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Aajadee

आजादी

धीरेन्द्र अस्थाना

यह पहली बार नहीं था। दो हजार एक सौ नब्बे दिन के इस लम्बे, मनहूस समय में ऐसा छह बार हुआ था।

दो हजार एक सौ नब्बे दिन अर्थात्‌ छह वर्ष। छह वर्ष में छह बार। अर्थात्‌ वर्ष में एक बार। प्रत्येक वर्ष का वह दिन बेहद तनाव, बेहद उत्तेजना और बेहद चमत्कारिक दिन होता था जिस दिन उसकी नौकरी का एक और वर्ष कम्पलीट होता था। जिस दिन उसकी तीन अंकों वाली, मगर चार अंकों से बहुत दूर, तनख्वाह में बीस रुपये का एक इंक्रीमेंट और जुड़ता था। ठीक इसी दिन उसके दिमाग की नसें तड़तड़ाती थीं और इसी दिन वह अपने टाइपराइटर पर पूरे दिन में कम—से—कम आठ बार नया कागज चढ़ाकर अपना इस्तीफा टाइप करता था और फाड़ देता था। इसी दिन उसके दिमाग में आजादी का ख्याल उग्र होता था और चमत्कारिक ढंग से धूमिल पड़ता हुआ सो जाता था। मिट जाता था।

मगर इस वर्ष नहीं। उसने दांतों पर दांत जमाकर फैसला किया। इस बार हर्गिज नहीं। इस बार इस्तीफे के लिए टाइपराइटर पर एक ही कागज चढ़ेगा और बाकायदा एम.डी. के सामने जायेगा। दो हजार एक सौ नब्बे दिन की लम्बी गुलामी कम नहीं होती। उसने दृढ़ता से सोचा और इस्तीफा टाइप करना आरंभ कर दिया——‘मान्य महोदय, पिछले छह वर्षों के अपने बेशकीमती दिन मैंने आपकी कम्पनी को भेंट किये हैं और अपनी क्रिएटिविटी को स्लो पॉयजन दिया है। अगर यह स्लो पॉयजन जारी रहा तो मैं भी खाने और हगने वाले एक आदमी में तब्दील हो जाऊंगा और यह मेरे लिए भूखे मरने से भी ज्यादा खतरनाक बात होगी। स्थिति की गंभीरता का अनुमान लगाते हुए मेरा फैसला है कि मैं आज से ही यह नौकरी छोड़ दूं जो मुझे मानसिक रूप से अपंग बनाती जा रही है। असुविधा के लिए खेद सहित, भवदीय——कुलभूषण गुप्ता।‘

इस त्यागपत्र को एम.डी. के केबिन में भिजवा देने के बाद उसे लगा, उसका दिमाग रूई की तरह हल्का हो आया है। इसके बाद उसने टाइपराइटर को ढक दिया और अपने बुलाये जाने का इन्तजार करने लगा।

ज्यादा देर नहीं लगी। बुलावा आ गया। उसने अपना चेहरा कठोर किया और अंदर घुस गया। छह वर्ष के कार्यकाल में एम.डी. से दूसरी मुलाकात। पहली, नौकरी मांगते वक्त, दूसरी नौकरी से जाते हुए। उसके दिल में उथल—पुथल—सी मचने लगी। एम.डी. अपनी रिवॉल्विंग चेयर पर आराम की मुद्रा में बैठा रहा। शान्त। निर्विकार।

‘कैसा इत्तफाक है कि तुम्हारी साहित्यिक काबिलियत को देखते हुए कंपनी ने तुम्हें अस्स्टिेंट एडीटर बनाने का निर्णय कल शाम ही लिया था और आज तुम्हारा रेजिगनेशन आ गया। हा...हा...हा...‘ एम.डी. ने व्यंग्य और विद्रूप तथा क्रूरता में सना हुआ एक ठहाका लगाया और उसके इस्तीफे पर अपने लम्बे—चौड़े हस्ताक्षर जड़ दिये।

