निलंबन
राजकीय अस्पताल के चिकित्सक-कक्ष में सात-आठ चिकित्सक बैठकर गप्पशप कर रहे थे । बातों ही बातों में उनके बीच बहस छिड़ गई कि सरकारी अस्पतालों में सेवारत चिकित्सकों की प्राइवेट प्रैक्टिस पर सरकार को प्रतिबंध नहीं लगाना चाहिए । डॉक्टर आलोक का मत था, सरकारी अस्पताल में सेवारत चिकित्सक अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस आरम्भ करने के पश्चात् सरकारी अस्पताल में आने वाले मरीजों का इलाज पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से नहीं कर पाते हैं, इसलिए उन पर प्रतिबंध आवश्यक है । डॉक्टर आलोक का मत सुनते ही वहाँ पर उपस्थित चिकित्सक-समूह ने विरोधस्वरूप उसके ऊपर कटु शब्दों की बौछार कर दी । कुछ मिनटों तक वह मौन होकर उनके विरोध को सहन करता रहा और अपने मत का निष्पक्ष विश्लेषण करता रहा कि क्या वास्तव में उसका मत अनुचित है । एक ओर उसके विश्लेषण का निष्कर्ष समाज कल्याण का समर्थन कर रहा था, तो दूसरी ओर उसको मोहन पाकर विरोधियों का स्वर और अधिक बुलंद होता जा रहा था यह देखकर आलोक का धैर्य छूट गया ओर उसने परिस्थिति से प्रेरित होकर उनके विरुद्ध मोर्चा संभाल लिया । सर्वप्रथम उसने विरोधियों के समक्ष नम्रतापूर्वक अपना पक्ष रखने का प्रयास किया, किंतु वह विफल रहा । तत्पश्चात् उसने एक-एक चिकित्सक को ऊँचे स्वर में खरी-खरी सुनाना आरंभ कर दिया । डॉक्टर आलोक का ऊँचा स्वर सुनकर चिकित्सक-कक्ष में भीड़ एकत्रित होने लगी । धीरे-धीरे यह सूचना अस्पताल के प्रशासन तंत्र तक पहुँच गई और शीघ्र ही आलोक के पास विभागध्यक्ष डॉक्टर हिमांशु मोर्य के समक्ष उपस्थित होने का आदेश आ पहुँचा । आदेश प्राप्त होते ही डॉक्टर आलोक आदेश के पालन हेतु डॉक्टर हिमांशु मोर्य के कक्ष की ओर चल पड़ा । जाते-जाते वह सोच रहा था, "आखिर क्या कारण है कि मैं एक कर्मठ इमानदार और अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान चिकित्सक हूँ, फिर भी मात्र सात माह में सत्तर प्रतिशत वरिष्ठ चिकित्सकों के साथ मेरा वाद-विवाद हो चुका है । अपने स्टाफ के अधिकांश लोगों के साथ आए दिन किसी न किसी विषय पर मेरा विवाद होता ही रहता है !" "शायद मुझमें व्यवहार-कुशलता का अभाव है, जिसके कारण मेरा अपने स्टाफ के साथ ठीक से तालमेल नहीं बैठ पाता है !" उसको अपने अन्दर से मूक वाणी में उत्तर मिला, जिसे वह सहर्ष स्वीकार नहीं कर पा रहा था और मन ही मन अपने प्रश्न का सटीक-सन्तोषप्रद उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा था ।
विचार-मग्नावस्था में आलोक के कदम यंत्रवत आगे बढ़ते जा रहे थे । वह अपने प्रश्न का सन्तोषप्रद उत्तर खोज पाता इससे पहले ही उसके कदम विभागध्यक्ष डॉक्टर हिमांशु मोर्य के कक्ष में प्रवेश कर गए । कक्ष में प्रवेश करते ही डॉक्टर आलोक के कदम ठिठककर रुक गये । उसने देखा, डॉक्टर हिमांशु मोर्य की आँखें क्रोध से लाल हो रही थी । यद्यपि वह आलोक की हे प्रतीक्षा कर रहे थे, तथापि अनुमति माँगे बिना उनके कक्ष में आलोक के प्रवेश ने उनके क्रोध की आग में घी का काम किया । अपनी शक्ति का उपयोग करते हुए उन्होंने चेतावनी देते हुए आवेशयुक्त लहजे में कहा -
"डॉक्टर आलोक ! बहुत हो चुका ! जिस दिन से आप आए हैं, उसी दिन से हर नियम का उल्लंघन कर रहे हैं ! आपके अनुचित कार्य-व्यवहार से अस्पताल की शासन व्यवस्था चौपट होती है ! मैं आपको पहले भी कई बार कह चुका हूँ,! आपने अपने कार्य-व्यवहार में सुधार नहीं किया, तो मुझे तुम्हारे विरुद्ध एक्शन लेना पड़ेगा !"
"सर, आपने मुझे दो महीने का समय दिया है ! मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ....!"
"नो-नो, डॉ आलोक ! दो नहीं, अब आपके पास केवल एक माह का समय है ! ऑनली वन मंथ... !" डॉक्टर हिमांशु मौर्य आलोक का वाक्य बीच में ही काटते हुए पुनः चेतावनी दी ।
"ओके सर ! मैं प्रयास करूँगा, आपको मेरे विषय में किसी प्रकार की कोई शिकायत न मिले !"
"अब आप जा सकते हैं ! ध्यान रहे, महीने का अंतिम दिन इस अस्पताल में आपका अंतिम दिन हो सकता है !" आलोक को अपने कार्य व्यवहारों को सुधारने के लिए समय-सीमा का स्मरण कराते हुए डॉक्टर हिमांशु मौर्य ने एक बार पुनः चेतावनी दी । डॉक्टर आलोक ने कक्ष से निकलते हुए मन ही मन संकल्प किया, "सर आपने मुझे एक महीना दिया है, लेकिन आपको अगले पन्द्रह दिन में ही मेरे व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन दिखने लगेगा ! आज के बाद मैं हर विवाद को भूल कर अपना पूरा ध्यान अपने कर्तव्य पर केंद्रित करूँगा !"
विभागध्यक्ष-कक्ष से निकलकर आलोक कुछ ही कदम चला था, एक अधेड़ स्त्री, जिसके हृदय का वात्सल्य आँखों से अश्रु-धारा के रूप में बह रहा था, सात-आठ वर्षीय कृशकाय बच्चे को अपने सीने से चिपकाए, विनती करते हुए आलोक का मार्ग रोककर उसके समक्ष खड़ी हो गई और एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली -
"डॉक्टर साहब, पर्चा देखकर बता दीजिए, बच्चे को ये दवाइयाँ कैसे खिलानी हैं ?"
अपने कर्तव्य के लिए समर्पित डॉक्टर आलोक ने लिफाफा हाथ में लेकर उसमे रखी दवाइयाँ बाहर निकाली और अधेड़ स्त्री से पूछा -
"इस पर्चे में आठ दिन की दवाइयाँ लिखी गयी हैं, आप केवल दो दिन की ही दवाईयाँ क्यों लाई हो ?"
"डॉक्टर साहब, इतने ही पैसे थे मेरे पास !"
"बीच में दवाइयाँ बंद करने से इलाज का कोई लाभ नहीं होगा, उल्टा नुकसान होने की संभावना बढ़ जाती है । स्त्री चुप खड़ी रही । कितने पैसे की आई है यह दवाइयाँ ?" आलोक ने स्त्री से पूछा ।
"आठ सौ रुपये की आयी हैं डॉक्टर सासब !"
"आपके पति क्या काम करते हैं ?" स्त्री की आर्थिक दशा का अनुमान लगाने के उद्देश्य से आलोक ने पूछा ।
"पति परलोक सिधार गए हैं, घरों में झाड़ू–बर्तन करके बच्चे का और अपना गुजारा करती हूँ !"
"बच्चे की कुछ जाँच कराई गयी होंगी, उनकी रिपोर्ट्स हैं आपके पास ?" स्त्री ने टैस्ट-रिपोर्ट्स का पुलिंदा आलोक की ओर बढ़ा दिया । रिपोर्ट्स देखकर आलोक ने कुछ सोचकर कहा - "हूँ-ऊँ-ऊँ...! ऐसा करता हूँ, मैं आपके बच्चे के लिए सस्ती जेनेरिक दवाइयाँ लिख देता हूँ ! जितने पैसो में यह दवाइयाँ दो दिन के लिए आयी हैं, उतने ही पैसों में जेनरिक दवाइयाँ पूरे सप्ताह-भर के लिए आ जाएँगी !"
