Aaspas se gujarate hue - 14 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | आसपास से गुजरते हुए - 14

आसपास से गुजरते हुए - 14

आसपास से गुजरते हुए

(14)

वो आसमान था शायद

16 फरवरी, 2000, बुधवार, रात ग्यारह बजकर चालीस मिनट!

मैं और शर्ली आमने-सामने बैठे थे। वह चार घंटे पहले घर आई थी। उसे चाय-स्नेक्स(नाथू से समोसा ले आई थी) खिलाने के बाद मैंने संक्षेप में उसे बताया था कि मेरे साथ क्या हुआ है। शर्ली को स्टेशन लेने जाने से पहले मैं सफदरजंग एन्कलेव में लेडी डॉक्टर आशा बिश्नोई के पास गई थी। मेरा शक सही निकला था!

मेरी बात सुनकर वह अविश्वास से मेरी तरफ देखने लगी, ‘क्या कह रही हो तुम? तुम कहना चाहती हो कि तुम शादी से पहले प्रेग्नेंट हो?’

‘शादी से पहले, बाद में क्या होता है?’ मैं झल्ला गई। कहने के बाद मुझे अफसोस भी हुआ कि मैंने उसे क्यों बता दिया?

शर्ली के चेहरे पर अजीब-से भाव आए, ‘मुझे तो पहले ही शक था। तुम अकेली रहती हो, यही सब होना था!’

‘क्या मतलब है तुम्हारा? मैं पिछले तीन साल से अकेली रह रही हूं, मुझे पता है मेरी सीमाएं क्या हैं? मैं एक जिम्मेदार लड़की हूं!’ मुझे चिढ़ गई। व्यंग्य से उसके होंठ टेढ़े हो गए, ‘ हां, अपने जिम्मेदार होने का सबूत तो तुमने दे ही दिया!’

मुझे जबर्दस्त गुस्सा आया। क्या चाहती थी शर्ली कि मैं कहती मुझसे गलती हो गई, अनजाने में कदम बहक गए?

शर्ली ने मुझे समझाने की कोशिश की, ‘अनु, मैं तुम्हारे भाई की पत्नी की हैसियत से कह रही हूं, तुम एबॉर्शन करवा लो, जितनी जल्दी हो सके। देखो, इस बात का पता किसी को नहीं चलना चाहिए।’

मैं उठ गई। शर्ली मेरे पीछे-पीछे आ गई, ‘तुम्हारे भैया को पता चलेगा, तो क्या कहेंगे?’

‘शर्ली, तुम मेरी बात समझ ही नहीं रहीं। इस वक्त मैं कुछ भी निर्णय लेने के मूड में नहीं हूं। आज सुबह ही मुझे अंदेशा हुआ कि मैं प्रेग्नेंट हो सकती हूं, मुझे समझ नहीं आया कि मैं यह बात किससे शेयर करूं, मैंने तुमसे यह सोचकर किया कि...’

शर्ली ने कुछ सख्त आवाज में कहा, ‘तुम्हारे पास और कोई चारा नहीं है। तुम्हें पता भी है कि बात जब खुलेगी तो लोग क्या कहेंगे? तुम्हारे घरवाले, यहां तक कि मेरे घरवाले भी। पता नहीं सुरेश ने तुम्हें अकेला यहां क्यों रहने दिया? वक्त पर तुम शादी कर लेतीं तो...’ वह रुक गई, ‘तुम उस आदमी से शादी क्यों नहीं कर लेतीं, जिसके साथ...’

‘यह मुमकिन नहीं! ’ मैं सपाट स्वर में बोली।

‘क्यों? वह शादीशुदा है?’

‘उसकी शादी होनेवाली है! वैसे भी हम दोनों ने कुछ सोचकर यह सब नहीं किया था!’

शर्ली आश्चर्य से मेरा चेहरा देखने लगी, ‘ना तुम उस आदमी से शादी करना चाहती हो, ना एबॉर्शन, फिर...’

‘अभी सोचा नहीं!’ मेरी आवाज ठंडी थी। मैं कम-से-कम एक रात अपने अंदर पल रहे जीव के साथ गुजारना चाहती थी।

शर्ली मुझे पर खूब गुस्सा हुई। उसने सुरेश भैया को फोन करके बता दिया। मैं शांत थी। पता था, यही सब होना है।

सुबह नौ पचपन की ट्रेन थी। लगभग सात बजे भैया का फोन आया, ‘यह तूने क्या किया अनु?’

