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आघात - 30

आघात

डॉ. कविता त्यागी

30

पूजा के चित्त में एक संघर्ष-सा होने लगा । वह कभी स्वंय को उचित सिद्ध करने का प्रयास करने लगी और कभी स्वयं ही स्वयं को अनुचित सिद्ध करने का प्रयास करती हुई रणवीर को निर्दोष मानने लगी । उसके चित्त में बार-बार अनुकूल-प्रतिकूल विचारों का तूफान उठने लगा और बिजली की भाँति कई प्रश्न उसके मस्तिष्क में उभरने लगे -

‘‘क्या यह मेरे हृदय का भ्रम-मात्र है कि रणवीर का वाणी के साथ अवैध सम्बन्ध घनिष्ठता की ओर बढ रहा है ? क्या मैने अपने सन्देह को प्रकट करके कोई व्यावहारिक भूल की है ? क्या सचमुच अपने घर में होने वाले तनावपूर्ण वातावरण के लिए मैं ही जिम्मेदार हूँ ? यदि यह सच है, तो पहले सत्तर हजार रुपये के फर्नीचर के बिल-भुगतान की तथा अब यह विद्युत निगम के बिल-भुगतान की रसीद, जिसके लिए अभी कुछ समय पहले रणवीर ने स्वयं स्वीकार किया था कि वह भुगतान उसने वाणी की ओर से किया था, क्योंकि वह अभी भी वाणी को प्रेम करता है, क्या वह झूठ था ? रणवीर की वह स्वीकारोक्ति सच थी या यह कहानी सच है ?’’

अपने अनेकानेक प्रश्नों के समाधान तलाशती हुई पूजा तर्क-वितर्क की लहरों में भटकती रही । ऊहापोह में बहुत-समय तक रहने पर भी पूजा किसी प्रश्न का समाधान न कर सकी । अन्त में उसने निश्चय किया कि वह भविष्य में कभी भी रणवीर पर सन्देह नहीं करेगी, क्योंकि सन्देह का कभी सकारात्मक हल नहीं निकलता है, बल्कि उसका सदैव नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है, जिससे घर में तनावपूर्ण वानावरण बन जाता है ।

अपने घर के वातावरण को तनावमुक्त रखने के लिए पूजा ने स्वयं को दोषी स्वीकारते हुए भविष्य में कभी भी रणवीर पर अवैध सम्बन्धें को लेकर सन्देह न करने का संकल्प किया था। परन्तु, अगले ही दिन उसका वह संकल्प उस समय धराशायी हो गया, जब उसको पता चला कि रणवीर सुबह नौ बजे अपने ऑफिस जाने के लिए घर से निकलकर शाम छः बजे तक भी ऑफिस नहीं पहुँचा था ।

उस दिन शाम को घर में पूजा की सास आयी थी । उन्होंने रणवीर को फोन करके घर बुलाने के लिए कहा, तो पूजा ने रणवीर के मोबाइल पर सम्पर्क करने का प्रयास किया । मोबाइल का स्विच ऑफ आ रहा था । पूजा ने माँ के आने की सूचना रणवीर को देने के लिए उसके ऑफिस का नम्बर मिलाया । वहाँ से उसको उत्तर मिला-

'साहब आज सुबह से ऑफिस नहीं पहुँचे हैं !"

सुबह से शाम के छः बजे तक रणवीर के ऑफिस में नहीं पहुँचने तथा मोबाइल पर सम्पर्क नहीं होने से पूजा को रणवीर की चिन्ता होने लगी थी । उसके चित्त में विभिन्न प्रकार के शुभ-अशुभ, प्रिय-अप्रिय विचार आने लगे । कुछ देर तक वह ऊहापोह की स्थिति में बैठी रही कि आखिर रणवीर कहाँ जा सकता है ? कई बार उसका हृदय भय से काँप उठता था कि रणवीर किसी दुर्घटना का शिकार तो नहीं हो गया है ? इस प्रकार की शंका मन में होते ही वह पति के कुशल-मंगल के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि उसका पति जहाँ भी हो कुशल मंगल रहे !

रणवीर की चिन्ता में पूजा का चित्त शान्त नहीं हो रहा था, तो उसने रणवीर के एक मित्र, रवि, जोकि रणवीर के साथ प्रायः घर पर आता रहता था, को सम्पर्क किया और पूछा कि उसने रणवीर के साथ उस दिन कोई मीटिंग की थी या नहीं ?

रवि ने पूजा को बताया कि शाम पाँच बजे रणवीर एक शॉपिंग मॉल में कुछ उपहार खरीद रहा था । रवि की बातों से पूजा की चिन्ता समाप्त हो गयी थी और उसके चित्त में मधुर-मधुर कल्पनाएँ सृजित होने लगीं । चूँकि अगले दिन उनके विवाह की वर्षगाँठ थी, इसलिए वह कल्पना करने लगी कि शायद अपने विवाह की इस वर्षगाँठ को रणवीर स्मरणीय क्षणों में परिवर्तित करना चाहता है । उसका प्रेमपूर्ण हृदय उन अविस्मरणीय क्षणों की कल्पना करने लगा, जब रणवीर उसके लिए उपहार लेकर आएगा और वे दोनों पहली बार अपने दो बेटों के साथ उस रोमांचित करने वाले क्षण को यादगार बनायेंगे ।इन्हीं सुखद कल्पनाओं में विचरण करते हुए पूजा पूर्णरूप से तनावमुक्त हो गयी थी ।

रमणीय कल्पनाओं में विचरण करते हुए पूजा को रणवीर की स्मृति ने बेचैन कर दिया। वह पुनः उससे सम्पर्क करने के लिए उत्सुक थी । उसे आशा थी कि अब तक रणवीर का मोबाइल ऑन हो चुका होगा । अपनी आशा के अनुरूप रणवीर का मोबाइल उसको स्विच ऑन मिला और नम्बर डायल करते ही तुरन्त रणवीर से उसका सम्पर्क हो गया। सम्पर्क होने की अपनी प्रसन्नता के उन्माद में पूजा ने रणवीर को कुछ भी बोलने का अवसर दिये बिना उसे मोबाइल बन्द करने के लिए कई प्रेम-भरे उलाहने दे डाले और अधिकारपूर्ण स्वर में घर आने को कहा । लेकिन, उसकी प्रसन्नता को तब ग्रहण लग गया और उसकी रमणीय कल्पना पंख-कटे घायल पक्षी की तरह क्षत-विक्षत हो गयी, जब कुछ बोलने का अवसर मिलते ही रणवीर ने बहुत ही मधुर शब्दों में क्षमा-प्रार्थना करते हुए पूजा को बताया कि ऑफिस पहुँचने के पश्चात् उसको अचानक किसी कार्यवश शहर से बाहर जाना पड़ा। वह घर सूचना नहीं दे सका था, क्योंकि उसके मोबाइल की बैट्री डिस्चार्ज हो गयी थी।

बहुत ही मधुर शब्दों और विनम्र शैली में उस दिन वापिस लौटने में असमर्थ होने की बात कहकर रणवीर ने यथाशीघ्र लौटने का वचन दिया। रणवीर की ओर से मिथ्या और नकारात्मक उत्तर सुनकर पूजा को जैसे लकवा मार गया था । उसे अब न कुछ सुन रहा था और न वह कुछ बोल पा रही थी । उसके हाथ से रिसीवर छूटकर नीचे लटक गया। उधर से रणवीर ने भी अब पूजा को स्वयं का तथा बच्चो का भली-भाँति ध्यान रखने का निर्देश देते हुए सम्पर्क काट दिया। पूजा रणवीर के सप्रेम-मधुर सम्भाषण का कोई उत्तर न दे सकी थी । उसके मुख से केवल इतना ही निकला -

