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समर्पण

समर्पण

जसविंदर शर्मा


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समर्पण

अम्मा से वह मेरी अंतिम मुलाकात थी। उसे अंतिम मुलाकात कहना सही नहीं होगा क्यों कि मेरे गाँव पहुँचने से पहले ही अम्मा जा चुकी थी— मृत्युलोक से दूर, हर दुख—तकलीफ से परे। पिछली बार जब मैं उसे मिलने आया था तो वह बोली थी, बेटे, बहुत हो चुकी उम्र! पोते—पड़पोते देख लिए। अब ईवर का बुलावा आ जाए तो अच्छा है! बिस्तर पर न गिरूँ मैं! मोह—ममता नहीं छुटती, बस! तुझ में ध्यान रहता है। तेरा बड़ा भाई मनोहर तो यहीं गाँव में ही रहता है। उसके बच्चे तो ब्याहे गए। तेरे अभी कुँवारे हैं। उनका घर बस जाता तो सुख की साँस लेकर मरती मैं।

मैं उसे समझाता, अम्मा, हमारी चिंता मत किया कर। हम लोग मजे में हैं। बच्चों को अच्छी िाक्षा दिलवा दी है। सब मजे कर रहे हैं। खाते—कमाते हैं। वहाँ के संस्कार कुछ और ही हैं, अम्मा। मनोहर के बच्चों जैसे नहीं कि जो बापू ने बोल दिया वह पत्थर की लकीर नई सदी के इस मोड़ पर मुझे भी यह बात सालती है, मगर क्या करूँ? समय के साथ चलना पड़ता है। मैं अपने बच्चों का भाग्य—विधाता तो हूँ नहीं कि जबरन उन्हें ाादी के मंडप में बिठा दूँ। अम्मा! जब उनका ब्याह होगा तो उनके साथ रहना और कठिन हो जाएगा। एक कोठी में दो परिवार। पहले उनके लिए कोई फ्लैट का बंदोबस्त हो जाए तो ाादी के लिए उनके पीछे पडूँ।

हैरानी के मारे अम्मा की आँखें खुली रह गईं। बोली, इतना निर्मोही है तू। शादी करते ही बच्चों को अलग कर देगा!

मैं बोला, वहाँ हर आदमी आजादी चाहता है। मेरी बेटी दिव्या तो अमरीका जाने का जुगाड़ बना रही है। वहीं घर भी बसा लेगी। कंप्यूटर इंजीनियर है। अम्मा, आज के बच्चे अपने मन के हैं। उनके रास्ते में कोई रुकावट नहीं डाल सकते हम लोग, नहीं तो परिणाम और भी बुरे हो सकते हैं।

दो अलग—अलग संस्कृतियों के बीच झूलता हूँ मैं, जब गाँव में प्रवेा करता हूँ। जिस परिवेा में मैं पैदा हुआ, बड़ा हुआ, अब वही सब कितना तुच्छ, सुविधाविहीन और पिछड़ा हुआ लगता है। यहाँ रुककर अब ऐसा लगता है कि कुछ दिन और रह लिया तो दुनिया से बहुत पीछे रह जाऊँगा मैं! कुछ देर तक गाँव आकर्षित करता है। लगता है, इस जगह सब समान हैं। बुल्लेााही की कविता की तरह जो हम बचपन में गुनगुनाते थे— चल बुल्लियाँ, चल ओथे चलिए, जित्थे रहदें अन्ने, ना कोई साड़ी जात पछाने, ना कोई सानूं मन्ने। यानी वहाँ चलकर रहें जहाँ सब अंधे बसते हों जो हमारी जाति न पहचान सकें! कितनी समता और बरकत है यहाँ की आबोहवा में। किसी में कोई महत्वाकांक्षा नहीं। कोई होड़ नहीं। ज्यादा से ज्यादा कमाने की लालसा नहीं। बस, जो हो जाए, वही काफी है।

अपनी नियति के सामने सिर झुकाकर जीने की कला है इन लोगों में। जहाँ मैं रहता हूँ वहाँ किस्मत, भगवान, रिते, भरोसा, कुनबा जैसी संकल्पनाएँ नहीं हैं। वहाँ चूहा—दौड़, एंबीजान, जुगाड़, पर्सनेलिटी ज्यादा महत्व रखते हैं।

