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अमलतास



जहाँ प्रेम हो वहाँ नीरवता कितनी सहज व सुखद होती है। किसी से चुपचाप प्रेम किए जाने की बात हो तो शून्यता के इस भाव का कहीं कोई मुकाबला नहीं..... फिर किसी को निहारते रहने के आनन्द के मध्य कुछ कहने सुनने की इच्छा भी कहाँ होती है....
उस रात जब मेरी नींद खुल गयी.. मेरे बेडरूम की खिड़की पर मानो चाँद उतर आया.. दीवार पर एक आकृति उभरी.. मैं अपलक निहारती रही.. तकिए पर सिर तक हिलाए बिना मैं उस प्यारी सी साझी खामोशी की उजास में नहाती रही, जिसे केवल मेरी नरम साँसों ने घेर रखा था.. अंततः मैंने पलकें मूंद लीं.. मुझे विश्वास होने लगा था कि मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूँ.
पर तुम मेरे दिल के हालात से बेखबर थे. यूँ तो तुम रोज मेरे घर आते थे, घण्टों पापा के स्टडी रूम में बैठे रहते और उनकी लाइब्रेरी से कुछ पुस्तकें खंगालते, कुछ नोट्स बनाते और चले जाते. मुझे भी कहाँ परवाह थी.. किन्तु उस दिन......
वह गर्मी की अलसायी दोपहर थी.. जब सारी प्रकृति कुम्हलाई थी, तब अमलतास अपने रेशमी बसंती फूलों का आँचल फैलाए गर्व से लहरा रहा था. लेकिन उस पर पतझर की करीब पंद्रह दिन चली प्रक्रिया भी कम रोचक नहीं थी. पेड़ पर लटकती दो फुट जितनी फलियों का हरा रंग धीरे धीरे काला हुआ, फिर सूखे पत्ते झरने लगे और काली फलियों के साथ ठूँठ बना अमलतास उदास दिखने लगा.. मैं उसे रोज निहारती थी.. शायद वह मेरी जिंदगी ही तो प्रतिबिंबित कर रहा था.. इसलिए उससे एक रिश्ता बन गया था. दोपहर में जब सभी सो रहे होते, मैं अपने रूम की खिड़की से अमलतास को निहारती और मेरी कलम डायरी पर कुछ शब्द चित्र उकेर देती.. अमलतास की आखिरी सूखी पत्ती गिरने के बाद चमत्कार ही हुआ था और... रातों-रात ही सब बदल गया. महीन, हरी, गोल झरबेरी के झुंड कुछ ही दिनों में अमलतास के पेड़ को मखमली, पीली, चिकनी, कोमल पखुंड़ियों के असंख्य समूहों की कतारों से लाद चुके थे उसकी छांह एक सुकून देती और उन पीले झूमरों की ख़ुशबू मन को आनंदित कर देती... पर मेरी जिंदगी अभी भी ठूँठ ही थी...
अचानक कॉलबेल की आवाज़ सुन भागी और तुरन्त दरवाज़ा खोला, तुम्हारे लिए नहीं… घर भर की नींद खराब न हो जाए इसलिए..
"आप कौन...?? सर हैं??" तुम सकपका गए थे..
"मैं बिल्ली.... आई मीन.. बलजीत..."
"म्याऊं..."
अमलतास ने शायद मेरे मन को पढ़ लिया.. हवा का झोंका आया और पीले जादुई गुच्छों से अंजुरीभर पंखुड़ियां बिखर गयीं... हमारे ऊपर..!
यह हमारी पहली मुलाकात थी. मुझे 'गोल्डन शॉवर' का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ था.
अब मैं तुम्हारे आने के समय किसी न किसी बहाने स्टडी रूम का चक्कर लगा देती.
वक़्त बीतता रहा और मैं कुछ कुछ रीतती रही. मेरी डायरी में अब शब्द नहीं, बिल्ली की तस्वीरें थीं.. रंग बिरंगी तस्वीरें.. कुछ खुश और कुछ उदास बिल्लियाँ.. उनकी आवाज़ जो किसी और ने चुरा ली थी.

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो,
कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है,
उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो..…
बशीर बद्र ने शायद मेरे लिए ही लिखा था.. और मैं तुम्हें पढ़ने की कोशिश करती रही.. तुम सिर झुकाए फिजिक्स पढ़ते रहे, मुझसे बेखबर....

वक़्त सरकता रहा, किन्तु मेरी जिंदगी तो जैसे वहीं ठहर गयी थी... मैं जान ही नहीं पायी कि तुम्हारे लिए वक़्त रुक गया था किन्तु तुम जिंदगी के साथ चल रहे थे... ऐसा क्यों होता है??