"डॉक्टर साहब, सस्ती दवाइयाँ खाकर मेरा बच्चा ठीक हो सकता है !"
"हाँ, बिल्कुल, जो काम यह महँगी दवाइयाँ करेंगी, वही काम सस्ती जेनेरिक दवाइयाँ भी करेंगी !"
"तो फिर लिख दीजिए डॉक्टर साहब, आपकी बड़ी कृपा होगी ! महँगाई के इस जमाने में मुझ गरीब के लिए पेट का टुकड़ा जुटाना भारी है ! डॉक्टर साहब, आप मेरे बच्चे को ठीक कर दो, महँगी-महँगी जाँच और दवाइयों की कमी में मेरा बच्चा मर जाएगा !"
"घबराओ नहीं ! कुछ नहीं होगा आपके बच्चे को !" सांत्वना देते हुए आलोक ने अपनी जेब से पैन और छोटी-सी डायरी निकालकर उसमें से एक पर्चा निकाला और उस पर दवाइयाँ लिखकर स्त्री की ओर बढ़ाते हुए कहा -
"इन दवाइयों को ले आओ और मुझे बता दो, मैं समझा दूँगा, कब कौन-सी दवाई लेनी है !"
आलोक के हाथ से दवाई लिखा हुआ पर्चा लेकर स्त्री बच्चे को सीने से लगाये हुए चली गयी । उस की दयनीय दशा से द्रवीभूत आलोक तब तक उसको जाते हुए देखता-सोचता रहा, जब तक कि वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी । कुछ क्षणों तक वहाँ खड़े रहने के पश्चात् आलोक चिकित्सक-कक्ष में आकर बैठ गया और अपनी विषम परिस्थिति पर विचार करने लगा । विचार करते-करते उसको यह स्मरण ही नहीं रहा कि उसने स्त्री को दवाई लाकर दिखाने के लिए कहा था । यद्यपि आलोक को जब उस स्त्री का स्मरण हुआ तब तक पर्याप्त देर हो चुकी थी, फिर भी वह यथाशीघ्र कमरे से बाहर आकर स्त्री को खोजने लगा । आलोक को खोजते-खोजते निराश होकर स्त्री ने एक अन्य डॉक्टर वैभव को दवाइयाँ दिखा दीं । यह अन्य डॉक्टर वही था, जिसने स्त्री के बच्चे के लिए महँगी दवाइयाँ लिखी थी । स्त्री के पास जेनेरिक दवाइयाँ देखते ही वैभव ने झल्लाकर सारी दवाइयों को फर्श पर फेंक दिया और उस स्त्री पर जोर से चीखा -
"किससे लिखायी हैं ये बेकार-घटिया दवाइयाँ ? तुम्हारे बच्चे का इलाज मैं कर रहा हूँ या वह ? जाओ, उसी से इलाज कराना अपने बच्चे का ! तुम्हारे बच्चे को ठीक करने की अब मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है !"
स्त्री अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए डॉक्टर के सामने गिड़गिड़ाती हुई प्रार्थना कर रही थी और वह डॉक्टर बार-बार उसका तिरस्कार करके अपनी प्रभुता का डंका बजा रहा था । उसी समय डॉक्टर आलोक वहाँ पहुँच गया । उसने फर्श पर बिखरी पड़ी दवाइयों को उठाकर स्त्री के हाथों में थमाते हुए डॉक्टर वैभव से कहा -
"डॉक्टर वैभव ! यह मेडिसिन आपने फर्श पर क्यों फेंकीं हैं ? क्या कमी है इन दवाइयों में ? बस यही न ? कि इनसे तुम्हारा कमिशन नहीं मिलेगा !" आलोक के अंतिम वाक्य ने वैभव के क्रोध की आग में घी का काम किया -
"तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे मरीज के लिए मेरे द्वारा लिखी दवाइयों को वापस कराके जेनेरिक दवाइयांँ मँगाने की ! मेरे मरीज के विषय में कुछ भी निर्णय लेने का अधिकार तुम्हें किसने दिया ? डॉक्टर आलोक ! तुम्हें अपनी इस गलती की सजा भुगतना पड़ेगा !" धमकी देकर देकर डॉक्टर वैभव पैर पटकते हुए उसी समय बाहर चला गया । उस डॉक्टर के जाने के पश्चात् आलोक ने बच्चे को दवाई देने के विषय में स्त्री को समझाते हुए कहा -
"घबराओ नहीं ! बच्चे को कोई गंभीर बीमारी नहीं है । जो दवाइयाँ मैंने लिखी हैं, इनसे बच्चा बिल्कुल ठीक हो जाएगा । एक सप्ताह पश्चात् आकर मुझे बताना बच्चे की हालत में कितना सुधार हैं ? महँगी दवाइयों से इन डॉक्टर्स लोगों को कमीशन मिलता है, इसलिए इन्हें गुस्सा आ रहा था । आप निश्चिंत होकर घर जाओ !"