असिस्टेंट एडीटर? उसका दिमाग गड़गच्च हो गया। कम्पनी के एकमात्र, विवादास्पद और बहुचर्चित हिंदी वीकली का असिस्टेंट एडीटर। मामूली टाइपिस्ट से एकदम सहायक सम्पादक। उसका दिमाग हाहाकार कर उठा। अब ? उसने सोचा। क्या उसे अपना त्यागपत्र वापस ले लेना चाहिए? नहीं...नहीं...। यह तो सीधे—सीधे ही कुत्तागिरी हो जायेगी और इस्तीफे से जिस भव्यमूर्ति का निर्माण हुआ है उसके परखचे उड़ जायेंगे। नौकरी ही है। उसने खुद को आश्वासन दिया और आत्मविश्वास बटोरते हुए बोला, ‘मैं अब फ्रीलांसिंग करूंगा।‘

‘तुम्हारी मर्जी।‘ एम.डी. ने अपनी गर्दन को हल्की—सी जुम्बिश देते हुए कहा, ‘वैसे जब भी यहां आना चाहो, आ सकते हो।‘

‘थैंक्यू सर!‘ उसने गर्दन झुकायी और बाहर आ गया। इसके बाद उसने परिचितों से विदा ली और अपने झोले को झुलाता हुआ कम्पनी के बाहर आ गया।

बाहर तेज धूप ने उसे दबोच लिया। यह जून महीने की गर्मी थी और दोपहर के बारह बजने वाले थे। बाहर आते ही उसके सीटी बजाने के लिए गोल हुए होंठ किसी भी ध्वनि से पूर्व ही ढीले पड़कर लटक गये और उसकी समझ में एकाएक यह नहीं आया कि इस तपती हुई दोपहर में दफ्तर के कूलर की ठंडक का अभ्यस्त बदन, लू के इतने जानदार थपेड़ों को कैसे बर्दाश्त करेगा? कुछ ही देर में पसीने की लकीर उसकी जांघों से निकलकर पिंडलियों तक रपटने लगीं। माथे से चू—चू पड़ते पसीने को सीधे हाथ की पहली उंगली से पोंछते हुए उसने निर्णय लिया कि वह गौतम के दफ्तर जायेगा। नौकरी से छुटकारा पा लेने की खुशखबरी वह सबसे पहले गौतम को ही सुनायेगा। आज का लंच भी उसके साथ ही ले लेगा। थोड़ी गपशप के साथ दोनों साथ गुजरे जमाने को भी याद कर लेंगे। एक लंबे समय से उन्हें आपस में मिल—बैठने का भी समय नहीं मिल सका है।

गौतम का दफ्तर चौथी मंजिल पर था। लिफ्ट की प्रतीक्षा में खड़ी भीड़ को देखकर वह सीढ़ियां चढ़ गया। चौथी मंजिल के गलियारे में पहुंचते ही जब एयर कंडीशनर की शीतलता ने उसका स्वागत किया तो वह सीढ़ियां चढ़ने की सारी थकान भूल गया। दफ्तर हो तो ऐसा हो, उसने गौतम के भाग्य पर ईर्ष्या करते हुए सोचा।

जब वह गौतम की मेज के सामने आकर खड़ा हुआ तो गौतम हाथ में बॉलपेन थामे पूरी तरह गर्दन झुकाकर अपने सामने रखे पेज प्रूफ्‌स में डूबा हुआ था। वह काफी देर तक खड़ा रहा मगर गौतम का सिर ऊपर नहीं उठा। ऊबकर उसने मेज पर ठक—ठक की और सिगरेट सुलगाने लगा।

जैसे डिस्टर्ब हुआ हो, उस मुद्रा में गौतम ने सिर ऊपर उठाया, उसे देखकर धीरे से ‘हैलो‘ कहा और फिर प्रूफ पढ़ने लगा।

