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हाइड एण्ड सीक

हाइड एण्ड सीक

मनीषा कुलश्रेष्ठ

उस जन्नत की तरह खूबसूरत शहर तक पहुंचने में वे उत्सुकता और बेचैनी भरी प्रतीक्षा को महसूस करना चाहते थे इसलिए घरवालों और परिचितों के बहुत मना करने के बावज़ूद उन्होंने अकेले और सड़क के रास्ते से होकर, खुद अपनी गाड़ी चला कर वहां तक जाना तय किया था। वे बरसों बाद एक बार फिर रास्तों के साथ चलती नदियों से मिलना चाहते थे। रंग बदलते चिनारों से बात करना चाहते थे।

राजनैतिक और सामरिक नीतियों के चलते, इन नौ – दस सालो के दरम्यां इन रास्तों में बहुत कुछ फेर – बदल हो चुका था। ठीक एक खूबसूरत बच्चे के गालों की तरह, जो ज़्यादा रोने से गंदला से जाते हैं, यह शहर भी गंदला गया था। मगर वे गाल गंदले होकर भी लगते उतने ही खूबसूरत हैं। छोटे – छोटे उदास मलिन गांवों के बाहर उगे बागों में चेरी के पेड़ों ने हल्की पीली – गुलाबी चेरियों के झुमके पहन लिए थे। अखरोटों के जगंल फलों से लदे गुनगुना रहे थे। मेहनतकश मधुमक्खियां जंगली सफेद गुलाबों से रस बटोर कर अपने छत्ते भर रही थीं, आने वाली सैनिकों और श्रमिकों की नस्ल के लिए। छोटे – छोटे झरने ठिठक कर बह रहे थे। मगर चिनार गुम – सुम उदास खड़े थे, हर पचास कदम पर खड़े सीमा सुरक्षा बल के सैनिकों की बन्दूकों से सहमे।

तराई से पहाड़ों की तरफ बढ़ते हुए, तमाम रास्ते उन्हें अलमस्त यायावर मिलते रहे। आतंक से बेखौफ़, पहाड़ी खानाबदोश। जो गर्मियां शुरु होते ही, अपने भेड़ – बकरियों के रेवड़ को ऊंचाइयों की तरफ, हरी चराई के लिए ले जाते हैं। उनके साथ होता है, उनका राशन – पानी और चाय – कहवा बनाने का साज़ो – सामान और कुछ – कुछ रूसी समोवार जैसी समोवार। एक – दो बार उन्होंने बीच – बीच में जीप रोकी और, मक्खन डली नमकीन चाय पीने के लालच में भेड़ की तरह गंधाते उन खानाबदोशों के साथ जा बैठे थे। चाय के उसी चिरपरिचित स्वाद के साथ उन्होंने महसूस किया कि ये मंज़र बदल ज़रूर गये हैं, मगर विकास के कुछ पैबन्दों से भी इन रास्तों का पुरानापन नहीं मिटा है।

प्राकृतिक संपदा से समृद्ध इस प्रदेश के मेहनतकश, संर्घषशील लोगों के हिस्से में हमेशा से एक ही चीज़ आई थी वह थी — बदहाली ।यह बदहाली उनकी ज़िन्दगी का अभिन्न हिस्सा थी, हाड़ – तोड़ मेहनत उनके जीने का तरीका था, लुटते चले जाना उनकी नियति और गैरों पर विश्वास एक दर्शन। मगर यह जो हताशा भरी बदहाली जो आज लोगों के चेहरे पर नुमायां थी, वह उनके हाथों से कुदाल और पैरों के नीचे से धान के टुकड़ा – टुकड़ा खेत छीन लिए जाने की थी। वे हाथ कुदाल गिरा चुके थे, मगर बन्दूक पकड़ने से कतरा रहे थे, इसलिए उनके घर टूटे थे और बच्चे भूखे थे। जिन हाथों में ग्रेनेड थे, बन्दूकें थीं उनके घर पक्के हो रहे थे।

मुस्कानें बस अबोध बच्चों के चेहरों पर थी। वयस्कों के चेहरे पर चुप्पा सा गुस्सा, नपुंसक विरोध, आतंक पसरा था। औरतों की सुन्दर आंखें इतनी सफेद और उजाड़ थीं कि सपनों तक ने उगना बन्द कर दिया था। वहां हसीन मर्ग नहीं थे, वहां तो वेदना, पीड़ा, घृणा के झाड़ – झंखाड़ थे। घृणा किससे? आतंकवादियों से, व्यवस्था से, सेना से? उन्हें कुछ भी स्पष्ट नहीं था। कोई उनके साथ नहीं था और उनके खुद के बस में कुछ नहीं था। टूरिस्ट बसों पर ग्रेनेड फेंके जाने का सिलसिला नया शुरु हुआ था। और वे खुद नहीं जानते थे कि उनकी रोज़ी – रोटी में ये बारूद कौन घोल रहा है।

लेफ्टिनेंट कर्नल हंसराज बहुत बरसों बाद लौट रहे थे, इस शहर की ओर, इस प्रदेश में। जब वे मेजर थे, तब वे यहां तैनात थे। उन तीन सालों में बहुत कुछ घटा था, उनके बाहर भी और भीतर भी। वक्त ने स्मृतियों पर अतीत के अटपटे खुरंट जमा दिए थे। वे उस समय से जुड़ा हुआ, लगभग सब कुछ भूल जाने की कोशिश कर चुके थे, लेकिन खुरंटों के नीचे के घाव थे कि कभी – कभी टीस जाते थे। देह जब यात्राएं कर रही होती है, आस – पास की तो मन सुदूर की यात्राएं कर रहा होता है। देह जिन पक्के रास्तों पर गुज़रती है, वे रास्ते तो फरेब होते हैं, मगर मन जिनपर गुज़र रहा होता है वे पगडण्डियां शाश्वत होती हैं, कभी नहीं मिटती।

