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इंद्रधनुष सतरंगा - 19

इंद्रधनुष सतरंगा

(19)

संभावनाएँ शेष हैं

आतिश जी सोकर उठे तो बहुत हल्का महसूस कर रहे थे। शरीर में स्फूर्ति और ताज़गी भरी हुई थी। संपादक से हुई नोंक-झोंक का तनाव मन से निकल चुका था।

नहा-धोकर तैयार बाहर निकले तो मौलाना साहब से मिल आने का मन हुआ।

मौलाना साहब के घर पहुँचे तो वह अपने ख़ास तख़त पर बैठे हुए थे। हमेशा आँखों पर चढ़ा रहने वाला चश्मा उतार रखा था। खंभे की टेक लगाए स्टूल पर धरमू बैठा था। दोनों लोग कुछ बातें कर रहे थे। उन्हें आता देख वे चुप हो गए। धरमू उठकर अंदर चला गया।

‘‘कहो क्या हाल-चाल हैं?’’ मौलाना साहब ने पूछा।

‘‘सब ठीक है। आप से भेंट हुए काफी समय हो गया था। सोचा दर्शन कर आऊँ।’’

‘‘बहुत अच्छा किया। एक तुम्हीं तो हो जिससे मैं खुलकर बातें कर लेता हूँ। वर्ना अब तो बहुत अकेलापन महसूस होता है।’’

‘‘ऐसा क्यों कहते हैं, मौलाना साहब? अपने को अकेला क्यों समझते हैं? हम सब आपके साथ हैं। पूरा मुहल्ला आप के साथ है।’’

‘‘पूरा मुहल्ला---’’ मौलाना साहब ने आह भरी, ‘‘जिसे अपने दिल के सबसे क़रीब समझता था वही अपना नहीं हुआ तो मुहल्ले का क्या भरोसा करुँ?’’

‘‘कौन, पंडित जी?’’ आतिश जी ने अनुमान लगाया।

‘‘हाँ, मैं उन्हें अपना सबसे अच्छा दोस्त समझता था। नाज़ था अपनी दोस्ती पर। लेकिन पंडित जी ने कच्चे धागे की तरह झटके में उसे तोड़ दिया। मैं अकेला ऐसा शख़्स था जो उनके घर में कहीं भी आ-जा सकता था। ख़ुद को बड़ा ख़ुशनसीब समझता था। लेकिन मेरा भरम टूट गया---’’ इसके आगे मौलाना साहब कुछ न कह सके। उनका गला भर्रा गया।

आतिश जी भी ख़ामोश बैठे रहे। कुछ पलों के लिए सन्नाटा-सा छा गया। बस कभी-कभी आँगन की नीम पर बैठे कौए की कर्कश ‘काँव-काँव’ गूँज उठती थी।

वातावरण गंभीर होते देख आतिश जी ने बात बदल दी। कहने लगे, ‘‘छोडि़ए, यह बताइए आज आपका चश्मा कहाँ गया? वह तो आपकी पहचान है। उसके बिना आपका व्यक्तित्व अधूरा लगता है।’’

मौलाना साहब हँस पड़े। सारा तनाव जैसे छूमंतर हो गया। कहने लगे, ‘‘सच कहा, जब से ख़रीदा है, अपने से जुदा नहीं किया। लेकिन अब लगता है इसे बदलना पड़ेगा क्योंकि नज़रें कमज़ोर हो रही हैं। नं0 बढ़वाना पड़ेगा।’’

‘‘चश्मा बनवाए दो-तीन साल तो हो ही गए होंगे?’’

‘‘नहीं भई, पूरे पाँच साल हो गए। यही बारिश के दिन थे जब उन्होंने बनवाया था।’’

‘‘उन्होंने कौन?’’

‘‘कर्तार जी ने।’’

‘‘कर्तार जी ने?’’ आतिश जी चौंके।

‘‘हाँ, उस वक़्त डॉ0 बत्र जि़ला अस्पताल में थे। कर्तार जी से उनकी अच्छी दोस्ती थी। उनकी वजह से डॉ0 साहब ने बड़ी तवज्जो के साथ सारी जाँच की थी। कर्तार जी भी साथ-साथ लगे रहे थे। सारा दिन बर्बाद किया था। जब तक चश्मा बनकर हाथ में नहीं आ गया, ख़ुद ही दौड़ते रहे थे बेचारे।’’

कहते-कहते अचानक मौलाना साहब चुप हो गए। उनके चेहरे पर कृतज्ञता और नरमी की जगह नप़फ़रत के भाव उमड़ने लगे। बीती हुई यादों से निकलकर वह अब वर्तमान में आ चुके थे। फिर से एक लंबी ख़ामोशी दोनाें के बीच घिर गई। नीम पर बैठा कौआ ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगा।