उसे झटका लगा। तेज। उसने सोचा था कि उसे इतने दिनों बाद अचानक आया देख गौतम की बांछें खिल जायेंगी और वह तपाक से उसकी कमर में हाथ डालकर कैंटीन की तरफ दौड़ पड़ेगा। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। गौतम ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा था। वह खुद ही अपने लिए पास पड़ी एक कुर्सी घसीट लाया और उस पर आराम की मुद्रा में पसरकर सिगरेट फूंकने लगा। पहली सिगरेट जलायी और खत्म कर दी। इस बीच गौतम ने सिर्फ एक बार गर्दन उठाकर, ‘एक मिनट‘ कहा और फिर काम करने लगा। उसने गौतम की मेज पर पड़ी पत्रिकाओं को उलटना—पुलटना शुरू कर दिया और अन्त में उत्तेजित होकर तीसरी सिगरेट जला ली पर गौतम का ‘एक मिनट‘ पूरा नहीं हुआ। धीरे—धीरे उसका दिमाग एक सुस्त से क्रोध में डूबने—उतराने लगा। साले, गुलाम... नपुंसक... लिटरेरी क्लर्क...। साहित्यकार बनते हैं... जनता को जगाने की बात करते हैं और खुद सोये हुए हैं...। काफी देर तक वह मन—ही—मन इसी तरह के जुमले बुनता रहा फिर झटके से उठ खड़ा हुआ और तेजी से बोला, ‘जा रहा हूं।‘

‘अच्छा...।‘ गौतम ने अपनी गर्दन ऊपर उठायी फिर माफी—सी मांगती आवाज में बोला, ‘यार, क्या है कि यह फर्मा दो बजे तक ओ.के. करके प्रेस भेजना है... कभी फुर्सत में आओ न... महीने का फर्स्ट वीक अपना काफी व्यस्त चलता है... तूने तो चाय भी नहीं पी...?‘

‘हां, यार...‘ वह पस्त स्वर में बोला और दुःखी मन से हाथ हिलाकर गौतम के कमरे से बाहर निकल आया। सीढ़ियां उतरकर ग्राउंड फ्लोर पहुंचने तक उसका दुःख उससे अलग हो गया था। उसे याद आ गया था कि स्वयं उसके साथ भी कई बार ऐसा हुआ है कि कोई बेहद आत्मीय शख्स उससे मिलने पहुंचा और वह कार्य की अधिकता के कारण उसे चाय पिलाने तक के लिए नहीं कह सका। उसने नौकरी छोड़ दी है मगर नौकरी का अर्थ और इस अर्थ की तकलीफ उसके जेहन में अभी एकदम ताजी है। अगर वह गुलामी के फंदे तोड़ चुका है तो उसका यह अर्थ तो नहीं हो जाता कि उसके सभी दोस्त उस फंदे को काट दें। वह आजाद है मगर दोस्त तो गुलाम ही हैं।

गौतम के दफ्तर की बिल्डिंग से बाहर आते ही फिर तपती हुई सड़क, गर्म हवाओं और तपते सूरज ने उसे दबोच लिया। काफी देर तक वह यूं ही चलता रहा—निरुद्‌देश्य, लू के थपेड़े खाता हुआ और जगह—जगह रूककर पांच पैसे वाला ‘मशीन‘ का ठंडा पानी पीता हुआ। फिर उसने तय किया कि अब घर ही जाना चाहिए और आराम से लेटकर फ्रीलांसिंग की जमीन को मजबूत बनाने वाले बहुत पुराने संबंधों को पुनर्जीवित करने की कार्यवाही पर विचार करना चाहिए।

जिस समय वह घर पहुंचा, साढ़े तीन बजने को थे। उसकी पत्नी शाम के खाने की तैयारी में लगी हुई थी और उसकी बच्ची सपना सो रही थी। उसने आते ही पत्नी को बांहों में भर लिया और किलकारी—सी मारते हुए बोला, गीतू डार्लिंग, हमने आज अपने गले से छह बरस पुराना गुलामी का पट्‌टा उतार फेंका है। अब हम आजाद हैं। हा...हा...हा...अब हम आजाद हैं।‘

