Parjivi in Hindi Short Stories by Manisha Kulshreshtha books and stories PDF | परजीवी

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परजीवी

परजीवी

मनीषा कुलश्रेष्ठ

मैं हमेशा से परजीवी नहीं था, मेरे पास नौकरी थी. तुमने शादी की ज़िद की और नौकरी भी छुड़वा दी. मैं तुम्हारे साथ बिना शादी के रहना चाहता था. यूँ शादी करने की तुम्हारी उम्र भी निकल चुकी थी. तुम खूबसूरत भी नहीं थी, और लड़की भी नहीं मगर मैं ने बरसों बाद हुई उस मुलाक़ात में तुमसे कहा कि – “तुम एक खूबसूरत लड़की हो.”

तुमने इस क़दर नाज़ से, एक सचमुच खूबसूरत, कमसिन लड़की की तरह मेरा क़ॉम्प्लीमेंट लिया, मानो इस तरह के जुमले तुम आए दिन सुनती आई हो. मैं मन ही मन झुँझला गया. मैंने सच्चे मन से तुम्हारे, कमरे, परदों और सलीके की तारीफ की. तुम अपनी कविताओं की डायरी ले आईं जिसमें तुमने अपने अकेलेपन और प्रेम की भूख पर (जिस्म की भी) बहुत लिजलिजी सपाट, अंग्रेजी कविताएँ लिख रखी थीं. कोई और कवि होता तो उसकी काव्य – चेतना उस रोज़ कोमा में चली जाती, मैं डटा रहा, मैंने प्रशंसा की. तुम फूहड़पन से शर्माती हुई पैर हिलाने लगीं, तुम्हारी शलवार का पाँयचा ऊपर उठ गया और पैरों पर काले – काले मोटे बालों ने मेरा मनोबल लगभग तोड़ ही दिया था.

खुद को बहुत बटोर कर मैंने नपे – तुले ढंग से तुमसे कहा था, “ समय ने मुझे बहुत पटख़नियाँ दी हैं.” तुमने लापरवाही से मुँहासों भरा माथा झटक दिया था और दाँत निकाल कर हँसी थी. उन दाँतों पर पीली फ्लोराईड की परत थी. मुझे उबकाई आ जाती, मगर मैं ने खुद को रोक लिया. तुमने कोई भावुक जुमला नहीं कहा उत्तर में. सिवाय इसके कि – नौकरी की क्या ज़रूरत, यहाँ रहो आराम से. मैं राहत महसूस करता रहा था. पूरे छ: महीने शादी की शर्त हमारे बीच में जलती – बुझती रही. क्योंकि ये समूचा पहाड़ी कस्बा तुम्हारा परिचित है. इलाके का हर व्यक्ति तुम्हें नाम से जानता है. तुमसे कभी भी कोई पूछ सकता है....घुमा फिरा कर. मैं चाहता था कि तुम कहो...अंकल हैं मेरे, बीमार हैं...लेकिन तुम्हें बजाय जिस्मानी सुकून पर तव्वज्जोह दिए अपनी माँग में रंग पोतना ज़्यादा सुविधाजनक लगने लगा. (पता नहीं क्या परेशानी है, इन औरतों की,जो प्रेमिका होगी, पत्नी बनने का जुनून पाले रहेंगी. पत्नी बनते ही प्रेमिका से होड़ लगाने लगेंगी.)

मुझे लगा था कि तुम वैसी नहीं हो. सच्ची कहूँ, मुझे तुम बहुत व्यवहारिक और सलीक़ापसन्द लगीं थीं. मुझे अच्छा लगा था, जब हाईवे पर पंक्चर कार का, फटाफट जैक लगा कर पहिया बदल दिया था. तुम उड़ा हुआ फ्यूज़ लगा लेती थी. तुम इनवेस्टमेंट के गुर जानती थीं. क्या हुआ जो तुम मेरी पहली पत्नी की तरह खूबसूरत और नफ़ासत पसंद नहीं थीं. डांस पार्टीज़ से तुम्हें चिढ़ थी और कपड़ों की पसन्द ठीक उसके उलट. वो तो ‘फ्रीक’थी, उसे पार्टीज़ में नाचना पसंद था, फैशनेबल कपड़े पहनना और किताबें पढ़ना. मुझे खुशी है कि तुम उसके जैसी नहीं थीं, जिसके प्रति हमेशा अतिरिक्त उदारता न दिखानी पड़े, जिसे हर वक्त न कहना पड़े – “तुम खूबसूरत हो. ग़जब का नाचती हो! जिसकी हर बात का ख्याल न रखना पड़े. उसे देख कर मेरी माँ ने कहा था, “ बेमतलब की सुन्दरता, बेकार ही भावुक हो रहे हो. कोई सयानी चुनो.”