इस साल मैंने महसूस किया कि पहली बारिश के बाद मिट्टी की खुशबू कितनी सौंधी होती है.. मन में तुम्हारे प्रेम के जो अंकुर फूटे थे, वे पल्लवित और पुष्पित हो रहे थे.. जब बाहर मूसलाधार बारिश रुक जाती, तब मन के अन्दर एक बारिश शुरू हो जाती.. और पत्ते पर रुकी हुई पानी की बूंद के साथ ही तुम्हारी कोई याद टप से टपक जाती….. मैं शिद्दत से तुम्हारी ओर देखती कि शायद कुछ कहोगे किन्तु.... पता नहीं ये इंतज़ार इतना लंबा क्यों होता है?
बारिश भी गुजर गयी.. मैं चाहती रही कि तुम्हारे मन का कोई कोना मुझे दिख जाए जो मेरे प्यार से भीगा हो.. पर तुम पापा के साथ पता नहीं किस शोध में लगे रहे कि मेरे कान फिर से 'म्याऊं' सुनने के लिए तरस गए.
बारिश अब आसमान से नहीं होती, सर्द हवा के झोंके जब तुम्हारी यादों की खुशबू बिखेरते, मेरी पलकों की कोरें गीली हो जातीं. मेरी जिंदगी में तुम्हारा नशा सर्दियों में अदरक की चाय की तलब जैसा हो रहा था.. ये सर्दियां इतनी सर्द क्यों होती हैं..? अलाव में सुलगती लकड़ियों के साथ तुम्हारी याद भी सुलगने लगी थी. सूरज लिहाफ ओढ़ कर सो जाता और मैं तुम्हारी यादों के साथ जागती रहती.

'म्याऊं'... सुनते ही मेरा रोम रोम पुलक उठा... मेरी पीठ पर तुम्हारी आँखों का स्पर्श महसूस कर मैं शर्मा गयी.. धड़कते दिल को जतन से संभालते हुए पलटी, और....... वह वाकई एक बिल्ली थी. हर दिशा से तुम्हारी एक जोड़ी आंखे मुझे देख कर हँसने लगीं और तुम्हारे होंठ गोल होने लगे.... मैंने कानों पर हाथ रख लिया, क्योंकि 'म्याऊं-म्याऊं' का शोर अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था.

यूँ देखा जाए तो हमारे बीच कोई सम्वाद नहीं हुआ था अब तक.… बस तुम्हारा वो 'म्याऊं' कहीं दिल में गहरे उतर कर बेचैन कर रहा था मुझे..! क्या पहली नज़र का प्यार इसे ही कहते हैं..?

तुम्हारी थीसिस पूरी हो गयी थी. ज्यों ज्यों तुम्हारे जाने के दिन नज़दीक आ रहे थे, मुझे एक उदासी घेरने लगी थी.

"सुनो..." उस दिन पता नहीं तुम किस मूड में थे...
"ये चॉकलेट लाया हूँ तुम्हारे लिए..."
"...................."
"ओह! भूल गया, बिल्ली चॉकलेट नहीं खाती, दूध पीती है.." तुम्हारी आँखों में शरारत थी.
मैं अपलक निहार रही थी... कि काश चॉकलेट के साथ एक फूल भी हो... साहित्य और विज्ञान पढ़ने वालों की भावनाएं इतनी अलग अलग क्यों होती हैं??

उस दिन हम देर तक लॉन में बैठे रहे..
"सुनो! म्याऊं...." बोलने के साथ ही तुमने मेरी आँखों में चमकते जुगनू देख लिए थे. मैं विश्वास करना चाहती थी कि मेरा प्यार एकतरफा नहीं है... हमने ढेर सारी बातें की थीं... पहली बार....! पर जो मैं सुनना चाहती थी, वह तुमने नहीं कहा..!
चाँद अपने पूरे शबाब पर था.. अमलतास की फुनगियों पर चाँदनी बिखरी थी... और तुम चले गए.. मेरा इंतज़ार अधूरा छोड़कर....! तुमने क्यों नहीं बताया कि पापा तुम्हें लेकर मेरी होने वाली ससुराल गए थे.. ! जब मुझे पता चला, मैंने चॉकलेट का रैपर देखा.. दो पंक्तियाँ लिखी थी.
चलो बाँट लेते हैं अपनी सजाएं..
ना तुम याद आओ ना हम याद आएं...!
वह चॉकलेट का रैपर आज भी मेरे पास रखा है.

मैं आज भी चाँदनी रात में अमलतास के फूलों को देख तुम्हें याद करती हूँ... और सोचती हूँ कि प्यार तभी मुक्कमल होता है, जब ख्वाब अधूरा रह जाए... मुझे पता है तुम भी कहीं चाँदनी को पीली और फूलों को सफेद होता देख रहे होंगे....!

©डॉ वन्दना गुप्ता
उज्जैन
मौलिक एवं अप्रकाशित