पत्नी भौंचक होकर उसे ताकने लगी थी और उसकी अप्रत्याशित रूप से तेज तथा आकस्मिक आवाज को सुनकर उसकी दो वर्षीय बेटी सपना जागकर घबरायी—घबरायी—सी उसे घूरने लगी थी। उसने पत्नी को छोड़ा और झपाटा मारकर सपना के गालों को चूम लिया। फिर वह सपना को गोद में उठाकर बोला, ‘बेटे, हम आजाद हो गए...हम आजाद हो गये सपना...अब हम आजाद हैं।‘

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हां, वह आजाद है, उसने कड़वाहट भरा थूक कारीडोर में उछाल दिया और सीढ़ियां उतरने लगा। एक मालिक के बजाय दस मालिकों की जी—हजूरी करने के लिए वह आजाद है। दिन के आठ घंटे काम करने के बजाय चौदह घंटे काम में जुते रहने के लिए वह आजाद है। वह कितना अधिक आजाद है कि एक दफ्तर के बजाय एक दर्जन दफ्तरों की सीढ़ियां चढ़ता और उतरता है। दिन में आठ बार बस का टिकट खरीदने और चार बार टेलीफोन के पैसे देने के लिए वह आजाद हो गया है। चारों तरफ आजादी ही आजादी है। वह फैमली प्लानिंग में निरोध की सार्थकता पर न लिखने के लिए आजाद है और सम्पादक उसे काम न देनेे के लिए आजाद हैं। वह सम्पादकों को बाध्य नहीं कर सकता कि वह ‘नशाबंदी‘ के समर्थन में नहीं ‘चिपको आन्दोलन‘ के समर्थन में लिखेगा। यदि वह नशाबंदी के समर्थन में न लिखने के लिए स्वतंत्र है तो सम्पादक ‘चिपको आन्दोलन‘ के समर्थन में न लिखाने को स्वतंत्र है। कोई किसी की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं कर सकता। क्या जबर्दस्त स्वतंत्रता है?

सीढ़ियां उतरकर वह ग्राउंड फ्लोर पर बनी कैंटीन की तरफ मुड़ गया। उसने एक चाय का आर्डर दिया और कुर्सी से सिर टिकाकर सिगरेट फूंकने लगा। उसके तलुवे दुख रहे थे और सिर में कुछ चटख—चटख—सा हो रहा था। वह अभी—अभी साप्ताहिक ‘आरंभ‘ के मुख्य उपसम्पादक से झगड़ा करके लौटा था। सीढ़ियां उतरते हुए उसने कसम खायी थी कि अब वह कभी भी ‘आरंभ‘ के लिए नहीं लिखेगा। मगर अब वह सिगरेट पीता हुआ सोच रहा था कि अगर वह इसी तरह कसमें खाता रहा तो सुबह उठते ही सपना को बिस्कुट खाने बंद करने पड़ेंगे। अभी तो फ्रीलांसिंग का दूसरा ही महीना है और घर में एक के बजाय आधा किलो दूध आना शुरू हो गया है। तीसरे महीने की शुरुआत से नाश्ता बंद होगा और चौथे महीने के अंत तक आते—आते शायद...।

वह आगे नहीं सोच सका। चाय आ गयी थी। वह चाय सिप करने लगा। आखिर वह इस तरह कब तक काम करेगा? उसने सोचा। इस तरह लड़—भिड़ कर तो वह फाकाकशी के करीब पहुंच जायेगा मगर... मगर... उसकी लड़ाई क्या किसी सिरफिरे की लड़ाई है। ‘आरंभ‘ के चीफ—सब ने उसे सौ रुपये का एक वीकली कॉलम ऑफर किया था। वह प्रसन्नता से गद्‌गद हो उठा था कि चार सौ रुपये प्रतिमाह की बंधी—बंधाई आमदनी का जुगाड़ बन गया पर ‘विषय‘ पर आते ही बात बिगड़ गयी। ‘चीफ—सब‘ उससे छद्‌म नाम द्वारा देश में उभर रहे नक्सली आंदोलन के विरुद्ध लिखाना चाहता था।

