Pariyo Ka ped - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

परियों का पेड़ - 4

परियों का पेड़

(4)

परी की खोज में

.........और जानते हो राजू ! हजारों वर्ष बाद भी हिमालय के ऊँचे पहाड़ों के बीच स्थित वह घाटी आज भी वैसे ही रंग –बिरंगे फूलों से सारी दुनिया को आकर्षित कर रही है | वहाँ के लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि उस विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी में वह फूलपरी किसी न किसी अच्छे बच्चे को आज भी दिख जाती है | उसी सुन्दर स्वरूप में, जिसका चेहरा सुन्दर राजकुमारी जैसा और विशाल पंख रंगीन तितली के जैसे दिखते हैं |”

“क्या .......???” – राजू आश्चर्य से मानो चीख पड़ा | “क्या ??? सचमुच ऐसा है पिताजी ?” – आश्चर्यचकित और जिज्ञासु, किन्तु अलसाये हुए राजू ने अधमुँदी आँखों से पिताजी को देखने का प्रयास करते हुए पूछा |

“पता नहीं बेटे ! पक्का तो मैं नहीं कह सकता | लेकिन ऐसा हो भी सकता है |”- “ओह” - राजू को इस बार पिताजी का ढीला – ढाला सांत्वना भरा जवाब सुनने से मजा नहीं आया | एक तो उसे तेज नींद आ रही थी पहले ही बड़े सुकून की गहरी नींद में सो गया था |

तब से मानो ये नियम ही बन गया था | माँ की जगह अब उसके पिताजी परियों की कोई न कोई कहानी सुनाने लगे | राजू प्रायः सोते समय ये कहानियाँ बड़े चाव से सुना करता था | उसके कोमल और संवेदनशील मन पर इन कहानियों का गहरा प्रभाव पड़ता था | इतना गहरा कि अब वह परी के रूप में ही अब अपनी माँ की कल्पना करने लगा था | .....और शायद इसी कारण था कि धीरे – धीरे वह काफी हद तक अपनी माँ की आकस्मिक मृत्यु के दुख से उबर भी गया | लेकिन यह भी एक सच था कि कहानियों जैसी परी के रूप में अपनी माँ के लौटने की एक अंतहीन प्रतीक्षा अब उसकी नियति बन कर रह गयी थी |

राजू बड़ा होने लगा था | उम्र बढ़ने के साथ ही उसकी समझ तथा ज़िम्मेदारी भी विकसित होने लगी थी | पिताजी सुबह काम पर निकल जाते | राजू गाँव के दूसरे बच्चों के साथ दिन भर खेलता - कूदता रहता | कभी – कभी पिताजी के साथ जंगल भी चला जाता था | बाकी दिन अकेले घर में ही रह जाता | लेकिन बिना पिताजी को बताये वह अकेले कहीं नहीं जाता था |

इसी बीच एक दिन पिताजी ने राजू का नाम स्कूल में लिखवा दिया | वह रोज स्कूल जाने लगा और मन लगाकर पढ़ाई करता | वहाँ उसे तरह - तरह की अन्य कहानियाँ भी सुनने को मिलती | लेकिन उसे अब भी परियों की कहानियाँ ही सबसे ज्यादा लुभाती थी | वह अब भी परीलोक के सपने ही ज्यादा देखता था | शायद उसके अचेतन मन में कहीं ऐसा विश्वास बड़े गहरे पैठ गया था कि एक दिन उसकी परी माँ उससे मिलने जरूर आयेंगी | वह पिताजी से अब ऐसी कहानियों की चर्चा जरूर करता रहता था |

एक दिन उसके पिताजी ने बताया – “राजू ! जानते हो? गाँव के उत्तर की ओर सबसे ऊँचे और बड़े वाले पहाड़ के ऊपरी जंगल में एक ऐसा पेड़ है, जिसे परियों का पेड़ कहा जाता है | उसके फलों की बनावट किसी स्त्री के शरीर की तरह दिखती है | कुछ लोग यह भी कहते हैं कि वे सचमुच की परियाँ ही हैं, जो उस पेड़ की शाखाओं पर फलों की तरह लटकती रहती हैं |”

“क्या सचमुच पिताजी ?” – यह राजू के सामने किसी नये और अनोखे रहस्य के उद्घाटन जैसा था |

“हाँ, देखने वाले तो यही बताते हैं | दूर से ऐसा ही लगता है, जैसे किसी दुष्ट जादूगर ने अपनी माया से उन स्त्रियों या परियों को फल बना कर डालियों पर लटका दिया है | परियों का यह पेड़ बड़ा चमत्कारिक और रहस्यमय लगता है | लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि उस परियों के पेड़ पर शाम ढलने के बाद मेले या उत्सव जैसी जगमगाहट दिखती है | वे परियाँ जीवित हो जाती हैं और पेड़ के ऊपर या उससे नीचे उतरकर घूमती – फिरती और नाचती - गाती रहती है |”

अब तो राजू के आश्चर्य की सीमा न रही | वह कहने लगा - “बापू ! यदि सचमुच ऐसा है, तो मैं भी वह परियों वाला पेड़ जरूर देखना चाहूँगा | यदि वे सचमुच की परियाँ हैं, तो मैं उन परियों से मिलकर अपनी माँ के बारे में पूछना चाहता हूँ | उन्हें मेरी माँ के बारे में कुछ तो जरूर पता होगा | इतना ही नहीं, यदि मैं उनसे मिल पाया तो उनके साथ परीलोक की सैर करूंगा और चाँद – तारों को भी नजदीक से देखूंगा | उनकी दुनिया के बारे में तमाम बातें भी पूछूंगा | .....और उनसे यह भी पूछूंगा कि आखिर वे इस तरह उस पेड़ पर लटकती हुई क्यूँ दिखती हैं ?”