अम्मा से साल में एक बार मिलने के लिए आता हूँ मैं। भाई कब के रिटायर हो चुके हैं। अब गली की तरफ तीन दूकानें निकाली हैं उन्होंने। मेरे हिस्से के प्लॉट पर भी मकान बन चुका है। एक हिस्से में उनका बड़ा बेटा सपरिवार रहता है और एक हिस्से में ढोर—डंगरों के लिए खपरैल डाली है।

कई बार अम्मा कहती, देव, तू पढ़—लिखकर ाहर में इतनी तरक्की कर गया, कोठी बना ली। तेरे बड़े भाई मनोहर का इतना बड़ा टब्बर! उसके किसी बेटे की ढंग की नौकरी नहीं, दो लड़कों को तो खेती का ही आसरा है। गाँव की जायदाद में जो भी तेरा हिस्सा है, मनोहर के नाम कर जा। दुआएँ देगा वह। उसने हमेाा मेरा खयाल रखा है। उसकी बहू सुधा से मेरी सारी उम्र नहीं बनी। आज भी मैं अपने हिस्से के मकान में बैठी अपने हाथों से बनी रोटी खाती हूँ, मगर मनोहर हर वक्त मेरा खयाल रखता है। कभी कुबोल नहीं बोला उसने। कभी—कभी जरूर तेरे बारे में कसैली बातें करता है कि देव ने कभी चार पैसे भेजे हैं तुझे या उसके परिवार का भी फज बनता है कि तेरी देखभाल करें। अब मैं कुबड़ी हो गई हूँ। घर का राान वही लाकर देता है। हर महीने पाँच सौ रुपए अपनी पेांन में से देता है। पत्नी मना नहीं करती उसे। अब जैसा भी है, मेरे चुग्गे का इंतजाम करता है वह। तुझसे खर्च के लिए क्या कहूँ! तू हमेाा तंग ही रहा। कभी मकान की किस्तें तो कभी बच्चों की पढ़ाई का खर्च। अब कुछ अरसे से तू रुपए दे जाता है, वो मैं अपने किरिया—करम के लिए जमा करती जा रही हूँ ताकि खर्च को लेकर तुम दोनों भाइयों में फिक न पड़े। तू तो बहुत दूर रहता है। मैं मर गई तो सारा बोझ मनोहर पर ही पड़ेगा। बेटे, मनोहर के बारे में कुछ सोचना। मेरे जीते—जी पुतैनी जायदाद का निबटारा हो जाता तो...।

अम्मा के बार—बार कहने के बावजूद, पता नहीं क्यों, मेरे खून ने कभी जोर नहीं मारा कि मैं अपने हिस्से की जमीन व मकान मनोहर के नाम कर दूँ। सुना है कि आजकल तो गाँवो में भी जमीन लाखों के भाव में बिकती है। मैं यहाँ जोा में आकर कुर्बानी दे जाऊँ और उधर मेरी श्रीमती मुझे सारी उम्र कोसती रहे।

मनोहर और मेरे बीच लेन—देन की बात बीस साल पहले उठी थी। यहाँ ाहर में किसी तरह मैंने तीन सौ गज का प्लॉट खरीद लिया था, मगर उसके ऊपर मकान खड़ा करने का कोई जुगाड़ नहीं था मेरे पास। जो लोन मिल रहा था वह काफी नहीं था क्यों कि मेरी श्रीमती आलीाान घर बनाना चाहती थीं। उधर बच्चों की पढ़ाई का खर्च!

