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ईश्वर भक्त

ईश्वर भक्त

शहर के किनारे बनी एक बस्ती में गिने चुने मकान बने हुये थे। साथ ही एक छोटा एक छोटा मन्दिर भी बना हुआ था। बस्ती का कोई भी आदमी इस मन्दिर में तभी पूजा करता था जिस दिन कोई त्यौहार या कोई देवी देवता का दिन होता था। अन्य दिनों मन्दिर की हालत खस्ता ही रहती थी।

पूरा मन्दिर गंदगी से भरा हुआ पडा रहता था। चुंकि मन्दिर के पास किसी का घर नही था तो मन्दिर में चोरी भी जमकर होती थी। मन्दिर के नल के हत्थे से लेकर घण्टे और दरवाजे के ताले तक की चोरी हो चुकी थी। कुछ दिनों बाद एक बुढिया इस बस्ती में आकर रहने लगी।

जब वो आयी थी तब दो दो दिन स्नान नही करती थी, न ही कोई पूजा पाठ। लेकिन कुछ ही दिनों में एसी हालत हो गयी कि बुढिया सुबह दिन निकलने से पहले उठकर नहा लेती और जब तक लोग सोकर उठते तब तक वो मन्दिर में पूजा कर चुकी होती थी।

हां ये बात अलग थी कि बुढिया कभी नहाई धोई सी नही लगती थी। मुंह पर चन्दन और गले में काले रंग की मालाओं से मैली सी ही लगती थी। बुढिया पूजा तो रोज करती थी लेकिन उसका मन अब भी संतुष्ट नही था। कारण था मन्दिर का घण्टा न होना।

सोचती थी कि जबतक मन्दिर में पूजा कर घण्टा न बजाओ तब तक भगवान पूजा को स्वीकार नही करते। भला वो पूजा ही किस काम की जिसमें मन्दिर का घण्टा न बजे। बुढिया ने बस्ती में रह रहे दो चार लोगों से इस बात की शिकायत की, जिसमें एक सज्जन ने मन्दिर का घण्टा लाकर दे दिया। बुढिया ने मन्दिर में घण्टा तो लटका दिया लेकिन उस घण्टे की चोरी होने का डर सताने लगा।

जब दूसरे दिन बुढिया ने उन सज्जन से इस बात की शिकायत की तो उन्होंने घर से एक ताला भी दे दिया। मोहल्ले की एक औरत पूजा की थाली और दीपक भेंट कर गयी। बस्ती में आये नये लोग उन्होंने नल के हत्थे का इंतजाम कर दिया।

मंदिर में पूजा का पूरा इंतजाम देख बुढिया फूली न समाई। उसको लगता था कि उसकी पूजा का फल है। शायद भगवान न उसकी पूजा से खुश हो इतना सब दे दिया। अब बुढिया पूजा करती थी और घण्टों तक घंटा बजाती थी। सोते हुये लोग मजबूरी में उठकर बैठ जाते थे।

उन्हीं दिनों बस्ती में एक किरायेदार आकर रहने लगा। साथ में उसकी पत्नी, भाई और भाई की वीवी भी साथ रहने लगे। उसका नाम बादल था। बादल, उसकी वीवी और उसके भाई भाभी में जमकर कलह होती थी। रात में झगडा शुरू हुआ तो आधी रात तक भी शांत न होता था।

उन्हीं दिनों बादल के घर एक महात्मा आये। उन्होंने बादल को काई मंत्र दिया और पूजा करने की एक विधि बता दी। जिससे घर की कलह खत्म हो सके। बादल ने उसी दिन से मंत्र और पूजा पाठ शुरू कर दिया। इधर बुढिया ने एक और पुण्य कर्म शुरू कर दिया। वो अब पूरी बस्ती में घूम घूम कर चींटियों को दाने और आटा खिलाने लगी।

बस्ती में चींटियों का मजमा लगना शुरू हो गया। साथ ही पूरी सडक आटे और चीनी के रंग में रंगी दिखायी देती थी। बादल रात के बारह बजे एक बाल्टी पानी और आधा किलो चीनी डाल मन्दिर की मूर्ति पर चढा देता। चीनी पानी में घुल ही नही पाती थी। बाल्टी का पानी तो मुर्तियों पर वह जाता था लेकिन चीनी मूर्तियों पर चिपकी रह जाती थी।

हालत ये हो गयी कि बुढिया के आटे और चीनी की चींटियां सडकों पर घूमतीं, जबकि बादल के चढाये बाल्टी भर जल से निकली चीनी की चींटियां मन्दिर की मूर्तियों पर घूमतीं थीं। सुबह जब बुढिया मन्दिर में पूजा करने आती तो मन्दिर की मूर्तियां चींटियों से लदी हुई होतीं थीं।

बुढिया चाहकर भी मन्दिर में अपना लोटा न चढा पाती थी। मन्दिर में लोटा न चढा पाना और घंटा न बजा पाना बुढिया को सनकी बना गया। वो मूर्ति पर चिपकी चींटियों को साफ भी नही कर सकती थी। जो औरत दिन भर घूम घूम कर बस्ती भर की चींटियों को आटा और चीनी खिलाती थी, वो मन्दिर की चींटियों पर पानी डाल उनकी जान क्यो लेती।

हांलांकि बुढिया जितनी जगह सडक पर आटा डालकर चींटियों को चुंगाती थी उनमें से अधिकतर जगह एसी थी जहां चींटियां दिनभर किसी न किसी के पैर से कुचल ही जातीं थीं। लेकिन बुढिया को इससे क्या मतलब? बात एकदिन की हुई, दो दिन की हुई। लेकिन जब रोज हुई तो बुढिया ने मोहल्ले की औरतो से इस बात की जानकारी की।

सब औरतों ने मना कर दिया कि वे मन्दिर में चीनी मिला पानी नही चढाने जातीं। लेकिन फिर ऐसा कौन था जो चीनी मिलाकर पानी चढा कर आता था। बुढिया ने दिनभर मन्दिर की निगरानी की लेकिन कोई भी जल चढाने न आया।

बुढिया का मन इस बात को सोचकर आश्वस्त हो गया कि चलो आज कोई चीनी वाला पानी चढाने नही आया। कम से कम कल साफ मन्दि में पूजा कर सकेगी। लेकिन जैसे ही रात के बारह बजे, बादल बाल्टीभर पानी और उसमें आधा किलो चीनी मिलाकर मन्दिर में चढा गया। सुबह उठ बुढिया खुशी खुशी मन्दिर लौटा चढाने आयी तो मूर्ति पर चीनी खातीं चींटियां देख जल भुन कर राख हो गयी।

लेकिन जब दिन भर कोई आदमी पूजा करने मन्दिर आया ही नही तो चीनी मिला पानी कौन चढा गया। इस बात को जब बुढिया ने मोहल्ले की औरतों से कहा तो सब के सब दिल में एक ही विचार आया कि जरूर कोई प्रेत आत्मा ऐसा करके जाती होगी।

लेकिन प्रेतआत्मा इतनी चीनी कहां से लाती होगी? महिलाओं में इस बात की भी चर्चा थी। अभी बातें चल ही रहीं थीं कि बादल की वीवी इन औरतों के पास आ पहुंची। जैसे ही उसे इन सब की बातों का पता चला तो खिसियाकर बोली, ‘‘ये कोई प्रेतआत्मा नही मेरा आदमी करके जाता है। कोई कमबख्त बाबा ये उपाय बता कर गया है। बहिन क्या बताऊं एक थैली चीनी दो दिन नही चलती। रोज रात को बारह बजे एक बाल्टी पानी और उसमें आधा किलो चीनी डालकर मन्दिर में चढा जाता है। मैं कितना ही समझाऊं लेकिन मानता ही नही।”

इतना सुन बुढिया गुस्सा हो उठी और बोली, ‘‘देख री बहू तू ठीक से उसको समझा दे। सारा मन्दिर चींटियों से भरकर रख जाता है। भला भगवान पर भी इतनी चीनी कोई चढाता है।।” बादल की वीवी बुढिया को समझाती हुई बोली, ‘‘अम्मा तुम खुद ही बात कर लेना। मैं करूंगी तो डंडा बजेगा।”

बुढिया ने सर हिलाकर लम्बी सांस ले ली। मोहल्ले की औरतें समझ गयीं कि बुढिया की बादल से लडाई होनी तय है। बुढिया ने दिन में तो बादल से कुछ न कहा लेकिन रात को जागकर देखती रही कि जैसे ही बादल बाल्टी भर चीनी का पानी लेकर आये वैसे ही उसे सुधार दे।

रात के बारह बजते ही बादल बाल्टी ले मन्दिर आ पंहुचा लेकिन जैसे जब तक बाल्टी को भगवान की मूर्ति पर चढाता उससे पहले ही बुढिया आ पहुंची। उसने बादल को जल चढाने से रोक दिया। रात के बारह बज रहे थे, सारा मोहल्ला सो चुका था लेकिन इन दोनों ईश्वर भक्तों में मन्दिर के अन्दर तकरार होनी शुरू हो चुकी थी।

दोनों इतनी जोर जोर से एकदूसरे पर चीख रहे थे कि मोहल्ले के आधे लोग जाग जाग कर घरों से बाहर निकल आये। बुढिया कहती थी, ‘‘तू बिना चीनी का पानी लेकर आ तभी तू मन्दिर मे चढा पायेगा। नही तो मैं तुझे जल न चढाने दूंगी।”

बादल इस बात पर तैयार न था। वो कहता था, ‘‘अम्मा मेरे घर में कलह रहती है। अगर मैने विना चीनी का पानी चढा दिया तो मेरी पूजा विधि बेकार हो जायेगी। जिससे भगवान नाराज होकर मेरा और ज्यादा नुकसान करेंगे। इसलिये तुम मुझे ऐसा करने से नही रोक सकतीं।”

दोनों की लडायी मोहल्ले के समझदार लोगों ने जैसे तैसे शांत करायी। लोगों ने न तो बुढिया की बात को सही ठहराया और न ही बादल की बात को। नतीजा ये हुआ कि बादल यह कहते हुये बिना जल चढाये मन्दिर से बापस चला गया, ‘‘भगवान को मेरी जरूरत होगी तो खुद आकर मुझसे जल मांगेगे। मैं ऐसे मन्दिर में जल नही चढा सकता जिसमें ये खूसट बुढिया पूजा करती हो।”

लोगों ने बादल को रोकना चाहा लेकिन वो नही रूका। बादल के जाने के बाद मोहल्ले के लोग बुढिया की गलतियों को गिनाने लगे। बुढिया का माथा ठनक गया, बोली, ‘‘मैं आज से इस मन्दिर की साफ सफाई नही करूंगी और न ही पूजा करने आऊंगी। सडक की चींटियां चुगाने से मुझे सब कुछ मिल सकता है तो पूजा पाठ के चक्कर में क्यों पडूं?”

इतना कह बुढिया अपने घर चली गयी। सब लोग राहत की लम्बी सांस ले अपने घरों में जा सोये।

मन्दिर में बैठे भगवान भी अपने भक्तों की लडायी देख हंसते होगे। पता नही भक्तों का ये प्रेम था या एकधिकार की भावना। या फिर सिर्फ दिखावा कि एकदूसरे को दूसरे का मन्दिर में पूजा करना अखरता था। हो सकता है कि भगवान ने ही भक्तों की आखें खोल दी हों कि जिसको तुम मन्दिर में खोजते हो वो तो तुम्हारे दिल में, सामने खडे इंसान में है। काश कि बुढिया और बादल इस बात को समझ पाते।

(समाप्त)