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कुर्सी

दो विनीत शब्द

प्रस्तुत गद्य रचना "कुर्सी" लगभग 1956-1966 ईस्वी के मध्यावधि के एक मैट्रिकुलेशन के छात्र की जीवंत सत्य कथा है और पूर्णरूपेण उसके मूल स्वरूप में हैं. अर्थात उसे गद्य रूप देने अथवा उसमें रोचकता लाने की दृष्टिकोण से लेखक की तरफ से कुछ भी अतिरिक्त तथ्य जोड़ने का कार्य नहीं हुआ है. अपितु रचना को उसका वास्तविक विस्तार न देते हुये नायक के हित के विपरीत अन्य घटित वास्तविक सफल-असफल घटनाओं को अति संकुचित करते हुये शब्द-मात्र के संकेत में अथवा मनोभाव रूप में रखा गया. ताकि रचना समाज में सृजनात्मकता ला पाने के अपने मूल उद्देश्य में सफल हों, न कि समाजिक कुरीतियों को इंगित करने मात्र में फ़ंसा रहे जिसके फलस्वरूप उस समाजिक कुरीति को अनुचित बल और विस्तार ही मिल जाये.

इस रचना के वास्तविक नायक और उसके ज्ञात अधिकतर सहपाठी अपनी आयु पूरा कर चुके और कुछेक अभी मौजूद हैं. इस रचना में उनके द्वारा प्रदत्त मौखिक जानकारी का उपयोग भी हुआ है, जिस हेतु तहे दिल से उनका आभार है. नायक के उक्त गुरूजी भी अभी विद्यमान हैं. इतने साक्ष्य के वावजूद भी प्रस्तुत रचना को लेखक द्वारा काल्पनिक घोषित किया जाता है और रचना में कुछ तथ्य गौण रखा जाता है ताकि जीवित वास्तविक पात्र की कदापि पहचान संभव न हो और उनके सम्मान को किसी भी प्रकार से ठेंस न पहुँचे.

लेखक द्वारा उक्त नायक के सम्मानीय गुरूजी के सम्मान को ध्यान में रखते हुये स्पष्ट किया जाता है कि प्रस्तुत रचना में न तो किसी का अनुचित गौरव गान हुआ है, न तो किसी की बेवजह निंदा. रचना का उद्देश्य केवल इतना है कि प्रत्येक नागरिक के प्रगति की राह से अनावश्यक बाधा समाप्त हो और समाज में वैसे दुखद घटनाओं की पुनरावृति न हो, गहरे पैठ वाले उस सामाजिक कुवृति पर अंकुश लगे जिससे एक स्वायत्त संस्था भी अपने कुछेक विकृत मनोवृत्ति वाले कर्मियों की वजह से अछूते नहीं रह पाते. भारतीय संस्कृति कुवृति रहित महान संस्कृति रहे और निरंतर ही प्रगति करे. एक बार पुनः सर्वहिताय के मद्देनजर लेखक द्वारा प्रस्तुत रचना को लिपिबद्ध करते हुये आज दिनांक 21 जनवरी 2017 को काल्पनिक घोषित किया जाता है, धन्यवाद.

कुर्सी (कहानी)-प्रदीप कुमार साह

वर्ष 1966 ई० का वह दिन उस वर्ग के सभी छात्र के लिये खास था. यद्यपि वर्ग में अभी कोई शिक्षक मौजूद नहीं थे, तथापि वहाँ गंभीर शांति थी. किंतु सभी छात्र बेहद उत्सुक थे और सबमें कोई अजीब बेचैनी भी थी. आखिर आज प्रत्येक छात्र का नये सिरे से उनका भविष्य जो तय होना था. बिहार विद्यालय परीक्षा समिति, पटना से विद्यालय के मैट्रिकुलेशन का परीक्षा फल विद्यालय को प्राप्त हो चूका था. उसी संदर्भ में विद्यालय प्रशासन के विशेष निर्देश पर आज की कक्षा आयोजित थी, जहाँ प्रत्येक छात्र को उपस्थित रहकर अपने प्राप्तांक से अवगत होना था.