स्त्री के जाने के पश्चात् आलोक ने चैन की एक लंबी गहरी साँस ली । एक मनुष्य के रूप में असहाय स्त्री और उसके बच्चे की सहायता करके उसकी आत्मा संतुष्ट थी और एक डॉक्टर के रूप में पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य को पूर्ण करके उसे अकथनीय सुख की अनुभूति हो रही थी । अब वह बहुत प्रसन्न था । इस अस्पताल में नियुक्ति पाने के दिन से आज तक जिस अनुपात में वह इमानदारी के गड्ढे में गिरता जा रहा था, उसी अनुपात में उसके विरोधियों की संख्या में वृद्धि हो रही थी और उसी अनुपात में उसके प्रति डॉक्टर मौर्य के असंतोष का ग्राफ ऊपर उठ रहा था । ऐसी विषम परिस्थिति के फलस्वरूप उसकी प्रसन्नता और आत्मसंतुष्टि गिनती के कुछ क्षणों से अधिक नहीं टिक सकी । उस स्त्री के जाते ही डॉक्टर आलोक डॉक्टर मोर्य के समक्ष उपस्थित होने का आदेश मिल गया । यह न जानते हुए भी कि विभागाध्यक्ष ने उसको क्यों बुलाया है ? यह सोचकर कि स्त्री की सहायता करके उसने बहुत अच्छा काम किया है, वह पर्याप्त आत्मविश्वास और गर्व के साथ विभागाध्यक्ष-कक्ष की ओर चल दिया । आलोक विभागाध्यक्ष डॉक्टर मोर्य के कक्ष के द्वार तक पहुँचा ही था, उसने कक्ष में प्रवेश भी नहीं किया था, तभी अंदर से कठोर शैली में कड़क स्वर उभरा -
"डॉ आलोक ! पन्द्रह मिनट पहले आप हमें विश्वास दिला रहे थे कि आप अपने कार्य-व्यवहार में सुधार करेंगे ! लेकिन, अब आपने सिद्ध कर दिया कि आप इस अस्पताल में अपनी सेवाएँ नहीं देना चाहते हैं ! या कहें कि आप किसी भी अस्पताल में सेवा का अवसर पाने योग्य नहीं है, क्योंकि आपमें सामंजस्य करने की योग्यता बिल्कुल नगन्य हैं !"
"लेकिन सर, यह तो बताइए, मैंने अनुचित क्या किया है ?"
"वाह ! अब यह भी मुझे बताना पड़ेगा कि किसी दूसरे डॉक्टर के अधिकार-क्षेत्र में जाकर तुम उसके मरीजों में उसके प्रति अविश्वास और घृणा पैदा करते हो और मुझसे पूछते हो, तुमने अनुचित क्या किया है ?"
"सर, आप एक बार मेरी दृष्टि से देखने का प्रयास कीजिए ! आपको ज्ञात हो जाएगा, मैंने कुछ अनुचित नहीं किया है ।"
"मिस्टर आलोक ! मेरे पास मेरी अपनी दृष्टि है ! मैं तुम्हारी दृष्टि से देखने का प्रयास क्यों करूं ? पन्द्रह दिन ... ! पन्द्रह दिन में तुमने अपना रवैया नहीं बदला तो, सोलहवें दिन तुम इस अस्पताल में पैर नहीं रख सकोगे, यह मेरा तुमसे वचन है !"
पर सर, कुछ मिनट पहले ही आपने मुझे एक माह का समय दिया था !" आलोक नहीं संशययुक्त ढंग से पूछा ।
"एक सप्ताह ....! एक सप्ताह का समय है, तुम्हारे पास !"
"सर, अभी तो पन्द्रह दिन का समय दिया था, आपने !"
"ओफ्फो ! तुम जैसे जाहिल गँवार के साथ मैं क्यों अपना समय बर्बाद कर रहा हूँ ! तुम्हारी बकवास सुनकर मेरा सिर फटने लगा है । निकल जाओ, मेरे रूम से ! आउट ! आउट !" डॉ हिमांशु मोर्य ने दोनों हाथों से सिर पकड़कर चिल्लाते हुए कहा । आलोक ने शांत भाव से कमरे से बाहर निकल कर एक बार मन ही मन पुनः संकल्प किया, "सॉरी सर ! आज मैं आपको अपने पक्ष से सहमत नहीं कर सका, लेकिन कर्तव्य के प्रति मेरी निष्ठा और इमानदारी देखकर एक दिन आप अवश्य मानेंगे कि मैंने कभी कुछ अनुचित नहीं किया । और वह दिन शीघ्र ही आएगा ।"
अगले दिन अस्पताल में पहुँचते ही डॉक्टर आलोक का एक वृद्ध से सामना हुआ । उस वृद्ध की कमर झुकी हुई थी । त्वचा सीकुड़ रही थी ; शरीर पर फटे मैले वस्त्र पहने हुए थे और वाणी में अत्यधिक दीनता थी । वृद्ध ने किसी अन्य डॉक्टर का पर्चा दिखाते हुए आलोक से प्रार्थना की -
"डॉक्टर साहब ! मैं बहुत गरीब हूँ । रिक्शा चलाकर पेट पालता हूँ । बाहर से एक्स-रे करवाने को पैसे नहीं है मेरे पास अस्पताल में ही करा दो ! भगवान आपका भला करेगा !"
"आपके साथ कौन है ?"
"कोई नहीं है, डॉक्टर साहब ! अकेला हूँ ! भरी-पूरी दुनिया में भगवान के सिवा मेरा अपना कोई नहीं है !" आलोक ने पर्चा उलटते पलटते हुए "हूँ-ऊँ-ऊँ" कहा और कुछ क्षण के लिए मौन हो गया, क्योंकि जाँच के लिए पर्चा उसके विभागाध्यक्ष डॉक्टर द्वारा लिखा गया था । कुछ क्षणों तक मौन रहने के पश्चात् डॉक्टर आलोक ने वृद्ध से कहा-
"अस्पताल में तो नहीं हो सकेगा, आपका एक्स-रे ! शायद यहाँ की मशीन खराब हो गई है ! सर को क्यों नहीं बताया आपने अपनी समस्या, जिन्होंने आपके लिए यह एक्स-रे जाँच लिखी है ?"
"उनसे भी बहुत विनती की थी, पर उन्होंने नहीं सुनी !" वृद्ध ने दीनतापूर्वक उत्तर दिया ।
"हूँ-ऊँ-ऊँ !" कहकर डॉक्टर आलोक कुछ क्षणों तक यथास्थान मौन खड़ा खड़े रहे । तत्पश्चात् वृद्ध से बोले -
"आओ, मेरे साथ !" यह कहते हुए डॉक्टर आलोक अस्पताल से बाहर की ओर चल दिये । वृद्ध भी उसके पीछे-पीछे चल दिया । लगभग दो सौ मीटर चलने के पश्चात् आलोक ने 'विभूति एक्स-रे सेंटर' में प्रवेश किया । आलोक द्वारा एक्स-रे शुल्क पूछने पर वहाँ पर बैठे रिसेप्शनिस्ट ने जाँच लिखने वाले डॉक्टर का पर्चा माँगा । पर्चा देखकर उसने बताया -
"साढ़े तीन सौ रुपये !"
"साढ़े तीन सौ रुपये ! साढ़े तीन सौ रुपये तो बहुत अधिक है !" आलोक आश्चर्य व्यक्त करते हुए आगे बढ़ गया । कुछ ही कदमों की दूरी पर 'हर्षित रेडियोलोजी एंड डिजिटल एक्स-रे सेंटर' था । उस क्लीनिक पर आलोक ने सर्वप्रथम अपना परिचय दिया । तत्पश्चात् एक्स-रे शुल्क के संबंध में पूछा । उस समय आलोक हतप्रभ रह गया, जब आलोक द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तरस्वरूप आलोक से प्रतिप्रश्न पूछा गया -
"सर इसमें आपका शेयर कितना होगा ? मेरा शेयर ? मैं समझा नहीं !"
"सर, आइ मीन्स पर एक्स-रे आप कितने परसेंट कट लेंगे ?"