‘पर प्रत्येक सप्ताह उनके विरूद्ध क्या लिखा जायेगा?‘ उसने हतप्रभ होकर पूछा था।

‘वह सब जो आन्दोलन के विरोध में जाता हो। जो आंदालन को अराजकता, गुंडागर्दी और डकैती से जोड़ता हो। लिखो कि फलां शहर में बीच सड़क पर तीन नक्सलियों ने अकेली लड़की को ‘रेप‘ किया... लिखो कि नक्सली डकैतों के एक गिरोह ने पूरे गांव को लूटकर झोंपड़ियों में आग लगा दी... लिखो कि...।‘

‘क्या बदतमीजी है?‘ वह दहाड़ पड़ा, ‘जमींदारों और साहूकारों के विरूद्ध लड़ने वाले निःस्वार्थ नौजवानों को आप डकैत कैसे बता सकते हैं? हालांकि मुझे उनसे कोई लेना—देना नहीं है मगर एक पढ़े—लिखे आदमी होने के नाते मैं उनकी कुर्बानी और उनके साहस की कद्र करता हूं... उनका चिंतन गलत हो सकता है... उनके ऐक्शन गलत हो सकते हैं मगर उनकी नीयत बहुत साफ है... आपसे अधिक साफ है... साफ और खरी... मैं चार सौ रुपल्ली के लिए अपना विवेक नहीं बेच सकता। यह तो अमानवीय...‘

‘शटअप एंड गेट आउट! दो टके के आदमी... खैर चाहते हो तो दफा हो जाओ... मेरा एक ही फोन तुम्हें उम्र—भर के लिए जेल में सड़ाने के लिए काफी होगा...।‘ चीफ—सब ने गुर्राते हुए कहा और वह झपटटे से बाहर आ गया।

अब? चाय पीकर उसने सोचा, वह क्या करे? कुछ भी हो, वह अपनी कलम को इतने नीचे स्तर ले जाकर तो बेचेगा नहीं। लोग दमन और भुखमरी के विरुद्ध उठकर लड़ें और लेखक उन्हें डकैत लिखे दे... छिः—छिः! कितना घृणास्पद है यह विचार। तो फिर वह करेगा क्या? उसने सोचा और बाहर निकलकर सड़क पर आ गया। सड़क के किनारे पान की दुकान पर उसने वेद को देखा। वेद को देखते ही वह एकदम उछल पड़ा। उसके बचपन के दिनों का दोस्त... कहानीकार...कवि... चित्रकार और शराबी दोस्त। उसका हमशहर, हमख्याल और हमदर्द।

‘अरे?‘ उसे देखकर वेद किलकारी मार उठा। वह भी वेद से चिपट गया। वे करीब सात वर्ष बाद आपस में मिल रहे थे। उसे लगा, अब वह रो सकता है। वह वेद के कन्धे पर सिर रखकर हंसने लगा और रोने लगा।

‘यहां कब से हो?‘

‘छह साल से।‘ उसने अपन सिर उठा लिया।

‘और मुलाकात आज हो रही है?‘ सात साल से तो मैं भी दिल्ली में ही हूं यार।‘

‘वह क्या है कि मेरे पूरे छह वर्ष नौकरी में ही गुजर गये और तुम्हारा अता—पता भी तो नहीं था कोई...‘

‘हां, तुम्हारा मतलब अगर दफ्तरी पते से है तो बात ठीक है।‘ वेद ने मुसकराते हुए कहा, ‘नौकरी अपने को रास नहीं आती।‘

‘मुझे भी नहीं आयी।‘

‘तो?‘

‘बेरोजगार हूं।‘ उसने जवाब दिया और हंसने लगा, मगर एकाएक उसे लगा, उसकी हंसी में दम नहीं है। शायद वह हंसने के बजाय खिसियाया है।

