकता भी। चुंकि सब कुछ अल्फाज में नही कहा जा सकता, हम एक दूसरे की इज्जत बड़ी खामोषी से करते थे। हमारी अक्सर मुलाकात होती जिसमें हम एक दूसरे के काम की चर्चा और विष्लेशण करते। कुछ मजाकिया पल भी बिताते जब राज मेरी और देव की हुबहू नकल उतारते थे। वे क्या खुबसुरत लम्हें थे जबकि हम प्रतिस्पर्धी थे प्रतिद्वंद्वी नहीं। देव की खुबी यह थी कि वह सह अभिनेताओं और टेकनिषियनों के साथ बहुत सहयोगी होता था। उसके पास एक कातिल अंदाज और मुस्कान थी जो आज तक किसी दूसरे अभिनेता को नहीं है। जब भी उसे सही स्क्रिप्ट और कल्पनाषील निर्देषक मिला उसने कमाल का हुनर दिखाया जैसे कि ”काला पानी“, ”असली नकली“ और ”गाईड“। रूमानी दृष्य करने में वह हम सभी में बेहतर था।

मैं खुषनसीब हूं कि मैंने देव के साथ पर्दे पर समय बिताया। जेमिनी की ”इंसानियत“ में १९५५ में जिसे एस. एस. वासन ने निर्देषित किया था, यह एक कास्ट्युम ड्रामा था। देव इतना उदार थे कि मेरे साथ काम करने के लिये उसने अपने प्रोडक्षन की तारीखें रद्द कर दीं। मैंने खुद देखा है कि कैसे वह जुनियर आर्टिस्ट की मदद करने के लिये टेक के बाद टेक देता था ताकि वह बेहतर कर सकें। उसने किसी को कभी भी उपेक्षित नहीं किया।

हमने तय किया था कि हम एक दुसरे के पारिवारिक उत्सवों में उपस्थित होंगे। १९५० के मध्य में हुई उसकी बहन की षादी और १९८५ में हुई उसकी पुत्री देविना की षादी में मैं उपस्थित था। १९६६ में षायरा बानो के साथ हो रहे मेरे विवाह समारोह में देव अपनी पत्नी मोना के साथ मौजुद था और हमारे पाली हिल के निवास पर कुछ अन्य मौकों पर भी। हम परिवार के सदस्य की तरह मिलते थे और संबंध के बीच कभी अपने पेषे को नहीं आने दिया।

षायद सबसे महत्वपूर्ण मुलाकात वह थी जब मैं राज और देव तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से मिले थे —उनके निधन से पहले । हमनें बहुत सी मुद्दों पर चर्चा की।

जैसे मैं उसे देव कहता था वह मुझे लाले कहता। अचानक लंदन में हुए उसके दुखद निधन के बारे में सुनकर बहुत हैरान और षोकाकुल हूं। मेरा ८९ वां जन्मदिन बेहद दुखद होगा क्योंकि मैंने प्रिय देव को खो दिया है। मेरे जन्म दिन पर वह निष्चित आता और कहता कि ‘लाले तु हजार साल जियेगा।'

हिंदुस्तानी सिनेमा में कहानियों का आधार प्रायरू संयोगवष घटी कुछ बातें होती हैं, जिनका यथार्थ का आग्रह रखने वाले आलोचक मखौल उड़ाते हैं, परंतु जिंदगी में भी संयोग होते हैं। अब इत्तफाक देखिए कि पेषावर की किस्सागो गली में दो पड़ोसी मकानों में दो वर्श के फासले से दिलीप कुमार और राज कपूर का जन्म हुआ और उनकी किस्सागोई जमाने ने बड़े चाव से सुनी, जब तक एक ष्पॉजीटिवली नो एंडष् कहते—कहते रुखसत हो गया और दूसरा अपनी लिखी याददाष्त की अलसभोर में फंसे हुए मनगढ़ंत किरदार को बड़े पुरजोर ढंग से निभा रहा है।