तभी कक्षा में गुरूजी अर्थात वर्ग शिक्षक श्री प्रताप झा जो भूगोल विषय के विद्वान् शिक्षक थे, का प्रवेश हुआ और सभी छात्र उनके सम्मान में खड़ा हो गए. पुनः शिक्षक द्वारा उनका स्थान ग्रहण करने के पश्चात उनका अनुशासन पाकर छात्र बेंच पर अपने-अपने स्थान पर बैठे. अब छात्र गुरूजी पर टकटकी लगा दिये. गुरूजी भी छात्रों की उनके प्राप्तांक से संबंधित जिज्ञासा और परीक्षा फल से संबंधित उत्सुकता को समझते हुये उसी तथ्य से संबंधित भूमिका वाचन प्रांरभ किये. ततपश्चात परीक्षाफल से संबंधित फाइल के पृष्ठ पलटने लगे. पृष्ठ पलटते ही वह एकदम से चौंक गये, किंतु शीघ्रता से संयत होते हुये उन्होंने एक नाम पुकारा-"बिष्णुदेव साहू."

शिक्षक द्वारा अपने नाम का पुकार होते ही एक छात्र "जी गुरूजी" कहते हुये अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ. शिक्षक एक नजर उसे देखते हुये बोले,"परीक्षाफल में तुम्हारा उत्तीर्णांक अच्छे अंक की है."

किंतु शिक्षक महोदय की घोषणा से पूरे वर्ग में सन्नाटा पसर गया. वर्ग में केवल उस छात्र का मध्यम स्वर में स्वीकारोक्ति में कहे गये शब्द,"जी गुरूजी" ही सुनाई दिया. तथापि उसके निर्विकार चेहरे पर उसका अच्छे अंक से उत्तीर्ण होने की घोषणा होना भी कदाचित उसके चेहरे पर प्रसन्नता की एक हल्की लकीर खींच न सकी. किंतु उसके मनोभाव समझने की चेष्टा करने की आवश्यकता किसी को भला क्या थी? शिक्षक महोदय भी अब तनिक भी विलंब किये बिना अन्य उत्तीर्ण छात्रों के नाम की घोषणा करने लगे. किंतु अब कक्षा स्वीकारोक्ति वचन और तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रही थी.

किंतु साथ में कक्षा में सभी छात्र उच्च प्राप्तांक से उत्तीर्ण होने वाले छात्र "बिष्णुदेव साहू" के संबंध में आपस में काना-फूसि भी कर रहे थे. एक सवर्ण छात्र दूसरे से कह रहा था,"अरे, यह बनिया का बच्चा "तेली-मशान" उच्च प्राप्तांक कैसे लाया?"

दूसरा छात्र बोला,"अरे कैसे लाया, वह छोड़ो! यह सोचो कि क्यों लाया? समझो वैसा कर इसने तो हमारा जीना ही हराम कर दिया. समाज में अपनी नाक कटी सो मुफ़्त में और अब घर में भी जीना हराम होगा. घर वाले कहेंगे कि साधनहीन बनिया का बच्चा अच्छे अंक से उत्तीर्ण होता है और साधन संपन्न कुलीन घर के बच्चे उत्तीर्ण मात्र होते हैं."

इस पर तीसरा छात्र जो सवर्ण नहीं अपितु जाति का ग्वाला था, तैश में आकर अपना दाँत पीसते हुये बोला,"इस तेलिया-मशान की इतनी हिम्मत! अच्छा प्राप्तांक लावेगा...इसका तो कचूमर ही निकाल दूँ."

इसपर पहला छात्र तुनक कर बोला,"ग्वाला, तुम तो चुप ही रहो. जब वह अकेला ही सदैव दस-दस पर भारी पड़ता है, तब उसके सम्मुख होने की हिम्मत है क्या तुझमें! हमें तो फूँक-फूँक कर ही कदम उठाने होंगें." इतना कहते हुये वह अपने सिर पर हाथ फिराते हुये दूसरे छात्र की तरफ देखते हुये बोला,"कुछ सोचो भाई, कुछ सोचो!"

"सोच लिया, अधिक क्या सोचना? इसे अपना सारा प्रमाण पत्र विद्यालय से लेने तो दो. हम हमारे विश्वास हेतु उससे अपना सारा प्रमाण पत्र दिखलाने कहेंगे. जब वह अपना प्रमाण पत्र दिखलायेगा तभी हम सब मिलकर उसका सभी प्रमाण पत्र किसी भी तरह फाड़ देंगें और वह हमारी शिकायत किसी से कदापि भी कह नहीं सकेगा." दूसरा छात्र इस बार थोड़ा अकड़ कर बोला.

"किंतु वैसा करने से क्या होगा? वह बोर्ड ऑफिस से दुबारा अपना प्रमाण पत्र प्राप्त कर लेगा?" पहला छात्र फुसफुसाते हुये पूछा.

"बोर्ड ऑफिस से दुबारा प्रमाण पत्र प्राप्त करने हेतु संबंधित प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिये, फिर उस साधनहीन अनपढ़ बनिये के बच्चे को समुचित साधन और सच्चे मार्गदर्शक के आभाव में उस बात का ज्ञान कहाँ? फिर हमें उसका एक भी प्रमाण पत्र फाड़ने से चूकना थोड़े न है? ना रहेगा बाँस, न बजेंगी बाँसुरी!" दूसरा छात्र पहले को देखते हुये कुटिलता पूर्वक मुस्कुराते हुये फुसफुसाया. तब तक गुरूजी सभी उत्तीर्ण छात्रों के नाम की घोषणा कर चुके थे.मैट्रिकुलेशन की बोर्ड परीक्षा में सम्मलित कक्षा का कोई भी छात्र अनुत्तीर्ण नहीं हुए. ततपश्चात सभी छात्र गुरूजी का आभार व्यक्त किये और एक दूसरे को बधाई देने लगे. गुरूजी की गर्दन गर्व से तन गया.

कुछ देर बाद सब कुछ लगभग थम-सा गया. छात्र थक कर अपने-अपने स्थान पर बैठ गये. किंतु अभी तक किसी ने बिष्णुदेव को बधाई नहीं दी. बिष्णुदेव भी अपने स्थान पर तब से निर्विकार बैठा था. किंतु गुरूजी को उसका कदाचित इस तरह बैठा रहना पसंद न आया. उसका वैसा करना उन्हें अपना तौहीन करना जान पड़ा, जो उनके लिये असहनीय था. वह साहसा ऊँचे स्वर में बोल पड़े,"दुर्भाग्यवश कभी-कभी अमूल्य निधि अपात्र के हाथ भी लग जाते हैं, जो उनकी महत्ता नहीं समझते. तब वह परिस्थिति अत्यंत घातक होती हैं. जैसे सर्प द्वारा दुग्ध-पान होना. इससे दुग्ध की हानि तो होता ही है और सर्प भी अत्यधिक विषैला हो जाता है."

गुरूजी की बातें सुनकर और उसका आशय समझ कर छात्र मन ही मन बहुत खुश हो रहे थे. वह बात उनके जले के जख्म पर मरहम के काम आ रही थी. बिष्णुदेव भी गुरूजी के कथन का आशय समझ रहा था, किंतु इस बार उसके चेहरे पर एक अजीब मुस्कान आ गयी. वह खड़ा होते हुये गुरूजी का अभिवादन किया. गुरूजी आग्नेय नेत्र से देखते हुये उससे कड़क स्वर में पूछे,"क्या (बात) है?"

गुरूजी का कड़क स्वर में सवाल सुनकर बिष्णुदेव कदाचित संकोच में पड़ गया. तब गुरूजी पुनः कड़क स्वर में बोले,"तुम्हें कुछ कहना भी है क्या? यदि हाँ, तो कहो! अन्यथा.... सभी दिन की तरह गूँगा ही बना रहना है तो खड़े ही क्यों हो?"

बिष्णुदेव साहस जुटाते हुए और अपने चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की कोशिश करते हुये बोला,"गुरूजी, बिहार विद्यालय परीक्षा समिति पटना द्वारा आयोजित परीक्षा में मेरी प्रतिभागिता से विद्यालय की साख पर कोई आँच नहीं आया. विद्यालय की साख और रिकार्ड पूर्ववत रहा, जिसके लिये आपका बहुत-बहुत आभार."

"तो? ...क्या चाहते थे तुम?" गुरूजी चिढ़ते हुये अत्यधिक कड़क स्वर में पूछे.

"वही, जो आप चाहते थे." बिष्णुदेव पूर्वत मुस्कुराने की कोशिश करते हुये कहा. वह पुनः बोला,"मैंने विद्यालय के उज्ज्वल साख को बरकरार रखने हेतु यथासम्भव पूरे मनोयोग से परीक्षा की तैयारी की और अंततः अपना वादा पूरा कर पाया.उस कामयाबी के लिये भी आपको अनंत बधाई."

गुरूजी बिष्णुदेव की बात सुनकर संकोच में पड़ गए. किंतु तब भी उनके मुख से पूर्ववत स्वर में प्रश्न निकला,"तो?"

किंतु अब गुरूजी की नजर में पूर्ववर्ती दृश्य तैरने लगा कि वह इस राजकीय उच्च विद्यालय की साख रक्षण हेतु किस तरह बिष्णुदेव को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति, पटना द्वारा वर्ष 1966 हेतु आयोजित होनेवाली परीक्षा में प्रतिभागिता हेतु प्रवेश लेने से रोकने का निर्णय लिये. यद्यपि बिष्णुदेव नियमित छात्र रहा, प्रत्येक कक्षा में उसकी उपस्थिति भी सर्वाधिक रही. किंतु वह अक्सर चुप रहने वाला एक भोंदू विद्यार्थी था. उसकी लिखावट भी अच्छी नहीं थी. इसलिये उन्हें पूरा यकीन था कि वह बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो सकता. वैसी स्थिति में वह नहीं चाहते थे कि विद्यालय का कोई छात्र समिति द्वारा आयोजित परीक्षा में अनुत्तीर्ण होकर विद्यालय की साख पर धब्बा बने.

किंतु उन्हीं दिनों विद्यालय निरीक्षक महोदया का विद्यालय के औचक निरीक्षण हेतु आना हुआ. कक्षा से कभी अनुपस्थित न रहनेवाला अथवा किसी विषय के पाली में कक्षा से गायब न रहनेवाला लड़का "बिष्णुदेव साहू" विद्यालय निरीक्षक महोदया के विद्यालय में कक्षा जाँच के पश्चात कक्षा से न जाने कहाँ गायब हो गया. उसका इस तरह गायब होना थोड़ा अचरज की बात तो जरूर थी, किन्तु अधिक चिंता का विषय न जान पड़ा. उस संबंध में निरीक्षक महोदया के जाने के पश्चात सोचा जा सकता था. वैसे भी कभी अनुपस्थित न रहकर भी उसने कौन सा बड़ा काम किया था, जब पढ़ाई में अव्वल न था. इसी वजह से तो उसे बोर्ड परीक्षा में प्रवेश लेने से रोका गया था.

विद्यालय का भली-भाँति निरीक्षण करने और आवश्यक निर्देश देने के पश्चात निरीक्षक महोदया पूर्ण संतुष्ट हुई. अब उन्हें विद्यालय से विदा होना था. किंतु उन्हें गन्तव्य हेतु मोटर गाड़ी मुख्य मार्ग से मिलनी थी और मुख्य मार्ग वहाँ से तीन किलोमीटर पैदल चलकर था. अतः विद्यालय प्रधान द्वारा उन्हें मुख्य मार्ग तक छोड़ने और उस हेतु बैलगाड़ी का इंतजाम करने की जिम्मेदारी गुरूजी अर्थात प्रताप झा के कंधे छोड़ी गयी. वैसे भी गुरूजी उसी गाँव के निवासी थे, अतः वह विद्यालय के सभी काम बखूबी संभाल लेते थे. विद्यालय का काम संभालने में उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी. आखिर विद्यालय की छवि ही उनके गाँव की इज्जत थी, अन्यथा मुख्य मार्ग और बाजार से इतना दूर साधनहीन इस गाँव की क्या बिसात?

बैलगाड़ी समय से तैयार होकर आ गया. अब गुरूजी भी विद्यालय निरीक्षक महोदया को मुख्य मार्ग तक छोड़ने उनके साथ बैलगाड़ी से चल पड़े. गाड़ीवान के ललकार से गाड़ी से जुते बैल निरंतर अपने मस्त गति में तेजी लाता और उसके साथ ही गाड़ी मंथर गति से कच्चे मार्ग पर अधिक तेज भागता. बैल के गले से बंधी घँटी भी उसी अनुपात से हवा में अपना संगीत बिखेरता. गाड़ी बस्ती से बाहर कुछ दूर चली आई थी कि तभी गाड़ीवान ने हठात् गाड़ी रोक दिया. इसी के साथ सब कुछ थम सा गया. साहसा सब की नजर सामने गई. गाड़ी के सामने एक अश्रु-पूरित नेत्रवाला तेरह-चौदह बरस का एक लड़का करबद्ध खड़ा था.