मैं बड़े चाव से गाँव आया था कि भाई से पैसे लेकर मकान बनाऊँगा। अम्मा ने सुना तो वह बहुत खुा हुई कि चलो छोटे बेटे का ाहर में ठिकाना बना। मगर भाई व भाभी को अच्छा नहीं लगा। कहने लगे, यहाँ से हजारों कोस दूर ठिकाना बनाने का क्या फायदा? यहाँ तुम्हारे रितेदार हैं, कुनबा है, टब्बर है। यहाँ जड़े हैं तुम्हारी। अनजान बिरादरी में कल बच्चों का शादी—ब्याह...।

अगले दिन पता चला कि उनके बिसूरने का कारण कुछ और ही था। वे मेरे हिस्से की दबाई जायदाद से हाथ धोना नहीं चाहते थे। मैंने अम्मा से बात चलाई कि मेरे हिस्से का जो भी बनता है, चाहे थोड़ा कम ही सही, मुझे दिलवाया जाए, ताकि मैं भी अपने मकान को बनवाना गुरू कर सकूँ।

अम्मा चाहकर भी कुछ फैसला न करवा पाई—मनोहर तो बिफर गया। बोला, तुझे पता नहीं कितना झंझट है इन जमीनों में! कागजों में हमारी तीनों बहनों और काकू चाचा का नाम भी है। काकू चाचा कुँवारा ही मरा मगर उसकी रखैल के घर पैदा हुआ लड़का भी बराबर का हिस्सेदार है। तू शहर में रहता है, सारे कानून जानता होगा। यहाँ कुछ दिन रुककर पटवारी व तहसीलदार से मिलकर कोशिश कर, शायद जमीन हम दोनों भाइयों और अम्मा के नाम हो जाए। फिर तीन हिस्से करके तेरा हिस्सा बेच देंगे। मैं तो एक लड़की की शादी कर चुका। रिटायरमेंट के आधे पैसे वहाँ लग गए। एक लड़की अभी भी दीवार की तरह सिर पर खड़ी है। बच्चे भी नौकरी नहीं करते कि उनसे पैसे पकड़कर तुझे दे दूँ। तू तो अफसर आदमी है। सौ जगह रसूख हैं तेरे। कहीं से कर्ज लेकर मकान बना ही लेगा...।

मुझे इतना मुकिल रास्ता बताया गया जितना उस राजकुमार को कहा गया था कि कई मुसीबतें झेलकर राक्षस को मारकर मणि लाएगा तब राजकुमारी उससे ाादी करेगी। दो सप्ताह मैं वहाँ टिका रहा। टेनिस की गेंद की तरह इधर से उधर टप्पे खाता रहा। अम्मा तो आक्त हो चुकी थी और भाई के घर की कमान सुधा भाभी के हाथ में थी। उसकी मजबूरियाँ भी साफ नजर आ रही थीं मुझे। उनके पास पाँच—सात लाख का कोई जुगाड़ नहीं था कि वे मेरा हिस्सा खरीद लेते। भाई के बैंक में पैसा था मगर सुधा भाभी ने साफ मना कर दिया। मुझे साफ तौर पर बता दिया गया कि घर तो पुतैनी है जिसके एक हिस्से में अम्मा का डेरा था जहाँ मेरी बहनें न साझे रितेदार आकर टिकते थे। अम्मा के जीते—जी वह हिस्सा तो बेचा नहीं जा सकता था। दूसरे बड़े हिस्से में भाई का टब्बर था। जमीन बेचकर अपना तीसरा हिस्सा ले जाने के लिए मुझसे कहा गया, मगर जमीन के कागज ठीक करवाने में बहुत सिरदर्दी थी।

पिता जी ने मरने से पहले यह सब ठीक करवाने की जरूरत नहीं समझी थी। उन्हें क्या पता कि लाखों का भाव होते ही जमीन पर सब की निगाहें हो जाएँगी। मास्टर थे वह। एक दिन दिल का दौरा पड़ा। मनोहर भाई ने अभी बी.एड. किया ही था। पिता जी का स्कूल प्राइवेट था सो अम्मा को कोई पेांन नहीं मिली। बाद में भाई की नौकरी सरकारी स्कूल में लग गई थी।

