Desh Virana - 29 books and stories free download online pdf in Hindi

देस बिराना - 29

देस बिराना

किस्त उन्तीस

उन्हीं दिनों हमारे ही पड़ोस के एक लड़के की पोस्टिंग उसके ऑफिस की लंदन शाखा में हुई। जाने से पहले वह मेरे पास आया था कि अगर मैं बलविन्दर को एक खत लिख दूं और उसे एयरपोर्ट आने के लिए कह दूं तो उसे नये देश में शुरूआती दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा। मेरे लिए इससे अच्छी बात क्या हो सकती थी कि इतने अरसे बाद बलविन्दर के पास सीधे ही संदेश भेजने का मौका मिल रहा था। मैंने बलविन्दर को उसके बारे में विस्तार से खत लिख दिया था। तब मैंने बलविन्दर के लिए ढेर सारी चीजें बनायी थीं ताकि उन्हें हरीश के हाथ भेज सकूं। मेरे पत्र के साथ मम्मी ने भी बलविन्दर को एक लम्बा पत्र लिख दिया था। हरीश के लंदन जाने की तारीख से कोई दसेक दिन पहले बलविन्दर का पत्र आ गया था। वह कुछ अलग ही कहानी कह रहा था।

लिखा था बलविन्दर ने। कैसे लिखूं कि मेरे कितने दुर्दिन चल रहे हैं। एक मुसीबत से पीछा छुड़ाया नहीं होता कि दूसरी गले लग जाती है। मैंने तुम्हें पहले नहीं लिखा था कि कहीं तुम परेशान न हो जाओ, लेकिन हुआ यह था कि इंडिया से जो कन्साइनमेंट आया था उसमें पार्टी ने मुझसे पूरे पैसे ले लेने के बावजूद बदमाशी से अपने ही किसी क्लायेंट से लिए कुछ ऐसा सामान भी रख दिया था जिसे यहां लाने की परमिशन नहीं है। उसने सोचा था कि जब मैं कन्साइनमेंट छुड़वा लूंगा तो आराम से अपनी पार्टी को कह कर मुझसे वो सामान मंगवा लेगा। कहीं कुछ गड़बड़ हो गयी तो साफ मुकर जायेगा। और बदकिस्मती से हुआ भी यही। वह माल पकड़ा गया है और इलज़ाम मुझ पर है क्योंकि ये सामान मेरे ही गोडाउन में मिला है।

मेरी कोई सफाई नहीं मानी गयी है। यहां के कानून तुम्हें मालूम नहीं है कि कितनी सख्ती बरती जाती है। अब पता नहीं क्या होगा मेरा। इसी चिंता के चलते कई दिनों से अंडरग्राउंड हो कर मारा-मारा फिर रहा हूं और घर भी नहीं गया हूं। अपने कान्टैक्ट्स की मदद से मामला रफ़ा दफ़ा कराने के चक्कर में हूं। अब संकट ये है कि इम्पोरियम खुले तो कुछ कारोबार हो लेकिन मुझे डर है कि कहीं इम्पोरियम के खुलते ही पुलिस मुझे गिरफ्तार न कर ले। तुम भी सोचती होवोगी कि किस पागल से रिश्ता बंधा है कि अभी तो हाथों की मेंहदी भी नहीं उतरी कि ये सब चक्कर शुरू हो गये। लेकिन चिंता मत करो डियर, सब ठीक हो जायेगा। एक अच्छा वकील मिल गया है। है तो अपनी तरफ का लेकिन यहां के कानूनों का अच्छा जानकार है और कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेगा। मैं मामले से तो बच ही जाऊंगा। मेरा तो कई लाख का माल इस चक्कर में फंसा हुआ है वो भी रिलीज हो जायेगा। बस एक ही दिक्कत है। उसकी फीस कुछ ज्यादा ही तगड़ी है। ये समझ लो कि अगर यहीं इंतज़ाम करना पड़ा तो कम से कम पचास लोगों के आगे हाथ फैलाने पड़ें। मेरी स्थिति तुम समझ पा रही होगी। अंडरग्राउंड होने के कारण मैं सबके आगे हाथ जोड़ने भी नहीं जा सकता। पहले से ही तुम्हारा देनदार हूं और ऊपर से ये मुसीबत। मैं तुम्हारी तरफ ही उम्मीद भरी निगाह से देख सकता हूं। क्या किसी तरह एक डेढ़ लाख का इंतज़ाम हो पायेगा। जानता हूं। तुम्हारे या मम्मी जी के लिए लिए यह रकम बहुत बड़ी है। आप लोग अभी पहले ही इतना ज्यादा कर चुके हैं। लेकिन मैं सच कहता हूं, इस मामले से निकलते ही सब कुछ ठीक हो जायेगा और मैं निश्चिंत हो कर तुम्हें और मम्मी जी को यहां बुलवाने के लिए कोशिश कर सकूंगा। अब तक तुम्हारा पासपोर्ट भी आ गया होगा। एक ख़ास पता दे रहा हूं। पैसे चाहे इंडियन करेंसी में हो या पाउंड्स में, इसी पते पर भिजवाना। ये पैसे रिज़र्व बैंक की परमिशन के बिना भिजवाये नहीं जा सकते इसलिए तुम्हें कोई और ही जरिया ढूंढना होगा। मैं जानता हूं यह मामला मुझे खुद ही सुलटाना चाहिये था और तुम्हें इसकी तत्ती हवा भी नहीं लगने देनी चाहिये थी, लेकिन मुसीबतें किसी का दरवाजा खटखटा कर तो नहीं ही आतीं। मम्मी जी को मेरी पैरी पौना कहना। जो भी डेवलपमेंट होगा तुम्हें तुरंत लिखूंगा।

पत्र पढ़ कर मैं बहुत परेशान हो गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि ये क्या हो रहा है। सच में हो भी रहा है या कोई नाटक चल रहा है। कैसे पता चले कि सच क्या है। एक बात तो थी कि अगर मामला झूठा भी हो तो पता नहीं चल सकता था और सच के बारे में पता करने का कोई ज़रिया ही नहीं था। इतने महीनों के बाद मैंने मम्मी को पहली बार बलविन्दर के पहले के पत्रों के बारे में बताया था। मम्मी भी यह और पिछले पत्र पढ़ कर बहुत परेशान हो गयी थी। बिना पूरी बात जाने एक डेढ़ लाख रुपये और भेजने की भी हम हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहे थे। वैसे भी कहीं न कहीं से इंतज़ाम ही करना पड़ता। मेरी शादी में ही मम्मी अपनी सारी बचत खर्च कर चुकी थी।

हम दोनों सारी रात इसी मसले के अलग-अलग पहलुओं के बारे में सोचती रही थीं। हमारे सामने कभी इस तरह की स्थिति ही नहीं आयी थी कि इतनी माथा पच्ची करनी पड़ती। आखिर हम इसी नतीजे पर पहुंचे थे कि मेरा पासपोर्ट आ ही चुका है। क्यों न मैं खुद ही लंदन जा कर सब कुछ अपनी आंखों से देख लूं। आगे-पीछे तो जाना ही है। पता नहीं बलविन्दर कब बुलवाये या बुलवाये भी या नहीं। आखिर रिश्तेदारी के भी सवाल गाहे बगाहे उठ ही जाते थे कि सात-आठ महीने से लड़की घर बैठी हुई है। ले जाने वाले तो महीने-पद्रह दिन में ही साथ ले जाते हैं। अभी इस तरह से जाने से सच का भी पता चल जायेगा। सोचा था हमने कि कोशिश की जाये तो हफ्ते भर में टूरिस्ट वीसा तो बन ही सकता है। साथ देने के लिए हरीश है ही सही। बलविन्दर को एक और तार भेज दिया जायेगा कि वह रिसीव करने आ जाये।

मेरे सारे गहने या तो बेचे गये या गिरवी वगैरह रखे गये। जहां जहां से भी हो सकता था हमने पैसे जुटाये। टिकट और दूसरे इंतजाम करने के बाद मेरे पास लंदन लाने के लिए लगभग एक लाख तीस हजार रुपये इकट्ठे हो गये थे। तय किया था कि तीस हज़ार मम्मी के पास रखवा दूंगी और एक लाख ही ले कर चलूंगी। मुझे बहुत खराब लग रहा था कि मैं एक ही साल में दूसरी बार मम्मी की सारी पूंजी निकलवा कर ले जा रही थी। और कोई उपाय भी तो नहीं था। हमने जानबूझ कर बलविन्दर के घर वालों को इसकी खबर नहीं दी थी। मेरी किस्मत अच्छी थी कि हरीश की कम्पनी की मदद से मुझे टूरिस्ट वीजा वक्त पर मिल गया था और मैं हरीश के साथ उसी फ्लाइट से लंदन आ सकी थी।

और इस तरह मैं हमेशा के लिए लंदन आ गयी थी। लंदन, जिसके बारे में मैं पिछले छः सात महीने से लगातार सपने देख रही थी। कभी सोचा भी नहीं था कि कभी देश की सीमाएं भी पार करने का मौका मिलेगा। मन में तरह-तरह के ख्याल आ रहे थे। दुआ कर रही थी कि बलविन्दर के साथ सब ठीक-ठाक हो और वह हमें एयरपोर्ट लेने भी आया हो। अगर कहीं न आया हो तो.. इस के बारे में मैं डर के मारे सोचना भी नहीं चाहती थी।

हम लंदन पहुंचे तो यहां एक और सदमा मेरा इंतज़ार कर रहा था।

हीथ्रो पर काफी देर तक हम दोनों बलविन्दर इंतजार करते खड़े रहे थे और जब उस जैसी शक्ल का कोई भी आदमी काफी देर तक नज़र नहीं आया तो हमने ग्राउंड स्टाफ की मदद से एनाउंसमेंट भी करवाया लेकिन वह कहीं नहीं था। बलविन्दर के चक्कर में उस बेचारे ने अपने ऑफिस में किसी को खबर नहीं की थी। मैं तो एकदम घबरा गयी थी। एकदम अनजाना देश और पति महाशय का ही कहीं ठिकाना नहीं। पता नहीं उसे पत्र और तार मिले भी हैं या नहीं, लेकिन उसने जो पता ड्राफ्ट भेजने के लिए दिया था, उसी पर तो भेजे थे पत्र और तार। मन ही मन डर भी रही थी कि कहीं और कोई गड़बड़ न हो गयी हो। अब मेरे पास इस के अलावा और कोई उपाय नहीं था कि मैं वह रात हरीश के साथ ही कहीं गुजारूं और अगले दिन तड़के ही बलविन्दर की खोज खबर लूं।

संयोग से हरीश के पास वाइएमसीए के हास्टल का पता था। हम वहीं गये थे। एडवांस बुकिंग न होने के कारण हमें तकलीफ तो हुई लेकिन दो दिन के लिए हमें दो कमरे मिल गये थे। इतनी साध पालने के बाद आखिर मैं अपने होने वाले शहर लंदन आ पहुंची थी और अपनी पहली ही रात अपने पति के बिना एक गेस्ट हाउस में गुज़ार रही थी। संयोग से हरीश के पास एक पूरा दिन खाली था और उसे ऑफिस अगले दिन ही ज्वाइन करना था। हम दोनों अगले दिन निकले थे। अपने पति को खोजने। एकदम नया और अनजाना देश, अलग भाषा और संस्कृति और यहां के भूगोल से बिलकुल अनजाने हम दोनों। हमें वाइएमसीए से लंदन की गाइड बुक मिल गयी थी और रिसेप्शनिस्ट ने हमें विलेसडन ग्रीन स्टेशन तक पहुंचने के रास्ते के बारे में, बस रूट और ट्रेन रूट के बारे में बता दिया था। रिसेप्शनिस्ट ने साथ ही आगाह भी कर दिया था कि आप लोग यहां बिलकुल नये हैं और ये इलाका काले हब्शियों का है। ज़रा संभल कर जायें। हमें वह घर ढूंढने में बहुत ज्यादा तकलीफ़ हुई। हमें अभी इस देश में आये हुए पद्रह - सोलह घंटे भी नहीं हुए थे और हम सात समन्दर पार के इतने बड़े और अनजान शहर में बलविन्दर के लिए मारे-मारे फिर रहे थे।

उस पर गुस्सा भी आ रहा था और रह रह कर मन आंशकाओं से भर भी जाता था कि बलविन्दर बिलकुल ठीक हो और हमें मिल जाये।

आखिर दो तीन घंटे की मशक्कत के बाद हम वहां पहुंचे थे और काफी देर तक भटकने के बाद हमें वह घर मिला था। रिसेप्शनिस्ट ने सही कहा था, चारो तरफ हब्शी ही हब्शी नज़र आ रहे थे। गंदे, गलीज और शक्ल से ही डरावने। मैं अपनी ज़िदंगी में एक साथ इतने हब्शी देख रही थी। उन्हें देखते ही उबकाई आती थी।

ये घर मेन रोड से पिछवाड़े की तरफ की गंदी गलियों में डेढ कमरे का छोटा सा फलैट था। जब हरीश ने दरवाजे की घंटी बजायी तो काफी देर बाद एक लड़के ने दरवाजा खोला। वह नशे में धुत्त था। उसी कमरे में चार पांच लोग अस्त व्यस्त हालत में पसरे हुए शराब पी रहे थे। चारों तरफ सिगरेट के टोटे, बिखरे हुए मैले कुचैले कपड़े और शराब की खाली बोतलें। लगता था महीनों से कमरे की सफाई नहीं हुई थी। कमरा एकदम ठंडा था। हरीश ने ही बात संभाली - हमें बलविन्दर जी से मिलना है। उन्होंने हमें यहीं का पता दे रखा है। हरीश ने एक अच्छी बात यह की कि वहां बलविन्दर को न पा कर और माहौल को गड़बड़ देखते ही उसने मेरा परिचय बलविन्दर की पत्नी के रूप में न देकर अपनी मित्र के रूप में दिया।

सारे लड़के छोटा-मोटा धंधा करने वाले इंडियन ही लग रहे थे। हमें देखते ही वे लोग थोड़ा डिस्टर्ब हो गये थे। जिस लड़के ने दरवाजा खोला था, उसने हमें अंदर आने के लिए तो कह दिया था लेकिन अंदर कहीं बैठने की जगह ही नहीं थी। हम वहीं दरवाजे के पास खड़े रह गये थे। काफी देर तक तो वे एक दूसरे के ही पूछते रहे कि ये लोग कौन से बलविन्दर को पूछ रहे हैं। उसके काम धंधे के बारे में भी वे पक्के तौर पर कुछ नहीं बता पाये कि वह क्या करता है। जब मैंने उन्हें उसकी शक्ल सूरत के बारे में और मिडलसैक्स में उसके इंडियन हैंडीक्राफट्स के इम्पोरियम के बारे में बताया तो वे सब के सब हँसने लगे - मैडम कहीं आप मेरठी वैल्डर बिल्ली को तो नहीं पूछ रहे। जब मैंने हां कहा - येस येस हम उसी का पूछ रहे हैं, लेकिन उसने तो बताया था.. उसका वो इम्पोरियम?? मैंने किसी तरह बात पूरी की थी।

जवाब में वह फिर से हंसने लगा था - वो बिल्ली तो जी यहां नहीं रहता। कभी कभार आ जाता है। शायद इंडिया से किसी डौक्यूमेंट्स का इंतजार था उसे। बता रहा था यहीं के पते पर आयेगा।

- लेकिन आपका वह बिल्ली. .. वह करता क्या है? मैंने दोबारा पूछा था। जवाब में एक दूसरा लड़का हंसने लगा था - बताया न वैल्डर है। पता नहीं आपका बिल्ली वही है। दरअसल अपने घर वालों की नजर में हम सब के सब किसी न किसी शानदार काम से जुड़े हुए हैं। ये जो आप संजीव को देख रहे हैं, एम ए पास है और अपनी इंडिया में लोग यही जानते हैं कि ये यहां पर एक बहुत बड़ी कम्पनी में मार्केटिंग मैनेजर है जबकि असलियत में ये यहां पर सुबह और शाम के वक्त लोगों के घरों में सब्जी की होम डिलीवरी करता है। अपने परिचय के जवाब में संजीव नाम के लड़के ने हमें तीन बार झुक कर सलाम बजाया। तभी दूसरा लड़का बीच में बोल पड़ा - जी मुझे इंडिया में लोग हर्ष कुमार के नाम से जानते हैं। उनके लिए मैं यहां एक मेडिकल लैब एनालिस्ट हूं, लेकिन मैं लंदन का हैश एक बर्गर कार्नर में वेटर का काम करता हूं और दो सौ बीस पाउंड हफ्ते के कमाता हूं। क्यों ठीक है ना और टिप ऊपर से। गुजारा हो जाता है। यह कहते हुए उसने अपने गिलास की बची-खुची शराब गले से नीचे उतारी और जोर जोर से हंसने लगा।

पहले वाले लड़के ने तब अपनी बात पूरी की थी - और मैं प्रीतम सिंह इंडिया में घर वालों की नज़र में कम्प्यूटर प्रोग्रामर और यहां की सचाई में सबका प्यारा प्रैटी द वाशरमैन। मैं बेसमेंट लांडरी चलाता हूं और गोरों के मैले जांगिये धोता हूं। यह कहते हुए उसके मुंह पर अजीब-सा कसैलापन उभर आया था और उसने अपना गिलास एक ही घूंट में खाली कर दिया था।

काफी हील हुज्ज़त के बाद ही उन्होंने माना कि बलविन्दर वहीं रहता है लेकिन उसके आने-जाने का कोई ठिकाना नहीं है।

मेरी आंखों के आगे दिन में ही तारे नाचने लगे थे। इसका मतलब - हम ठगे गये हैं। जिस बलविन्दर को मैं जानती हूं और जिस बिल्ली का ये लोग जिक्र कर रहे हैं वो दो अलग अलग आदमी हैं या एक ही हैं। दोनों ही मामलों में मुसीबत मेरी ही थी। तभी उनमें से एक लड़के की आवाज सुनायी दी थी - वैसे जब उसके पास इंडिया से लाये पैसे थे तो अकेले ऐश करता रहा लेकिन जब खतम हो गये तो इधर उधर मारा मारा फिरता है। जब कहीं ठिकाना नहीं मिलता तो कभी कभार यहां चक्कर काट लेता है। वो भी अपनी डाक के चक्कर में।

मेरा तन-मन सुलगने लगा था। अब वहां खड़े रहने का कोई मतलब नहीं था। मैंने हरीश को इशारा किया था चलने के लिए। जब हम वापिस चलने लगे थे तो उन्हीं में से एक ने पूछा था - कोई मैसेज है बिल्ली के लिए तो मैंने पलट कर गुस्से में जवाब दिया था - हां है मैसेज। कहीं अगर मिले आपको आपका बिल्ली या हमारा बिल्ली कभी अपनी डाक लेने आये तो उससे कह दीजिये कि इंडिया से उसकी बीवी मालविका उसके लिए उसके डौक्यूमेंट्स ले कर आ गयी है। उसे ज़रूरत होगी। मैं वाइएमसीए में ठहरी हुई हूं। आ कर ले जाये।

वे सब के सब अचानक ठगे रहे गये थे। अब अचानक उन्हें लगा था कि नशे में वे क्या भेद खोल गये हैं। अब सबका नशा हिरण हो चुका था लेकिन किसी को नहीं सूझा था कि सच्चाई सुन कर कुछ रिएक्ट ही कर पाता।

चलते समय मैं एकदम चुप थी। कुछ भी नहीं सूझ रहा था मुझे। मुझे बिलकुल पता नहीं चला था कि हम हॉस्टल कब और कैसे पहुंचे थे।

कमरे में पहुंचते ही मैं बिस्तर पर ढह गयी थी। अरसे से रुकी मेरी रुलाई फूट पड़ी थी।

तो यह था तस्वीर का असली रंग। मैं यहां न आयी होती तो उसकी कहानी पर रत्ती भर भी शक न करती क्योंकि वह मुझे हनीमून के दौरान ही अपने कारोबार के बारे में इतने विस्तार से सारी बातें बता चुका था। अब मुझे समझ में आ रहा था कि उसने तब अपने इस सो कॉल्ड धंधे के बारे में इतनी लम्बी लम्बी और बारीक बातें क्यों बतायीं थीं।

अब सब कुछ साफ हो चुका था कि हम छले जा चुके थे और मेरी शादी पूरे दहेज के साथ अब एक याद न किये जा सकने वाले भद्दे मज़ाक में बदल चुकी थी। मेरा कौमार्य, मेरा सुहाग, मेरा हनीमून, मेरी हसरतें, मेरी खुशियां, मेरे छोटे छोटे सपने, बलविन्दर जैसे झूठे और मक्कार आदमी के साथ बांटे गये नितांत अंतरंग क्षण, मेरे सारे अरमान सब कुछ एक भयानक धोखा सिद्ध हो चुके थे। मैं अपनी रुलाई रोक नहीं पा रही थी। मुझे अपने ही तन से घिन्न आने लगी थी। अपने आप पर बुरी तरह से गुस्सा आने लगा था कि मैंने यह सोने जैसा तन उस धोखेबाज, झूठे और फरेबी आदमी को सौंपा था। मेरे शरीर पर उसने हाथ फिराये थे और मैंने उस आदमी को, जो मेरा पति कहलाने लायक बिलकुल भी नहीं था, एक बार नहीं बल्कि कई कई बार अपना शरीर न केवल सौंपा था, बल्कि जिसकी भोली भाली बातों के जाल में फंसी मैं कई कई महीनों से उसके प्रेम में पागल बनी हुई थी। अब उन पलों को याद करके भी मुझे घिन्न होने लगी थी। मेरा मन बुरी तरह छलनी हो चुका था। मैं दहाड़ें मार कर रोना चाहती थी, लेकिन यहां इस नये और अपरिचित माहौल में मैं खुल कर रो भी नहीं पा रही थी। यहां कोई सीन क्रियेट नहीं करना चाहती थी। मैं गुस्से से लाल पीली हो रही थी। हरीश थोड़ी देर मेरे कमरे में बैठ कर मुझे एकांत देने की नीयत से अपने कमरे में चला गया था। उस बेचारे को भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक ये सब क्या हो गया था।

मुझे मम्मी के लिए भी अफ़सोस हो रहा था। उन्हें फोन करके इस स्टेज पर ये बातें बता कर परेशान नहीं करना चाहती थीं। अब इसमें उनका क्या कुसूर कि उनका देखा-भाला जमाई खोटा निकल गया था। उन्होंने तो उससे सिर्फ दो-चार मुलाकातें ही की थीं और उसके शब्दजाल में ही फंसी थी। मैं मूरख तो न केवल उसकी बातों में फंसी थी, उसे अपना सब कुछ न्यौछावर कर आयी थी। अपना सुहाग भी और पांच लाख रुपये भी। मम्मी से बड़ा कुसूर तो मेरा ही था। अब सज़ा भी मुझ अकेली को ही भोगनी थी।

उस सारी रात मैं अकेली रोती छटपटाती करवटें बदलती रही। बार बार मुझे अपने इस शरीर से घृणा होने लगती कि मेरा इतना सहेज कर संभाल कर रखा गया शरीर दूषित किया भी तो एक झूठे और मक्कार आदमी ने। पता नहीं मुझसे पहले कितनी लड़कियों के साथ खिलवाड़ कर चुका होगा। अब यह बात जिस किसी को भी बतायी जाये, हमारा ही मज़ाक उड़ायेगा कि तुम्हीं लोग लंदन का छोकरा देख कर लार टपकाये उसके आगे पीछे हो रहे थे। हमने तो पहले ही कहा था, बाहर का मामला है, लड़के को अच्छी तरह ठोक बजा कर देख लो, लेकिन हमारी सुनता ही कौन है। अब भुगतो।

अब मेरा सबसे बड़ा संकट यही था कि मैं इस परदेस में अकेली और बेसहारा किसके भरोसे रहूंगी। इतनी जल्दी वापिस जाने का भी तो नहीं सोचा जा सकता था। क्या जवाब दूंगी सबको कि मैं लुटी पिटी न शादीशुदा रही, न कुंवारी। मैं सोच-सोच के मरी जा रही थी कि क्या होगा मेरा अब। पता नहीं बलविन्दर से मुलाकात भी हो पायेगी या नहीं और मिलने पर भी कभी बलविन्दर जैसे बेईमान और झूठे आदमी से पैच अप हो पायेगा या नहीं या फिर मैं हमेशा हमेशा से आधी कुंवारी और आधी शादीशुदा वाली हालत में उसका या उसके सुधरने का उसका इंतजार करते करते बूढ़ी हो जाऊंगी। मुझे ये सोच सोच कर रोना आ रहा था कि जिस आदमी के अपने पेपर्स का ठिकाना नहीं है, रहने खाने और काम का ठौर नहीं है, अगर उससे कभी समझौता हो भी गया तो मुझे कहां रखेगा और कहां से खिलायेगा। वहां तो फिर भी मम्मी थी और सब लोग थे, लेकिन यहां सात समंदर पार मेरा क्या होगा। मैं भी कैसी मूरख ठहरी, न आगा सोचा न पीछा, लपकी लपकी लंदन चली आयी।

वह पूरी रात मैंने आंखों ही आंखों में काट दी थी और एक पल के लिए भी पलकें नहीं झपकायीं थीं।

***