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हाउस वाइफ नहीं बनूंगी

“हाउस वाइफ नहीं बनूंगी”

आर 0 के 0 लाल

पूनम सुबह उठी तो उसके बुखार चढ़ा हुआ था। पूरा बदन तप रहा था, सर भी फटा जा रहा था। उसने थर्मामीटर लगाया तो पता चला कि उसे 103 डिग्री बुखार था। मगर उसे चारपाई छोड़कर उठना जरूरी था क्योंकि बच्चों को स्कूल भेजना था। घर का काम करने वाला दूसरा कोई नहीं था। तभी मोबाइल की घंटी बजने लगी। दूसरी तरफ उसकी सहेली रमा थी। कहने लगी,- " यार, पूनम मैं ऑफिस के लिए निकल रही हूं और वहीं आज शाम को पार्टी भी है इसलिए मुझे आने में देर हो जाएगी। मेरा बेटा स्कूल से आने के बाद तुम्हारे यहां चला जाएगा। तुम जरा उसे संभाल लेना। अच्छा देर हो रही है, मैं निकलती हूं शाम को बात करेंगे।" यह कहकर उसने फोन रख दिया। उसने पूनम को कुछ बोलने का मौका ही नहीं दिया।

अब तो पूनम का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वह बड़बड़ाने लगी, - "मैं तो तंग आ चुकी हूं । दिन भर काम करते-करते मरी जा रही हूं । घर में बूढ़े सास-ससुर और दो बच्चे हैं। उन्हीं का इतना काम होता है कि सारा दिन कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। इसके बाद भी पड़ोसियों के बच्चों का भी काम करो। यह भी कोई जिंदगी है। एक पति मिले हैं। वह सिर्फ दफ्तर जाते हैं, उसी में थक जाते हैं। वे नौकरी के अलावां भला कैसे घर का काम करें । उनसे यह भी नहीं होता कि बीमारी में ही कुछ हाथ बटा लें। इतना ही नहीं, उनको तो काम करना भी नहीं आता। अगर कभी कोई काम कर दिया तो मेरा काम और बढ़ जाता है। कहीं सफाई करेंगे तो दूसरी तरफ ढेर सारी गंदगी फैला देंगे, सामान बेतरतीब रख देंगे। चाय भी बनाएंगे तो रसोई पूरी गंदी कर देंगे। इससे तो अच्छा है कि खुद ही काम कर लो।" फिर बोली, - "एक हाउसवाइफ होने के नाते मैंने तो जैसे सारे कामों का ठेका ले रखा है। सुबह के खाने से लेकर रात का खाना सब इतनी उमस भरे मौसम में बनाना पड़ता है।

देखो रामा कितने ठाट से सुबह सुबह तैयार होकर ऑफिस चली गई। दिन भर आराम से ए0 सी0 में काम करेगी और कैंटीन का नाश्ता, खाना, कॉफी सब कुछ इंजॉय करेगी। हाउसवाइफ बन कर मैंने कितनी बड़ी गलती की है, आज समझ में आ रहा है।"

पूनम ने किसी तरह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा। बुखार के लिए एक पेरासिटामोल की गोली भी बिना डॉक्टर से पूछे ले ली जिससे उसका बुखार थोड़ा कम हो गया। फिर पूनम ने सबके लिए नाश्ता बनाया। उसके पति अखिलेश भी टिफिन लेकर ऑफिस के लिए निकल गए। दिन में पूनम को फिर से बुखार चढ़ा और उसे चक्कर आने लगे लेकिन उसे डॉक्टर के पास ले जाने वाला कोई नहीं था। वह दिन भर वह इंतजार करती रही कि शाम को अखिलेश आएं तो उनके साथ डॉक्टर को दिखाने जाएं। शाम को जैसे ही वह तैयार होकर डॉक्टर के यहां जाने वाली थी कि उसकी ननद सुशीला आ धमकीं। उनके लिए चाय नाश्ता बनाने के चक्कर में डॉक्टर का समय ही निकल गया और फिर उसे पेरासिटामोल से काम चलाना पड़ा। पूनम ने अखिलेश से कहा कि कल तुम्हारी छुट्टी है। अब कल सुबह डॉक्टर के यहां चलेंगे।

पूनम ने सुशीला से अपना दर्द बांटते हुए कहा कि दीदी, आज हाउस वाइफ बनना शायद अच्छा नहीं होता। न चैन से जी सकते हैं न मर सकते हैं। तभी तो ज्यादातर लड़कियां जॉब वाली बनना चाहती हैं। सुशीला ने भी हां में हां मिलाई और बोली,- "लड़के वाले भी तो आज शादी के लिए ऐसी लड़की चाहते हैं जो किसी नौकरी में हो। इसीलिए अब लोगअपने बच्चियों को इंजीनियरिंग, डाक्टरी, एम बी ए या कोई प्रोफेसनल पढ़ाई करवाते हैं। मॉडर्न जमाने में कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ती जा रही है और हाउस वाइफ कम होती जा रही हैं भले ही वे अपने बच्चों एवम् परिवार को समय नहीं दे पाती हैं। अमेरिका वगैरह में भी ऐसा ही होता है, सभी अपना घर का काम करते हैं और नौकरी भी करते हैं। फिर यहां ऐसा क्यों नहीं हो सकता।"

आमतौर पर लोग मानते हैं कि हाउस वाइफ सिर्फ घर के काम संभालती हैं जो बहुत ही आसान है लेकिन यह सबसे कठिन और चुनौती भरा कार्य होता है। हाउस वाइफ के लिए घर चलाना चौबीसों घंटे की नौकरी होती है। वह परिवार के हर सदस्य की जरुरत के अनुसार पूरा कार्य करती है। वही ईंट पत्थर के मकान को “ घर” बनाती हैं जहां लोगों को खुशियां और सुकून मिलता है। एक हाउसवाइफ बच्चों, बड़ों सब को साथ लेकर चलती हैं और लोगों की खरी-खोटी सुनकर भी अपनी जिम्मेदारियां निभाती है।

सुशीला शहर की एक ख्याति प्राप्त गर्ल्स इंटर कॉलेज में अध्यापिका हैं। उन्होंने अपने स्कूल का एक मजेदार वाकया बताया कि बारहवीं के छात्राओं के करियर काउंसलिंग के दौरान जब एक लड़की को बताया गया कि वह एक अच्छी हाउस वाइफ साबित होगी तो वह रोने लगी। कहा कि मैं क्लर्क बन जाऊंगी पर हाउसवाइफ कभी नहीं बनूंगी। घर पहुंच कर भी रोने लगी - मम्मा! मुझे हाउसवाइफ नहीं बनना। दूसरे दिन उसके पैरेंट्स को स्कूल अना पड़ा क्योंकि दूसरी लड़कियां उसे हाउसवाइफ कह कर चिढ़ा रही थी।

अब प्रश्न यह है कि कोई लड़की पत्नी और मां तो बनना चाहती है मगर एक हाउसवाइफ के रूप में क्यों नहीं जीवन बिताना चाहती? अपने परिवार के लिए समर्पित क्यों नहीं होना चाहती? हाउसवाइफ के योगदान को समझते हुए उसे उचित महत्व देना चाहिए मगर हमारे समाज में तो उसे कोई नहीं सेंटता। हम क्यों हाउसवाइफ को कम आंकते हैं? इस सवाल ने वहां बैठे सभी को झकझोर सा दिया।

तभी पूनम की दोस्त रमा भी आ गई। जब उसे सारी बातें बताई गई तो उसने कहा, - "मैं आप लोगों को बताती हूं कि किन परिस्थितियों में मैंने नौकरी करना उचित समझा। मैं पढ़ाई में बहुत तेज और हमेशा अव्वल रही हूं। टीचर लोग मेरा उदाहरण देती थी, कई कंपटीशन मैंने जीते थे। आत्मविश्वास से भरी स्कूल , ग्रेजुएशन , पोस्ट ग्रेजुएशन सभी कुछ निकालती गई। हर कदम पर मिली सफलता से लगता कि मुझे भी कुछ कर के दिखाना है। परंतु वही हुआ जो अधिकांश लड़कियों के साथ होता है। मेरी भी शादी तय हो गई और मैं कुछ कह भी नहीं कह पायी थी। ससुराल में खाना बनाने, गाना गाने, डांस करने, मेहँदी लगाने आदि के बारे में ही पूंछा जाता। कहा जाता तुम्हें तो साड़ी पहनना भी नहीं आता। ऐसे प्रश्नों से मेरा दम घुटता था। जी करता था कि कहीं भाग जाऊं। एक दिन जब मैंने अपनी एक सहेली को फोन किया तो उसने कहा कि मैं अभी तुमसे बात नहीं कर सकती हूं। अभी मैं ऑफिस में हूं। तुम शाम को फोन करना। तुम क्या जानो ऑफिस का बवाल कितना कठिन होता है। तुम तो सारा दिन घर पर आराम से रहती हो। सुनकर मुझे अपना समूचा व्यक्क्तित्व बौना लगने लगा। मैंने महसूस किया कि पिछले चार वर्षों से मानो मेरी पहचान खो सी गयी हो। सोचने लगी आखिर मैंने खुद के लिए इतने वर्षों में क्या किया? कहां गए मेरे सपने? क्या फायदा हुआ इतना पढ़ लिख कर, जब चूल्हा- चौका ही करना है। यह बात मुझे इतनी खराब लगी कि मैंने निर्णय कर लिया कि मैं भी ऑफिस जाऊंगी। घरवालों ने बहुत समझाया लेकिन उनकी बातें नजरअंदाज करते हुए एक दिन इंटरव्यू देने पहुंच गई जहां मुझे सिलेक्ट कर लिया गया और आज में सीनियर मैनेजर हूं।

रमा ने फिर कहा, - " आप सब को लगता होगा कि मेरी बड़ी मौज है। ऐसा सिर्फ आपका वहम है। हमारी जैसी महिलाओं को दोहरी जिम्‍मेदारी से गुज़रना पड़ता है। मुझे सुबह उठते ही ऑफिस भागना पड़ता है, बाथ रूम में रहती हूं तभी कैब का हॉर्न सुनाई पड़ता है। किसी तरह आधी प्याली चाय पी पाती हूं। अपने बाल तो मैं कैब में ही ठीक करती हूं। दिन भर सिर उठाने की फुर्सत नहीं होती। घर लौटते आठ बज जाते हैं। रास्ते का भयंकर जाम और भी थका देता है। शाम को कुछ न कुछ घर का काम करना ही पड़ता है, घर का सामान ऑर्डर करना, बच्चों का होमवर्क देखना पड़ता है। थोड़ी देर टीवी देखने के बाद खा कर सो जाते हैं। यह दिनचर्या रोज होती है। मुझे लगता है कि हाउसवाइफ की लाइफ वर्किंग वुमेंस से बेहतर होती है। वे अपने घर में सुरक्षित तो होती है , अपनी मर्जी से काम तो कर सकती हैं।“

वहीं पर तरला भी बैठी थी जो एक हाउसवाइफ है। वह भड़क गई और कहने लगी हम चाहे जितना काम करें लेकिन हमारा कोई भी महत्त्व नहीं है। सभी लोग कहते हैं यह तो कुछ नहीं करती है जबकि मेरी देवरानी बैंक में मैनेजर है और अच्छा कमाती है। कोई भी रिश्तेदार घर आता है तो उसकी खातिरदारी करना मेरे ही ऊपर होता है। मैनेजर साहिबा हेलो हाय कह कर बैंक चली जाती हैं। कोई काम नहीं करती फिर भी उसे लोग उसकी तारीफ करते हैं क्योंकि महीने के अंत में उसके पास नोटों की एक मोटी गड्डी होती है। भले ही हमारे बारे मे कहा जाता हो कि हम घर बैठकर कुछ नहीं करती हैं लेकिन सच तो ये है कि हम दिन भर खटते हैं।

पूनम ने अपनी बात सबके सामने रखी कि ऑफिस में काम करने के लिए कर्मचारियों को सभी तरह की ट्रेनिंग दी जाती है मगर घर में काम करने वाली महिलाओं को स्वयं अपने आप सीखना पड़ता है। हाउसवाइफ से सभी अपेक्षा करते हैं की वह अच्छा स्वादिष्ट खाना बनाये, कम खर्च में पूरे घर का काम चलाए, बैंकिंग करे, इन्वेस्टमेंट में महारथ हासिल करके बचत के पैसों को दुगना, तिगुना करे। साथ ही मेहमानदारी, रिश्तेदारी, हाउसकीपिंग का सारा काम करे, कपड़े की धुलाई से लेकर प्रेस तक करे, बच्चों का होम वर्क कराए, इमरजेंसी होने पर परिवार वालों की नर्सिंग करें, और सुबह सबसे पहले उठकर सब को जगा कर चाय दे मगर इस बारे में कहीं समझाया नहीं जाता। पुराने जमाने में लड़कियों को ये सब काम घर की बड़ी बूढ़ी महिलाएं सिखाती थी और उनकी तारीफ करती थी कि देखो मेरी लड़की ने पेंटिंग बनाई है, उसे सिलाई आती है, खाना भी अच्छा बना लेती है।

सबने सहमति जतायी कि आज एक कुशल मोटीवेटेड हाउसवाइफ की बहुत जरूरत है इसलिए लड़कियों को घर में, स्कूल में मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करने और उनके मन स्थिति को सुधारने की आवश्यकता है।