पंद्रह—बीस दिन तहसील के चक्कर काटने के बाद मुझे पता चला कि जमीन को फौरन बेचने का काम इतनी आसानी से होने वाला नहीं है। पहले तो मैं तीनों बहनों को एक जगह इकट्ठा करूँ, वे भी मुझसे खासी नाराज थीं। हमारे अविवाहित चाचा का नाम भी दावेदारों में था। उनकी एक रखैल और उनसे हुए बच्चों का भी पता चला मुझे। यानी पाँच—सात लाख का अपना हिस्सा लेने के लिए बहुत दौड़—धूप करनी पड़ती मुझे। उधर अॉफिस से पत्र आ गया था कि जल्दी पहुँचो।

अपना माथा पीटकर थक—हारकर मैं खाली हाथ वापस लौट आया। अम्मा खुद मनोहर के आसरे थी, मेरी कोई मदद क्या करती या मेरे लिए क्या जोर लगाती! वह तो ाुरू से ही कहती रही हैं कि मैं अपना हिस्सा मनोहर को दे दूँ तो कुनबे में मेरी अच्छी इज्जत बनी रह सकती है। फिर भी आते समय अम्मा ने आवासन दिया था कि वह मनोहर को मनाएगी कि दोनों भाई जायदाद का बँटवारा कर लें, जमीन मनोहर रख ले और देव को उसके हिस्से के रुपए दे दे।

मेरे घर में सारी बात सुनकर मेरी श्रीमती का मूड भी बिगड़ गया। सारी उम्र यह फाँस उसके गले में अटकी रही। इसके चलते श्रीमती और हमारे बच्चों ने कभी गाँव का रुख नहीं किया। हाँ, लोकलाज के डर से और अम्मा व रिते—नाते निबाहने की गरज से मुझे ही साल में गाँव का एकाध चक्कर लगाना पड़ता। भाई—बहन भी मेरे यहाँ कहाँ आ पाते थे!

गाँव मेरे लिए एक स्वप्नलोक बनता जा रहा था। मेरे और गाँव के रितेदारों के सरोकार बदलते जा रहे थे। हर बार मैं समझता था कि गाँव का मेरा यह अंतिम फेरा ही होगा। अम्मा के मरने की खबर कभी भी आ सकती थी। ाहरी जीवन का आदी हो गया था मैं। वहाँ एक आसानी यह थी कि रितों का कोई दबाव नहीं था। सब मस्त थे। एक—दूसरे के व्यक्तिगत जीवन में दखल नहीं देते थे। उन्हें इन बातों के लिए फुर्सत ही कहाँ मिलती थी!

गाँव में पाँच—सात दिन रहने पर मेरे दिमाग में खुजली होने लगती थी। जिससे भी बात करो, वह कटाक्ष में बात करता। कभी मजाक में तो कभी गुस्से और कभी उलाहने में। कमला ताई कहती, वे निर्मोही, कभी अपनी बहनों के घर भी जाया कर। अपने भाई को देखने का चाव उन्हें भी होता होगा। चंपा बुआ कहती, वे धर्मदेव, मेरा भाई पूरा हुआ था उधर मुंबई में, तू जाकर एक बार अफसोस ही कर आता उन्हें! हर तरफ से मुझ पर वैचारिक हमले होते रहते। ये दिन उफ—उफ करते बीतते।

और अम्मा! वह भी वैसी ही बातें करती। कहती, बहू को देखे पंद्रह बरस हो गए। उसका कोई फर्ज नहीं कि आकर सास की खैर—खबर ले, मेरा सुख—दुख करे! मेरा भाई मरा, भाभी चली गई, गाँव में ताया नानकू पूरा हो गया, उसे आना नहीं चाहिए था! तेरे बच्चों की तो ाक्लें ही भूल गई। तेरी बहनों पर मनोहर इतना खर्च करता है, उनके बच्चों को शगुन आदि पर, क्या तुम्हारा कोई फर्ज नहीं बनता कि रितेदारियाँ निबाहो। कल तूने उस घर में से हिस्सा भी लेना है। मनोहर की बहू यही ताने मारती है मुझे कि छोटी बहू ने तो कभी तेरी सुध नहीं ली, फिर भी तू दिन—रात देव का गुणगान करती रहती है।

अब अम्मा नहीं रही तो ये बातें करने वाला भी कोई नहीं रहा। अब हर तरफ जिद और रीस ही चल रही है कि तू जैसा करेगा वैसा ही तेरे साथ करेंगे। अम्मा थी तो सारा कुनबा अच्छी तरह आपस में जुड़ा हुआ था। कहीं कुछ कमी—पेाी या ऊँच—नीच हो जाती तो अम्मा सब कुछ अपने ऊपर ले लेती बेचौन हो उठती, इधर—उधर सलाह करता। चर्चा करता। और जब तक सब कुछ सामान्य नहीं हो जाता, तब तक चौन से कहाँ बैठती थी अम्मा!

