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गुब्बारे की हवा

गुब्बारे की हवा

आर0 के0 लाल

अपनी बर्थडे की उमंग में गुब्बारे फुलाते हुए मेरे सात वर्षीय पोते ने पूछा- “ बाबा मेरी पार्टी में आपके कोई रिश्तेदार या दोस्त क्यों नहीं आते जबकि आप बताते हैं कि शहर में आप के बहुत ढेर सारे रिश्तेदार हैं। जो लोग आते भी हैं वे या तो पापा-मम्मी के दोस्त होते हैं, उनके ऑफिस वाले होते हैं अथवा नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी-मौसा होते हैं। कभी कभार बुआ या चाची चाचा भी आ जाते हैं। आप अपने रिश्तेदारों, दोस्तों को क्यों नहीं बुलाते हैं?” आख़िर रिश्तेदार क्या होते हैं?

मैं निरुत्तर सा उसे देखता ही रह गया। पहले किसी भी मौके पर परिवार के सभी सदस्यों के रिश्तेदार एवं दोस्त शामिल होते थे। इतना ही नहीं, इन रिश्तेदारों के रिश्तेदार भी पूरी गर्मजोशी से किसी शादी ब्याह में हिस्सा लेते थे । उनमें कितनी आपसी मिठास होती थी परंतु आज इस सामाजिक दायरे में माता पिता के अलावा कुछ अंकल और आंटी ही रह गए हैं। हां उस समय इतनी जोरदार और महंगी पार्टियां नहीं होती थी । घर में ही खाने पीने की व्यवस्था होती थी। ज्यादा से ज्यादा कभी कभार एकाध हलवाई लगाना पड़ता था । सभी के साथ हम पूरा एंजॉयमेंट कर लेते थे। ननिहाल जाते थे तो पूरा गांव हमारा ननिहाल होता था और वहां के सभी लोग नाना नानी या मामा मामी होते थे। सभी हमें एक समान प्यार देते थे। मैंने अपने पोते को समझाया कि रिश्तेदार का मतलब संबंधी होता है जो कुछ न कुछ संबंध रखें । उससे ऐसा नाता हो जो न केवल सुख में बल्कि दुख में भी काम आए।

मैं उसे कैसे बताता कि तुम्हारी पार्टी का इंतजाम तुम्हारे पापा ही करते हैं । वहीं खर्चा उठाते हैं इसलिए वे ही निश्चित करते हैं कि कौन कौन पार्टी में आएगा। फिर भी मैंने पूछ लिया कि बेटा बताओ कि किसे बुलाना चाहते हो? उसने दिमाग पर जोर डाला और बताया कि उस दिन जब हम लोग मॉल में गए थे तो आपको एक अंकल मिले थे। आपने बताया था कि वह आपके मामा के मामा हैं और इंटरटेनमेंट अधिकारी हैं । उनके बच्चे बहुत अच्छे लगे थे उन्हें बुला सके तो अच्छा है । आपने बताया था कि कोई जज साहब आपके भाई हैं। इसी शहर में रहते हैं। इसी तरह उसने कई रिश्तेदारों को इंगित किया जो अचानक उससे कहीं ना कहीं टकराए थे मगर हम लोगों का घर आना जाना नहीं होता है। अब ज्यादा रिश्तेदारों से संबंध रखने की परंपरा भी तो नहीं है। उनसे मिलने जुलने का काम अब केवल किसी की शादी ब्याह में दो चार मिनट के लिए ही हो पाता है। केवल कहा जाता है कि आइए कभी घर । आप तो कभी आते ही नहीं है , कभी सेवा का मौका दीजिए। इतनी ही फॉर्मेलिटी रह गई है।

उस बच्चे ने बातों-बातों में पूछ लिया कि बाबा बताइए हमारे रिश्तेदार हमसे दूर कैसे हो गए हैं? मैंने समझाने की कोशिश की – “रिश्ते तो निभाने के लिए होते हैं। वक्त पर ही रिश्तो की सही पहचान होती है। इसीलिए लोग कहते हैं कि सारे शिकायतों को भूल कर एक दूसरे का साथ देना चाहिए। अगर मुश्किल के वक्त पर हम एक दूसरे का साथ नहीं देंगे तो क्या फायदा।“ फिर उसे याद दिलाया कि लगभग तीन महीने पहले तुम्हारे फूफा के यहां से शादी का निमंत्रण आया था। तुम सभी नहीं गए। सबने कहा था कि उनके यहां जगह की कमी है, इंग्लिश टवाइलेट नहीं है, ए0 सी0 भी नहीं है, बड़ी तकलीफ़ होगी। तुम्हारी मां भी यही कहती रही। जब तुम लोग नहीं गए तो वे भी क्यों तुम्हारे किसी फंक्शन में आयेंगे। अब एक शाखा टूट गई न। मैंने उसे बताया कि रिश्तेदारों में कोई अमीर होगा, कोई गरीब होगा, किसी के यहां बहुत सुविधा है तो किसी के यहां कम सुविधाएं हैं। संबंध बनाने में हमें अमीरी गरीबी को भूलना पड़ेगा क्योंकि हर कोई जीवन में उस जगह पर नहीं पहुंच पाता जहां पर दूसरा है। रिश्तेदारी हमारा एक समुदाय है और हमें अपने समुदाय के लिए कुछ ना कुछ देना चाहिए। न कुछ दे सके तो खुशी देना चाहिए।फिर उसे याद दिलाया कि जब तुम लोग अपने नाना के गांव गए थे तो वहां भी तो न ए0सी0 था न होटल वाला कमरा। फिर भी तुम कितना खुश थे क्योंकि तुम्हें वहां बहुत प्यार मिला था। सबसे बड़ी बात यह थी कि तुम्हारे मम्मी-पापा ने तुम्हे , वहां चलने के लिए किस तरह प्रेरित किया था।