वे तो एक यायावरी के लिए निकले थे। माना यायावरी दिशाहीन होती है, मगर अवचेतन ने ये कौनसी दिशा तय कर दी थी कि वे यहां फिर लौट कर आने को उत्सुक हो गए थे! … स्तब्ध, मलिन कस्बे और शहर, पीली सरकारी इमारतें और खूबसूरत मगर तन्हा और उदास रास्ते, सर झुकाए खड़े चिनार, बलत्कृत झीलें, ठिठक कर बहते झरने अब तक उनके साथ साथ चल रहे थे। वे हल्के भय को थामे, पूरे दैहिक और मानसिक संतुलन के साथ अपनी गाड़ी चला रहे थे मगर अचानक उनकी खा.मोशियों के झुरमुटों के पीछे आवाज़ों के पंछी हल्के – हल्के पंख फड़फड़ाने लगे। — ‘कमॉन इण्डिया …जीत के आना है।’ के स्लोगन्स की धूम, वलर््ड कप का शोर। उनसे मुखातिब उनके अधीनस्थ अफसर की हताशा से भरी आवाज़ — “ सर, क्या आप ऐसे बैट्स मेन की कल्पना कर सकते हो, जिसे फास्ट बोलिंग झेलने के लिए हेलमेट, ग्लव्ज़ और पेड्स के साथ खड़ा दिया गया है मगर उससे बैट वापस ले लिया गया है? रोज़ बम शैलिंग से गांव के गांव रिफ्यूजी कैम्पों में तब्दील हो रहे हैं मगर हमें पलटवार की इजाज़त नहीं। क्यों सर क्यों?”

बेस युनिट से उनके बॉस की भर्राई आवाज़ — “ एक – एक करके अब तक 400 शहीदों को यहां से विदा कर चुका हूँ, जिन्होंने अपने परिवारों से वादा किया था कि वे वापस लौटेंगें। उन्होंने इसे निभाया है। वे एक आम आदमी की तरह गए थे, मगर महानायकों की तरह लौट रहे हैं।तरंगों में लिपटे और ‘ताबूतों’ में बन्द। इन महानायकों की उम्र 19 से 35 के बीच थी। दिल्ली जाकर जिन्हें मिला ‘शोक शस्त्र’ फेयरवेल सेल्यूट! लोह – सैनिकों की ऊपर उठी हुई बन्दूकों की खामोश वेदना, उन बन्दूकों की बैरल का उलटाना … सीने के करीब लगाया जाना, एकसाथ कई सरों का झुक जाना 30 सैकण्ड का पथरीला मौन और फिर उनके मृत सीनों पर सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, साथियों के चढ़ाए गए रजनीगंधा और गेंदों के ‘रीथ’ह्यशवों पर चढ़ाई जाने वाली विशिष्ट गोल मालाहृ। फिर एक कामरेड की देख – रेख में, इनकी अपने घरों की ओर अंतिम यात्रा।’’

हवाओं की सरसराहट में वे मौसम बदलने की आहट सुन पा रहे थे। बदलते मौसम के इस बेपनाह सौन्दर्य में इतनी उदासी क्यों घुली है? हर अतीव सुन्दरता की तरह यह भी अभिशप्त क्यों है? इस अभिशप्त सुन्दरता की जीवन्त उदासी से खामोशी के झुरमुटों के पीछे की आवाज़ों की फड़फड़ाहट स्थगित हो गयी।

‘ठहरो – हिन्दुस्तानी साब…मेरी भेड़ें डर जाऐंगी।’ एक पतली आवाज़ उसे मुखातिब थी। एक मोड़ पर हाथ हिला – हिला कर एक दस साल का सुन्दर मुखड़ा…उसे रोक रहा था। उसकी भेड़ें रास्ते पर बिखर गईं थीं और उन्होंने वह ढलवां, संकरी – सी, सड़क पूरी की पूरी घेर ली थी। इस मासूम को किसने समझाया यह सम्बोधन? किसने बोया होगा इस सरल मन में इस विभेद का बीज?

आज इस दस साल के लड़के के मुंह से ‘हिन्दुस्तानी’ सुन कर, उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उन्हें दूसरी शिकस्त दी हो। बरसों पहले की, वह पहली शिकस्त उन्हें बखूबी याद है।

वे तबादले पर वहां पहुंचे ही थे। इस राज्य के दूरस्थ इलाके, जो 1971 के युद्ध के बाद भारत का हिस्सा बन चुके थे, सेना द्वारा चलाए गए ‘आपरेशन मित्रता’ केन्द्र बिन्दु थे। लाइन ऑफ कन्ट्रोल से कुछ किलोमीटर दूर, एक महत्वपूर्ण पोज़िशन की सतर्क चौकसी के साथ – साथ उन्हें इस ऑपरेशन की भी कमान संभालने को मिली थी। उन्होंने अपनी युनिट की सारी ऊर्जा ‘ऑपरेशन मित्रता’ में झौंक डाली थी। वे स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यहां स्कूल और अस्पताल खुलवा रहे थे। आतंकवाद की चपेट में आए स्थानीय लोगों को पुर्नस्थापित करने में उनके सैनिकों ने हरसंभव सहायता की थी। धमाकों में अपाहिज हुए लोगों को कृत्रिम अंग लगवाए गए थे। मगर फिर भी यहां के निवासी आतंकवादियों और घुसपैठियों को हर संभव सहायता और आश्रय दिया करते थे। इन इलाकों के असहयोगी माहौल में विश्वसनीयता हासिल करना क्या आसान काम था? पूरा साल वे स्थानीय निवासियों के साथ फौज के सम्बन्ध सुधारने पर एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगाते रहे। उन्हें लगता था कि एक दिन वे इन स्थानीय लोगों का विश्वास हासिल करने में सफल होंगे मगर…

