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गलतफहमी



सर्दी की दोपहर सिया को हमेशा ही अनोखे अहसास कराती है, पहले सिर्फ गुदगुदाती थी, अब कभी कभी उदास कर देती है। आज सुबह से ही कुछ बेचैनी सी महसूस हो रही थी। आज वैसे भी इतवार है, यूनिवर्सिटी बंद है सो वह कुछ रिसर्च पेपर्स लेकर धूप में आ बैठी। अचानक फोन बजा.... "हेलो सिया! मैं सतवीर बोल रही हूँ, आज शाम को मायके पहुँच रही हूँ, तेरा क्या प्रोग्राम है, कल शाहीन के बेटे की पार्टी में मिल रही है न?"
"अरे वाह..! पर कल मुझे कुछ जरूरी काम है, अभी तुम लोग एन्जॉय करो, अगली बार मिलती हूँ.."
फोन रखकर सिया पाँच साल पीछे चली गयी...!

"सर्दी सबसे ज्यादा सूरज को लगती है, इसीलिए तो वह देर से आता है और जल्दी चला जाता है.." सतवीर की बात सुनकर शाहीन का जवाब था.. "नहीं! सूरज के देर से आने और जल्दी जाने से सर्दी बढ़ जाती है। इन दोनों की बात सुनकर सिया झुंझला जाती..."तुम्हें पता है यदि हमारे देश में ऋतु परिवर्तन नहीं होता तो काफी लोगों को बात करने का टॉपिक शायद नहीं मिलता.."
सतवीर, शाहीन और सिया तीनों बचपन से पक्की सहेलियाँ हैं.. वो जिन्हें आजकल के बच्चे चड्डी बडी कहते हैं.. उस तरह की... तीनों के पिताजी... नहीं.. , सतवीर के डैडी, शाहीन के अब्बू और सिया के पापा तीनों ही सीमेंट की बहुत बड़ी कंपनी में अच्छे ओहदे पर थे और कंपनी की कॉलोनी के एच आई जी टाइप के क्वार्टर में पास पास रहते थे। सत्तू, शिहू और सीयू तीनों सहेलियाँ कॉलोनी के पार्क में खेलती हुई इतनी बड़ी हो गयीं हैं कि अब एक कॉलेज में साथ ही पढ़ती हैं। इतने साथ के बाद भी पारिवारिक पृष्ठभूमि की छाप तीनों के विचारों से झलकती है। एकता में भी विविधता देखनी हो तो इन तीन सहेलियों को देख लो।
हाँ तो सर्दी की एक कुनकुनी दोपहर है और तीनों सहेलियाँ फ्री पीरियड में कॉलेज कैंटीन में अदरक वाली चाय के साथ समोसे का लुत्फ ले रही हैं.. सर्दी की गुनगुनी बातों के साथ..!
अचानक कैंटीन में काम करने वाला बालक एक पुर्जा दे गया। शिहू देखती रही सहमी सी, सत्तू ने चारों ओर नज़र घुमाई और सीयू ने मुस्कुराते हुए पुर्जा खोला.. लिखा था..
"रिश्तों से बड़ी चाहत और क्या होगी,
दोस्ती से बड़ी इबादत और क्या होगी,
जिसे दोस्त मिल सके कोई आप जैसा,
उसे ज़िंदगी से कोई शिकायत क्या होगी"

सीयू ने जोर से पढ़ा.. इतना जोर से कि कैंटीन की सबसे पीछे वाली टेबल पर अकेले बैठे पेपर पढ़ने वाले लड़के का पेपर हिल गया, पर चेहरा नहीं दिखा। कुछ टेबल पर सिर्फ लड़के थे, कुछ पर लड़के लड़कियाँ दोनों और कुछ इक्का दुक्का टेबल पर इन तीन सहेलियों की तरह सिर्फ लड़कियाँ..!
किसने लिखा होगा और क्यों?? इसी सोच विचार में क्लास का समय हो गया। शाम को सत्तू के घर टी वी देखते हुए फिर चर्चा निकली कि आखिर किसे दोस्ती करनी है और क्यों?? निष्कर्ष अगले दिन पर टल गया।

अगले दिन कॉलेज जाने की उत्सुकता कुछ ज्यादा ही थी, शायद कोई राज खुले। फिर वही कैंटीन, वही टेबल वही चाय और वही समोसा लेकिन एक नयी बात भी थी.. कुछ अतिरिक्त सजगता, उस कैंटीन के बालक की पहरेदारी के साथ कि उससे कौन कब और कैसे मिल रहा है। कोई फायदा नहीं हुआ और क्लास का टाइम हो गया। दो तीन दिन बेचैन से गुजरे फिर बात भुला दी गयी। अगले महीने उसी तारीख को फिर से वही सीन और एक दनदनाता रॉकेट उनकी टेबल पर गिरा.. सत्तू गुस्से में खड़ी हुई और चिल्लाई.." कौन बदतमीज है ये?" वह रॉकेट फैंकने ही वाली थी कि सिया ने उसके हाथ से लेकर फिर से पढ़ा.. लेकिन इस बार मन में...