‘अच्छा, बताओ क्या पियोगे? बाकी बातें पीने के बाद ही होंगी।‘

‘जो तुम चाहो।‘ वह मुसकराया। पहली बार इस शहर की क्रूरता को किसी दोस्त ने तोड़ा था।

‘सीमापुरी जाना होगा।‘

‘क्यों?‘

‘आज ड्राई डे है न, और आज के दिन शराब सिर्फ बॉर्डर पार ही मिल सकती है।‘

‘चलो, सीमापुरी भी दिखा डालो आज।‘

‘आज या अब?‘ वेद ने रहस्यमयी आवाज में कहा और दोनों के उन्मुक्त ठहाकों से उसके मन में बैठी मनहूसियत के परखचे उड़ गये।

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दस रुपये अधिक में एरिस्टोक्रेट की बॉटल लेने के बाद वे दरियागंज आये और दरियागंज से मॉडल टाउन पहुंचे, वेद के घर। वेद को ताला खोलते देखकर वह पूछ ही बैठा, ‘भाभी?‘

‘भाभी तो तुम्हारी अपने मायके में है। असल में हम अब बाप बनने वाले हैं।‘ वेद ने हल्का—सा ठहाका लगाया तो वह चौंककर उदास हो गया। आर्थिक सम्पन्नता आदमी को कितना उन्मुक्त कर देती है, उसने सोचा, क्या वह खुद बात—बात में सचमुच के ठहाके लगा सकता है? उसने आश्चर्य से देखा, दो कमरों का सेपरेट फ्लैट, मॉडल टाउन में। वह किराये का अनुमान लगाने लगा। चार सौ... नहीं पांच सौ... या शायद छह सौ रुपये।

किराये के बाद वह वेद के ड्राइंगरूम—कम—स्टडीरूम और उसमें रखी चीजों को देखकर दंग हुआ। टेलीविजन, फ्रिज, टू—इन—वन, सोफा, मेज, पलंग, बुकशेल्फ, कारपेट, पेंटिंग्स आदि—आदि। फिर वह दुखी—सा होकर सोफे पर पसर गया। वेद ने वास्तव में छलांग लगायी है इस बीच और एक वह है जो...

‘कैसा लगा?‘ वेद ने एरिस्टोक्रेट की बॉटल को फ्रिज में रख दिया और कपड़े बदलने बेडरूम में चला गया।

‘शानदार।‘ वह बुदबुदाया। मगर कैसे? उसने सोचा। उसकी अक्ल ने एकाएक काम करना बंद कर दिया था। वेद कपड़े बदलकर लौट आया था और काफी फ्रेश लग रहा था।

‘मुह—हाथ धो लो।‘

‘नहीं। ऐसे ही ठीक है।‘ उसने इनकार कर दिया। दरअसल वह और अधिक चकाचौंध नहीं होना चाहता था। अगर कहीं बाथरूम में पंखा लगा हुआ मिला तो उससे दारू भी नहीं पी जायेगी।

वेद ने दारू की बोतल, पानी की बोतलें, बर्फ के चौकोर टुकड़े और दही की प्लेट निकालकर मेज पर रख दी थी और गिलास लेने किचन में चला गया था। उसके भीतर दबा—दबा सा हाहाकार उमड़ने लगा था। वेद के पास जो कुछ था उसके लिए इतना ही किसी ऐश्वर्य से कम नहीं था। वह अभी तक यह समझ नहीं पाया था कि इतना सब कुछ वेद ने कहां से जुटा लिया है?

वेद ने दारू गिलासों में डालकर ‘चियर्स‘ कहा तो वह चौंक पड़ा और एक ही सांस में अपना गिलास खाली करके बोला, ‘तुम काम क्या करते हो?‘

‘फ्रीलांसिंग।‘ वेद ने तपाक से जबाव दिया और अपना गिलास खाली करके दोनों गिलासों में दूसरा पैग डाल दिया। उसने उसी झटके से दूसरा पैग हलक में उंडेल लिया और सिगरेट सुलगाकर उठ खड़ा हुआ। वेद उसी तरह बैठा धीरे—धीरे दारू सिप करता रहा और दही खाता रहा। वह सिगरेट के कश लेता हुआ पूरे कमरे में टहलता रहा फिर सोफे पर आकर ‘धम्म‘ से बैठ गया और स्वयं ही अपने गिलास में दारू डालने लगा। इस बार उसने गिलास में ऊपर तक पानी भी भरा फिर एक बड़ा—सा घूंट भरा और आहिस्ता से बोला, ‘कैसे? फ्रीलांसिंग करके इतना खुश कैसे रहा जा सकता है?‘

‘देखो, दिमाग में टेंशन मत पालो। आराम से दारू का मजा लो। मैं तुम्हें बताऊंगा कि पैसा कहां से आता है।‘

पांचवां पैग चलते—चलते वेद बहकने लगा। उसकी स्वयं की हालत भी कोई अच्छी नहीं थी मगर होश में दोनों ही थे।

‘हूं, तो तुम पैसा चाहते हो?‘

‘व्हाई नॉट?‘ उसने शब्दों पर जोर देकर कहा।

‘तो फिर अपनी लाइन पर आ जाओ।‘

‘मतलब?‘

‘मतलब यह कि ‘ऊरोजी‘ के नाम से जितना भी धार्मिक साहित्य बिकता है वह हमारी देन है। आज लिटरेचर की अंडरग्राउंड दुनिया में ‘ऊरोजी‘ का नाम हॉट केक की तरह बिकता है।‘

‘क्या?‘ वह सन्न रह गया। दारू के नशे में डूबता उसका दिमाग उत्तेजित सांप की तरह फनफनाकर तन गया। वह उछलकर सोफे से हट गया और वेद का कंधा पकड़कर चीखा, ‘यह सारा जहर तुमने उगला है? कच्ची उम्र के लड़के—लड़कियों को तबाह करने वाली ये सारी अश्लील और पोर्नों बुक्स तुम्हारी लिखी हुई हैं? तुम...तुम इतना भयानक अपराध करते रहकर भी खुश और निर्द्वन्द्व घूम रहे हो?‘

‘सिरफिरी बातें हैं सब।‘ वेद ने कड़वाहट से एक तरफ थूक दिया, ‘इस शहर में पैसा ही तुम्हारी पहचान है। हां, भूखे मरना चाहते हो तो बात अलग है...‘

‘मगर...मगर...।‘ उसे शब्द ही नहीं मिले। दारू का नशा फिर से दिमाग में रेंगने लगा था। उसे याद ही नहीं आया कि वह क्या कहना चाहता है...

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उसे सिर्फ याद है कि वह उसी हालत में वेद के घर से बाहर निकल आया था। चोट खाये, पराजित और घायल आदमी की तरह। वह कैसे घर पहुंचा, उसे यह भी याद नहीं है। अभी—अभी पत्नी ने बताया कि वेद नाम का कोई आदमी उसे थ्री व्हीलर से घर तक छोड़ने आया था।

उसने घड़ी देखी। सुबह के आठ बज रहे थे। सिर में तेज दर्द था। लग रहा था जैसे किसी दुःस्वप्न के बीच आंख खुल गयी है।

दस बजे तक वह नहा—धोकर तैयार हो चुका था और रात के लिए पत्नी से क्षमा मांगकर घर से बाहर निकल आया था।

लगभग सवा ग्यारह बजे उसने पाया कि वह अपने दफ्तर के सामने खड़ा है। एक मजबूर—सा दर्द उसके सीने में उठकर उसके दिमाग में पहुंचा और उसने एकाएक बहुत शिथिल—सा होकर चाहा कि वह बॉस के पास जाकर कहे, कि वह शर्मिन्दा है और वापस नौकरी पर आना चाहता है कि आजादी उसे रास नहीं आयी है, पर तत्काल ही यह चाहना उसने झटककर फेंक दी और आगे बढ़ गया।

रचनाकाल : 1981