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पर्व के रंग


दीवाली की रात.. सूरज और चाँद मानो एक साथ सम्पूर्ण निहारिका लेकर धरती पर जगमगाने चले आए हों. मन के भीतर भी और बाहर भी उत्सव का उल्लास छाया हुआ . सृष्टि का कण कण पर्वमयी हो सप्तरंगी इंद्रधनुष सी छटा बिखेरता हुआ, तन और मन को पुलकित करने का पर्याप्त अवसर प्रदान कर रहा था.. इन सबके बीच शिखर, बारह वर्षीय चंचल बालक एकदम गुमसुम सा बैठा रहा.. पाँच वर्ष बड़ी बहन शीतल के सारे प्रयास विफल हो गए.. वह आतिशबाजी के लिए तैयार ही नहीं हुआ .
"मम्मा! देखो न शिखर को आप ही समझाओ अब, पटाखे क्या मैं अकेले चलाऊंगी..?" शीतल ने मुझे पुकारा.

"तुमसे कहा था न कि बच्चे हैं, इन्हें आनंदपूर्वक दीवाली मना लेने दो, पर पर्यावरण का ठेका तो तुम्हीं ने ले रखा है. क्या जरूरत थी बच्चों को आतिशबाजी के लिए टोकने की?? अब देखो वो नाराज बैठा है, समझाओ उसे." मैंने इन्हें आवाज़ दी .

अब मम्मी पापा और दीदी तीनों मिल कर उसे मनाने में व्यस्त... पर वह पता नहीं किस सोच में गुम.. बड़ी देर बाद बोला.. "क्या सच में उन बच्चों को नहीं पता कि दीवाली क्या होती है और उनके मम्मी पापा उन्हें क्यूँ छोड़ जाते हैं?"

ओह! तो ये बात है. इस बार पुराने कपड़ों से जब पाँच सूटकेस भर गए तो मैंने विचार किया कि सेवाधाम आश्रम जाकर ये कपड़े दे आते हैं, सेवाधाम मतलब निराश्रितों का आश्रय.. संजीव भाई निःस्वार्थ भाव से आश्रम चला रहे हैं. पुराने कपड़ों से बर्तन लेना मुझे पसन्द नहीं और कामवाली बाई को पिछली बार दिए ढेर सारे कपड़ों में से कुछ मैंने ठेले पर बिकते देखे तो मन दुःखी हो गया था. अपने घर के कपड़ों को पहचानने में मैं गलत नहीं हो सकती थी. सो इस बार ये अनूठा अनुभव होगा, बच्चे भी कुछ नया देखेंगे और सीखेंगे. पतिदेव भी सहर्ष तैयार हो गए. छोटी दीवाली के दिन सुबह जल्दी ही तैयार हो पहले बाजार से फल और मिठाईयां खरीदीं और हम सब निकल पड़े गंतव्य की ओर..

एक घण्टे बाद वहाँ पहुँचकर सभी खुश थे. संजीव भाई ने स्वागत किया और प्रयोजन जान वे भी खुश हुए. उन्होंने पूरा आश्रम घुमाया.. वे बताते जा रहे थे कि किस तरह एक छोटी सी शुरुआत से आज इस मुकाम तक पहुंच गए हैं. आश्रम की रसोई में भोजन चल रहा था, वहीं भोजन किया. वहाँ रहने वाली महिलाएं ही बारी बारी से रसोई की जिम्मेदारी सम्भालती थीं. कभी कोई दानदाता दाल, चावल, गेहूँ, सब्जियाँ या आर्थिक मदद भी दे देते थे. एक वार्ड पुरुषों का था, कुछ निराश्रित थे, कुछ उपेक्षित और कुछ विक्षिप्त भी थे. सभी को मिठाई बांटी, वे बहुत खुश थे. अगले हिस्से में महिलाएँ थी, वहाँ भी आधी से अधिक मानसिक रोगी लग रहीं थी. अंत में हम बच्चों के वार्ड में पहुँचे. यहाँ की स्थिति विचलित करने वाली थी. दो माह से लेकर अट्ठारह वर्ष की उम्र तक के बच्चे थे. कहीं विभिन्न मुखमुद्राएं और कहीं भावहीन चेहरे... बच्चों ने खूब खुश होकर मिठाई खाई. शिखर और शीतल भी खुश थे, बच्चों से बात कर रहे थे. अचानक एक बच्चे ने पूछ लिया.. "तुम यहाँ रहने आए हो?"
"नहीं, हम दीवाली पर तुमसे मिलने आए हैं" शिखर ने कहा.
"अच्छा ये तुम्हारे साथ कौन हैं और दीवाली क्या होती है?" उसका अगला प्रश्न था.
"ये मेरे मम्मी पापा और दीदी हैं, दीदी तुम बताओ न दीवाली क्या होती है." मैंने देखा कि शिखर के चेहरे का रंग बदल रहा था.
"अच्छा! मम्मी.. पापा..... ??" वो कुछ सोचता हुआ निर्विकार भाव से हमारी ओर देखकर बिना जवाब की प्रतीक्षा किए आगे बढ़ गया. शिखर के चेहरे पर थोड़ी देर पहले जो इंद्रधनुष था, वो मानो एकाकार हो पुनः सफेद हो गया.
हम लोग भी विचलित हो गए थे, अब ज्यादा देर वहाँ रुक पाना असहनीय हो रहा था. संजीव भाई को साधुवाद देकर उन्हें भविष्य में सहयोग का वादा कर हम लौट आये.

आज दिवाली के दिन सुबह से व्यस्त होने से मैं मेरे बेटे की पीड़ा देख ही नहीं पाई. मैंने सोचा था कि हर बार की तरह वह उत्साहित हो पर्व का आनन्द ले रहा होगा. मैं खुद को अपराधी समझने लगी कि अनजाने ही मैंने मेरे बच्चे को कितना कष्ट पहुँचाया. मैं विचारमग्न ही थी कि अचानक पतिदेव बोले... "तो मेरा बेटा अपने उस अनजान दोस्त के लिए दुःखी है, चल उसी के साथ पटाखे फोड़ेंगे.."
"अरे पर तीस किलोमीटर दूर जाना इस समय..." मेरी बात काटते हुए इन्होंने कहा.. "चुपचाप पटाखे लो, मिठाई लो और गाड़ी में बैठो." शिखर के चेहरे पर स्मित रेखा देख मैं चुपचाप गाड़ी में बैठ गई. पन्द्रह मिनट बाद हम शहर के मूक बधिर और मानसिक दिव्यांग बच्चों के बोर्डिंग स्कूल में थे. शिखर के चेहरे पर प्रश्नचिन्ह देख इन्होंने उसका हाथ पकड़ा और गाड़ी से उतारते हुए बोले.. "आओ बेटा यहाँ और भी नए दोस्त मिलेंगे."
रोशनी से स्कूल जगमगा रहा था. अंदर पहुँचे. वहाँ का स्टाफ भी प्रसन्न हुआ. सब बच्चों से मिलकर शिखर भी खुश था.
सब बच्चे उल्लासित हो पर्व के रंग से सराबोर हो दीवाली मना रहे थे, मिठाई खा रहे थे और आतिशबाजी चला रहे थे. शिखर और शीतल की खुशी आज हमेशा से अलग थी. यह दीवाली उन्हें जिंदगी का एक नया ही रंग दिखा गई थी... उत्सव का असली रंग.. प्यार, अपनत्व, उत्साह और करुणा का समन्वय हो तभी त्यौहार का असली आनंद है.
बच्चों को खुश देख इन्होंने हौले से मेरा हाथ दबाया और बोले.. "वाह मेरी जानू! मान गया तुम्हें, क्या आईडिया दिया. इस बहाने बच्चे कितना कुछ सीख गए. जिंदगी का अभाव भी और प्रभाव भी, अब उन्हें मिली सुख-सुविधाओं की कीमत भी समझेंगे और इस उम्र में महसूस की हुई सम्वेदनाएँ उन्हें जिंदगी भर विनम्र और ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहना सिखाएंगी..."

.... और मैं इन सबसे बेखबर बच्चों की खुशी में डूबकर मेरी दिवंगत माँ को श्रद्धासुमन अर्पित कर रही थी... आखिर यह बचपन में मुझे दी गई उन्हीं की सीख थी...
मानो तो गैर भी अपने हैं और न मानो तो अपने भी पराए हैं..!!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित