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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 14

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(युद्धक्षेत्र - सैनिकों के साथ पर्वतेश्वर)

पर्वतेश्वरः सेनापति, भूल हुई।

सेनापतिः हाथियों ने ही ऊधम मचा रक्खा है और रथी सेनाभी व्यर्थ-सी हो रही है।

पर्वतेश्वरः सेनापति, युद्ध मं जय या मृत्यु - दो में से एक होनीचाहिए।

सेनापतिः महाराज, सिकन्दर को वितस्ता पर यह अच्छी तरहविदित हो गया है कि हमारे खड्‌गों में कितनी धार है। स्वयं सिकन्दरका अश्व मारा गया और राजकुमार के भीण भाले की चोट सिकन्दर नसँभाल सका।

पर्वतेश्वरः प्रशंसा का समय नहीं है। शीघ्रता करो। मेरा रणगजप्रस्तुत हो, मैं स्वयं गजसेना का संचालन करूँगा। चलो!

(सब जाते हैं।)

(कल्याणी और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

कल्याणीः चन्द्रगुप्त, तुम्हें यदि मगध सेना विद्रोही जानकर बन्दीबनावे?

चन्द्रगुप्तः बन्दी सारा देश है राजकुमारी, दारुण द्वेष से सबजकड़े हैं। मुझको इसकी चिन्ता भी नहीं। परन्तु राजकुमारी का युद्धक्षेत्रमें आना अनोखी बात है।

कल्याणीः केवल तुम्हें देखने के लिए! मैं जानती थी की तुमयुद्ध में अवश्य सम्मिलित होगे और मुझे भ्रम हो रहा है कि तुम्हारेनिर्वासन के भीतरी कारणों में एक मैं भी हूँ।

चन्द्रगुप्तः परन्तु राजकुमारी, मेरा हृदय देश की दुर्दशा से व्याकुलहै। इस ज्वाला में स्मृतिलता मुरझा गयी है।

कल्याणीः चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः राजकुमारी! समय नहीं! देखो - वह भारतीयों केप्रतिकूल दैव ने मेघमाला का सृजन किया है। रथ बेकार होंगे और हाथियोंका प्रत्यावर्तन और भी भयानक हो रहा है।

कल्याणीः तब! मगध-सेना तुम्हारे अधीन है, जैसा चाहो करो।

चन्द्रगुप्तः पहले उस पहाड़ी पर सेना एकत्र होनी चाहिए। शीघ्रआवश्यकता होगी। पर्वतेश्वर की पराजय को रोकने की चेष्टा कर देखूँ।

कल्याणीः चलो!

(मेघों की गड़गड़ाहट - दोनों जाते हैं।)

(एक ओर से सेल्यूकस, दूसरी ओर से पर्वतेश्वर का ससैन्यप्रवेश, युद्ध)

सिल्यूकसः पर्वतेश्वर! अस्त्र रख दो।

पर्वतेश्वरः यवन! सावधान! बचाओ अपने को!

(तुमुल युद्ध, घायल होकर सिल्यूकस का हटना)

पर्वतेश्वरः सेनापति! देखो, उन कायरों को रोको। उनसे कह दोकि आज रणभूमि में पर्वतेश्वर पर्वत के समान अचल है। जय-पराजयकी चिन्ता नहीं। इन्हें बतला देना होगा कि भारतीय लड़ना जानते हैं।बादलों से पानी बरसने की जगह वज्र बरसें, सारी गज-सेना छिन्न-भिन्नहो जाय, रथी विरथ हों, रक्त के नाले धमनियों से बहें, परन्तु एक पगभी पीछे हटना पर्वतेश्वर के लिए असम्भव है। धर्मयुद्ध में प्राण-भिक्षामांगनेवाले भिखारी हम नहीं। जाओ, उन भगोड़ों से एक बार जननी केस्तन्य की लज्जा के नाम पर रुकने के लिए कहो! को कि मरने काक्षण एक ही है। जाओ।

(सेनापति का प्रस्थान। सिंहरण और अलका का प्रवेश)

सिंहरणः महाराज! यह स्थान सुरक्षित नहीं। उस पहाड़ी परचलिए।

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो युवक!

सिंहरणः एक मालव।

पर्वतेश्वरः मालव के मुख से ऐसा कभी नहीं सुना गया। मालव!खड्‌ग-क्रीड़ देखनी हो तो खड़े रहो। डर लगता है तो पहाड़ी पर जाओ।

सिंहरणः महाराज, यवनों का एक दल वह आ रहा है।

पर्वतेश्वरः आने दो। तुम हट जाओ।

(सिल्यूकस और फिलिप्स का प्रवेश - सिंहरण और पर्वतेश्वरका युद्ध और लड़खड़ा कर गिरने की चेषअटा। चन्द्रगुप्त और कल्याणीका सैनिक के साथ पहुँचना, दूसरी ओर से सिकन्दर का आान। युद्ध बन्दकरने के लिए सिकन्दर की आज्ञा।)

चन्द्रगुप्तः युद्ध होगा!

सिकन्दरः कौन, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः हाँ देवपुत्र!

सिकन्दरः किससे युद्ध! मुमूर्ष घायल पर्वतेश्वर - वीर पर्वतेश्वरसे! कदापि नहीं। आज मुझे जय-पराजय का विचार नहीं है। मैंने एकअलौकिक वीरता का स्वर्गीय दृश्य देखा है। होमर की कविता में पढ़ीहुई जिस कल्पना से मेरा हृदय भरा है, उसे यहाँ प्रत्यक्ष देखा! भारतीयवीर पर्वतेश्वर! अब मैं तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करूँ!

पर्वतेश्वरः (रक्त पोंछते हुए) जैसा एक नरपति अन्य नरपति केसाथ करता है, सिकन्दर!

सिकन्दरः मैं तुमसे मैत्री करना चाहता हूँ। विस्मय विमुग्ध होकरतुम्हारी सराहना किये बिना मैं नहीं रह सकता - धन्य! आर्य वीर!

पर्वतेश्वरः मैं तुमसे युद्ध न करके मैत्री भी कर सकता हूँ।

चन्द्रगुप्त - पंचनंद-नरेश! आप क्या कर रहे हैं! समस्त मागसेना आपकी प्रतीक्षा में है, युद्ध होने दीजिए।

कल्याणीः इन थोड़े-से अर्धजीव यवनों को विचलित करने केलिए पर्याप्त मागध सेना है। महाराज! आज्ञा दीजिए।

सिकन्दरः कदापि नहीं।

कल्याणीः (शिरस्त्राण फेंककर) जाती हूँ क्षत्रिय पर्वतेश्वर। तुम्हारेपतन में रक्षा न कर सकी, बड़ी निराशा हुई।

पर्वतेश्वरः तुम कौन हो?

चन्द्रगुप्तः मागध राजकुमारी कल्याणी देवी।

पर्वतेश्वरः ओह पराजय! निकृष्ट पराजय!

(चन्द्रगुप्त औ कल्याणी का प्रस्थान। सिकन्दर आश्चर्य से देखताहै। अलका घायल सिंहरण को उठाना चाहती है कि आम्भीक आकर दोनोंको बन्दी करता है।)

पर्वतेश्वरः यह क्या?

आम्भीकः इनको अभी बन्दी बना रखना आवश्यक है।

पर्वतेश्वरः तो ये लोग मेरे यहाँ रहेंगे।

सिकन्दरः पंचनंद-नरेश की जैसी इच्छा हो।