राजू अपनी बाल सुलभ प्रतिक्रिया में, अपनी धुन में इतना सब कुछ कहता चला गया कि उसके पिता जी गंभीर हो उठे | वे सहम गये कि राजू का बाल सुलभ मन अपनी जिज्ञासा शान्त करने के चक्कर में कोई ऐसा कदम न उठा ले, जिससे कोई अनजाना संकट खड़ा हो जाय ?

वो हड़बड़ाकर कहने लगे - “अरे नहीं – नहीं, उस पेड़ तक पहुँच पाना ही तो मुश्किल है बेटा ! उस पेड़ की ठीक – ठीक जगह का पता किसी को भी नहीं है | मैंने भी वर्षों पहले उस पेड़ का सिर्फ एक चित्र देखा था, शहर के किसी अखबार में | तब मैं वहाँ चन्दन की लकड़ियाँ बेचने गया था | एक चाय की दूकान पर कुछ लोग अखबार पढ़कर तरह – तरह की चर्चाएँ कर रहे थे | बता रहे थे कि एक दिन कोई खोजी अंग्रेज़ शिकारी उस ऊँचे पहाड़ के घने जंगल में रास्ता भटक गया था | सूरज डूबने की आहट होते ही रात बिताने के लिये कोई सुरक्षित जगह खोजने लगा | फिर शाम का अँधेरा घिरते ही उसने दूर पहाड़ पर एक जगह रोशनी झिलमिलाती हुई अनुभव हुई | उसने वहाँ कुछ मनुष्यों जैसी हलचल भी महसूस की थी | किन्तु रात होने के कारण वह चाहकर भी उस तरफ नहीं जा सका था |”

“अच्छा ? फिर क्या हुआ ?” – राजू की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी |

“फिर रात किसी तरह बिताकर वह शिकारी सुबह होते ही उस रोशनी वाली जगह की खोज में जुट गया | दोपहर तक घूमते हुए आखिरकार वह शिकारी परियों के पेड़ के बहुत नजदीक तक जा पहुँचा था | उसको अपनी दूरबीन से पेड़ पर लटके हुए परियों जैसे फल काफी हद तक साफ दिख रहे थे |”

“अरे वाह ! तब तो वह शिकारी उस परियों के पेड़ का राज भी जान गया होगा |” – राजू चहकते हुए बोला |

-“नहीं बेटा ! अब भी वह उस पेड़ वाली उस जगह से बहुत दूर ही था | वह इतना नजदीक पहुँचकर भी इतना दूर था कि सिर्फ उसे देख ही सकता था | वह पेड़ तक पहुँच नहीं सकता था |”

“भला ऐसा क्यों ?” – राजू की उत्सुकता शिखर से लुढ़कने को हुई |

“कारण यह था कि उस शिकारी और परियों के पेड़ के बीच एक विशालकाय जलप्रपात था, जो भयंकर आवाज करके बहता हुआ नीचे एक विशाल पहाड़ी नदी में गिर रहा था | उस झरने को पार करना उस शिकारी के वश में नहीं था | जरा सी भी चूक उसकी जान ले सकती थी | अतः मजबूरन उसे वापस लौटना पड़ा | हाँ, कुछ दूर तक उस पहाड़ी नदी के किनारे – किनारे चल कर उसे अपना रास्ता खोजने में काफी आसानी हुई | वह दिन ढलने से पहले ही पहाड़ की तराई में ऐसे स्थान तक पहुँच गया जहाँ से अगले दिन वह एक गाँव तक पहुँचा, फिर गाँव वालों की सहायता से शहर का रास्ता भी पा गया |”

“ओह ! बेचारा शिकारी |”- राजू अफसोस भरी लंबी साँस खींचता हुआ बोला |

पिता जी आगे बताते रहे – “ फिर उसी शिकारी ने अपनी याददाश्त के आधार पर उस पेड़ का एक चित्र बनाया और समाचार लिखकर अखबार में छपने के लिए भेज दिया था | अखबार में यह चित्र और खबर छपने की वजह से बाहरी दुनिया के बहुत से लोगों को उस पेड़ के बारे में जानकारी हो गयी थी |”

