Domnik ki Vapsi - 23 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 23

डॉमनिक की वापसी

(23)

रविवार को ऋषभ का नाम ‘डॉमनिक’ की भूमिका के लिए तय करने से पहले रमाकांत दीपांश से मिले. उससे मिलके वह खाली हाथ पर संतुष्ट लौटे थे. ज्यादा कुछ कहे-सुने बिना ही वह उसका निर्णय समझ गए थे. वह कुछ दिनों के लिए नाटक से ही नहीं बल्कि हर किसी से अलग रहना चाहता था. ऐसी इच्छा उनके भीतर भी कई बार उठी थी. उन्हें भी लगा था कि जिस बात से सहमत न हों उससे अलग हो जाएं, जिस बात में दिल न लगे उससे छिटक के दूर खड़े हों, हमेशा भीड़ में हामी न भरें, कभी रुकके सोचें कि जो वो कर रहे हैं, जिसे कला और उसकी साधना समझ रहे हैं उसकी दिशा क्या है पर वह ऐसा नहीं कर सके थे. शायद इसके लिए इच्छा से ज्यादा अनिश्चितताओं से भरे संसार में ख़ुद को छोड़ सकने के साहस की जरूरत थी, ख़ुद को मिटते हुए देखने की हिम्मत की जरूरत थी, जो शायद वह कई बार कोशिश करने पर भी नहीं जुटा पाए थे. वहाँ से चलते हुए रमाकांत ने सिगरेट की डिब्बी उसकी ओर बढा दी थी उसने पहली बार रमाकांत की दी हुई सिगरेट ले ली थी, पर जब उसने देखा था कि वह आखिरी सिगरेट है तब उसने उसे रमाकांत के साथ साझा किया था...

रमाकांत चाहते थे कि दीपांश अपने मन की बात सुने. ख़ुद को खोजने के लिए भटके. पर वह उसके यूँ यकायक अकेले हो जाने से चिंतित भी थे. उन दिनों भूपेन्द्र को एक गैर सरकारी संस्थान द्वारा स्कूलों के लिए आयोजित किए जाने वाले कैम्प में एक्टिंग सिखाने का काम मिल गया था. उस सिलसिले में वह स्कूली बच्चों के साथ कार्यशालाएं आयोजित करता हुआ दिल्ली से बाहर ही रहता था. इसलिए दीपांश अपने फ्लैट पर भी अकेला ही था.

एक बार फिर वैसा ही खाली और अकेला हो गया था जैसा पहली बार पहाड़ों को छोड़कर मैदानों में उतरने पर हुआ था. पर इस बार अकेला होना उसने चुना था...,

कई बार अकेला होना भी दवा की तरह काम करता है. जब चारों तरफ लोग हाँफते हुए बेतहाशा भागे जाते हों तब भीड़ से अलग होकर किसी का ठहर जाना अपने आप ही किसी दूसरी दिशा में चल पड़ने जैसा होता है. जहाँ कहीं पहुँचने, कुछ भी खोने-पाने की कोई आपा-धापी नहीं होती. तब समय के अंनत प्रवाह में एक-एक क्षण ओस के बनने की प्रक्रिया जितना धीमा हो सकता है और उसे आप पलक झपकने के अंतराल में हज़ार-हज़ार बार देख सकते हैं. तब एक-एक दिन में पूरे जीवन को कई-कई बार सोचा, दोहराया और जिया जा सकता है. कुछ दिन ऐसे ही शांत और स्थिर बीते..

...फिर एक दिन जब किसी से बात नहीं करनी थी फिर भी रेबेका का फोन उठा लिया. जब किसी से नहीं मिलना था तब भी उससे मिलने की हामीं भर दी...

रेबेका के लिए डॉमनिक - एक काल्पनतीत आकर्षण। डॉमनिक के लिए रेबेका- उदासी के बीच, एक रोमांचित करने वाला, मन को झिंझोड़ देने वाला, अब तक अनसुलझा रहा आया रहस्य। मिलके कुछ सुलझता तो कुछ और उलझ जाता. दीपांश को लगता उसके साथ होके भी अकेला रहा जा सकता है...