हर बार मेरे गाँव आगमन पर खिल उठती थी अम्मा। कहती, कुनबे की इस माला में बस हर जगह तेरी ही कमी खलती है। जो पास होता है, उसका इतना चाव नहीं होता। तू छोटा है न, बहुत याद आता है। कई बार तेरी ाक्ल भूल जाती है। एक साल का वक्फा कम नहीं होता रुलाने के लिए। मनोहर तो वट—वृक्ष सरीखा अपनी गृहस्थी में खप गया है। वह कुनबे में सबसे बड़ा है—मुझे हमेशा से ही पक्का—प्रौढ़ दिखता रहा है और तेरे पिता के मरने के बाद तो उसकी कद—काठी, नयन—नक्शा, चेहरा—मोहरा सब उन जैसा ही लगता है। बेटा तो बस तू ही है जिससे मिलकर तेरा बचपन मेरी आँखों के सामने तैरने लगता है। मेरी माँ कहा करती थी कि जो जितना दूर हो, वह उतना ही दिल के करीब लगता है। उसकी ये पहेलियाँ तब मेरी समझ में नहीं आ पाती थीं। अस्सी साल की होकर अब मुझे पता चला है कि बच्चों का मोह क्या होता है। माँ का मन बच्चों से कभी नहीं भरता, वे चाहे कितनी आसानी से उसे भूल जाएँ। मेरे कान तेरी आहट सुनने को तरसते रहते हैं। वे बड़भागिया! छोड़कर आ जा वह नकली जीवन! यहाँ की आबोहवा देख। स्वर्ग समान है यह धरती! हर तरफ अपने लोग, एक दूसरे की मदद करने के लिए हमेाा तैयार! वहाँ पराए और पत्थर दिल लोगों के बीच सारी उम्र काटकर तू भी निर्मोही और छोटे दिल का बन गया है! सारा खून पानी हो गया है तेरा! अपने संबंधियों को देखकर एक बार भी तेरा खून ठाठें नहीं मारता। यही बस जा, हम भी देखें तेरी टौर, तेरा बाग—परिवार!

अम्मा बहुत दूर चली जाती। कलप्ना के बड़े—बड़े सब्जबाग देखने लगती। उसे क्या पता कि अब मेरी वापसी संभव नहीं रही। अब तो मैं बरगद सरीखा वहीं शहर में ही फैल गया हूँ जिसे किसी भी तरीके से यहाँ रोप पाना मुमकिन नहीं। फिर मेरा परिवार किसी और ढंग से बड़ा हुआ है। गाँव के तो नाम से ही बिदकते हैं वे।

अम्मा नहीं जानती कि गाँव में एक भी बेल ऐसी नहीं जो मुझ जैसे ाहरी परिंदे के पाँव बाँध सके। ाहर की बेरहम हवा आदमी की ग्रामीण रितों के प्रति बेगाना बना देती है। ाहर में भावनाओं से गुजर—बसर नहीं होती। हर चीज मोल के भाव बिकती है वहाँ। लोग तो बात करने तक की फीस ले लेते हैं वहाँ।

