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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 17

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(मालवों के स्कन्धावार में युद्ध - परिषद्‌)

देवबलः परिषद्‌ के सम्मुख मैं यह विज्ञप्ति उपस्थित करता हूँकि यवन-युद्ध के लिए जो सन्धि मालव-क्षुद्रकों से हुई है, उसे सफलबनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों गणों की एक सम्मिलित सेना बनायीजाय और उसके सेनापति क्षुद्रकों के मनोनीत सेनापति मागध चन्द्रगुप्त हीहों। उन्हीं की आज्ञा से सैन्य संचालन हो।

(सिंहरण का प्रवेश - परिषद्‌ में हर्ष)

सबः कुमार सिंहरण की जय!

नागदपः मगध एक साम्राज्य है। लिच्छिवि और वृजि गणतंत्र कोकुचलने वाले मगध का निवासी हमारी सेना का संचालन करे, यह अन्यायहै। मैं इसका विरोध करता हूँ।

सिंहरणः मैं मालव-सेना का बलाधिकृत हूँ। मुझे सेना काअधिकार परिषद्‌ ने प्रदान किया है और साथ ही मैं सन्धि-विग्रहिक काकार्य भी करता हूँ। पंचनंद की परस्थिति मैं स्वयं देख आया हूँ औरमागध चन्द्रगुप्त को भी भलीभाँति जानता हूँ। मैं चन्द्रगुप्त के आदेशानुसारयुद्ध चलाने के लिए सहमत हूँ। और भी मेरी एक प्रार्थना है - उपरापथके विशिष्ट राजनीतिज्ञ आर्य चाणक्य के गम्भीर राजनैतिक विचार सुनने परआप लोग अपना कर्तव्य निश्चित करें।

गणमुख्यः आर्य चाणक्य व्यासपीठ पर आवें।

चाणक्यः (व्यासपीठ से) उपरापथ के प्रमुख गणतंत्र मालव राष्ट्रकी परिषद्‌ का मैं अनुगृहीत हूँ कि ऐसे गम्भीर अवसर पर मुझे कुछकहने के लिए उसने आमंत्रित किया। गणतंत्र और एकराज्य का प्रश्न् यहाँनहीं, क्योंकि लिच्छिवि और वृजियों का अपकार करने वाला मगध काराज्य, शीघ्र ही गणतंत्र में परिवर्तित होने वाला है। युद्ध-काल में एकनायक की आज्ञा माननी पड़ती है। वहाँ शलाका ग्रहण करके शस्त्र प्रहारकरना असम्भव है। अतएव सेना का एक नायक तो होना ही चाहिए। औरयहाँ की परिस्थिति में चन्द्रगुप्त से बढ़कर इस कार्य के लिए दूसरा व्यक्तिन होगा। वितस्ता-प्रदेश के अधीश्वर पर्वतेश्वर के यवनों से सन्धि करनेपर भी चन्द्रगुप्त ही के उद्योग का यह फल है कि पर्वतेश्वर की सेनायवन-सहायता को न आवेगी। उसी के प्रयत्न से यवन-सेना में विद्रोह भीहो गया है, जिससे उनका आगे बढ़ना असम्भव हो गया है। परन्तु सिकन्दरकी कूटनीति प्रत्यावर्तन में भी विजय चाहती है। वह अपनी विद्रोही सेनाको स्थल-मार्ग से लौटने की आज्ञा देकर नौबल के द्वारा स्वयं सिन्ध-संगम तक के प्रदेश विजय करना चाहता है। उसमें मालवों का नाशनिश्चित है। अतएव, सेनापतित्व के लिए आप लोग चन्द्रगुप्त को वरणकरें तो, क्षुद्रकों का सहयोग भी आप लोगों को मिलेगा। चन्द्रगुप्त कोही उन लोगों ने भी सेनापति बनाया है।

नागदपः ऐसा नहीं हो सकता!

चाणक्यः प्रबल प्रतिरोध करने के लिए दोनों सैन्यों में एकाधिपत्यहोना आवश्यक है। साथ ही क्षुद्रकों की सन्धि की मर्यादा भी रखनीचाहिए। प्रश्न शासन का नहीं, युद्ध का है। युद्ध में सम्मिलित होने वालेवीरों को एकनिष्ठ होना ही लाभदायक है। फिर तो मालव और क्षुद्रक दोनोंही स्वतंत्र संघ हैं और रहेंगे। सम्भवतः इसमें प्राच्यों का एक गणराष्ट्रआगामी दिनों में और भी आ मिलेगा।

नागदपः समझ गया, चन्द्रगुप्त को ही सम्मिलित सेना का सेनापतिबनाना श्रेयस्कर होगा।

सिंहरणः अन्न, पान और भैषज्य सेवा करने वाली स्त्रियों नेमालविका को अपना प्रधान बनाने की प्रार्थना की है।

गणमुख्यः यह उन लोगों की इच्छा पर है। अस्तु, महाबलाधिकृतपद के लिए चन्द्रगुप्त को वरण करने की आज्ञा परिषद्‌ देती है।

(समवेत जयघोष)