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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 37

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(कपिशा में एलेक्जेंड्रिया का राज-मन्दिर)

(कार्नेलिया और उसकी सखी का प्रवेश)

कार्नेलियाः बहुत दिन हुए देखा था! वही भारतवर्ष! वही निर्मलज्योति का देश, पवित्र भूमि, अब हत्या और लूट से बीभत्य बनायी जायगी- ग्रीक-सैनिक इस शस्यश्यामला पृथ्वी को रक्त-रंजित बनावेंगे! पिताअपने साम्राज्य से सन्तुष्ट नहीं, आशा उन्हें दौड़ावेगी। पिशाची की छलनामें पड़ कर लाखों प्राणियों का नाश होगा। और, सुना है यह युद्ध होगाचन्द्रगुप्त से!

सखीः सम्राट तो आज स्कन्धावार में जानेवाले हैं!

(राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः आयुष्मती! मैं आ गया।

कार्नेलियाः नमस्कार। तुम्हारे देश में तो सुना है कि ब्राह्मण जातिबड़ी तपस्वी और त्यागी है।

राक्षसः हाँ कल्याणी, वह मेरे पूर्वजों का गौरव है, किन्तु हमलोग तो बौद्ध हैं।

कार्नेलियाः और तुम उसके ध्वंसावशेष हो। मेरे यहाँ ऐसे हीलोगों को देशद्रोही कहते हैं। तुम्हारे यहाँ इसे क्या कहते हैं?

राक्षसः राजकुमारी! मैं कृतघ्न नहीं, मेरे देश में कृतज्ञता पुरुषत्वका चिह्न है। जिसके अन्न से जीवन-निर्वाह होता है उसका कल्याण...

कार्नेलियाः कृतज्ञता पाश है, मनुष्य की दुर्बलताओं के फंदे उसेऔर भी दृढ़ करते हैं। परन्तु जिस देश ने तुम्हारा पालन-पोषण करकेपूर्व उपकारों का बोझ तुम्हारे ऊपर ड़ाला है, उसे विस्मृत करके क्या तुमकृतघ्न नहीं हो रहे हो? सुकरात का तर्क तुमने पढ़ा है?

राक्षसः तर्क और राजनीति में भेद है, मैं प्रतिशोध चाहता हूँ।राजकुमारी! कर्णिक ने कहा है -

कार्नेलियाः कि सर्वनाश कर दो! यदि ऐसा है, तो मैं तुम्हारीराजनीति नहीं पढ़ना चाहती।

राक्षसः पाठ थोड़ा अवशिष्ट है। उसे भी समाप्त कर लीजिए,आपके पिता की आज्ञा है।

कार्नेलियाः मैं तुम्हारे उशना और कर्णिक से ऊब गयी हूँ, जाओ!

(राक्षस का प्रस्थान)

कार्नेलियाः एलिस! इन दिनों जो ब्राह्मण मुझे रामायण पढ़ाता था,वह कहाँ गया? उसने व्याकरण पर अपनी नयी टिप्पणी प्रस्तुत की है।वह कितना सरल और विद्वान है।

एलिसः वह चला गया राजकुमारी।

कार्नेलियाः बड़ा ही निर्लोभी सच्चा ब्राह्मण था। (सिल्यूकस काप्रवेश) - अरे पिताजी!

सिल्यूकसः हाँ बेटी! अब तुमने अध्ययन बन्द कर दिया, ऐसाक्यों? अभी वह राक्षस मुझसे कह रहा था।

कार्नेलियाः पिताजी! उसके देश ने उसका नाम कुछ समझ करही रक्खा है - राक्षस! मैं उससे डरती हूँ।

सिल्यूकसः बड़ा विद्वान है बेटी! मैं उसे भारतीय प्रदेश का क्षत्रपबनाऊँगा।

कार्नेलियाः पिताजी! वह पाप की मलिन छाया है। उसकी भँवोंमें कितना अन्धकार है, आप देखते नहीं। उससे अलग रहिए। विश्रामलीजिए। विजयों की प्रवंचना में अपने को न हारिए। महाप्वाकांक्षा केदाँव पर मनुष्यता सदैव हारी है। डिमास्थनीज ने...

सिल्यूकसः मुझे दार्शनिकों से तो विरक्ति हो गयी है। क्या हीअच्छा होता कि ग्रीस में दार्शनिक न उत्पन्न हो कर, केवल योद्धा ही होता!

कार्नेलियाः सो तो होता ही है। मेरे पिता किससे कम वीर हैं।मेरे विजेता पिता! मैं भूल करती हूँ, क्षमा कीजिए।

सिल्यूकसः यही तो मेरी बेटी! ग्रीक रक्त वीरता के परमाणु सेसंगठित है। तुम चलोगी युद्ध देखने? सिन्धु-तट के स्कन्धावार में रहना।

कार्नेलियाः चलूँगी।

सिल्यूकसः अच्छा तो प्रस्तुत रहना। आम्भीक - तक्षशिला काराजा - इस युद्ध में तटस्थ रहेगा, आज उसका पत्र आया है। और राक्षसकहता था कि चाणक्य - चन्द्रगुप्त का मंत्री - उससे क्रुद्ध हो कर कहींचला गया है। पंचनद में चन्द्रगुप्त का कोई सहायक नहीं! बेटी, सिकन्दरसे बड़ा साम्राज्य - उससे बड़ी विजय! कितना उज्ज्वल भविष्य है।

कार्नेलियाः हाँ पिताजी।

सिल्यूकसः हाँ पिताजी। - उल्लास की रेखा भी नहीं - इतनीउदासी! तू पढ़ना छोड़ दे। मैं कहता हूँ कि तू दार्शनिक होती जा रहीहै - ग्रीक-रत्न!

कार्नेलियाः वही तो कह रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने केलिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए।

सिल्यूकसः तब ठीक है, मैं ही भूल कर रहा हूँ।

(प्रस्थान)