विद्यालय निरीक्षक महोदया लड़के को पास बुलवाकर उसके वैसा करने का कारण पूछीं. लड़के ने अपनी समस्या उनके समक्ष सादर रखा. महोदया उसका फरियाद स्वीकार किया और गुरूजी से एक छात्र को बोर्ड परीक्षा में प्रतिभागिता हेतु प्रवेश लेने से रोकने का औचित्य पूछा. गुरूजी उनके समक्ष अपना सादर निवेदन रखे. किंतु महोदया उनका निवेदन निति-सम्मत नहीं पाते हुये उसे अस्वीकार किया और उनके द्वारा विद्यालय को निर्देषित किये कि बोर्ड परीक्षा में प्रतिभागिता हेतु प्रवेश पाना एक नियमित छात्र का मौलिक अधिकार है.अन्य किसी भी वजह से उस मौलिक अधिकार का हनन नहीं होना चाहिये. वह लड़का कोई और नहीं, बल्कि कक्षा का वह भोंदू छात्र बिष्णुदेव साहू ही था.

उधर गुरूजी के प्रश्न सुनकर बिष्णुदेव के मस्तिष्क पटल पर वह दृश्य तैरने लगा कि विद्यालय निरीक्षक महोदया से बोर्ड परीक्षा देने हेतु प्रवेश पाने का आश्वासन पाकर वह लौट तो गया, किंतु किसी अनहोनी के घटित होने की संभावना से उसका मन-मस्तिष्क लगातार विचलित हो रहा था. किंतु धीरज रखते हुये वह अगला दिन भी विद्यालय गया. वह कक्षा में अपने नियत स्थान पर बैठा. अन्य छात्र आदतन आपस में गप्प-शप्प करने में व्यस्त थे. तभी दनदनाते हुये वर्ग शिक्षक श्री प्रताप झा अर्थात गुरूजी कक्षा में प्रवेश किये. सभी छात्र उनके सम्मान में खड़े हो गए.

गुरूजी का अनुशासन पाकर सभी छात्र अपने-अपने स्थान पर पुनः बैठ गए. गुरूजी नियमानुसार कक्षा में उपस्थीत प्रत्येक छात्र की उपस्थिति विद्यालय के उपस्थिति-पंजी में दर्ज किये. किंतु आज गुरूजी क्रुद्ध प्रतीत हो रहे थे, अतः कक्षा के सभी छात्र किसी अनजाने भय से भयभीत थे. जब गुरूजी बिष्णुदेव साहू को संबोधित करते हुये उसे अपने स्थान पर खड़ा होने का संकेत किया, तब सभी छात्र का भय समाप्त हुआ कि चलो बला किसी के सर पड़ी और हम बच गये. बिष्णुदेव साहू अपना सिर झुकाये अपने स्थान पर चुपचाप खड़ा हो गया. किंतु वह डर से बुरी तरह काँप रहा था.

गुरूजी आग्नेय नेत्र से उसे देखते हुये बोले,"देखो, सभी छात्र इसे देखो! मैंने वर्षो अध्यापन कार्य किया और अनगिनत छात्र की योग्यता परखा. कितनी तजुर्बा हासिल किये कि प्रत्येक छात्र को एक नजर देखकर ही उसकी वास्तविक योग्यता के संबंध में जान लेता जो भविष्य में उस पर पूर्णतः सत्य साबित होता. किंतु इसने मेरे तजुर्बे को चुनौती देकर मेरी ही शिकायत लेकर मैडम (विद्यालय निरीक्षक महोदया) के पास पहुँचा. ओ कर्मजले, एक शिक्षक अपने छात्र का अहित सपने में भी चाहता है क्या? किंतु तुम्हें बोर्ड परीक्षा देने की हठ है तो अब मैं तुम्हें प्रतिभागिता हेतु प्रवेश लेने से रोकूँगा नहीं. किंतु तुम्हारा हठ तुम्हारे भविष्य के साथ इस विद्यालय की छवि के लिये भी अहितकर है. यदि तुम उत्तीर्ण भी हो पाओ और मेरा तजुर्बा गलत हुआ तो मैं शिक्षक की यह कुर्सी सदैव के लिये त्याग दूँगा."