मैं थक गया था यह सोच – सोच कर कि उसे क्या कह सकता हूँ और क्या नहीं. क्या मिला मुझे, दस साल ऎसे दाम्पत्य में रह कर, जिसमें घर लौट कर मिली माईग्रेन से त्रस्त माथे पर कपड़ा बाँधे बीवी और दिमाग़ चाटने वाला एक बेटा और मैला – कुचैला घर. उसे तो सब्ज़ी – रसोई का सामान तक खरीदने की तमीज़ न थी. वो इस क़दर बेशहूर थी कि चूल्हा गन्दा पड़ा है, ड्राईंगरूम में चप्पलें उतरी हैं, जाले लगे हैं, कमोड पीला, सिंक चिपचिपा. वह शहज़ादी मेरे लौटने से पहले तो बॉलकनी में होती, गुनगुनाती कविता लिखती हुई ( बेटे के मुँह से निकल गया था एक दिन), मुझे देख कर बिस्तर पर पड़ जाती. थके - माँदे घर लौट कर मुझे ही चाय बनानी होती, दिलासा देना होता.हर रोज़ यही सुनना पड़ता, सुनो जी, यह पुराना – सा घर मुझे पसन्द नहीं, इस शहर और इस घर ने तो मुझे बीमार कर दिया है. हर औरत जानती है कि मकान ‘घर’ बनाने होते हैं, लॉन वाला घर भी हो तो, लॉन की देखभाल करनी होती है. सपनीली - नीली खिड़कियों से भी धूल आती है, हवा के साथ, जाले भी आए दिन लगते ही रहते हैं, उन्हें साफ करना पड़ता है. मेहमानों को बुलाना होता है, दावतें देनी होती हैं.

वह नौकरी की कहती, तो मैं कहता – रानी, तुम घर में बैठो, तुम नौकरी के लिए नहीं बनी हो. जबकि सच तो यह था कि वह किसी लायक नहीं थी. कविताएँ लिखना – अकाउंट मिलाना दो अलग चीज़ें हैं. स्कूल में पढ़ा सकती थी, मगर चॉक से एलर्जी थी. वह बस ऎसी नौकरी के लायक थी कि उसे सजा – संवरा कर रिसेप्शन पर बिठा दो, वह मुस्कुराती रहेगी, अपनी रहस्यमय व्यंग्यात्मक मुस्कान. वह इतनी आकर्षक थी कि मुझे डर लगता था कि ऑफिस में कोई यौन शोषण का मसला न हो जाए. यकीन मानिए! वह किसी को भी इस मसले में फँसा सकती थी. मैं उसकी बातों पर हैरान हो जाता था, जब वह कहती, “सुनो जी. उस चौकीदार की नज़र गन्दी है.” “उस फल वाले के कमेंट में कुछ डबल मीनिंग था. मुझे देख कर ही कह रहा था – माल तो ताज़ा है जी.” मैं ने बताया कि भई वो उसका तकिया कलाम है, बरसों से जानता हूँ, वह ऎसे ही बोलता आया है. वो भैंचो, हर चीज़ में ऎसा कुछ ढूँढ लेती जो मुझे कभी नज़र नहीं आता था. तंग आ गया था मैं उस हूर की परी से. मैं ने उससे चाहा ही क्या, साफ घर, अच्छा खाना, साफ कपड़े और बिस्तर का सुख...मगर मिला क्या स्साला ! उसके डर, असुरक्षाएँ और कविताएँ.

उसके दिमाग़ में सिज़ोफ्रेनिया के कीटाणु थे, हर खूबसूरत, नाज़ुक मिज़ाज़ औरत की तरह. क्योंकि वे जब जहाँ होती हैं तब वहाँ नहीं होना चाहतीं और जहाँ नहीं होती हैं वहाँ होना चाहती हैं. मैंने कब सोचा था कि अचानक यह सब हो जाएगा, शादी के दसवें साल हम अपने पुराने शहर में तबादला करवा कर लौट आए, वही छोटा, ऊँघता – सा शहर, जिसे वो ख्वाब में देख लेती तो रात भर याद करते हुए जागती और रोती थी. खुदा जाने क्या हुआ कि अचानक वह अपने पौधे, अपने कपड़े छोड़ कर चली गई. मुझे लगा था कि अपने पुराने शहर लौट कर सब बदल जाएगा, बेहतर हो जाएगा. अह्ह ! कभी कुछ नहीं बदलता, बल्कि पहले से अधिक बिगड़ गया. वह अपनी ऎंठ से ही छुटकारा नहीं चाहती थी.

वह बड़े से अहाते वाले घर के सपने देखती थी, नीली बड़ी खिड़कियों वाले घर के, जैसा हमने गोआ में देखा था. मैंने मन ही मन तय कर लिया था कि मैं अपनी प्यारी को इस सस्ते – शहर में कुछ – कुछ वैसा ही घर बनवा कर दूँगा. जबकि मुझे पता था कि इतनी तनख्वाह में ईमानदारी की ज़िद के साथ यह नामुमकिन है, उसकी खुशी के लिए मैंने पुश्तैनी, शहर के चौक पर बना अपना पुराना घर बेच दिया..किराए के घर में आ गया. घर से मिला पैसा कुछ उसे देना पड़ा, बच्चे की सार – संभाल के लिए, कुछ शराब..कुछ शेयर में चला गया. उसके जैसी औरतें जीवन भर चूसती हैं, जब तुम खोखले हो जाते हो छोड़ देती हैं. मैंने दस साल उसे पाला, शऊर दिया कविता का, किताबों का.....कोई तो है जो उसके पीछे था, कोई साला कायर आशिक ! तभी तो बरसों उसकी हिम्मत नहीं हुई घर से अकेले निकलने की, जब देखो तब बिसूरती ही रही, मैंने कभी उसे पीटा तक नहीं .....एक दिन ज़रा धकियाया था कि वह बदमाश औरत मेरे बेटे को लेकर चली गई. बेटे के आगे सच को झूठ, झूठ को सच बना कर उसे खिलाफ कर दिया. बन्दा बिलकुल बरबाद हो गया. अपनी बीवी के छोड़ जाने पर जैसा की होता है. शराब...लापरवाही. क्या तुमने कभी ऎसी बीवी देखी जो पति के छोड़ जाने या मर जाने पर शराब पी – पी कर बरबाद हो जाए? मैंने तो एक भी नहीं.....वो तो और मस्त और आज़ाद हो जाती हैं.

वह सोचती थी कि मैं उसे नहीं सुनता. ऎसा नहीं था, यहाँ आते ही उसने कहा कि उसे वार्डरोब चाहिए थी, उसकी अपनी हल्के जामुनी दरवाज़ों वाली वार्डरोब. जिसमें वह कुछ निजी चीज़ें बेधड़क सहेज सके. मुझे क्या पता था कि वह इसी को वजह बना कर यहाँ से चली जाएगी, मैं उसे अपनी वाली दे देता. पता नहीं कैसे, उन दिनों वह कहाँ गुम रहा करती थी कि उसने कभी ध्यान नहीं दिया कि ऑफिस से आकर मैं क्या – क्या पापड़ बेलता हूँ. मैं खुद लकड़ी और कब्जे और बढ़ईगिरी का सामान लाया था. हर शाम दफ्तर से आकर गैराज में जाता और वार्डरोब बनाता. इतवार को दोपहर जब सब सोते या टीवी देखते तब भी! मैं बगल वाले शहर से हल्का जामुनी सनमाईका शीट लेने गया था, यह सोचते हुए कि वह इसे अपने जीवन का बेशकीमती तोहफ़ा मानेगी कि मैंने इसे हाथ से बनाया है....मैं समझ ही नहीं पाया कुछ ..... कि वो चली गई!!

मेरी माँ सही कहती थी, अपनी औरतों को जीना सिखाओगे, बाहर निकलना, पैरों पर खड़े होना तो वो एक न एक दिन तुम्हें छोड़ कर आगे बढ़ जाएँगी. वैसे वो इतनी सुन्दर भी नहीं थी. उसकी छोटी छातियाँ मुझे तब क्यों नहीं दिखीं? वह मतलबपरस्त, आराम-पसंद, जड़, ठण्डी औरत...तुम मुझे पसन्द हो. तुम मुझे इसीलिए पसन्द हो कि तुम अपना इनकम टैक्स रिटर्न खुद भरती हो. कम बोलती हो, मुझे पक्का पता है कि आत्महत्या की धमकी या डिप्रेशन का बहाना तुम नहीं करोगी.”

जब मैं बरबाद होने की कग़ार पर था तुमने इंटरनेट पर मुझे खोज लिया. तुम्हें एक पति चाहिए था, मुझे एक सयानी औरत. इसे मैं तुम्हारी कमाल की व्यवहारिकता का नाम दूँगा. वैसे इस हिम्मत की दाद मैं जरूर तुम्हें दूँगा, आज से कुछ साल पहले औरतें ऎसी न थीं, देखो न, औरतें ऎसी होतीं तो क्या वो मेरे बेटे को लेकर यूँ जा सकती थी, न तुम यूँ आधा साल लिविंग इन रहकर शादी की ज़िद करती. लेकिन इसकी नींव में हम हीं हैं. यूँ ही नहीं सारे जज और कानून तुम शातिर औरतों के पक्ष में होते, तलाक की एलीमनी, घरेलू हिंसा, आरक्षण तक ...क्या सोचती हो हमारे सहयोग के बिना इन चीज़ों को मंजूरी मिलती?

अरे! ऎसा क्या कह दिया मैंने? धकियाओ मत, अपनी काजल के कीच से भरी इन आँखों से घूरो मत. चौकीदार को बुलाने की ज़रूरत नहीं है.....चला जाऊँगा...देखो...जा रहा हूँ.

***