इधर अम्मा जब से आँखों से बिलकुल अंधी हो गई तब से बहुत ही भावुक हो उठी थी वह। बात—बात पर आँखें छलछला आती उसकी। मनोहर की चिंता करती। कहती, तेरी अच्छी पक्की नौकरी है। बच्चे भी ऊँचे ओहदे पर हैं। मनोहर के बच्चों के पास ढंग की रोजी—रोटी का जुगाड़ नहीं। मिट्टी के साथ मिट्टी होकर घर की जरूरत के लिए अन्न उगाते हैं। बारिा अच्छी हो जाए तो बल्ले—बल्ले, नहीं तो बाप—बेटे आसमान की तरफ पानी के लिए ताकते रहते हैं। बहुत कठिन जीवन है उनका बेटा। तेरे पास लाखों रुपए हैं, तू यहाँ की तीन—चार एकड़ जमीन लेकर क्या करेगा! मनोहर के नाम कर दे। मनोहर कह रहा था कि पैसों का जुगाड़ करके वह तुझे जरूर भेजेगा। मेरे जीते—जी यह निबट जाए तो अच्छा है, बाद में तुम भाइयों में थाना—कचहरी हो तो मेरी आत्मा को दुख पहुँचेगा। देखता नहीं, जरा—जरा जमीन के लिए गाँव में भाइयों के बीच तलवारें तन जाती हैं। मनोहर ने सारी उम्र मुझे सँभाला है, तू तो परदेसी है, मेहमान की तरह आता है।

अम्मा के जीत—जी मैं कुछ फैसला नहीं कर पाया कि जमीन मनोहर के नाम कर दूँ। अब अम्मा के गुजर जाने के बाद रो—धोकर, सारे क्रिया—कर्म करके सुबह मनोहर के साथ उसके स्कूटर पर पास के कस्बे से मुंबई के लिए ट्रेन लेने पहुँचा हूँ। मनोहर हम भाई—बहनों में सबसे बड़ा है, धीर—गंभीर स्वभाव है उसका। उससे कभी सीधे आँख मिलाकर बात नहीं की मैंने।

मुझसे गले मिलकर गला भर आया उसका। बोला, अम्मा के कारण तू हर साल आता था, अब पता नहीं आएगा भी या नहीं! बहुत सख्‌त दिल है तेरा। सब रितों से मुक्त है तू! मेरा हाल—चाल फोन पर पूछते रहना! शादी—गमी में आते रहना, मुँह न मोड़ना! अम्मा ने मरते समय मुझसे कहा था कि धर्मदेव का हक मत मारना। सो तब से ही लोन आदि लेकर तेरे लिए पैसों का इंतजाम किया है मैंने। ये ले, दस लाख का चौक है। अपनी पत्नी से चोरी से दे रहा हूँ। तू भी घर पर मत बताना। ये तेरे—मेरे बीच का हिसाब—किताब रहा। जमीन चाहे मेरे नाम लिख या न लिख, मेरे बच्चे उस पर कात कर रहे है, सो तेरा हक तुझे दे रहा हूँ ताकि हम दोनों के दिलों में हंमेशा प्यार बना रहे।

मनोहर ने जबरन वह चेक मेरी कमीज की ऊपरी जेब में ठूँस दिया और मेरे सिर पर हाथ फिराकर आाशीर्वाद दिया।

ट्रेन धीरे—धीरे सरक रही थी।...

दूर होता जा रहा मनोहर ऐसा लग रहा था मानो बचपन के मेरे पिता हों जो मुझे शहर के कॉलेज के लिए छोड़ने साइकिल पर आया करते थे। सारी यादें ताजा हो उठीं। मनोहर ने कज लेकर मुझे अपनी हैसियत से बढ़कर रुपए दिए हैं। पता नहीं, कब तक वह इस पैसे की किस्तें चुकाता रहेगा, असल की भी और सूद की भी! मैं इन रुपयों का क्या करूँगा! बैंक में रखकर ब्याज खाऊँगा, ोयर खरीदूँगा, बीवी के लिए हीरे खरीदूँगा या क्लब में ऐा करूँगा? अम्मा ने असल में ऐसा तो नहीं चाहा था। मनोहर ने अंत तक उसे सँभाला। मेरे हिस्से की देखभाल भी उसी ने की। मनोहर न होता तो अम्मा रुल जाती, वक्त से पहले खत्म हो जाती।

मैंने जेब से वह चेक निकाला और उसे फाड़कर उसकी चिंदी—चिंदी करके बाहर उड़ा दी और ऊपर आसमान की तरफ देखा। सोचने लगा कि यह देखकर अम्मा की आत्मा को कितनी शांति मिली होगी!