मैं चुप रही।

‘इतनी फ्रस्ट्रेटेड है तू? तुझे जरा भी ख्याल नहीं? इससे अच्छा होता कि तू शादी कर लेती?’ भैया की आवाज में रोष था।

‘भैया, मिलने पर बताऊंगी, अभी नहीं।’

‘अब रह क्या गया है? शर्ली जो कह रही है, सच है?’

मैंने सोचने के बाद कहा, ‘शायद!’

भैया फट पड़े, ‘तेरे आसार शुरू से ठीक नहीं थे। हमारी ही गलती है, जो तुझे खुला छोड़ दिया।’ मैंने कुछ नहीं कहा।

‘अनु, तेरी मनमानी अब नहीं चलेगी! मैं भोपाल में तुम लोगों को स्टेशन पर मिलूंगा। आई से मैंने कह दिया है कि वे भी कल्याण स्टेशन से हमारी ट्रेन में आ जाएं।’

मैंने ‘अच्छा भैया’ कहकर फोन रख दिया।

कल रात से शर्ली मुझसे बिल्कुल नहीं बोल रही थी।

आठ बजे शेखर का फोन आया, ‘सुना, तुम लम्बी छुट्टी पर जा रही हो?’ शेखर की आवाज सुनकर दिल की धड़कर क्षण-भर के लिए रुक गई, ‘हां, कोचीन जा रही हूं।’

‘कोई खास बात?’

‘नहीं!’ मैं रुक गई, ‘शेखर, मैं शायद महीने-भर नहीं आऊंगी। मेरे ड्राअर में बाएं केबिनेट में सारी जरूरी फाइलें रखी हैं, तुम ही हैंडल करना, चक्रवर्ती से मत कहना, वह लापरवाह है।’

‘हां, आफिस का काम तो हो जाएगा, पर तुम इतने दिनों के लिए क्यों जा रही हो?’

मैंने लम्बी सांस ली, ‘काम ही ऐसा है! अच्छा, तुमसे कुछ कहना था...’

‘हां, कहो?’ वह उतावला हो गया। मैं असमंजस में पड़ गई। उसे बताऊं कि नहीं? जरूरत क्या है? पर रहा नहीं गया, ‘देखो, मैं तुम पर कोई बोझ नहीं डालना चाहती, पर...’

‘अरे बाबा, कह भी दो...’

‘उस रात जो हुआ...’ मैं रुक गई।

‘हां! क्या तुम, क्या तुम?’ उसकी सांस रुक गई।

‘हां!’

‘डॉक्टर को दिखाया? माइ मीन...!’

‘हां!’ मैं रुक गई, ‘आज नौ पचपन की मंगलम एक्सप्रेस से मैं कोचीन जा रही हूं। मैंने तुमसे इसलिए नहीं कहा कि मुझे तुमसे कुछ चाहिए! मैं देख लूंगी, मुझे क्या करना है।’

शेखर शायद स्तब्ध रह गया था। बस, वह इतना ही कह पाया, ‘अनु, आइ एम सॉरी!’ मैंने फोन रख दिया।

मैं और शर्ली निजामुद्दीन स्टेशन पर पहुंचे, तो ट्रेन लग चुकी थी। मैंने सेकेण्ड एसी में टिकट बुक करवाई थी। ट्रेन चलने में दस मिनट रह गए, तब शेखर दौड़ता हुआ आया। उसने यह भी ख्याल नहीं किया कि शर्ली मेरे साथ बैठी है। उसने भावुक होकर कहा, ‘अनु, मेरी वजह से तुम प्रॉब्लम में आ गई हो! क्या मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकता हूं?’

‘नहीं!’ मैंने तुरंत कहा। मैं नहीं चाहती थी कि शर्ली उसके बारे में जाने।

‘अनु, तुम कहां जा रही हो? मुझे बताओ। मैं बहुत परेशान हूं...’

मैंने धीरे-से कहा, ‘देखो, मैं वापस आऊंगी। पर मेरे साथ जो भी हो रहा है, तुम्हारा इससे लेना-देना नहीं है। तुम जाओ।’

शेखर असमंजस में खड़ा रहा, ‘अजीब लड़की हो तुम? अगर तुम्हें मुझसे कुछ नहीं चाहिए तो फिर मुझे बताया क्यों?’

मैंने आवाज को नियंत्रित करते हुए कहा, ‘पता नहीं!’

‘तुमने क्या सोचा है?’