"याद ऐसा करो कि कोई हद न हो,
भरोसा इतना करना कि शक न हो
इंतेज़ार इतना करो कि कोई वक़्त न हो,
दोस्ती ऐसी करो कि कभी नफरत न हो!"

उसकी नज़र सबसे पीछे की कोने वाली टेबल पर गयी, एक स्मार्ट सा शख्स बैठा हुआ मुस्कुरा रहा था। उसने रॉकेट चुपचाप मुट्ठी में भींचकर डस्ट बिन में डाल दिया और चेहरे पर लाली छा गयी जिसे सत्तू ने देख लिया और उबल पड़ी कि "फालतू किसी को शह क्यों दे रही है और उस कागज़ पर क्या लिखा था?" शिहू चुपचाप बैठी रही नीचे निगाह थीं तो कुछ नोट नहीं कर पायी। लेकिन सिया के दिल में कुछ कुछ हुआ था और यह बात उसने पहली बार सत्तू और शिहू को नहीं बतायी। बस मन ही मन अगले महीने का इंतेज़ार करती रही।
परीक्षा शुरू होने वाली थी और आज महीने की वही तारीख कैंटीन में इस सत्र में आखिरी बार आयी थी। सर्दियाँ कम हो चली थीं और बसन्त पंचमी के साथ ही सिया के मन में भी बसंती सपने उगने लगे थे।
कैंटीन में पहुँचते ही उनकी टेबल पर रखा बुके सबसे पहले शाहीन ने देखा, क्योंकि सिया की नजरें कुछ और खोज रही थीं। सतवीर ने बुके उठाया और उसके साथ लिखा सन्देश पढा...