इन दो दोस्तों में समानताएं कम हैं और मिजाज के निहायत ही अलग—अलग होने के बावजूद उनके बीच मोहब्बत में कभी कमी नहीं हुई और वे एक—दूसरे के जबर्दस्त प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी कभी पूरी तरह दुष्मनी नहीं निभा पाए। यहां तक कि जीवन में दो बार प्रेम तिकोन में फंसे और उन औरतों को खोकर जब मिले तो ठहाकों में उस गम को गलत किया। प्रेम तिकोन की मेहबूब खान की ष्अंदाजष् तो उन्होंने अभिनीत की, परंतु ष्संगमष् में राज कपूर के लाख इसरार के बाद भी दिलीप ने काम नहीं किया, क्योंकि उन्हें अभिनय के मामले में राज कपूर से कोई खौफ नहीं था, परंतु निर्देषक राज कपूर से उन्हें भय लगता था। माध्यम के गहरे जानकार दिलीप कुमार जानते थे कि यह निर्देषक का माध्यम है।

दिलीप कुमार अंतर्मुखी हैं और राज कपूर अतिरेक से उजागर होते थे। वे एक खुली किताब की तरह थे, जिनके हर पष्श्ठ पर कभी न मुरझाने वाला गुलाब खिला होता था। दिलीप कुमार एक अलिखित कविता की तरह हैं — दर्द की ऐसी गांठ जो कभी खुल ही नहीं सकती। ग्यारह बहन—भाई के परिवार वाले दिलीप ने कई जनाजों को कंधा दिया और सुपुर्दे खाक करके भी वे अपने मजबूत कंधों पर किसी अदृष्य चीज का भार महसूस करते रहे हैं। राज कपूर ने तो ष्मषान में भी अलख जगाई थी। यह कैसा इत्तफाक था कि ख्वाजा अहमद अब्बास षिवाजी पार्क के निकट एक ष्मषान भूमि से लगे सस्ते होटल में लिख रहे थे, जहां राज कपूर ने उनसे ष्आवाराष् की पटकथा सुनी, जिसे मेहबूब खान पष्थ्वीराज और दिलीप कुमार के साथ बनाने की जिद पकड़े थे और अब्बास साहब यथार्थ के पिता—पुत्र लेना चाहते थे, ताकि उनकी कथा के पिता—पुत्र रिष्ते को धार मिले।

राज कपूर ने ष्आवाराष् एक युद्ध के जुनून से बनाई, क्योंकि उन्हें अपने पिता को अपनी योग्यता सिद्ध करनी थी और ष्आवाराष् ने उनको इस मायने में बनाया कि उनका सिनेमाई सोच ही बदल गया। वे ष्आगष् और ष्बरसातष् से गुजर चुके थे और ष्आवाराष् ने उन्हें वह नुक्कड़ दिया, जहां जिंदगी का खेल हमेषा जारी रहता था। दिलीप अगर ष्आवाराष् करते तो पॉल मुनि (अंग्रेज एक्टर) की तरह करते, राज कपूर ने उसे सिनेमा के पहले कवि चौपलिन की तरह साधा। चार्ली चौपलिन के पुरखों की जड़ें भारत में थीं, पॉल मुनि टेम्स का किनारा थे और राज कपूर के मन में तो गंगा प्रवाहित थी।

राज कपूर और दिलीप एक और तिकोन के सदस्य थे। दोनों के पंडित जवाहरलाल नेहरू से गहरे संबंध थे। दिलीप कुमार को नेहरू की धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता पर यकीन था और राज कपूर उनकी भारतीयता, उनकी डिस्कवरी अॉफ इंडिया के भक्त थे। राज कपूर उस नेहरू के निकट थे, जिन्होंने गंगा को कविता माना था और अपनी अस्थियों को भारत के खेतों में बिखराने की हिदायत देकर गए थे। एक बार राज कपूर त्रिवेंद्रम में षूटिंग कर रहे थे। दिलीप ने फोन पर कहा — कल बंबई पहुंच जाओ। क्या काम है, यह नहीं बताया तो राज कपूर ने कहा — ष्तू क्या मछलेवाल (पेषावर का खतरनाक गुंडा, उस जमाने में जब दोनों पेषावर में थे) दा पुत्तर है, जो तुम हुक्म दो और मैं आ जाऊं।ष्अगले दिन राजभवन में नेहरू और विजयलक्ष्मी पंडित की मौजूदगी में समारोह था। राज कपूर दौड़ते—दौड़ते पहुंचे और हांफ रहे थे, पंडितजी ने पूछा — क्या बात है? राज कपूर ने कहा कि ये (दिलीप) अपने को मछलेवाल का बेटा समझता है और जहां—तहां मुझे बुला लेता है। पंडितजी ने पूछा कि ये मछलेवाल कौन? जब उन्हें पूरी बात बताई गई तो वे उन दोनों के दोस्ताने और उसके इस तरह बयां होने के अंदाज पर मुस्करा दिए। नेहरू क्या, राज कपूर ने तो क्राइस्ट को भी हंसा दिया था। स्कूल के एक नाटक में अपनी साइज से बड़ा गाउन पहने राज कपूर स्टेज पर गिर पड़े तो क्राइस्ट की भूमिका करने वाला लड़का हंस पड़ा था। बचपन की इसी घटना में ष्जोकरष् का बीज पड़ा था। उनकी मित्रता की एक बानगी और देखिए। दोनों छुट्टियां मनाने लंदन गए। एक बंगला किराए पर लिया। बावर्ची नहीं मिला तो दिलीप किचन में कीमा बना रहे थे और राज कपूर मुर्गा बना रहे थे। एक मेहमान ने कहा कि कीमा अच्छा पका है तो राज कपूर ने कहा — कीमा खानदानी बावर्ची ने पकाया है और मुर्गा एक्टर ने। उनके बीच हमेषा नोंक—झोंक चलती थी। बचपन के दोस्त जो ठहरे। वे एक—दूसरे के मन में बसा बचपन का कुटैव थे।

दिलीप कुमार मेहबूब खान की ष्अंदाजष् कर रहे थे और आदत के अनुरूप अपने किरदार में डूबे थे। उन दिनों राज चार फिल्में कर रहे थे, अतरू थके—मांदे सैट पर आते औरषॉट देकर सैट के किसी तन्हा कोने में सो जाते। षॉट तैयार होता तो उन्हें जगाया जाता। दिलीप हैरान थे कि बिना किसी तैयारी के कोई व्यक्ति अभिनय में इतना स्वाभाविक कैसे हो सकता है।

दिलीप कुमार एक गायक की तरह कांच से घिरे साउंडप्रूफ कमरे में गीत गाते रहे। राज कपूर ध्वनि मुद्रण के यंत्र थे, जिसमें एक ही समय में दर्जनभर ट्रैक्स होते हैं और सिंफनी को साधा जाता है। जो दोस्ती, दुष्मनी और मोहब्बत तक में प्रतिद्वंद्विता का रिष्ता राज—दिलीप ने निभाया, वो आज के षिखर सितारे कहां निभा पाते हैं।

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दिलीप कुमार की अभिनेत्रियां

दिलीप कुमार ने अपनी पसंदीदा अभिनेत्रियों के साथ काम किया, जिनमें से कामिनी कौषल और मधुबाला से उनके अंतरंग रिष्ते बने। देव आनंद से प्रेम करने वाली सुरैया ऐसी समकालीन अभिनेत्री थीं, जिन्होंने दिलीप कुमार के साथ काम करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, जबकि ऐसी कई अभिनेत्रियाँ आपको मिल जाएँगी, जो जीवन में एक बार, सिर्फ एक बार दिलीप कुमार की नायिका बनने की मुराद रखती थीं।

अभिनेत्री नूतन अपनी युवावस्था में दिलीप के साथ नायिका नहीं बन सकीं। दिलीप—नूतन को लेकर एक फिल्म (षिकवा) का काम षुरू हुआ था, लेकिन वह फिल्म अधूरी रही। वशोर्ं बाद 1986 में सुभाश घई ने इन्हें अपनी फिल्म ष्कर्माष् में अधेड़ पति—पत्नी के रूप में पेष किया। 1989 में ष्कानून अपना—अपनाष् में भी वे साथ आए। दिलीप कुमार ने सर्वाधिक (सात—सात) फिल्में नरगिस और वैजयंतीमाला के साथ की।

नरगिस के साथ वे 1948 से 51 के बीच अनोखा प्यार, मेला, अंदाज, बाबुल, जोगन, दीदार और हलचल में आए। वैजयंतीमाला के साथ उन्होंने 1955 से 1968 के बीच जो फिल्में की, उनके नाम इस प्रकार हैं रू देवदास, नया दौर, मधुमती, पैगाम, गंगा—जमना, लीडर और संघर्श।