इतना कहने के पश्चात गुरूजी उसे डाँटते हुये अपने स्थान पर बैठ जाने को कहा. इसके पश्चात गुरूजी कुछ देर तक कुर्सी पर बैठ कर अपना क्रोध शांत करने हेतु प्रयत्न करते रहे. किंतु कदाचित वह उसमें असफल रहे तो उठ कर कक्षा से बाहर चले गए. अब उसके कुछ सहपाठी उसे अपना हठ त्याग कर गुरूजी के निर्णय मानने हेतु सलाह दे रहे थे तो अन्य सहपाठी उसका उपहास करने लगे. किंतु उसका सहपाठी जितना उसका मजाक उडाता, उसका निर्णय उतना अटल हो जाता. अंततः उसने बोर्ड परीक्षा देने एवं उस हेतु प्रवेश-पत्र प्राप्ति निमित्त आवेदन दिया. परंतु उसके सहपाठियों का उसके प्रति व्यवहार पूर्ववत ही रहा.

अपने सहपाठी के व्यवहार से बेहद दुःखी रहने के वावजूद बिष्णुदेव साहू अपनी पराजय स्वीकार नहीं किया और बोर्ड परीक्षा दिया. पुनः परीक्षाफल भी प्रकाशित हुआ और विद्यालय को प्राप्त हुआ. उसे परीक्षा से अच्छा प्राप्तांक प्राप्त हुए. उस अविस्मरणीय बात को मन में पुनः ताजा करते हुये उसने गुरूजी से कहा,"गुरूजी, आपके असीम कृपा से मेरा वादा पूरा हुआ. किंतु मेरी इच्छा अब यह है कि आपकी कृपा से ही आपके वादा की पूर्ति भी हो."

"वादा...मेरा क्या वादा था?" गुरूजी घबड़ा कर पूछे. उनके होंठ खुश्क हो गए.

"गुरूजी, मैं आपको आपका भूला हुआ वादा पुनः याद दिलाकर आपको दुविधा में पड़ने देना नहीं चाहता. वह कि श्रीमान को अपने एक छात्र की योग्यता पर इतना अविश्वास था कि एक अनुभवी शिक्षक होने के नाते शर्त स्वरूप में उसके उत्तीर्ण हो पाने की स्थिति में शिक्षक की कुर्सी सर्वदा के लिये त्याग देने हेतु प्रतिबद्ध थे और उस बात की प्रत्यक्षदर्शी यह पूरी कक्षा और मेरे सभी सहपाठी हैं." बिष्णुदेव मुस्कुराते हुये बोला.

"यह तुम क्या कहते हो? इतना बोलना कब सीख लिये?" गुरूजी के स्वर में घबराहट छा गई.

"गुरूजी, क्षणिक आवेश में हुआ निर्णय सचमुच सटीक नहीं हो सकता, किंतु मनुष्य को अपने जीवन से उसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ सकती है.वह कीमत अदा करना कितना मुश्किल होता है? कभी-कभी तो पूरा का पूरा कैरियर और प्रतिष्ठा ही दाव पर लग जाता है. फिर भी लोग मद और मोह के वशीभूत क्षणिक आवेश में कुछ वैसा निर्णय ले ही लेते हैं. इस बात की पुष्टि में श्री राम चरित मानस में कई दोहे हैं कि बिषई जीव पाइ प्रभुताई. मूढ़ मोह बस होहिं जनाई. सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू. केहि न राजमद दीन्ह कलंकू. कही तात तुम्ह निति सुहाई. सब तें कठिन राजमदु भाई." आपने बिहारी जी का जो दोहा मुझे पढ़ाया है, वह भी मुझे याद है कि कनक-कनक ते सौ गुणा, मादकता अधिकाय. एही खावत बौराय नर, वही पावत बौराय."

बिष्णुदेव कह रहा था और गुरूजी अभी मौन थे. उस वार्तालाप से पूरी कक्षा चकित थी. वहाँ गहरा सन्नाटा पसर गया, मानो साँस लेना तक अवरुद्ध था. किंतु बिष्णुदेव अभी रुका नहीं, बोलता रहा,"यद्यपि किसी का ख्वाब तोडना भी उतना ही घातक हो सकता है जितना किसी का कैरियर या प्रतिष्ठा तबाह हो जाना.किंतु उन सभी बात के वावजूद भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य के संबंध अतुलनीय रहे हैं. न तो गुरु संभवत: अपने शिष्य का अहित कभी स्वीकार किये हों, न शिष्य अपने गुरु का कभी मान-मर्दन सहन किये.आज भी उसी परंपरा का निर्वाह होगा.