राजू अब भी बड़े ध्यान से सुनता जा रहा था |

उसके पिताजी बोलते जा रहे थे – “उसके बाद तो बहुत दूर – दूर से लोग दौड़े – दौड़े यहाँ तक आने लगे, उस परियों के पेड़ को देखने के लिए | उस ऊँचे और बड़े वाले पहाड़ की तलहटी में रोज अच्छी – ख़ासी भीड़ जमा होने लगी थी | खोज करने वालों के तम्बू गड़ गए थे | कई महीनों तक पहाड़ के आस - पास रहने वाले लोगों को उस भीड़ से रोजी – रोटी कमाने का अच्छा जरिया मिल गया था | मैंने भी उन्हें लकड़ियाँ बेच – बेचकर खूब पैसा कमाया | इतना कमाया था कि अपनी झोपड़ी का एक कमरा पक्का बन गया था | लेकिन ...........|”

“लेकिन........? लेकिन क्या पिता जी...........?” – राजू की जिज्ञासा का घड़ा बस छलकते – छलकते रह गया था |

“.......लेकिन वे लोग बहुत खोजबीन करने बाद भी उस पेड़ तक नहीं पहुँच सके | वह अंग्रेज़ शिकारी जिसने वहाँ तक पहुँचकर उस पेड़ का चित्र बनाया था | वह लाख चाहकर भी उस पेड़ तक पहुँचने का सही मानचित्र नहीं बना सका | वह खुद भी दोबारा उस पेड़ तक कभी नहीं पहुँच सका | शायद नदी ने अपनी धारा ही बदल दी थी या फिर वह पगडंडी ही घने जंगलों में कहीं छुप सी गयी थी | कोई भी व्यक्ति वह रास्ता दोबारा नहीं खोज सका | दूर से भी दोबारा उस पेड़ को नहीं देखा जा सका | पता नहीं कैसा रहस्यमय पेड़ है वह ?”

“क्या आपने भी उस पेड़ को खोजने की कोई कोशिश नहीं की ? आपका तो सारा जंगल ही छाना हुआ है |” - राजू ने हैरान होकर पूछा |

“ये बात सही है कि मैं भी जंगल के ज़्यादातर रास्तों से परिचित हूँ | इस समाचार से मुझे भी उस पेड़ के बारे में काफी रुचि हो गयी थी | लेकिन मैं भी उस पेड़ को कभी नहीं देख पाया | उसी समय कुछ लोग यह भी कहने लगे थे कि ये परियाँ उस पेड़ पर बारह वर्ष में एक बार ही दिखती है | ऐसा किसी जादूगर ने बताया था | शायद इसीलिये वह पेड़ दोबारा किसी को नहीं दिख पाया हो |”

“तो क्या यह राज हमेशा राज ही रह जायेगा ?”- इस प्रश्न के साथ ही राजू की उत्कंठा समाप्त होने को आयी |

“ पता नहीं बेटे! लेकिन मजे की बात तो यह है कि इस वर्ष उनके फिर से दिखने की संभावना है, जैसा कि लोगों में चर्चा हो रही है | मुझे भी याद पड़ता है कि उस अंग्रेज़ शिकारी ने भी वह पेड़ इन्ही दिनों ठीक बारह वर्ष पहले देखा था |” – पिता जी ने बात पूरी की और कुछ देर के लिये चुप्पी साधने को हुए ......|

.........लेकिन इसी बात से राजू की बाँछें खिल उठी | जैसे भीषण गर्मी से मुरझाये हुए किसी पौधे को आषाढ़ माह की ठंडी बौछारें मिल जायें | उछलते हुए उत्साह पूर्वक कहने लगा - “अरे वाह बापू ! फिर तो मैं भी उन परियाँ से मिल सकूँगा, यदि वे सचमुच वहाँ होंगी | मैं जाऊँगा उस पेड़ को खोजने | काफी जंगल तो मेरा भी घूमा हुआ है न ? और फिर आप ही तो कहते हैं कि परियाँ सिर्फ अच्छे बच्चों को ही दिखती है, है न ?”

“हाँ, अंssअंsssआंssss?”- उसके पिताजी के माथे पर बल पड़ गये | उन्होंने अचानक ही उपजे राजू के उत्साह का मर्म समझने की कोशिश की, तब तक वह और भी चहक उठा |

“.....और मैं तो अच्छा बच्चा हूँ ही |...हूँ न बापू ?” – राजू ने अति उत्साह में अपनी ही पीठ थपथपाने की कोशिश की |

“अंssहाँ – हाँ....,आंsssनहीं – नहीं…?”- वह जैसे अचकचा गये |

“क्या ... ? नहीं ?? मैं सचमुच अच्छा बच्चा नहीं हूँ क्या बापू ?” -

राजू की इस बात से उसके पिताजी मुस्कुराने की जगह घबरा उठे थे | जल्दी से कहने लगे - “अरे नहीं - नहीं | मेरे कहने का मतलब वो नहीं था, जैसा तुम समझ रहे हो | मेरा मतलब था कि जिन बच्चों को परियाँ स्वयं बुलाती हैं, उनके पास सिर्फ वही बच्चे पहुँच सकते हैं | समझे ?”

उन्होने बात संभालने की कोशिश की तो राजू का चेहरा कुछ लटक गया |

----------क्रमशः