"हम ना अजनबी हैं ना पराये हैं,
आप और हम एक रिश्ते के साये है,
जब जी चाहे महसूस कर लीजियेगा,
हम तो आपकी मुस्कुराहटों में समाये हैं"
- रेहान
इस बार एक नयी बात थी.. एक नाम लिखा था...! सिया के अंदर कुछ दरक गया और शाहीन लाल हो गयी। सतवीर हमेशा की तरह अक्खड़ रही। आज कैंटीन में वो चेहरा भी नज़र नहीं आया, नहीं तो सिया नाम और चेहरे को मिलाने की कोशिश जरूर करती।
खैर....! परीक्षा में व्यस्त होने से कोई नयी बात अगले दो महीने तक नहीं हुई। तीनों सहेलियाँ स्नातक की डिग्री ले चुकीं थीं। शाहीन के अब्बू उसका निकाह करने की तैयारी में थे, सतवीर के प्राजी आर्मी अफसर थे और उसे भी आर्मी लाइफ पसन्द थी तो उसकी परजाई जी के रिश्ते के भाई से उसके सम्बन्ध की बात भी चल रही थी और सिया का सपना स्नातकोत्तर के बाद कॉलेज में प्रवक्ता बनने का था तो वह आगे की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर जाने वाली थी।
एक दिन अचानक ही शाहीन ने दोनों सहेलियों को घर बुलाया और बताया कि उसके रिश्ते के लिए किसी रेहान के घर से सन्देशा आया है और आज वे लोग आने वाले हैं उसे देखने...। तीनों सहेलियाँ खुश थीं कि आज रेहान से सामना होगा। सिया मन ही मन सोच रही थी कि "काश! वो कोने की टेबल वाला न हो.."
मेहमान आ गए और शाहीन के लिए हरे काँच की चूड़ियां भी लेकर आए, किन्तु कुछ जरूरी काम होने से रेहान नहीं आ पाया। उसका फोटो घर वालों को पसन्द आया और जब उन लोगों ने बताया कि उसने कॉलेज में शाहीन को देखकर पसन्द कर लिया है तो अब्बू अम्मी तैयार हो गए। उनके घर का माहौल इतना खुला नहीं था कि लड़के लड़की का निकाह के पहले मिलना जरूरी हो। वे लोग चूड़ियाँ पहनाकर और निकाह की तारीख तय कर चले गए। उनके जाते ही तीनों सहेलियाँ फोटो लेकर शाहीन के कमरे में आ गयीं।
"वाह शिहू! यार तू तो छुपी रुस्तम निकली, दिल चुरा लिया और हमें ही खबर नहीं.. देखें तो जीजू को…. ये वही दोस्ती का सन्देश भेजने वाले ही हैं पक्का..."
फोटो देखते ही सिया का दिल टूट गया... वही था कोने की टेबल वाला.... "लेकिन उसने मुझसे कुछ कहा थोड़ी और फिर रेहान से मैं जुड़ भी कहाँ सकती थी, वह शाहीन के लिए ही संदेशे भेजता था, मुझे ही गलतफहमी हो गयी थी.." ऐसा सोचकर वह सहेली की खुशी में शामिल हो गयी। निकाह की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।
कुछ संयोग ऐसा हुआ कि निकाह वाले दिन ही सिया की कॉलेज में प्रवेश परीक्षा थी और सतवीर की उसी दिन भाई के घर में सगाई थी। दोनों सहेलियाँ शाहीन के निकाह में शामिल न हो पायीं और रेहान को छकाने के लिए उनकी लिखी शायरी धरी ही रह गयी।
आज शाहीन निकाह के बाद पहली बार आयी है और सिया उससे मिलने की बेसब्री में दौड़ी चली आयी। सत्तू अभी भी भाई के घर अपनी शादी की शॉपिंग में बिजी थी।
"हाँ शिहू जी अब खोलिए पिटारा रेहान की बातों का... कितनी शायरी और सुना दी तेरे चितचोर ने.. जल्दी बता.." सिया का लहजा शरारत से भरा था।
शाहीन बिल्कुल उदास और चुप बैठी रही।
"अरे बाबा, प्रवेश परीक्षा जरूरी थी, वरना एडमिशन कैसे मिलता? वरना तेरे निकाह को मिस नहीं करती यार.… अब माफ कर दे, जीजू आएंगे तो उनसे भी माफी माँग लूँगी.." सिया ने कान पकड़ लिए।
अचानक शाहीन रो पड़ी... रोते रोते बोली... "रेहान ने जैसे ही घूँघट उठाया, एकदम चौंक पड़ा और.."
"और क्या....?" सिया घबरा गयी।
वह बोला कि "तुम शाहीन हो? मैं तो आज तक उसे शाहीन समझता था..."
शाहीन फिर रोने लगी... "सीयू वह मुझे नहीं, तुझे प्यार करता है, गलतफहमी में मुझसे निकाह हो गया"
सिया का टूटा दिल और टूट गया... क्या कहती.. चुपचाप उठकर चली आयी, शाहीन ने भी नहीं रोका। विचित्र स्थिति निर्मित हो गयी थी। पक्की सहेलियाँ जीवन के इस मोड़ पर यूँ बिखरेंगी, किसी ने नहीं सोचा था।
गुजरते वक्त के साथ सिया पढ़ाई पूरी कर कॉलेज में प्रवक्ता बन गयी और शोधकार्य में व्यस्त हो गयी, शायद शादी में देरी का और कोई बहाना मिलता भी नहीं। मम्मी पापा तो कब से बोल रहे हैं और उन्होंने एक प्रवक्ता लड़का पसन्द भी कर रखा है, किन्तु सिया ही शाहीन के दुख का जिम्मेदार खुद को मानकर अभी तक कुंवारी बैठी है। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई फिर कभी शाहीन से मिलने या बात करने की। सतवीर भी गृहस्थी में व्यस्त हो गयी। बस उसी की सिया और शाहीन दोनों से बात हो जाती थी कभी कभी। उसे दोनों ने कुछ नहीं बताया था।
फिर से फोन की घण्टी उसे वर्तमान में ले आयी। मम्मी थीं.. "बेटा! शेखर के घरवाले शादी की जल्दी कर रहे हैं, तू फाइनल बता, वे और इंतज़ार करना नहीं चाहते.."
"आप शादी की तारीख तय कर लीजिए.."
सिया फिर सोचने लगी... "शाहीन और रेहान का बेटा हो गया, मतलब उसने समझौता कर लिया है... दोस्ती की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गयी... शिहू की जिंदगी में रेहान का साथ जरूरी है, मेरा नहीं.... अब मुझे भी मेरी ठहरी हुई जिंदगी को गति प्रदान करनी चाहिए..।"

आज भी सर्दी की वही गुनगुनी दोपहर है, वही यादें हैं किंतु कुछ बदला हुआ और बहुत कुछ बदलने के इंतेज़ार में..... सर्द गलतफहमियां नए संकल्पों की ऊष्मा से पिघल रही हैं...!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित