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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 28

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(नन्द के राज-मन्दिर का एक प्रकोष्ठ)

नन्दः आज क्यों मेरा मन अनायास ही शंकित हो रहा है। कुछनहीं... होगा कुछ।

(सेनापति मौर्य की स्त्री को साथ लिए हुए वररुचि का प्रवेश)

वररुचिः जय हो देव, यह सेनापति मौर्य की स्त्री है।

नन्दः क्या कहना चाहती है?

स्त्रीः राजा प्रजा का पिता है। वही उसके अपराधओं को क्षमाकरके सुधार सकता है। चन्द्रगुप्त बालक है, सम्राट्‌! उशके अपराध मगधसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तब भी वह निर्वासित है। परन्तु सेनापति परक्या अभियोग है? मैं असहाय मगध की प्रजा श्री-चरणों में निवेदन करतीहूँ - मेरा पति छोड़ दिया जाय। पति और पुत्र दोनों से न वञ्चित कीजाऊँ।

नन्दः रमणी! राजदण्ड पति और पुत्र के मोहजाल से सर्वथास्वतंत्र है। षड्‌यन्त्रकारियों के लिए बहुत निष्ठुर है, निर्मम है! कठोर है!तुम लोग आग की ज्वाला से खेलने का फल भोगो। नन्द इन आँसू-भरी आँखों तथा अञ्चल पसार कर भिक्षा के अभिनय में नहीं भूलवायाजा सकता।

स्त्रीः ठीक है महाराज! मैं ही भ्रम में थी। सेनापति मौर्य काही तो यह अपराध है। जब कुसुमपुर की समस्त प्रजा विरुद्ध थी, जबजारज-पुत्र के रक्त-रँगे हाथों से सम्राट्‌ महापद्म की लीला शेष हुई थी,तभी सेनापति को चेतना चाहिए था। कृतघ्न के साथ उपकार किया है,यह उसे नहीं मालूम था।

नन्दः चुप दुष्ट। (उसका केश पकड़ कर खींचना चाहता है,वररुचि बीच में आकर रोकता है।)

वररुचिः महाराज, सावधान! यह अबला है, स्त्री है।

नन्दः यह मैं जानता हूँ कात्यायन! हटो।

वररुचिः आप जानते हैं, पर इस समय आपको विस्मृत हो गयाहै।

नन्दः तो क्या मैं तुम्हें भी इसी कुचक्र में लिप्त समझूँ?

वररुचिः यह महाराज की इच्छा पर निर्भर है, और किसी कादास न रहना मेरी इच्छा पर, मैं शस्त्र समर्पण करता हूँ।

नन्दः (वररुचि का छुरा उठाकर) विद्रोह! ब्राह्मण हो न तुम, मैंनेअपने को स्वयं धोखा दिया। जाओ। परन्तु ठहरो। प्रतिहार!

(प्रतिहार सामने आता है।)

नन्दः इसे बन्दी करो। और इस स्त्री के साथ मौर्य के समीपपहुँचा दो।

(प्रहरी दोनों को बन्दी करते हैं।)

वररुचिः नन्द! तुमहारे पाप का घड़ा फूटना ही चाहता है।अत्याचार की चिनगारी साम्राज्य का हरा-भरा कानन दग्ध कर देगी। न्यायका गला घोंट कर तुम उस भीषण पुकार को नहीं दबा सकोगे जो तुमतक पहुँचती है अवश्य, किनतु चाटुकारों द्वारा और ही ढंग से।

नन्दः बस ले जाओ। (सब का प्रस्थान)(एक प्रतिहार का प्रवेश) क्या है?

प्रतिहारः जय हो देव! एक संदिग्ध स्त्री राज-मन्दिर में घूमतीहुई पकड़ी गयी है। उसके पास अमात्य राक्षस की मुद्रा और एक पत्रमिला है।

नन्दः अभी ले आओ।

(प्रतिहार जाकर मालविका को साथ लाता है।)

नन्दः तुम कौन हो?

मालविकाः मैं एक स्त्री हूँ, महाराज।

नन्दः पर तुम यहां किसके पास आयी हो?

मालविकाः मैं... मैं, मुझे किसी ने शतुद्र-तट से भेजा है। मैंपथ में बीमार हो गयी थी, विलम्ब हुआ?

नन्दः कैसा विलम्ब?

मालिवकाः इस पत्र को सुवासिनी नाम की स्त्री के पास पहुँचाने में।

नन्दः तो किसने तुमको भेजा है?

मालविकाः मैं नाम तो नहीं जानती।

नन्दः हूँ! (प्रतिहार से) पत्र कहाँ है?

(प्रतिहार पत्र और मुद्रा देता है। नन्द उसे पढ़ता है।)

नन्दः तुमको बतलाना पड़ेगा, किसने तुमको यह पत्र दिया है।बोलो, शीघ्र बोलो, राक्षस ने भेजा है?

मालविकाः राक्षस नहीं, वह मनुष्य था।

नन्दः दुष्टे, शीघ्र बता। वह राक्षस ही रहा होगा।

मालविकाः जैसा आप समझ लें।

नन्दः (क्रोध से) प्रतिहार! इसे भी ले जाओ उन विद्रोहियों कीमाँद में! ठहरो, पहले जाकर शीघ्र सुवासिनी और राक्षस को, चाहे जिसअवस्था में हों, ले आओ!

(नन्द चिन्तित भाव से दूसर ओर टहलता है, मालविका बन्दीहोती है।)

नन्दः आज सबको एक साथ ही सूली पर चढ़ा दूँगा। नहीं...(पैर पटक कर)... हाथियों के पैरों के तले कुचलवाऊँगा। यह कथासमाप्त होनी चाहिए। नन्द नीच-जन्मा है न! यह विद्रोह उसी के लिएकिया जा रहा है, तो फिर उसे भी दिखा देना है कि मैं क्या हूँ, यहनाम सुनकर लोग काँप उठें। प्रेम न सही, भय का की सम्मान हो।

(पट-परिवर्तन)