‘अभी कुछ नहीं। सोच लूंगी। सोच-समझकर ही करूंगी।’

शर्ली की आंखें चौकन्नी हो गई थीं, मैंने चेहरा घुमा लिया, शेखर उठकर चला गया।

‘यही है?’ शर्ली ने स्पष्ट पूछ ही लिया। मैं चुप रही।

‘बता क्यों नहीं रही? लड़का तो दिखने में नॉर्मल है। तुमसे नहीं हो रहा, तो मुझे बात करने देती!’

‘शर्ली,’ मैंने शब्दों को तौलते हुए कहा, ‘अगर कुछ कहना होता, तो मैं ही कह देती। ऐसी कोई बात नहीं है।’

शर्ली चुप रही, अचानक वह फट पड़ी, ‘तुम दूसरी लड़कियों की तरह बर्ताव क्यों नहीं करती? हमेशा सबसे अलग क्यों दिखना चाहती हो? सब लड़कियां शादी करती हैं, परिवार बसाती हैं, तुम भी यह कर लोगी तो क्या हो जाएगा?’

मेरा चेहरा रक्तिम हो उठा। कम्पार्टमेंट में हम दोनों के अलावा दो और मुसाफिर थीं। साठेक साल की बुजुर्ग महिला, जिसने मंकी कैप पहन रखी थी। उसके साथ अधेड़ उम्र की गंभीर-सी दिखनेवाली महिला थी। हाथ में मनकों की माला लिए। वह बड़े गौर से हम दोनों को देख रही थी।

शर्ली ने अपना कहना जारी रखा, ‘तुम्हें क्या लगता है, तुम कोई महान काम कर रही हो? कल से मैं तुमसे पूछ रही हूं, तुम जवाब नहीं दे रही? तुम करना क्या चाहती हो?’

मेरी आंखों में अपमान के मारे आंसू आ गए? ‘अभी नहीं, बाद में बात करेंगे। अभी प्लीज तुम चुप हो जाओ!’ शर्ली की आंखें चिंगारियां बरसा रही थीं। उसने गुस्से से बैग खोलकर मंजू कपूर का उपन्यास डिफिकल्ट डॉटर्स निकाल लिया। पिछले साल मैंने ही उसे यह उपन्यास खरीदकर दिया था।

बुजुर्ग महिला ने मंकी कैप से अपना गोरा गुदगुदा चेहरा निकाला और चिंतित स्वर में पूछने लगी, ‘क्या हुआ?’

वे मेरे बगल में बैठी थीं, इसलिए पूछ भी मुझसे ही रही थीं।

‘जी, कुछ नहीं!’ मैंने कहकर चेहरा मोड़ लिया।

‘कोई गल है पुत्तर तो बता दे!’

लो, अब सिर चाटेंगी रास्ते-भर!

शर्ली ने उपन्यास बंद कर दिया और बुजुर्ग महिला से बात करने लगी। मुझे लगा, अभी शर्ली मेरा पुराण शुरू करेगी। उसने नहीं किया। मैंने कंधे ढीले किए और आंखें बंद कर लीं! क्या करूं? क्या करना चाहिए? क्या वाकई मैं मां बनने वाली हूं? मैं सिहर उठी। क्या मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार हूं?

मैं इतनी बोल्ड तो नहीं कि दुनिया से कटकर जी सकूं, पर मैंने यह स्थिति आने ही क्यों दी?

मुझे पता ही नहीं चला कि मेरी आंखों के किनारों के आंसू बहकर मेरे गालों को तपाने लगे हैं। मैंने हड़बड़ाकर बैग से टिश्यू पेपर निकाला। आंखों के किनारों को हल्के-से पोंछकर मैंने फिर से आंखें बंद कर लीं। अजीब तरह का डर समा रहा था मेरे अंदर। किसी के कुछ कहने का डर नहीं, बल्कि अपना सामना ना कर पाने का डर। कुछ सोच नहीं पा रही थी कि क्या करूं?

रास्ते थे भी कहां? एबॉर्शन के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं। एक बार फिर आंखों से ढेर-सा आंसू बहकर बाहर निकल आया। मेरे पास बच्चा पैदा करने का विकल्प क्यों नहीं है? मैं चाहती हूं, मेरा एक बच्चा हो, मेरा अपना। मैंने मन ही मन हिसाब लगाया, नौ महीने यानी सितम्बर में वह इस दुनिया में आएगा। बरसात का मौसम अलविदा कह रहा होगा, सर्दियों की आहट दूर से दस्तक दे रही होगी। आबोहवा में हरी पत्तियों और सोंधी मिट्टी की गंध बसी होगी। कितना प्यारा वक्त होगा, लेकिन क्या मेरे लिए भी?

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