"कट ! नहीं-नहीं, मुझे कोई कट नहीं चाहिए ! मैं चाहता हूँ, आप जितना संभव हो सके, कम से कम शुल्क लेकर गरीब लोगों का एक्स-रे सर्विस प्रोवाइड करें !"
"सर हमारे यहाँ विदाउट कट एक्स-रे दो सौ रुपये में होता है। सर, हमारे यहाँ अल्ट्रासाउंड भी होता है । आप यहाँ जितने पेशेंट भेजेंगे, उनकी जाँच कम से कम शुल्क में की जाएगी ।"
"ठीक है !" यह कहते हुए आलोक ने अपनी जेब से दो सौ रुपये निकाल कर दे दिये और वृद्ध को तनाव मुक्त होकर एक्स-रे कराने के लिए कहकर पुनः अस्पताल लौट आया ।
'हर्षित रेडियोलॉजी एंड एक्स-रे सेंटर' से अस्पताल तक आते-आते रास्ते में आलोक एक ही विषय पर सोचता रहा । 'पर एक्स-रे आप कितना कट लेंगे' इसका आशय है कि डॉक्टर हिमांशु मोर्य भी काट लेते हैं ! शायद इसीलिए वह मेरे विरुद्ध इतनी सहजता से अन्य डॉक्टर्स के साथ खड़े हो जाते हैं । यह विचार मस्तिष्क में आते ही आलोक के हृदय में अपने विभागाध्यक्ष डॉक्टर हिमांशु मोर्य के प्रति श्रद्धा कम हो गयी । कुछ ही समय में श्रद्धा का स्थान घृणा ने ले लिया था ।
यद्यपि उसने अपने व्यवहार में घृणा का अंश मात्र नहीं घुलने दिया था, तथापि कार्य संबंधी उसके निर्णय में विद्रोह-भाव पहले की अपेक्षा अधिक मुखर हो चला था । उसी दिन उसने वार्ड में जाकर सूक्ष्म निरीक्षण किया कि कितने मरीजों को एक्स-रे या अल्ट्रासाउंड कराने के लिए कहा गया है । अपने निरीक्षण में आलोक को कई मरीज ऐसे भी मिले, जिन्हें अनावश्यक रुप से एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड कराने के लिए कहा गया था । आलोक ने ऐसे मरीजों को अलग सूचीबद्ध कर लिया और शेष मरीजों को बताया कि 'विभूति एक्स-रे सेंटर' से कुछ कदम आगे ही 'हर्षित रेडियोलोजी एंड डिजिटल एक्स-रे सेंटर' में अन्य किसी भी रेडियोलॉजिस्ट की अपेक्षा बढ़िया क्वालिटी का एक्स-रे और अल्ट्रासाउंड आधे शुल्क में हो जाता है । आलोक द्वारा दी गई जानकारी सभी मरीजों के लिए फायदे का सौदा था, इसलिए सभी ने तत्काल निर्णय लिया कि 'हर्षित एक्स-रे सेंटर' से ही एक्स-रे अथवा अल्ट्रासाउंड कराएँगे ।
तीसरे दिन शाम को आलोक अस्पताल के बाहर प्राइवेट पैथोलॉजी लैब में गया । वहाँ पर भी जाँच करने के लिए दो दरें निर्धारित थी - विद कट और विदआउट कट । दोनों दरों में पर्याप्त अंतर था । पैथोलॉजी लैब के कट-सिस्टम को बंद करने के लिए घंटों तक चिंतन मनन किया । अन्ततः उसको एक उपाय सूझा । कट-सिस्टम से चलने वाली पैथोलॉजी लैब के विकल्पस्वरूप उसने अस्पताल से अपेक्षाकृत कुछ दूर स्थित 'नसीम पैथोलॉजी लैब' खोज निकाली, जहाँ पर कम दर पर सभी प्रकार की जाँच की जाती थी ।
चौथे दिन आलोक ने गुप्त रूप से सूक्ष्म निरीक्षण किया, जिसमें उसको ज्ञात हुआ कि अधिकांशतः डॉक्टर्स अपने कमीशन के लोभवश मरीजों की अनेक प्रकार की अनावश्यक जाँच से लिख रहे हैं । पिछले दिन की भाँति आलोक ने ऐसे मरीजों को अलग सूचीबद्ध किया और सभी को आवश्यकता पड़ने पर जाँच कराने के लिए 'नसीम पैथ लैब' के विषय में बताया । उसके बाद आलोक ने दस दिन तक इसी प्रकार 'कट विरोधी अभियान' चलाया । इन दस दिनों में आलोक का किसी न किसी विषय पर अपने कई वरिष्ठ चिकित्सकों के साथ विवाद भी हुआ, लेकिन इससे उसने अपने अभियान को प्रभावित नहीं होने दिया ।
"ग्यारहवें दिन जब आलोक अस्पताल में पहुँचा, हर एक आँख उसको विचित्र ढंग से घूर रही थी । उसने अनुभव किया कि कुछ आँखों में उसके प्रति उपेक्षा का भाव था ; कुछ में उपहास का ; कुछ में तिरस्कार का तो कुछ आँखों में उसके प्रति सहानुभूति का भाव झलक रहा था । वह कुछ और आगे बढ़ा, तो उसको डॉक्टर हिमांशु मौर्य का आदेश मिला कि सीधे उनके कक्ष में आकर मिले । आत्मविश्वास से परिपूर्ण डॉ आलोक आदेश का पालन करते हुए तत्काल विभागाध्यक्ष-कक्ष में जा पहुँचा । उसके पहुँचते ही डॉक्टर हिमांशु मौर्य ने सीमित शब्दों और संयत शैली में कहा -
"डॉ आलोक ! मैंने आपको आपका आचरण ठीक रखने के लिए पन्द्रह दिन का समय दिया था, लेकिन मेरी चेतावनी के बावजूद आपके आचरण में अंशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है ! आपके विरुद्ध मेरे पास शिकायतों का अंबार लगा पड़ा है । अब मुझे आपके विरुद्ध कार्यवाही करनी ही पड़ेगी ! समझ लीजिए, इस अस्पताल में कल आपका अंतिम दिन है !"
"जी सर ! लेकिन सर, आपके दिए हुए समय यानी पन्द्रह दिन में एक दिन अभी शेष है न !" आलोक ने शांत भाव से व्यंगात्मक शैली ने कहा ।
हाँ, आज का दिन शेष है । आप जा सकते हैं और आज अपनी ड्यूटी कर सकते हैं !" डॉक्टर हिमांशु मौर्य में उपेक्षापूर्वक कहा, "हँ-अँ, आज सुधारेंगे यह अपना आचरण !"
डॉक्टर मौर्य की चेतावनी के बाद भी आलोक ने कट विरोधी अपना अभियान बंद नहीं किया, बल्कि उसी दिन उसने अपने पूरी सामर्थ्य से अधिक अभियान चलाया ।
अगले अर्थात पन्द्रहवें दिन, जब आलोक अस्पताल पहुँचा, डॉक्टर हिमांशु मोर्य अस्पताल में कार्यरत एक बड़े चिकित्सक-समूह के साथ आलोक के स्वागतार्थ खड़े हुए थे । डॉक्टर मौर्य के हाथ में विभिन्न चिकित्सकों के नाम सहित हस्ताक्षर की एक लंबी सूची थी । सूची को दिखाते हुए डॉक्टर मौर्य ने आलोक से कहा -
"डॉक्टर आलोक ! इन सभी डॉक्टर्स ने आपके विरुद्ध लिखित शिकायत की है । इनके शिकायत-पत्र मेरे पास सुरक्षित है । आपसे हमारा आग्रह है कि आप स्वयं रिजाइन कर दें, अन्यथा इस सूची के साथ आपके विरुद्ध आए हुए शिकायत-पत्र अस्पताल प्रशासन को दे दिया जाएगा । हमें ऐसा करने की आवश्यकता पड़ी, तब आप का कैरीयर चौपट हो जाएगा, जिसके जिम्मेदार आप स्वयं होंगे !"
डॉक्टर आलोक बायाँ हाथ दायीं बगल में तथा दायीं हथेली ठुड्डी के नीचे लगाकर मौन खड़ा हुआ डॉक्टर मोर्य की चेतावनी सुन रहा था । मौर्य की चेतावनी समाप्त होने के पश्चात् वह धीरे से मुस्कुराया और दो-तीन मिनट तक अपने एंड्राइड मोबाइल पर अंगुली चलाता रहा । तत्पश्चात् अत्यधिक लापरवाही से मस्त अन्दाज़ में बोला -
"डॉक्टर मौर्य, मैं रिजाइन नहीं करूँगा ! भले ही आपके पास मेरे विरुद्ध शिकायत-पत्रों का अंबार है और शिकायतकर्ताओं की लंबी सूची है, परंतु आप में से कोई भी अस्पताल प्रशासन से मेरी शिकायत नहीं करेगा ! डॉक्टर मौर्य, आप और आपके ये सभी साथी 'विभूति एक्स-रे सेंटर' से ; 'अभिषेक पैथोलॉजी लैब' से और 'मेडिकल स्टोर्स से इतना कट मारते हैं कि आपको उससे मिलने वाली राशि आपके वेतन से भी अधिक होती है, यह मुझे भली-भाँति जानता हूँ । संबंधित प्रमाण की थोड़ी-सी बानगी आप सब अपने-अपने मोबाइल ऑन करके अपने वाट्सअप पर देख सकते हैं !" डॉक्टर आलोक की चुनौती सुनकर सभी डॉक्टर अपना-अपना मोबाइल ऑन करके अपना वाट्सअप अकाउंट देखने लगे । आलोक ने पुनः कहा -
"डॉक्टर मौर्य, बचपन में मैंने सुना था कि पाप का घड़ा भरकर फूटता है । लेकिन, घड़ा तो बहुत छोटी चीज है, आप तो पाप के समुद्र में तैर रहे हैं । आपको लगता है, आप लोग डूब नहीं रहे हैं, इसलिए कोई संकट नहीं है । परंतु, आप यह भूल रहे हैं कि यदि कोई मनुष्य निरंतर कुछ समय तक समुद्र में रहे, तो समुद्र का खारापन उसके अंग-प्रत्यंग को गलाकर नष्ट कर देता है । आप तो खारे पानी के समुद्र से अधिक घातक पाप के समुद्र में विचरण कर रहे हैं, फिर बताइए आप कैसे बच सकते हैं ?" आलोक का वाक्य समाप्त होने पर सभी डॉक्टर्स वाट्सअप पर 'कट-सिस्टम' में अपने संलिप्तता के प्रमाण देख चुके थे । 'विभूति एक्स-रे सेंटर' पर अपने कट के लिए लड़ते हुए डॉक्टर हिमांशु मौर्या का वीडियो देखकर सभी हैरान थे, जिसमें वह कह रहे थे -
"मैं डेली आठ से दस पेशेंट यहाँ भेज रहा हूँ और आप कह रहे हैं, मैंने एक भी पेशेंट नहीं भेजा है ! पूरा एक सप्ताह हो चुका है, आपने मुझे मेरे कमीशन का एक भी पैसा नहीं दिया है । यदि ऐसे ही चलता रहा, तो देख लेना, मैं तुम्हारा सेंटर बिल्कुल बंद करा दूँगा !" इसी प्रकार लड़ते हुए अन्य डॉक्टर्स के वीडियो भी वाट्सअप पर अपलोड किए गए थे, जिन्हें देख-सुनकर सभी हैरान-परेशान थे । सभी एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे । आलोक उन सबको देखकर शांत भाव से मुस्कुरा रहा था । शीघ्र ही धीरे-धीरे एक-एक करके सभी डॉक्टर्स वहाँ से खिसकने लगे । आलोक ने एक बार पुनः ऊँचे स्वर में चुनौती की मुद्रा में कहा -
"आशा है, आप लोग भविष्य में मेरी शिकायत करने की भूल नहीं करेंगे ! न ही मेरी राह का रोड़ा बनने का प्रयास करेंगे ! अन्यथा एक क्लिक में ये प्रमाण-सामग्री अस्पताल प्रशासन और उससे ऊपर तक भी जा सकती है !" यह कहकर आलोक डॉक्टर हिमांशु मौर्य के निकट का आकर बोले -
"डॉक्टर मोर्य ! आप मुझे कभी निलंबित नहीं करा सकेंगे ! हाँ, यदि आपने अपने आचरण में परिवर्तन नहीं किया, तो मैं आपका निलंबन अवश्य करा दूँगा ! आपसे यह मेरा वचन है ! याद रखिएगा !" डॉक्टर आलोक की चेतावनी सुनकर डॉक्टर हिमांशु मौर्य घायल शेर की भाँति घूरते हुए वहाँ से प्रस्थान कर गए और तत्क्षण आलोक भी अपनी ड्यूटी के लिए आगे बढ़ गया ।
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