क्योंकि वह नीरा मूढ़ ही होगा जो अपना कैसा भी सिर का ताज स्व-चरण में रखकर प्रसन्न होने की चेष्टा करे. यद्यपि यह सभी चाहते हैं कि भूल से भी कोई भूल न हो. किंतु एक भूल अक्सर होती हैं. यह संसार महासागर रूपी मोतियों का एक अथाह भंडार है जिसमें प्रत्येक डुबकी के पश्चात सदैव कुछ न कुछ मोती मिल ही जाते हैं. इसलिये कोई कितना भी अधिक डुबकी लगाये, वह एक दूसरे से अधिक संपन्न हो सकते हैं, किंतु कोई स्वयं ही मोतियों के अथाह भंडार स्वरूप कदापि नहीं हो सकते. किंतु भ्रमवश मनुष्य को वैसा ही प्रतीत होता है और भूल तो भूल होती है.

पुनः प्रत्येक संसारिक वस्तु सदैव संसार का चिर ऋणी रहता है. परंतु संसार किसी का क्षणिक ऋणी हो सकता है, किंतु वह अधिक समय तक कभी किसी का ऋण सहन नहीं करता. किंतु लगाया गया ऋण का जब ब्याज सहित संसार से वापस मिलने का समय निकट आ ही गया है और उसका वापस मिलना स्वयं हेतु अहितकर है, ऐसा जानते हुये बुद्धिमान अपनी भलाई इसी में समझते हैं कि दुबारा से उचित ऋण लगाया जाय जो उस भावी अहित के प्रति सुरक्षा कवच का निर्माण कर दे. पुनः वह अनुमानित भी करते हैं कि किसी साध्य समस्या का समाधान उसके संकेतार्थ रूप से भी हो सकता है क्या? जैसे किसी देवता का तुष्टिकरण पान के आभाव में उसके डंठल से किया जाता है.

गुरूजी, इस समस्या का समाधान आपके द्वारा ही संभव है और वैसा करने में आप पूर्ण सक्षम हैं. अतः आपसे सादर प्रार्थना है कि कृपया विचार-पूर्वक अपने वादा का निर्वाह और इस विकट समस्या का वैसा समाधान करने की कृपा करें जो सभी के लिये हितकर हो. दुविधा युक्त इस काला दिवस का स्वरूप भी बदल जाये और वह विद्यालय के इतिहास में एक स्वर्णिम क्षण के रूप में परिवर्तित होकर स्वर्णिम अक्षर में अंकित हो जाये." इतना कहने के पश्चात बिष्णुदेव गुरूजी के समक्ष करबद्ध हो गया. बिष्णुदेव को अपने समक्ष करबद्ध देखकर गुरूजी के नेत्र सजल हो गए. उन्होंने बिष्णुदेब को गले से लगा लिया और प्रेमवश उसके पीठ पर थपकी देने लगे.

शिष्य के प्रति हृदयतल में अवस्थित निर्मल प्रेमभाव से गुरूजी का गला रुंध गया.वह रुंधे स्वर में बिष्णुदेव को आश्वस्त किया,"वैसा ही होगा." ततपश्चात उन्होंने कक्षा को संबोधित करते हुये कहा,"आज यह कुर्सी कक्षा के उस छात्र का गवाह है जिसकी प्रतिभा उसके विद्यालय, उसकी कक्षा और उसके शिक्षक का सम्मान बढ़ाया...उनको गौरवांवित किया. यह कुर्सी आज से उस छात्र की निशानी भी होगी जिसकी प्रतिभा की परख उसके शिक्षक को नहीं अपितु उसे स्वयं थी." ततपश्चात गुरूजी तत्क्षण उस प्रतिभावान छात्र के निशानी के तौर पर और अन्य छात्र हेतु प्रेरणार्थ उस कुर्सी को सदा के लिये विद्यालय के लाइब्रेरी में सुरक्षित रखवा दिये.(समाप्त, सर्वाधिकार लेखकाधीन)