एकाएक आतिश जी चश्मा उठाते हुए बोले, ‘‘जब इस चश्मे का कोई उपयोग नहीं रहा तो क्यों कूड़ा इकट्ठा कर रहे हैं? इसे हटाइए और नया लीजिए।’’

‘‘अरे-अरे, क्या करते हैं?’’ मौलाना साहब ऐसे चीख़े जैसे आतिश जी चश्मे को सचमुच फेंके दे रहे हों। उन्होंने चश्मा छीनकर सीने से ऐसे लगा लिया मानो कोई बेशक़ीमती चीज़ हो।

‘‘इतना लगाव क्यों? कर्तार जी ने दिलाया है इसलिए?’’ आतिश जी ने उनकी आँखों में आँखें डालकर पूछा।

मौलाना साहब एकदम हड़बड़ा गए। चेहरा लाल हो गया। जैसे कोई बड़ी चोरी पकड़ी गई हो। हकलाते हुए बोले, ‘‘न---नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। उस झूठे आदमी से मेरा क्या लेना-देना। मैं तो उसकी सूरत भी न देखूँ।’’

मौलाना साहब कर्तार जी को कह तो भला-बुरा रहे थे, पर उनके चेहरे की रंगत कुछ और ही कह रही थी।

थोड़ी देर बातचीत करने के बाद आतिश जी बाहर आ गए। थोड़ी ही दूर चले थे कि घोष बाबू टकरा गए। घोष बाबू ने घर चलकर चाय पीने का आग्रह किया। इस पर आतिश जी कहने लगे, ‘‘आप की चाय तो उधार रही। हाँ, आप चाहें तो मेरी एक मदद कर सकते हैं।’’

आतिश जी की निगाह उनकी जेब पर थी।

घोष बाबू हँस पड़े, ‘‘महाशय, मेरा बटुआ वहाँ नहीं रहता, जहाँ तुम्हारी निगाह है।’’

‘‘मैं पैसों की बात नहीं कर रहा हूँ।’’

‘‘तो फिर?’’

‘‘मुझे आपका पेन चाहिए। लौटकर आऊँगा तो ले लीजिएगा। अपना पेन मैं घर भूल आया।’’

घोष बाबू का चेहरा उतर गया। मानो आतिश जी ने कोई बड़ी चीज माँग ली हो। बोले, ‘‘अरे यार इस बेकार पेन का क्या करोगे? घर चलो तुम्हें नया पेन देता हूँ।’’

‘‘घर ही जाना होता तो मैं आप से क्यों माँगता?’’

‘‘अच्छा ऐसा करो,’’ घोष बाबू ने दस-दस के दो नोट निकाले, ‘‘ये लो, रास्ते में दूकान पड़ेगी ख़रीद लेना। लेकिन यार बुरा मत मानना, यह पेन मैं नहीं दे सकता।’’

‘‘चलिए कोई बात नहीं,’’ आतिश जी हँसते हुए बोले, ‘‘पेन का इंतज़ाम तो हो ही जाएगा। लेकिन इस पेन से लगाव की वजह बताएँगे?’’

‘‘कुछ नहीं बस ऐसे ही। किसी का दिया हुआ उपहार है।’’ घोष बाबू बोले।

जब तक आतिश जी घोष बाबू से बातें करते रहे उन्हें ध्यान नहीं आया। पर उनसे विदा लेकर जैसे ही दो कदम बढ़ाए, उन्हें सारी बात समझ में आ गई। यह पेन पिछले जन्मदिन पर गुल मोहम्मद ने उन्हें उपहार में दिया था।

आतिश जी को अब धीरे-धीरे समझ आने लगा था कि मौलाना साहब का स्कूटर पंडित जी के दरवाज़े पहुँचकर धीमा क्यों हो जाता है और पंडित जी का दरवाज़ा किसके इंतज़ार में खुला रहता है? पटेल बाबू क्याें गायकवाड़ के दरवाजे़ पहुँचकर खँखारने लगते हैं? मोबले अपना स्कूटर लेकर पीछे की गली से क्यों निकल जाते हैं? कर्तार जी की खिड़की देर रात तक किस उम्मीद में खुली रहती है?

आतिश जी मन ही मन सोचते जा रहे थे कि अभी सब कुछ बिगडा़ नहीं है। संभावनाएँ अभी शेष हैं। उन्हें वह संधि-स्थल नज़र आने लगे थे, जहाँ से टूटी हुई कडि़यों को फिर से जोड़ा जा सकता था।

***