यह सुन कर उस बालक ने स्वम कहा "कई लोग रिश्तों की अहमियत को समझ नहीं पाते और कुछ लोग तो रिश्ते को जानबूझकर बिगाड़ लेते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो रिश्तो को बदनाम करने की कोशिश करते हैं। मुझे लगता है कि रिश्तों को सहेजने और संवारने की जरूरत होती है। रिश्तेदारी निभाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी के अहम को ठेस न पहुंचे। दूसरी बात है आपस में मिलना जुलना अन्यथा किसी प्रकार का संबंध बना रहना संभव नहीं है।"

मुझे लगा कि मेरे पोते की बात सच है। मुझसे और मेरे परिवार से पुराने रिश्तेदारों का संबंध धीरे धीरे कम होता जा रहा है और बहुत लोगों से तो एकदम खत्म ही हो गया है। मुझे याद आया कि अपने बेटे की शादी के लिए मैट्रिमोनियल पत्रिका बनाते समय मैंने कितनी मेहनत की थी। लोगों से मिलकर और फोन करके किसी कोने से भी रिश्तेदार लगने वाले ऐसे लोगों के नाम जुटाए थे जो कहीं अफसर , नेता अथवा अच्छा बिजनेसमैन थे। उनमें से ज्यादा को मैं जानता भी नहीं था । केवल रौब जमाने के लिए था। नतीजा यह हुआ कि बेटे की ससुराल में कुछ प्रश्न पूछे गए उनके बारे में, तो मैं कई बार बगले झांकने लगा।

आज हम अपने कार्यालय के दोस्तों एवं अफसरों के साथ ज्यादा संबंध बनाने की कोशिश करते हैं । इसका हमें कोई फायदा कम ही मिल पाता है। पर उन्हें खुश करने के लिए उनके यहां पड़ने वाले फंक्शन पर ज्यादा से ज्यादा बढ़ कर हिस्सा लेते हैं और खर्च करते हैं । वहीं अगर किसी रिश्तेदार के यहां से निमंत्रण आता है तो पुरानी डायरी निकाली जाती है जिसमें लिखा होता है कि मेरे यहां उन्होंने क्या दिया था। अगर वह दस साल पहले भी इक्कावन रुपए का व्यवहार दिया था तो वह हमारी डायरी में लिखा होता है। हम थोड़ा बढ़ा कर एक सौ एक या एक सौ इक्कावन रुपए का लिफाफा भेज देते हैं । जाते भी हैं तो उनकी कुछ न कुछ गलतियां निकालते हैं। वैसे तो उसका स्टेटस देख कर के ही किसी के यहां जाते हैं। यह नहीं देखते हैं कि वह किस प्रकार का रिश्तेदार है और वह हमारे लिए कितना सोचता है। सुख-दुख में कितना शामिल होता है। न जाने क्यों रिश्तेदारों से संबंध बनाने में हम कोताही बरतते हैं।

यह सब सोचते सोचते मुझे लगने लगा कि मेरे गुब्बारे में कोई हवा ही नहीं है और मुझे फिर से अपने रिश्तो के गुब्बारे को फुलाना चाहिए। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो इस नन्हे से बच्चे की ललक धीरे धीरे मृतप्राय हो जाएगी और वह भी रिश्तेदारों का मतलब नहीं समझ पाएगा। मेरे मन में आया हमारे देश में रिश्तो की अहमियत को कोई नकार नहीं सकता इसलिए इसको कायम रखने में हमारी पूरी जिम्मेदारी होनी चाहिए। क्यों न अपने ही शहर में रहने वाले कुछ पुराने रिश्तेदारों से संपर्क किया जाए और उन्हें अपने से फिर जोड़ा जाए। मेरे थोड़े प्रयास के फलस्वरूप अगले रविवार को मेरे घर पर उनमें से कुछ लोग चाय पर आ रहें हैं। मुझे खुशी है कि मैं अपने घर पर उनका स्वागत करूंगा और फिर स्वाभिमान के साथ अपने पोते का उनसे परिचय कराऊंगा। शायद यह उसके बर्थडे का असली तोहफा होगा और उसे खुशी मिलेगी। मैंने अपने बेटे और बहू को विशेष रूप से समझा दिया था कि मुझे उन लोगों को अपने घर बुलाना है। उन्हें मेहमानों के बारे में मोटो मोटी बाते भी बता दी। वे सहर्ष तैयार हो गए और पूरा सहयोग देने के लिए वादा किया।

आखिर आज वह दिन आ ही गया। सभी उत्साहित थे। सुबह से अमित नौकर को लेकर पूरे घर की सफाई कर रहा था और बहू हाई टी की पूरी तैयारी कर रही थी। शाम को सभी लोग आए। गुलाब देकर स्वागत किया गया। मेरे बेटे, बहु, पत्नी और बच्चे अच्छी तरह से तैयार होकर वहां उपस्थित थे। मैंने सभी का परिचय कराया और बचपन की कई कहानियां सुनाई। सभी ने खाया पिया और मौज की। कुछ समय में हम सब अंतरंग रूप से एक दूसरे से फिर जुड़ चुके थे। सब ने वादा किया कि अब यह कार्यक्रम समाप्त नहीं होगा बल्कि महीने में एक बार किसी न किसी के घर पर मिलेंगे। हमें भी लगा है कि हमारी सामाजिक जड़ें इस शहर में काफी मजबूत हो गई है।

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