इनके बाद वे छह अभिनेत्रियाँ हैं, जिनके साथ दिलीप ने चार—चार फिल्में की। ये हैं कामिनी कौषल, मधुबाला, मीना कुमारी, निम्मी, वहीदा रहमान और सायरा बानो।

कामिनी कौषल के साथ दिलीप के रोमांस के किस्से खूब उड़े थे। इनकी ये चार फिल्में 1948 से 50 के बीच प्रदर्षित हो गई थीं। ये हैं रू नदिया के पार, षहीद, षबनम और आरजू। यह वही समय था, जब वे नरगिस के साथ द्वितीय अभिनेत्री थीं, जबकि ष्आनष् में नादिरा उनके साथ द्वितीय नायिका बनीं। ये सब 1955 से पहले की फिल्में हैं।

1957 में बीआर चोपड़ा की फिल्म ष्नया दौरष् से दिलीप कुमार ने सचमुच में अपनी अभिनय—यात्रा का नया दौर षुरू किया था, जिस दौर में उनकी अपनी सिटीजन फिल्म्स की ष्गंगा—जमनाष् भी षामिल थी। इस दौर में वैजयंतीमाला उनकी प्रमुख नायिका थीं। इस बीच वहीदा रहमान के साथ उन्होंने 1966, 67 और 68 में लगातार तीन फिल्में दीं। ये थीं— दिल दिया दर्द लिया, राम और ष्याम और आदमी। राम और ष्याम हर दृश्टि से एक जीवंत फिल्म थी। वहीदा के साथ चौथी फिल्म ष्मषालष् उन्होंने अस्सी के दषक में की। इस फिल्म में दिलीप कुमार ने बुजुर्ग रोल किया था।

सायरा बानो ने गोपी, बैराग, सगीना और दुनिया फिल्मों में काम किया। इनमें से पहली तीन फिल्में सत्तर के दषक में प्रदर्षित हुई थीं, जबकि अंतिम 1984 में आई। कमोबेष यह कहा जा सकता है कि नायिका सायरा बानो ने दिलीप कुमार का नायक का दर्जा कायम रखने में अपने षौहर का अच्छा साथ निभाया।

नलिनी जयवंत और नूतन सिर्फ दो फिल्मों में दिलीप के साथ आईं। नलिनी जयवंत को भी निम्मी की तरह आजकल के लोग कम ही पहचानते हैं। हिरनी जैसी बड़ी—बड़ी आँखों वाली नलिनी अषोक कुमार की प्रिय नायिकाओं में गिनी जाती थीं। उन्होंने दिलीप—नरगिस की सबसे पहली फिल्म ष्अनोखा प्यारष् में द्वितीय नायिका की भूमिका निभाई थी, जबकि 1953 में प्रदर्षित रमेष सैगल की फिल्म ष्षिकस्तष् में वे पूर्णकालिक नायिका थीं।

करीब एक दर्जन अभिनेत्रियों ने दिलीप कुमार के साथ सिर्फ एक ही फिल्म की, जबकि उनमें से कई ने अन्य अभिनेताओं के साथ दर्जनों फिल्में की। उनकी पहली तीन फिल्मों की नायिकाओं की षक्ल तक अब किसी को याद नहीं होगी।

ये हैं— ज्वार—भाटा की मष्दुला, ष्प्रतिमाष् की स्वर्णलता और ष्मिलनष् की मीरा मिश्रा। ष्जुगनूष् की नूरजहाँ को इसलिए जाना जाता है, क्योंकि वे आला दर्जे की गायिका थीं। ष्घर की इज्जतष् में उनके साथ मुमताज षांति थीं। ष्देवदासष् में उनके साथ वैजयंतीमाला के अलावा सुचित्रा सेन भी थीं। दक्षिण भारत की उनकी यह फिल्म ष्इंसानियतष् में बीना रॉय नायिका थीं। ष्दास्तानष् की नायिका षर्मिला टैगोर थीं।