आज से लगभग नौ साल पहले, ऐसे ही तो बसन्त की शुरुआत थी, ऐसे ही फूल खिले थे जब हमारे प्रधानमंत्री लाहौर में शांति वार्ता में अपनी नितांत भारतीय नीतियों की दार्शनिक व्याख्या कर रहे थे अपने परमाणविक शक्तिधारक दुश्मन के समक्ष।

बिलकुल ऐसे ही दिनों में एक साधारण अभ्यास की तरह बर्फीली चोटियों पर सर्दी खत्म होने के बाद सेना की पहली पेट्रोलिंग टीम दुर्गम उंचाइयों पर चढ़ी थी। चार जवानों और एक युवा अधिकारी की ये टुकड़ी अचानक बर्फीली उंचाइयों पर से गायब हो गई थी। हालांकि वे उनकी यूनिट के नहीं थे… किसी और रेजिमेन्ट के ये पांच फौजी पेट्रोलिंग के लिए निकले थे। वे महीना भर लापता रहे। जब उनके शव मिले, तब पता चला कि बर्फीली उंचाइयों में छिपे बैठे घुसपैठियों ने उन्हें कैद कर लिया और उस पार ले गए जहां उन्हें यंत्रणाएं देकर मारा गया, उनके शरीरों पर सिगरेट से जलाने के निशान थे, उनकी सिर की हड्डियां टूटी हुई थीं, कान के पर्दे गर्म रोड डाल कर फाड़ दिए गए थे, आंखें निकाल ली गई थीं। पर यह बात उन्हें खटकी थी कि ऐसे अनुभवहीन युवा अधिकारी को पेट्रोलिंग के लिए बिना तहकीकात किए क्यों भेजा गया था… और उसका शव घर पर उसकी पहली या दूसरी तन्ख्वाह के चैक के क्लियर होने से पहले ही पहुंच गया था… इस बात को लेकर उन्होंने उच्चधिकारियों से जिरह की थी। मगर उन्हें चुप करवा दिया गया। उनका और उनकी यूनिट के जवानों का ‘ऑपरेशन मित्रता’ से धीरे – धीरे मोहभंग होता जा रहा था। वे यह जान गए थे उनके धैर्य को उनकी कमज़ोरी माना जा रहा है।

सरासर ध्यान भटकाने वाली गतिविधियां जारी थी। यहां विस्फोट, वहां नर – संहार।

एक रात उन्हें अपने विश्वसनीय मुखबिर से पता चला था कि एन् उनकी नाक के नीचे आतंक सांसे ले रहा है, और वे सरासर बारूद के एक बड़े ढेर पर बैठे हैं। अगले ही दिन जहाज़ से उनके पास एक ‘स्निफर डॉग स्क्वाड’ ह्य खोजी और गश्ती कुत्तों का दस्ताहृ आ गयी थी। ‘ऑपरेशन मित्रता’ के सैनिकों के उन हाथों में फिर बन्दूक आ गयी थी, जिनसे वे स्थानीय निवासियों की सहायता करते थे।

“इन खोजी कुत्तों के बिना यहां कोई ऑपरेशन मुमकिन नहीं सर जी। इंसान की अपनी लिमिट है जी, मगर इन लेब्राडोर कुत्तों को भगवान ने खास ताकत दी है, सूंघने की। हमारे सैंकड़ों जवानों को इन साशा और रोवर की तेज़ नाक ने ज़िन्दगी बख्शी है। और मुझे बड़ा नाज़ है जी, इन पे। यकीन तो है ही खैर…”

“क्या बताऊं सर जी, हैण्डलर का प्रेम ही होता है जो इनसे यह काम करवाता है। इनके लिए तनख्वाह, पावर, इज्ज़त या धर्म या जात का कोई मतलब है क्या साब? ये वफादार दोस्त जाने कितनी जिनगानियां बचाते हुए खुद मर जाते हैं। पहले मेरे पास चम्पा नामकी लेब्राडोर कुतिया थी, उसने बड़ी जानें बचाईं, कितनेक तो लैण्ड माईन्स ढूंढे…उसे मेरे साथ कमण्डेशन भी मिला था। इन की फीमेलों की नाक मेलों से ज्यादा तेज होती है… वैसे सर जी नाक और कान तो हमारी फीमेलों के भी खूब तेज होते हैं।” बहुत बातूनी था लांसनायक महेश। उसकी स्क्वाड के वे दो काले लेब््रााडोर कुत्ते खूबसूरत और बुद्धिमान थे। खाली वक्त में वे आपस में अठखेलियां किया करते। महेश उनके साथ विस्फोटक की मामूली सी मात्रा रूमाल में छिपा कर ‘खोजो तो जानें’ का खेल खेल कर उनके हुनर को पैना किया करता था।

मुखबिर का संकेत मिलते ही, वे उन घरों की तलाशी के लिए निकल पड़े थे, जिनमें उन्हें शक था कि उग्रवादी छिपे बैठे हैं। उनकी युनिट ने गली के बाहर, गली के भीतर, आगे झील तक…कवरिंग और अटैकिंग पोज़िशन ले ली थी और वे धीरे – धीरे सावधानी से एक झील पर जाकर खत्म होती पतली गली में घुसे, लांसनायक महेश, साशा की ज़ंजीर थामे उनके साथ – साथ था। रोवर,उसका हैण्डलर सुरेन्दर एक दूसरे घर के बाहर कैप्टन राजेश के साथ खड़े थे, संकेत दिए जाने की प्रतीक्षा में। गली में चहल – पहल की जगह सन्नाटा पसरा था। ऐसा लग रहा था कि इन घरों की दीवारों के कान जैसे मीलों फैले हुए हों। वे घर दम साधे, एक दूसरे को थामे खड़े थे, हल्की – हल्की सांस लेते हुए। सैनिक सतर्क थे। बस एक सफेद – गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी थी, उसके हाथों में शलगम का गुच्छा और एक मछली थी। उसके सुर्ख होंठ कंपकंपा रहे थे कि मानो कुछ कहना चाहती हो। उसका फिरन भीगा हुआ था।उसकी नीली पुतलियों वाली शफ्फाक़ आंखों में भय तैर रहा था। उन्होंने उसे घर लौट जाने का इशारा किया।

सैनिकों ने उनके संकेत पर एक घर को घेर लिया।वे तीन सैनिकों, लांसनायक महेश और साशा के साथ एक सुनसान टूटे – फूटे घर में घुसे। इस टूटे – फूटे घर के नीचे की मंज़िल पर ज़मीन पर बिछे बिस्तरों पर सलवटें थीं। कालीन पर जूतों के कई निशान। बिस्तरों में इन्सानी जिस्मों की गर्म बू ताज़ा ही थी। ज़्यादा दूर नहीं गए होंगे वो। संभल कर वे ऊपर की मंजिल की ओर बढ़े। ऊपर जाते ही साशा बेचैन हो गयी और इधर – उधर सूंघने लगी, गोल – गोल चक्कर काटने लगी। बीच बीच में कूं ऽ कूं भी करने लगती और पूंछ हिलाने लगती। महेश बहुत सर्तक हो गया था। उनके तीन अधीनस्थ अधिकारियों सहित सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी उन्हें कवर दे रही थी। वह एक मर्तबान में बार – बार मुंह डाल रही थी। उस मर्तबान के चारों तरफ गोल चक्कर काट रही थी। फिर उसने पंजे से उसे उलट दिया। एक बेलनाकार धातु की वस्तु कपड़ों में लिपटी रखी थी। महेश समझ गया था कि साशा ने बम ढूंढ लिया क्योंकि वह उसके पास बैठ गई थी, ताकि उसका हैण्डलर स्थिति का जायज़ा ले सके।

“ सर आप सब बाहर जाएं, आतंकवादी तो नहीं, मगर बम है यहां। सूबेदार हनीफ अहमद को भेज दें इसे डिफ्यूज़ करने के लिए।” महेश ने फुसफुसा कर कहा।

यह अजीब – सी डिवाइस ऊंचे दर्जे के विस्फोटक पदार्थ से भरी हुई थी और शायद यह एक रिमोट कन्ट्रोल से जुड़ा था। कुछ देर बाद, साशा महेश के ऊपर चढ़ कर अपने इनाम के बिस्किट की मांग करने लगी थी। महेश ने उसे अनदेखा कर दिया। महेश दूर से बम का निरीक्षण कर रहा था और वे अपने दस्ते के बम डिफ्यूज़ल एक्सपर्ट को बुलाने के लिए पीछे मुड़ कर कुछ सीढ़ियां उतरे ही थे कि धमाका हो गया, घर के ऊपर का हिस्सा ढह कर, सड़क पर आ गिरा। मलबे में दबे हुए साशा के चिथड़ा – चिथड़ा जिस्म को और अचेत महेश को निकाला गया। महेश बुरी तरह घायल हो चुका था, उसकी एक बांह विस्फोट में उड़ गई थी और वह नीम बेहोशी में था। उनके भी पैरों में अचानक सीढ़ियों से कूद जाने की वजह से अन्दरूनी चोटें आई थी। ‘शो मस्ट गो ऑन’ की तर्ज पर ऑपरेशन जारी रहा। महेश को तुरन्त मिलीटरी अस्पताल भेज दिया गया। साशा की मृत देह कम्बल में लपेट कर ‘कैन्टर’ में रख दी गई।

उन खाली टूटे – फूटे घरों में हरेक में बम रखे मिले थे। रोवर ने उन्हें ढूंढ निकाला था। रोवर को आतंकवादियों की तलाश में हैण्डलर जंगल की तरफ घुमाता… मगर वह लौट – लौट कर बस्तियों की तरफ भाग रहा था। वह एक घनी बस्ती के ऐसे घर दरवाज़े पर रुका, जहां पर्दानशीन औरतें ही औरतें थी और वहां दालान में पड़ी थी, घर के एकमात्र युवक की लाश, जिसे ताज़ा – ताज़ा कत्ल किया गया था। जिबह की गई बकरियों की तरह वे औरतें चीख रही थीं। घर की तलाशी ली गई मगर वहां कुछ नहीं मिला। घर के पीछे गली झील पर खत्म होती थी, झील के उस तरफ मस्ज़िद थी। यह वही जगह थी, जहां सफेद – गुलाबी मगर मैले गालों वाली किशोरी झील के किनारे से सटी नाव में सहमी बैठी मिली थी। अब वहां न नाव थी न वह किशोरी। शलगम के गुच्छे ज़मीन पर गिरे हुए थे। गली के मकानों की खिड़कियां यूं बन्द थीं गोया बरसों से खोली ही ना गई हों। उस गली से पलटते ही मस्ज़िद की दिशा से फायरिंग शुरु हो गयी। जवाबी कार्यवाही में वे फायर नहीं कर सकते थे क्योंकि जुम्मे का दिन था और मस्ज़िद में आतंकवादियों की ज़द में कुछ मासूम नमाज़ी फंसे हुए थे। “ हिन्दोस्तानी कुत्तों… मस्ज़िद का रुख़ न करना, वरना ये नमाज़ी हमारे हाथों खुदा के प्यारे हो जाएंगे।”

यह उनके ‘ऑपरेशन मित्रता’ की पहली शिक़स्त थी। आज नौ साल बाद यह दूसरी शिक़स्त उन्हें उदास करने के लिए काफी थी।

बेस पर लौट कर रोवर बहुत बेचैन हो उठा था। बार – बार कैण्टर की तरफ जाता जहां ‘साशा’ का शव रखा था। कूं कूं करके उसके चारों तरफ घूमने लगता था। अपने हैण्डलर की बात भी नहीं सुन रहा था। उससे बहुत छिपा कर साशा को उन हरे – भरे मर्गों में कहीं दफना दिया गया था। मगर रोवर ने भांप लिया था। हैण्डलर ने बहुत कोशिश की उसे खिलाने की, मगर उसने खाने को सूंघा तक नहीं। उसे ड्रिप भी लगाई। फिर उसने किसी भी अभ्यास में मन से हिस्सा नहीं लिया, अभ्यास के दौरान विस्फोटक की गंध से भरा कपड़ा उसे सुंघा कर छिपाया जाता पर वह उसे खोजने की कोशिश करने की जगह एक जगह पर बैठ जाता और उसकी आंखों से पानी बहता रहता। उन्हें नहीं पता कि कुत्ते रोते भी हैं कि नहीं। मगर रोवर को देख कर उनका मन भारी हो जाता था। रोवर के असहयोग की वजह से तुरन्त दूसरे स्निफर डॉग और उसके हैण्डलर को भिजवाने का संदेश भेज दिया गया था। जिस दिन उसे वापस भेजा जाना तय था, उस दिन के पहले वाली रात, जब वे लांसनायक सुरिन्दर से मिलने गए तो रोवर उसके साथ बुखारी के सामने बैठा था। बीमार मगर शांत। उनके आने पर उसकी दोनों कत्थई एक साथ आंखें उठीं थीं। हल्के – हल्के उसने दोस्ताना अंदाज़ में पूंछ भी हिलाई, सर सहलाने पर हाथ चाटा था। फिर वह आंखें मूंद कर लेट गया। सुबह वह नहीं उठा।

महेश अब दिल्ली में रिसर्च एण्ड रैफरल हॉस्पीटल में स्थान्तरित कर दिया गया था। उन्होंने उससे फोन पर बात की। वह व्यथित था, अपने हाथ के कट जाने को लेकर नहीं। साशा और रोवर को लेकर, “ सर जी बहुत प्यार था उनमें। उन्हें आस – पास ही दफनाना।” उसके कहने पर रोवर को साशा के बगल में ही उसके साथी दफना आए थे। जहां तक उन्हें याद है महेश का साथी लांसनायक सुरेन्दर लाल रंग के दो समाधि – पत्थर बनवा कर लाया था।

“सर, सच्चे सिपाही, सच्चे आशिक तो यही हैं ना।आप इजाज़त दें तो इनकी कब्रों पर ये पत्थर लगवा दें।” उन्होंने वहां अपने हाथों से एक चेरी का पेड़ लगा दिया था। लांसनायक महेश के ‘स्पेसिफिक काउन्टर टैरर मिशन’ के ‘कमण्डेशन’ ह्यप्रशंसा – पत्रहृ के लिए उन्होंने चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ को ‘साइटेशन’ ह्यअनुशंसाहृ भेजी थी, जो स्वीकृत हुई।

छद्म युद्ध ने तेज़ी से आग पकड़ ली थी। उस छद्म युद्ध में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सेना मैडल मिला। इस सबके बावज़ूद एक असंतोष सा उनके मन में घर कर गया था। इतने स्थानीय नागरिकों, जवानों – अधिकारियों की जान महज कुछ लिजलिजे निर्णयों और ढुलमुल नीतियों के चलते गंवा दिए जाना उन्हें नागवार गुज़रा था। उन्होंने सेना से स्वैच्छिक अवकाश ले लिया था।

वे शहर में बस दाखिल हुए ही थे …कि उन्हें पीली दीवारों वाला डाकघर दिख गया था। शहर के बदलावों में बच गए एकमात्र जर्जर अवशेष – सा। जिसके बाहर फुटपाथ पर, सूखे मेवे बेचने वाले अखरोटों का ढेर लगाए खड़े थे। दुकानों पर कढ़ाई किए गए कपड़े और सुन्दर दस्तकारी के साजो – सामान सजे थे। शहर अजब तरह से विकसित हो रहा था, जैसे बदहाली नाम की खूबसूरत गरीब – बेबस औरत को तीखा मेकअप करके बिठा दिया गया हो, लेकिन डर उसकी आंखों, हरकतों, जुम्बिशों से किसी न किसी तरह टपक ही रहा हो। रंग – बिरंगे शीत पेयों और मोबाईल फोन की कंपनियों के बड़े – बड़े होर्डिंग, शहर के हर चौराहे पर लगे थे। सफेद स्कार्फ से सर को अच्छी तरह ढके, सर झुकाए, बिना खिलखिलाए किशोरियां स्कूल जा रही थीं। धूसर – भूरी दीवारों और लकड़ी के दरकते फर्श और टीन की छतों वाले घरों की कतार जहां खत्म होती थी… वहां से एक झील शुरु होती थी। एक बूढ़ा अपनी नाव में बैठा इस झील में उगी जलीय खरपतवार को जाली से बड़ी तटस्थता से साफ कर रहा था। लाईन से लगे शिकारे और हाउसबोट एक अंतहीन प्रतीक्षा में प्रार्थनारत मालूम होते थे।

वे एक मुगलकालीन बाग के करीब से निकले, वहां एक ऊन की टोपियां बेचने वाले ने बताया कि अभी वहां विस्फोट होकर चुका है, एक गुजरातियों से भरी बस पर। लेकिन जिंन्दगी बदस्तूर रवां थी। चेरी – अखरोट बेचने वाले बसों में बैठे टूरिस्टों से मोल – तोल कर रहे थे। आखिर हम सीख ही गए आतंक के साए में जीना।

वे उस प्रसिद्ध चौक से गुज़रते हुए आगे की तरफ मुड़ गए, जहां मौत का खेल शतरंज की तरह खेला जाता था। वो प्यादा मरा… वो वज़ीर…! वज़ीर कम मरते, प्यादे ज़्यादा। बल्कि वज़ाीरों की शह और मात के बीच प्यादे कब लुढ़क जाते, इसका न पता चलता, न फर्क पड़ता था। हालांकि माहौल में जाहिरा तौर पर कोई तनाव नहीं था। लेकिन उन्होंने देखा, तब के शहर और अब शहर की सोच तक में फर्क आ गया था। पहले एक – एक मौत मायने रखती थी। अब विस्फोटोें और दो – चार मौतों के बावज़ूद एकाध घण्टे में ही ज़िन्दगी फिर से रवां हो जाती है। वो मरी हुई शतरंज की गोटियों की तरह लाशें हटाते और खेल फिर शुरु… अब वे फिर से टूरिज़्म के विकास की तरफ बढ़ रहे थे। सरकार और कठमुल्लाओं और उनके खै.रख्.वाह बनने वाले आतंकवादियों सभी से वे विमुख हो चले थे। फौज से उनका प्रेम और घृणा, सहयोग और असहयोग का व्यापार निरन्तर जारी था।

शहर के मुख्य और बड़े हिस्से में स्थापित सेना के एक बहुत बड़े बेस के सामने से वे तटस्थता से गुज़र गए। पहले उनका वहीं उसी बेस में ठहरना तय था। मगर वहां उन्हें कुछ अजनबी लगा, बेमानी भी। उनकी जान – पहचान का पुराना कोई भी तो नहीं होगा। उस बेस के चारों तरफ एक लम्बा चक्कर काट कर वे शहर से बाहर आ गए थे।

वे उस सड़क की तरफ मुड़ चले जिसके साथ एक नदी चला करती थी। रास्ते बदल गए थे। उन्हें गाड़ी रोक कर नए रास्तों की बाबत पूछना पड़ा। पहाड़ का एक हिस्सा काट कर सड़क का एक छोटा – सीधा रास्ता बन गया था। मगर शायद नदी ने पलट कर फिर कहीं आगे जाकर सड़क का हाथ पकड़ लिया था। अब वह फिर साथ थी।अवरोधों पर वह नदी और अधिक उच्छृंखल हो जाती। ऊंचाई से नीचे गिरती तो अनेकानेक भंवर डालती बहती। नदी के पानी में बहा खून जाने कहां बिला गया होगा… मगर इसकी चंचलता और निश्छलता में कोई फर्क नहीं आया। यह कुछ मील दूर दूसरे देश में में भी ऐसे ही उछालें मार कर बहती रही है।

खुद से उलझते, अपनी मंजिल के बारे में तय करते – करते उन्हें शाम हो आई थी, कुछ रास्ते बदल गए थे, कुछ वे भटक गए थे। अंतत वे एक नए बने आर्मी बेस के छोटे से ऑफिसर्स मैस में जा ठहरे। मैस बहुत खूबसूरत जगह पर बनी थी। उनके कमरे के इस तरफ नदी के छल – छल, कल – कल गीत गूंजते थे तो दूसरी तरह पहाड़ ध्यानमग्न नज़र आते। उन्होंने अपने कमरे के पीछे वाली बॉलकनी की रैलिंग से नीचे देखा — नीचे ढलानों की तरफ फैले हरे – भरे विस्तृत चारागाह में, शाम के गुलाबी झुटपुटे और चांद की फैलती रूपहली रोशनी में दो सफेद मज़ारें जगमगा रही थीं, मानो मुस्कुरा रही हों।

उस पल हरे – भरे मर्ग के बीच उन गुनगुनाती मज़ारों, उनके चारों तरफ खिले फूलों और आकाश में तैरते टुकड़ा – टुकड़ा बादलों को देख कर, न जाने क्यों कर्नल हंसराज को लगा कि मानो मौत का दूसरा नाम खुशग़वारी हो।

अगले दिन सुबह नहा धोकर, नाश्ता करके वे अपने कमरे से निकल आए। कमरे की बॉलकनी से जो मज़ारें उन्हें आकर्षित कर रही थीं। उसी तरफ बढ़ चले। आज उस तरफ रौनक थी, चहल – पहल थी। उन्हें हैरानी हुई।

मैस के एक अर्दली ने बताया कि ये दो सूफी पीरों की मजारें हैं, एक भले दिल के सूफी दरवेश ने अपने पैसे और रसूख वाले मुरीदों से कह कर वहां दरगाह बनवा दी हैं। पूरे चांद की रात में सुबह से ही वहां मेला लग जाता है। दूर दराज़ से लोग आते हैं। हंसराज हैरान रह गए थे। वे दरगाह के बाहर ही रुक गए। एक तरफ लगे एक तंबू में कहवा बन रहा था। कहवे की महक ने, वह स्मृति में बसा सौंधा स्वाद याद दिला दिया। वे उसी तरफ बढ़ गए।

“ भई, जहां तक मेरा ख्याल है — नौ – दस साल पहले तो यहां कोई मज़ार नहीं थी। न यहां कोई मेला हुआ करता था।”

“हां बस, दो बरस ही हुए हैं… इन मजारों को मरहूम सुलेमान दरवेश साहब ने देखा…और दरगाह बनवा दी। वे कहा करते थे कि दस साल पहले उनके लापता हुए उनके दो सूफी उस्तादों की मज़ारें हैं।”

कर्नल हंसराज ने दिमाग़ पर ज़ोर डाला … “ दस साल पहले, … हँ हाँ, उन दिनों लेह के ‘दो बौद्ध भिक्षु’ तो ज़रूर मार डाले थे, आतंकवादियों ने…। मगर सूफी …! कुछ याद नहीं पड़ रहा।”

आतंकवादी शब्द बोल कर जैसे उनसे कोई कुफ्र हुआ हो, उस कहवावाले ने उन पर क्रूर और ठण्डी निगाह डाली।

“ कहवा खत्म कर लिया हो तो चलें जनाब।”

उन्हें तम्बू से बाहर ले जाते हुए एक नौजवान कश्मीरी बोला, “ बुरा मत मानिएगा सर, ये बड़े मियां ज़रा ख़ब्ती हैं। सच्ची बात तो ये है कि ये मज़ारें किसी सूफी – दरवेशों की नहीं हैं, लैला – मजनूं जैसे दो आशिकों की मज़ारें हैं। कहते हैं, लड़की कश्मीरी थी और लड़का सिपाही था, हिन्दुस्तानी फौज का।”

“ क्या बात करते हो?”

“क्या बताऊं सर, दोनों ही बातें कहते हैं लोग। बड़े – बूढ़े तो सूफी – दरवेश की मज़ार मानते हैं इसलिए यहां सूफी – दरवेशों की हर पूरे चांद पे मजलिस लगती है। मगर कुछ लोग इन्हें दो आशिकों की मज़ार समझते हैं तो नौजवान जोड़े भी यहां आकर मन्नतें मांगते हैं।”

“ सर, कहां ठहरेंगे? शहर में मेरे चचा का हाउस बोट है, थ्री स्टार।”

उन्होंने कोई रुचि नहीं ली तो कहने लगा, “ यहां बगल के कस्बे में मेरे पहचान के होटल भी हैं सर, हिन्दू होटल।”

“अरे नहीं भई, मैं वहां ऊपर ऑफिसर्स मैस में ठहरा हुआ हूँ।”

“ तो चलिए सर आपको ग्लैशियर…घुमा लाऊं।”

“मेरा सब कुछ देखा हुआ है। तुम जाओ, मैं यहीं कुछ देर रुकूंगा।”

“ अच्छा कोई बात नहीं सर, मैं बता रहा था न इन मज़ारों के बारे में — ”

वे समझ गए थे कि यह गाइड या टूरिस्ट एजेन्टनुमा कोई जीव है। इन मज़ारों की कहानी सुनाने के बहाने चिपक ही गया है। कुछ लिए बिना टलेगा नहीं।

“ बताओ क्या बता रहे थे?” वे उकता कर बोले।

“कहते हैं एक कश्मीरी लड़की, इस छावनी से कुछ ऊंचाई पर बने गांव में रहा करती थी। खूबसूरत, मासूम, कमसिन। ‘सना’ नाम था उसका।नीचे छावनी की एक बैरक में रहने वाले एक क्रिश्चन सैनिक ‘रोजर’ से उसका इश्क़ हो गया। आप तो जानते हैं सर इश्क़ जात – धर्म कहां देखता है।” उसका चिपकूपन उन्हें खिजा रहा था, वे उसे झिड़कने ही वाले थे कि उसके सुनाने के दिलचस्प अंदाज़ पे वे मुस्कुरा उठे।

“ लगता है तुमने भी इश्क़ किया है।”

“ हां सर, बहुत पहले। एक हिन्दू लड़की से… उसके भाई और बाप तो आतंकवादियों ने मार डाले और वो और उसकी मां यहां से जम्मू चले गए। खै.र छोड़िए वो कहानी सर…ये कहानी सुनिये—

हां तो, वह रोज़ उससे सुबह – सुबह मिला करती, घास काटने के बहाने। रोज़ सुबह पांच बजे उसकी खिड़की पर एक कस्तूर चिड़िया आकर तान देती और वह ढलान उतर कर अपने आशिक़ से मिलने जाती।

एक रोज़ कस्तूर ने सुबह पांच की जगह तीन बज कर चालीस मिनट पर ही किसी डर से तान दे दी। शायद उसके घोंसले के नन्हें चूज़ों पर किसी बाज़ ने चोंच मारी होगी। सना को वह तान अजीब तो लगी, मगर प्रेमी से मिलने के चाव में उसने ध्यान ही नहीं दिया। बर्फीले पानी से मुंह धोया तो मुंह सुर्ख़ की जगह नीला हो गया। अंधेरे में फिरन पहना तो कील में अटक कर फट गया मगर फिर भी उसने इन बदशगुनों पे ध्यान नहीं दिया। अपने घर से नीचे ढलान की तरफ अपने प्रेमी से मिलने उतर पड़ी, खुशी से सरोबार, देख लिए जाने के डर से घबराती, जिस्मानी चाहतों में सुलगती, महबूब की आंखों का इंतज़ार उसकी रूह में सुलग रहा था। उसे पता था रोज़र ने परदा दरवाज़े में अटका कर रखा होगा वह खटखटाएगी भी नहीं… पास की बैरकों के उसके साथी न जाग जाएं इसलिए। वह फूलों से लदे एक चेरी के पेड़ के पास से गुज़री… जहां से रोज़र की बैरक दस फर्लांग पर थी…कि उसे पहली गोली लगी, कन्धों पर… वह बाहर निकल आया… चीख कर रोकता फैंस के पास अपने पहरा दे रहे साथी को तब तक दूसरी गोली उसका अरमानों भरा सीना चूम चुकी थी। ज़मीन पर पड़े चेरी के फूल लाल हो गए थे खून से।

“ ये क्या किया… यह आतंकवादी नहीं मेरी महबूबा है।” कह कर रोजर ने कनपटी पे गोली चला ली और सना के जिस्म पर जा गिरा। कहते हैं सर, कब्रों के पास लगे पेड़ की चेरी एक दम खून जैसे सुर्ख रंग की होती हैं।” नौजवान की आंखों में आंसू थे मानो वह उसकी खुद की प्रेमकहानी हो।

कर्नल हंसराज भी उसके कंधों पर हाथ रख कर बोले, “ेतुम एक कामयाब टूरिस्ट गाईड बनोगे, इतनी खूबसूरत कहानी गढ़ी है, तुम्हें तो अफसानानिगार होना चाहिए था। तुम्हारी शादी हो गई?”

“ हां सर, चार बच्चे हैं। खर्चा बामुश्किल चलता है…।” उसने सिटपिटा कर कहा।

“ चार बच्चे! तुम्हें देख कर तो कतई ऐसा नहीं लगता।”

“ सर, बचपने में ही निक़ाह हो गया…।”

“ क्या यह दरगाह अन्दर से देख सकता हूँ मैं?” कह कर उन्होंने जेब से पचास रूपए का नोट निकाल कर उसे दे दिया।

“सर आप तो फौजी हैं, आपको कौन रोकेगा? यहां के लोगों के दिलों को रौंद कर भी गुज़र सकते हैं आप तो।” उसकी आवाज़ में तल्ख़ी थी। यह तल्ख़ी पचास रूपए के नोट से असंतुष्ट होने की थी या फिर सच में फौज को लेकर थी यह अंदाज़ लगाना मुश्किल था।

“मैं फौजी था, अब नहीं हूँ।”

“ चलें?”

वे दोनों दरगाह के भीतर थे। शांत, ठण्डी, संगेमरमर की छोटी सी दरगाह। संगमरमर के जालीदार गलियारों के बीचों – बीच सलेटी फर्श वाला अहाता था, अहाते में बीचों – बीच लगा चेरी का पेड़ सच में सुर्ख. चेरी के झुमकों से लदा हुआ था, पेड़ के नीचे का फर्श पर टपके हुए फलों से लाल धब्बों से अंटा था। लोग गिरे हुए फलों को कुचल कर आ – जा रहे थे। पेड़ की छाया के फैलाव में कोने में संगमरमर के पत्थरों से ढंकी दो मज़ारें थीं। संगमरमर के पत्थर बाद में मज़ारों पर मढे. गए होंगे क्योंकि उनके सिरहाने लगे समाधि – पत्थर पुराने थे। साधारण लाल पत्थर के, जिन पर गढ़ कर, अंग्रेजी में लिखा गया धुंधला – सा कुछ दिखाई दे रहा था। वक्त ने बहुत कुछ मिटा डाला था, मगर एक पर ‘एस’ और ‘ए’ तो गढ़ा हुआ दिख रहा था दूसरे में ‘आर’, ‘ओ’ और ‘आर’ अक्षर दिखाई दे रहे थे। बीच के अक्षर मिट चुके थे।

“ यह तो अंग्रेजी में कुछ लिखा है।”

“ तभी तो साहब हम कहते हैं ये सूफियों की मज़ारें नहीं। मगर ये सूफी लोग कहते हैं कि ये अंग्रेज़ी नहीं, अरबी की कोई मिटी हुई इबारत है।” वह फुसफुसाया।

चेरी का पेड़ और यह समाधि– पत्थर!

कर्नल हंसराज को बुरी तरह झुरझुरी आ गई। ये तो साशा और रोवर की कब्रें थीं! वे अचकचा कर अपने चारों तरफ देखने लगे। श्रद्धा से भरे लोगों को हैरानी से देखने लगे। उन्हें लगा कि उनके भीतर बर्फानी लहर दौड़ रही है और उनके वज़ूद को सुन्न करती जा रही है। दो दरवेश, दो दीवाने प्रेमी!

कव्वाली शुरु हो चुकी थी … भीड़ बढ़ने लगी थी।

— जाहिद ने मेरा हासिले इमां नहीं देखा

इस पर तेरी ज़ुल्फों को परीशां नहीं देखा

एक भारी, उदास आवाज़ और कुछ पतली खिली आवाज़ों का कोरस, बादलों से भरी दोपहर में पहाड़ों से टकरा कर एक तिलिस्म बुन रही थी। नीचे घास पर नन्हें फूल खुशहाली का पता दे रहे थे तो ऊपर आकाश में उड़ता हुआ, चौकसी करता सीमा सुरक्षा बल का हेलीकॉप्टर एक बहुत – बहुत कड़वी सच्चाई की तरह आंखों में गड़ रहा था — हम दरख्.तों, कबूतरों, नदियों और हवाओं की तरह बेलौस और बेखौफ़ नहीं। हम अपने – अपने खौ.फ के गुलाम हैं।

वे एक ठण्डी संगमरमर की बैंच पर बैठ गए, तेज़ – तेज़ ठण्डी सांसे लेने लगे। आस – पास बैठे व्यक्तियों को देखा। एक तरफ बुरके में अधेड़ जनाना बैठी थीं, हाथ में सबीह के मनके फेरतीं। उनके ठीक सामने, एक जवान जोड़ा गुफ्तगू में तल्लीन था। किसी को क्या कहें? कहें भी कि… ना कहें। कौन मानेगा उनकी? मान भी लिया तो… बहुतों की श्रद्धा पर भीषण तुषारापात होगा। बेचैनी से वे अपना सीना मलने लगे। खुद को शांत करने की कोशिश में…।

उनके जहन में थे, विस्फोटकों को सूंघकर उनका पता देते साशा और रोवर। सैंकड़ों जिन्दगियां बख्शते वे दो सुन्दर काले लेब्राडोर कुत्ते। उन्हें उनकी प्रेमिल अठखेलियां याद आ गईं, सुबह पांच बजे महेश कैम्प के अहाते में उन्हें खोल दिया करता था। अभ्यास से पहले वे गोल – गोल एक दूसरे के पीछे दौड़ते हुए खेलते थे, घास में लोटते, प्यार भरी गुर्राहटों से अहाता गुंजा देते। उसके बाद शुरु होता था विस्फोटकों के साथ उनका वह ‘हाइड एण्ड सीक’ ह्यलुकाछिपीहृ का अभ्यास। जिसे वे खेल समझते थे वह मौत का ताण्डव था, यह वे मासूम कहां जानते थे।

क्यों कहें…किसी से कुछ भी। कोई ज़रूरत नहीं है। क्या यह सच नहीं कि साशा – रोवर सच में दो अनूठे प्रेमी थे! और क्या वे धर्म, प्रतिष्ठा, धन और शक्ति के मोह के आगे प्रेम और वफादारी को तरजीह देने वाले दरवेश नहीं थे? क्या हुआ जो वे इन्सान नहीं थे, मगर उनके जीवन और मृत्यु दोनों इन्सानों को पाठ नहीं पढ़ा गए?

उन्होंने पास के एक माला वाले से दो गहरे रंगो के गुलाबों की माला ली, और उन दो मज़ारों की तरफ बढ़ गए।

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