उसके बाद वे जब भी मिलते अपने भीतर की पहेलियों से एक दूसरे को चुनौती देते मालूम पड़ते, एक दूसरे को बार-बार कल्पना से यथार्थ की खुरदुरी ज़मीन पर पटकते, फिर संभालते, समझाते, समेटते। कभी-कभी अपने-अपने दुखों और भयावह अनुभवों के सहारे अपने में शेष रहे आए इंसानियत के धागों को छूते।

पर उनकी ये मुलाक़ाते कहीं पहुँच नहीं पातीं।

साथ बिताया समय जैसे एक अंधेरी सुरंग से गुज़रता हुआ आगे बढ़ता। पर दोनों अपने इस विचित्र संबंध को जहाँ खड़े होकर देखते वहाँ तमाम धुँधलके में भी एक चीज़ वे बिलकुल साफ़ देख पाते कि वे दोनों ही समाज के दायरे से बाहर और बहिष्कृत खड़े हैं।

जहाँ ज़िन्दगी के सारे सच बेपर्दा हैं।

यह जानते हुए कि उनके पास अब खोने और पाने के लिए कुछ शेष नहीं। शायद उनका आधा-अधूरा होना, अपने-अपने भीतर निचाट खाली होना उन्हें बार-बार एक-दूसरे के पास खींच लाता। वे टकराते, टूटते, जुड़ते आगे बढ़ रहे थे. हर मुलाक़ात के बाद किसी कौतुहल, किसी जिज्ञासा के बिना भी उनमें दोबारा मिलने की चाह बनी रहती।

दीपांश को लगता ‘अभिनय मैं करता रहा हूँ पर हर बार स्वांग करके निकल ये जाती है. वह जानता है कि उसका कहा-सुना कुछ भी न सच है-न झूठ, पर वो जो भी है उसमें जीवन का सच्चा आकर्षण है, और वह उसकी रिक्तता को भर रहा है, ... उसे धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा है.’

रेबेका सोचती ‘मैं जहाँ खड़ी हूँ, वहाँ हर चीज़ को बेचे और खरीदे जाते देखती हूँ पर इसमें क्या है जो मुझे हर बार इससे अलग होते हुए लगता है कि मेरा कुछ इसके पास छूट गया है।’

कुछ ही मुलाकातों में दोनों के बीच जैसे कोई खेल शुरू हुआ था. लगातार मिलते रहने के बाद भी एक दूरी बनाए रखने का.

उस दिन भी जब वे उत्तरी दिल्ली की रिज़ की एक सुनसान ढलानपर मिले तो दोनों साथ-साथ पर दूर-दूर चल रहे थे।

‘हम क्यूँ चले आते हैं यूँ एक दूसरे के पास?’ रेबेका ने बात शुरू की.

इस बार दीपांश ने सीधा उत्तर दिया, ‘हम दोनों को एक दूसरे से कोई उम्मीद नहीं, इससे मैं तुम्हारे साथ बहुत सहज हो गया हूँ। बहुत सी उम्मीदें होने से दो इन्सान एक दूसरे को कदम-कदम पे जज करने, उन्हें परखने और आजमाने लगते हैं. धीरे-धीरे यही उम्मीदें झूठ के लिहाफ पहनने लगती हैं. हमारे बीच यही अच्छा है कि हम बिना किसी अपेक्षा के, बिना एक-दूसरे को परखे, कुछ देर सुकून से, एक दूसरे के साथ रह सकते हैं।’

‘बस केवल सुकून से! प्रेम से नहीं?’ रेबेका ने जैसे उसकी आँखों में झाँकने के लिए गर्दन तिरछी करते हुए कहा.

वह हँसा फिर रेबेका की ओर देखते हुए जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगा।

रेबेका ने थोड़ा झेंपते हुए कहा, ‘इसमें हँसने की क्या बात है?’

दीपांश ने बात पर अपनी गिरफ़्त पक्की करते हुए कहा ‘मैंने अभी-अभी जो कहा फिर हमारे बीच में ये प्रेम कहाँ से आ गया?’

‘कुछ देर के लिए मान लेने में क्या बुराई है? आखिर मैं तुम्हारी फैन हूँ।’ रेबेका ने कमज़ोर-सी दलील दी।

‘बुराई है, झूठ और नाटकीयता से निकलकर मैं यहाँ आया हूँ और यहाँ भी वही चीज मान लूँ, जो नहीं है!’ ऐसा कहते हुए आवाज़ में उभर आई हल्की-सी झल्लाहट पर काबू करते हुए उसने कहा।

‘तुम्हें कैसे पता कि नहीं है, किसी ने कहा है कि जहाँ भी जीवन है, जीवन का आकर्षण है, वहाँ प्रेम भी है’ रेबेका ने इस बार अपनी आवाज़ को थोड़ा मुलायम करते हुए कहा.

‘अच्छा! किसने कहा है ये?’ दीपांश की दोनों भवें ऊपर उठ गईं.

‘शायद बुद्ध ने.’ रेबेका ने सिर झुकाए हुए कहा.

‘बुद्ध ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा, तुम अपने से बना रही हो।’

‘चलो नहीं कहा बुद्ध ने, मेरा कहा ही सही, पर पक्का यह शायद ओशो ने कहा है कि किसी की गलत बात भी अगर ख़ुशी देती है, तो उसे थोड़ी देर के लिए मानने में क्या हर्ज़ है?’

दीपांश के चेहरे पर मुस्कान पसर गई, ‘हुँह। तुम्हें कुछ नहीं पता, जब बुद्ध कालामो को उपदेश दे रहे थे, तो उन्होंने कहा था, ‘‘केवल किसी ग्रन्थ, परम्परा, बुजुर्ग का ख्याल करके कुछ मत मानो’’, समझी?’

‘पर यह अधूरा है, उन्होंने यह भी कहा था कि किसी का ख्याल करके मत मानो, हमेशा खुद निश्चय करके उसपे आरुढ़ हो, पर तुम तो अपना ही कहा भूल जाते हो’ रेबेका ने अबकी उसे पूरी शक्ती से घेरते हुए कहा।

दीपांश उसकी बात सुनकर चौंका। इस बार उसने सही बात, सही रिफ़ेरेन्स से, सही जगह कही थी, पर वह बात को यहाँ छोड़ना नहीं चाहता था इसलिए उसने उसे दूसरी दिशा में मोड़ते हुए कहा, ‘भूलना बहुत जरूरी है। बुद्ध ने कहीं यह भी कहा है-‘कि मैंने तुम्हें जो दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोए फिरने के लिए नहीं।’

‘तुम बात बदल रहे हो, मैं प्रेम की बात कर रही थी, अगर यह कहीं नहीं है, तो क्यूँ शहर दर शहर तम्बू उठाए फिरते हो, प्रेम का नाटक करते।’

‘क्योंकि प्रेम, जो कहीं नहीं है, जो भुलावे की तरह, एक जुगनू की तरह यहाँ-वहाँ चमक के छुप जाता है, सारी दुनिया को वही चाहिए-सच्चा प्रेम’

‘हाँ तो! प्रेम मिले न मिले पर उसकी चाहना में ग़लत क्या है? तुलसीदास ने कहा है- ‘का भाषा, का संस्कृत, प्रेम चाहिए साँच.’’

‘तुलसीदास भी यह जान गए थे कि सबको वही चाहिए, जो कहीं नहीं है। बस समझ लो अपने इस नाटक में हम भी वही भुना रहे हैं। हम भी उसी की ख़ोज में निकलते हैं।’

‘पर अपने आप से चिपके रहते हैं, हम न पूरी तरह भीतर झाँकते हैं और न ही अपने से छिटक कर अन्जाने-अनदेखे रास्तों पे निकल पाते हैं, फिर कैसे मिलेगा प्रेम?’

रेबेका की इस बात से दीपांश ने सहमत होते हुए, बात को खत्म करने की गरज से बोला ‘हाँ, बस यही सब है’

रेबेका ने इस बार सीधा सवाल किया,‘अगर ऐसा है तो प्रेम का ये नाटक तुम छोड़ क्यों नहीं देते?’

डॉमनिक ने सिगरेट का एक लम्बा कश लिया, ‘ दरसल मैं भी दुनिया में ही था, उसी का एक हिस्सा और मैं भी वही चाहता था, जो दुनिया चाहती थी। नाटक के बहाने, मैं भी कुछ पल प्रेम में जीता था, जो मैं जानता था कि नाटक से बाहर कहीं नहीं है.’

‘था’ का मतलब?’

‘मतलब मैंने प्रेम का वो नाटक छोड़ दिया.’

उसके जवाब से रेबेका का मन और कई सवालों से भर गया, ‘तुम्हारा मतलब है तुम अब ‘डॉमनिक की वापसी’ में डॉमनिक का किरदार नहीं निभाओगे?’

रेबेका जैसे इस बात से आहात हुई. वह भी शायद कहीं कला में ही प्रेम की अभिव्यक्ति को, उसके अनुभव को जीती थी. उसकी आवाज़ में हल्की-सी नाराज़गी थी, ‘उसके बाद इतनी बार मिले पर तुमने इसका तो ज़िक्र भी नहीं किया!’

‘जो नहीं है उसके ज़िक्र से भी क्या होगा?’

‘पर क्यों? तुम नाटक से नहीं, खुद को अपनी कला से अलग कर रहे हो.’

‘वहाँ जो हालात हैं उनमें मुझसे नहीं होगा, बल्कि हालात को या किसी को भी क्या दोष दूँ, मेरे भीतर ही जैसे कुछ बदल गया है जिससे लगता है अब मुझसे अभिनय नहीं होगा मैं किसी किरदार में बंध नहीं पाऊंगा. वो मुझपे या मैं उसपे काबिज होने लगेंगे.’ कहते हुए दीपांश की आवाज़ डूबने लगी थी.

अभिनय छोड़ देने की इस बात के सिलसिले ने उसके चारों तरफ़ बनी दीवार में एक झरोखा खोल दिया था. उसमें झाँकने की उत्सुकता से रिबेका उसके थोड़े पास आ गई, ‘हर कलाकार के जीवन में ऐसा वक़्त आता है, जब उसे लगता है, उससे आगे का सफ़र नहीं होगा. अब तुम्हारी कही बात पूरी समझ पा रही हूँ, जब तुमने कहा था, ‘भीतर की लड़ाइयाँ इतनी बड़ी हो जाती हैं कि बाकी सारी बातें बेमायने लगने लगती हैं.’ उसके चेहरे पर उसके लिए किसी अपने के जैसी चिंता थी. उसने थोड़ा रूककर पूछा, ‘अगर नाटक छोड़ दोगे तो क्या करोगे?’

‘पता नहीं..’ दीपांश ने सामने पसरे लम्बे रास्ते की ओर देखते हुए कहा.

अपने अगले प्रश्न में रिबेका ने एक साथ अपने कई संशय गूँथकर बिना किसी सहारे के दीपांश के आगे अधर में लटका दिए। उसे शायद उत्तर की आशा भी नहीं थी फिर भी उसने पूछा, 'तुम्हें अपनी ग़रीबी से, भूख से, या फिर अपनी मौत से डर नहीं लगता?'

'शायद नहीं, क्योंकि मैंने कई दिनों की लांघने की हैं, ऐसा भी हुआ है जब एक दाना भी पेट में नहीं गया। कई महीने फ़ांकामस्ती में गुज़ारे हैं, ऐसा कई बार हुआ, जब एक नया पैसा भी जेब में नहीं रहा, कहते हैं न- एक फूटी कौड़ी भी नहीं।' उसने ऐसा कहते हुए अपनी जेब में इस तरह हाथ डाले जैसे उनमें अपने पुराने दिन टटोल रहा हो।

रेबेका ने फिर कुरेदा, 'और मृत्यु?'

'कई बार मरते-मरते बचा, मौत कई बार करीब आकर लौट गई' दीपांश की आँखें शून्य में किसी अदृश्य चीज को देख रही थीं। उसने वैसे ही शून्य में देखते हुए कहा, 'अनुभव रोमांचक रहा पर भय कभी नहीं लगा। जिसके पास पैसा है, जिसे भूख लगने से पहले ही खाने को मिल जाता है, जो हर तरह से सुरक्षित है, जिसे मृत्यु आसानी से छू नहीं सकती, वही सबसे ज्यादा डरता है। जितनी सुरक्षा, उतना डर। जितना पैसा, उतनी निर्धनता। यह डरे हुए और काफ़ी हद तक मरे हुए लोगों की दुनिया है।'

'तुम्हें किसी चीज से तो डर लगता होगा?'

'अब मुझे प्रेम से, किसी के भरोसे से डर लगता है। गरीबी, भूख, या मौत- ये सब नहीं डराते मुझे। या फिर समझ लो कि दुनिया ने इनसे लड़ना सिखा दिया.'

…अब जैसे वह किसी प्रवाह में बहा जा रहा था।, ‘डर लगता है जुड़ाव से, बंधन से, कहीं रुकने से। एक जगह, या एक व्यक्ति के भीतर का ठहराव, उसकी ऊब मुझे खाने को दौड़ती है।' बोलते हुए उसने रेबेका की ओर बहुत ध्यान से देखा और उसकी बात एक प्रश्न में बदल गई, ‘तुम्हें क्या डराता है?’

‘कई तहखानों के नीचे दबे हैं डर अब उन्हें उघाड़ कर कमजोर नहीं होना चाहती. इतने दिनों में मेरे बारे में कुछ जानने की इच्छा नहीं हुई?’

दीपांश ने रेबेका के चेहरे की एक पर्त उतरते हुए देखी.

‘मेरा नाम रेबेका नहीं है.’

‘जानता हूँ’

‘फिर इतने दिनों में कभी असली नाम जानने की कोशिश नहीं की?’

‘खोई हुई लड़की का सबसे पहले नाम बदल दिया जाता है. जब तुमने इति के बारे में बताया तभी लगा था कि किसी खोए हुए के बारे में इतने विशवास से वही बता सकता है जो खुद कभी उन रास्तों पर खोया हुआ हो और फिर अपनों को कभी न मिला हो. पर अब तुम्हें देखकर ऐसा नहीं लगता कि किसी मजबूरी में, या किसी के दबाव में यहाँ हो।'

रेबेका ने संभलते हुए उत्तर दिया, 'हाँ भी और नहीं भी। समझ लो, एक मजबूरी जो धीरे-धीरे आदत और फिर ज़िन्दगी बन गई. अब मेरे लिए वापस जाने के सारे रास्ते बंद हो गए.’ उसने बात बदलते हुए कहा, ‘खैर मेरी छोड़ो, मुझे लगता है अभिनय में तुम चुके नहीं हो बल्कि थोड़े थक गए हो. तुम्हें कुछ दिन आराम करना चाहिए.’ रेबेका ने पहली बार दोनों के बीच की अदृश्य दीवार तोड़ते हुए कहा. फिर कुछ सोचते हुए बोली ‘तुम इस शनिवार क्या कर रहे हो?’

दीपांश ने उसकी ओर देखते हुए कहा, ‘मैं फिलहाल किसी भी दिन कुछ नहीं कर रहा हूँ.’

‘तुम शनिवार की शाम मेरे साथ चल रहे हो...’

‘कहाँ?’

‘सवाल नहीं पूछोगे, बस समझ लो तुम्हें मिलाना है किसी से. कितने बजे और कैसे चलना है यह मैं उसी दिन बताउंगी’

उस दिन रेबेका दीपांश को उसके फ्लैट के पास छोड़कर ऑटो से आगे चली गई थी.

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