विभिन्न अभिनेत्रियों के साथ दिलीप कुमार की फिल्मों की सूची

नरगिस— अनोखा प्यार, मेला, अंदाज, हलचल, जोगन, दीदार, बाबुल।

वैजयंतीमाला — देवदास, नया दौर, मधुमती, पैगाम, लीडर, गंगा—जमना, संघर्श।

मधुबाला— तराना, संगदिल, अमर, मुगल—ए—आजम।

कामिनी कौषल — षहीद, नदिया के पार, षबनम, आरजू।

मीना कुमारी — फुटपाथ, आजाद, यहूदी, कोहिनूर।

निम्मी — आन, दीदार, दाग, अमर, उड़न खटोला।

वहीदा रहमान — दिल दिया दर्द लिया, राम और ष्याम, आदमी, मषाल।

सायरा बानो — गोपी, सगीन महतो, बैराग, दुनिया।

नलिनी जयवंत — अनोखा प्यार, षिकस्त।

नूतन — कर्मा, कानून अपना—अपना।

केवल एक फिल्म में काम

अपर्णा सेन — सगीन महतो

बेगम पारा — षबनम

बी। सरोजादेवी —पैगाम

भारती — इज्जतदार

बीना राय —इंसानियत

कुमकुम —कोहिनूर

लीना चंदावरकर — बैराग

मीरा मिश्रा — मिलन

मष्दुला — ज्वार—भाटा

मुमताज षांति — घर की इज्जत

मुमताज —राम और ष्याम)

मुनव्वर सुल्ताना (बाबुल)

नादिरा (आन)

नंदा (मजदूर)

निरूपा राय (क्रांति)

नूरजहाँ (जुगनू)

राखी (षक्ति)

रेखा — किला

रोहिणी हटंगड़ी (धर्माधिकारी)

रूमा गांगुली (बैराग)

षर्मिला टैगोर (दास्तान)

ष्यामा (तराना)

सिमी (आदमी)

सितारा देवी (हलचल)

सुचित्रा सेन (देवदास)

स्वर्णलता (प्रतिमा)

उशा किरण (मुसाफिर)

राधा सेठ (कलिंगा)

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बॉक्स आफिस पर दिलीप कुमार की फिल्में

गोल्डन जुबली हिट

जुगनू, मेला, अंदाज, आन, दीदार, आजाद, मुगल—ए—आजम, कोहिनूर, गंगा—जमना, राम और ष्याम, गोपी, क्रांति, विधाता, कर्मा और सौदागर।

सिल्वर जुबली हिट

षहीद, नदिया के पार, आरजू, जोगन, अनोखा प्यार, षबनम, तराना, बाबुल, दाग, उड़न खटोला, इंसानियत, देवदास, मधुमती, यहूदी, पैगाम, लीडर, आदमी, संघर्श।

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उपाधियां/सम्मान

दिलीप कुमार ने अभिनय के माध्यम से राश्ट्र की जो सेवा की, उसके लिए भारत सरकार ने उन्हें 1991 में पद्‌मभूशण की उपाधि से नवाजा था और 1995 में फिल्म का सर्वोच्च राश्ट्रीय सम्मान ष्दादा साहब फालके अवॉर्डष् भी प्रदान किया। पाकिस्तान सरकार ने भी उन्हें 1997 में ष्निषान—ए—इम्तियाजष् से नवाजा था, जो पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान है।

1953 में फिल्म फेयर पुरस्कारों के श्रीगणेष के साथ दिलीप कुमार को फिल्म ष्दागष् के लिए सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया था जिसमें उन्होंने बेवड़े की भूमिका की थी।। अपने जीवनकाल में दिलीप कुमार कुल आठ बार फिल्म फेयर से सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार पा चुके हैं और यह एक कीर्तिमान है जिसे अभी तक तोड़ा नहीं जा सका। अंतिम बार उन्हें सन्‌ 1982 में फिल्म ष्षक्तिष् के लिए यह इनाम दिया गया था, जबकि फिल्म फेयर ने ही उन्हें 1993 में राज कपूर की स्मृति में लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्ड दिया।

फिल्म फेयर ने जिन छह अन्य फिल्मों के लिए सर्वश्रेश्ठ अभिनेता का पुरस्कार दिया वे हैं आजाद (1955), देवदास (1956), नया दौर (1957), कोहिनूर (1960), लीडर (1964) तथा राम और ष्याम (1967)। 1997 में उन्हें भारतीय सिनेमा के बहुमूल्य योगदान देने के लिए एनटी रामाराव अवॉर्ड दिया गया, जबकि 1998 में समाज कल्याण के क्षेत्र में योगदान के लिए रामनाथ गोयनका अवॉर्ड दिया गया।