‘‘फिर विश्वासघात !’’ और वह धम्म से धरती पर बैठ गयी।

कुछ ही क्षणों में पूजा की चेतना लौट आयी। चेतनावस्था में भी उसके कानों में रणवीर के झूठे बहाने भरे शब्द गूँजते रहे कि वह शहर से बाहर है । उसके चित्त में रणवीर का विश्वासघाती चरित्रा घूमने लगा और वे मधुर सम्भाषण उसके कानों में रेडियों की भाँति बजने लगे, जिनसे वह आज तक ठगी जाती रही थी । वह पागलों की भाँति स्वयं से बातें करती हुई कभी हँसने लगती थी और कभी रोने लगती थी । माँ की ऐसी दशा को देखकर दोनों बेटे चिन्तित हो उठे। उन्होंने पिता को इस विषय में सूचना देने का प्रयास किया, परन्तु अनायास ही पूजा ने उन्हें यह कहकर रोक दिया -

तुम्हारे पापा शहर से बाहर हैं ! वे इस समय घर पर नहीं आ सकते, इसलिए उन्हें डिस्टर्ब करना उचित नहीं हैं !"

माँ की आज्ञा का पालन करते हुए दोनों बेटों ने पिता को सूचना देने का विचार छोड़ दिया और सिमट कर माँ के पास बैठ गये।

पूजा अपने कमरे में सदमे-की-सी अवस्था में निश्चेष्ट लेटी हुई थी । दोनों बेटे सिमटे हुए शान्त-गम्भीर और चिन्तित मुद्रा में माँ के पास बैठे हुए थे । रणवीर की माँ दूसरे ’कमरे में बैठी हुई निश्चिन्त होकर टेलीविजन पर धारावाहिक देखने का आनन्द ले रही थी । उस समय उस माँ को न तो बेटे के घर लौटकर नहीं आने की सूचना के विषय में कुछ सोचने की आवश्यकता का अनुभव था, न ही बहू और पोतों की चिन्ता थी । वह तो रणवीर के हर उचित-अनुचित कार्य को पुरुष-प्रकृति के अनुरूप तथा स्वाभाविक मानती थी । उनकी दृष्टि में रणवीर के प्रत्येक कार्य में कोई प्रश्न किये बिना सहयोग करना पूजा का कर्तव्य था । अपनी इसी वैचारिक दृष्टि के चलते वे सदैव पूजा में दोष निकालती रही थीं और आज भी अपनी इसी छिद्रान्वेषी प्रकृति से विवश होकर उन्होंने ऊँची आवाज में पुकारते हुए कहा-

‘‘अरे, प्रियांश, आठ बज गये हैं ! आज खाने-पीने को कुछ मिलेगा या भूखे ही सोना पड़ेगा ? तेरी माँ को रोने-गाने से फुरसत हो गयी हो, तो ... !’’

‘‘अम्माँ, मम्मी का स्वास्थ्य आज ठीक नहीं है ! मैं आपके खाने के लिए बाहर से कुछ ला दूँगा ! आप बताइये क्या मँगायेंगी ?’’ प्रियांश ने विनम्र और उदास स्वर में कहा ।

‘‘क्या हुआ है इसे ? मैं सब जानती हूँ, ऐसी बीमारियों को और तिरया चरित्तर को !’’ यह कहते हुए पूजा की सास प्रियांश के साथ-साथ पूजा के कमरे की ओर चल पड़ी -

‘‘चल देखूँ तो, क्या बीमारी है ?’’

कुछ ही क्षणों में वे पूजा के पास खड़ी हुई कह रही थी -

‘‘क्यों री ! तू क्या चाहती है, सब काम-धाम छोड़कर रणवीर सदा तेरे पल्लू से बंधकर तेरे पास बैठा रहे ? तेरे इस नाटक को ये छोटे-छोटे बालक भले ही ना समझें, पर मैं तो तिरया चरित्तर को अच्छी तरह समझती हूँ ! साठ साल की उमर हो गयी हैं मेरी ! मैनें ये बाल धूप में सफेद नहीं किये है ! सब जानती हूँ मैं, तेरे मन में क्या चल रहा है ? चल, खड़ी होके रसोई बना ! बालक भी भूखे हैं और मैं भी !’’

प्रियांश और सुधांशु के सिर पर हाथ फेरते हुए उन्होने दोनों की ओर ऐसी दृष्टि डाली, जैसेकि पूजा को उनकी बिल्कुल चिन्ता नहीं है, इसलिए वह स्वास्थ्य ठीक न होने का बहाना करके लेटी है और घर का वातावरण तनावपूर्ण बनाने का प्रयास कर रही है ।

अपनी दादी का ऐसा आशय समझकर कि उनकी माँ की पीड़ा की उपेक्षा करके वे उस पर दोषारोपित कर रही हैं, दोनों ने प्रतिक्रियास्वरुप दादी की ओर क्रोधपूर्ण दृष्टि डाली और विनम्र संयत शब्दों में कहा- ‘‘अम्मा, आप हमारी मम्मी के बारे में और हमारे बारे में सोचना छोड़कर केवल अपने बारे में सोचिये ! आप जो कुछ खाना चाहती हैं, हम बाजार से खरीदकर ला देंगे !’’

प्रियांश और सुधांशु के उत्तर से आहत होकर क्रोध की मुद्रा में दादी ने कहा -

‘‘मेरा रणवीर घर में नहीं है, तो तुम दोनों मेरा अपमान कर रहे हो ?’’ फिर पूजा की ओर उन्मुख होकर बोली -

‘‘यही तो चाहती थी तू ! तेरी ही शिक्षा बोल रही है इन दोनों के मुँह से ! अब मुझे यहाँ एक पल भी नहीं रुकना है ! मुझे यहाँ रहकर अब अपना और अपमान नहीं कराना है ! मुझे अभी लौटना है ! ’’

दादी का सम्भाषण सुनकर प्रियांश आगे बढ़कर बोला-

‘‘चलिए, अम्माँ, मैं आपको बस स्टॉप तक पहुँचा दूँ !’’

‘‘हाय रे ! कितनी निर्लज्ज औलाद है मेरे रणवीर की ! न बड़े-छोटे की शरम है, ना घर में आये हुए किसी अतिथि के साथ बात-बर्ताव करने की समछ ! जब माँ ने कुछ सिखाया ही नहीं, तो बच्चों को व्यवहार करने की शिक्षा कहाँ से मिलती ? माँ को खुद ही नहीं पता है कि कब ? किसके साथ कैसा बर्ताव करना होता है ?’’

‘‘अम्मा, आपको देर हो जाएगी, जल्दी चलो ! हम आपको बस स्टॉप पर पहुँचा देंगे !’’ इस बार सुधांशु ने दादी को उपेक्षित दृष्टि से देखते हुए कहा था। पूजा अभी तक एक शब्द भी नहीं बोली थी ।

प्रियांश और सुधांशु के तेवर देखकर दादी का क्रोध ठंडा पड गया। पूजा के दोनों बेटों की उसके प्रति सहानुभूति देखकर दादी हतोत्साहित होकर बोली -

‘‘बेटा, यह बूढ़ी काया रात में कहाँ भटकती फिरेगी ? अब मैं सोचती हूँ, सवेरे उठकर चली जाऊँगी ! हो सकता है, तब तक रणवीर भी आ जाए ! न हो तो, जब रणवीर घर आ जायेगा, तब ही चली जाऊँगी ! तुम्हें ऐसी हालत में छोड़कर जाने को मन नहीं मानता मेरा ! आखिर मैं ही आज तुम्हें छोड़कर जाऊँगी, तो....! जमाना बहुत खराब आ गया है ! जब अपने ही साथ नहीं देते, तो किसी पराये से क्या उम्मीद की जा सकती है ? ’’

दादी के एक के बाद एक नए रूप को देखकर प्रियांश और सुधांशु परस्पर आँखों से संकेत करते हुए मुस्कराने लगे और अपनी मम्मी से अनुमति लेकर बाजार से कुछ खाने के लिए लाने को चल दिये। जब वे दोनां चलने लगे, एक बार पुनः दादी ने अपना नया रूप दिखाते हुए उन्हें रोककर कहा -

‘‘बेटा, खाना तो मैं भी बना सकती थी, पर इन बूढ़े हाथों का बना हुआ तुम्हें शायद रुचेगा नहीं, इसलिए ......!’’

दादी की इस नयी मुद्रा और वाक्चातुर्य पर दोनां बच्चे हँस पड़े और एक साथ बोले-

‘‘नहीं अम्मा, आपके हाथों का बना खाना हमें रुचिकर ना लगे, ऐसी कोई बात नहीं है !’’ पोतां का आधा-अधूरा संवाद सुनते ही उनकी दादी के चेहरे पर चिन्ता की रेखाएँ उभरने लगीं । अपने वाक्चातुर्य पर अति विश्वास करके वे स्वयं ही पराभूत-सी दिखाई देने लगी । प्रियांश और सुधांशु दादी की मुखमुद्रा को भाँप चुके थे, इसलिए उन्होने हँसते हुए उन्हें निर्भय करके अपने संवाद को आगे बढ़ाया -

‘‘पर हम अपनी अम्मा के बूढ़े शरीर को कष्ट कैसे दे सकते हैं ? हमारी मम्मी ने सिखाया है, अपने बुजुर्गां की सेवा करनी चाहिए, उन्हें कोई कष्ट नहीं देना चाहिए !’’

प्रियांश और सुधांशु के मुँह से पूजा की प्रशंसा सुनकर पूजा की सास का चेहरा सिकुड़ गया । उन्होनें अपनी नाक-भौंहे सिकोड़ते हुए पूजा के प्रति अप्रत्यक्ष रूप से अपनी उपेक्षा व्यक्त करते हुए कहा -

‘‘ हाँ-हाँ, तुम्हें जो सिखाया है, मैं जानती हूँ ! अब जल्दी जाकर कुछ खाने के लिए ले आओ ! भूख के मारे मेरा तो दम निकला जा रहा है !’’

कुछ समय पश्चात् प्रियांश होटल से भोजन ले आया । पूजा के दोनों बेटों ने और उनकी दादी ने पेट-भरकर खाना खाया। प्रियांश और सुधांशु ने माँ से भी खाने के लिए आग्रह किया था, किन्तु पूजा का हृदय अत्यन्त व्यथित था, इसलिए उसने कुछ भी नहीं खाया । उसने दोनों बेटों को निश्चित होकर सोने का निर्देश दिया कि उन्हें प्रातः समय पर उठकर अविलम्ब अपने विद्यालय जाना है !

दोनों बच्चे और पूजा की सास रात-भर गहरी नींद में सोये, किन्तु पूजा को सारी रात एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आयी। वह रात-भर अपने भूत और भविष्य के विषय में विचार करती रही । पर्याप्त सोच-विचार के बाद पूजा एक ऐसे पड़ाव पर पहुँची, जिसका निष्कर्ष उसके आज तक के सभी निर्णयों-निष्कर्षो से एकदम भिन्न था ।

इस बार पूजा ने अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए अपने स्वभाव के विपरीत रणवीर के प्रति अविश्वास रखते हुए भी उसकी ही शैली में व्यवहार करके अपने परिवार को क्लेशमुक्त रखने की योजना बनायी । उसने निश्चय किया कि वह रणवीर के प्रति अपने हृदय में उत्पन्न सन्देह और अविश्वास को उसके समक्ष बिल्कुल भी प्रकट नहीं करेगी । यही नहीं, उसने यह भी निश्चय किया कि वह अपने किसी भी व्यवहार से रणवीर को यह ज्ञात नही होने देगी कि उसकी पत्नी उसके प्रति अविश्वास रखती है ! इसके लिए पूजा ने निश्चय किया कि वह अपने हृदयस्थ भावों को छिपाकर उसके साथ मधुर व्यवहार करेगी । अपने इस निश्चय के साथ वह बिस्तर से उठी और नहा-धेकर स्वस्थचित्त हो गयी । माँ को सामान्य स्वस्थावस्था में देखकर दोनों बेटों की जान में जान आ गयी। उन्होंने प्रफुल्लित होकर चहकना आरम्भ कर दिया। अपने बच्चों को प्रसन्न देखकर पूजा का चित्त खिल उठा । वह रसोईघर में गयी और शीध्र ही नाश्ता तैयार करके बच्चों के लिए तथा अपनी सास के लिए परोस दिया। बच्चे जल्दी-जल्दी प्रसन्नतापूर्वक नाश्ता करके स्कूल जाने की तैयारी करने लगे । पूजा ने उन्हें लंच-बॉक्स देकर मुस्कराते हुए भेजा।

डॉ. कविता त्यागी

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