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कुबेर - 17

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

17

इस यात्रा में भी दादा और डीपी दोनों जॉन के घर ही रुके हुए थे। जॉन ने डीपी की हालत देखी तो कुछ दिन रुकने का प्रस्ताव रखा – “डीपी देखो, कुछ दिन रुक जाओ फिर चले जाना।”

डीपी के लिए यह सोचना भी संभव नहीं था। वह तो भारत जाकर जीवन-ज्योत में सबसे मिलना चाहता था, सबको देखना चाहता था, बताना चाहता था कि – “दादा कैसे अचानक हम सबको छोड़कर चले गए।”

उसे चुप देखकर जॉन ने समझाने की कोशिश की तो वह बोला – “नहीं भाईजी, मैं जाना चाहता हूँ भारत।”

“अगर जाना ही चाहते हो तो कोई नहीं रोकेगा तुम्हें, पर सोचो दादा हैं नहीं वहाँ। तुम जीवन-ज्योत जाकर उन्हें बहुत याद करोगे, यहाँ रहकर उन्हें भूलने में थोड़ी आसानी होगी। अगर तुम्हें वहाँ की चिन्ता है तो आश्वस्त रहो क्योंकि वहाँ देखरेख करने वाले हैं।”

“मगर भाईजी, वहाँ सबको मेरी ज़रूरत होगी।”

“हाँ, मैं मानता हूँ कि सबको तुम्हारी ज़रूरत होगी, लेकिन कुछ दिन के लिए फिर तो सब अपने-अपने विकल्प ढूँढ लेंगे। तुम्हारे पास भी यहाँ रहने का विकल्प है, डीपी।” जॉन का कहना बिल्कुल सही था। “शोक के बारह दिन बहुत होते हैं।” अपने आप जीवन आगे बढ़ता ही है।

“लेकिन यहाँ रहकर मैं करूँगा क्या भाईजी!”

“तुम चाहो तो यहाँ मेरी मदद करो। बहुत फैला हुआ काम है मेरा। किसी भी एक ऑफिस में रहो, काम सीखो, दो सप्ताह बाद भारत जाना चाहो तो चले जाना। यहाँ अच्छा लगे और नहीं जाना चाहो तो मैं तुम्हारे कागज़ात बनवा दूँगा।”

विचार बुरा नहीं था। डीपी ने सोचा – “दो सप्ताह तो काफी हैं इस पर सोचने के लिए। एक दो दिन में ही पता चल जाएगा कि उसे वहाँ रहना है या नहीं।” घर से जब भागा था तो सेठजी के ढाबे में पहले दिन ही भरपेट खाना खाकर तय कर लिया था कि वह यहीं रहेगा। दादा के साथ जीवन-ज्योत गया था तो भी अगले दो दिनों में निर्णय कर लिया था कि अब यहीं रहना है उसे। शायद यहाँ भी अगले दो दिन स्वत: ही तय कर लेंगे कि डीपी को यहाँ रहना है या जाना है। क्या मालूम दूरदर्शी दादा उसे इस बार यहाँ रहने के लिए ही लाए हों, क्या मालूम उसकी नियति में किसी और मसीहा का प्रवेश होने वाला हो। “क्या मालूम” जैसे शब्दों की अस्थिरता में समय की प्रतीक्षा ही एकमात्र विकल्प था।

वह रात भर जीवन-ज्योत के प्रबंधन के बारे में चिंतित रहा। सवेरे जब चाचा और मैरी से बात हुई तो उसकी चिंता कुछ कम हुई। वहाँ पर रोज़मर्रा के कामकाज सामान्य चल रहे थे। जीवन-ज्योत पर कई महत्वपूर्ण लोग आकर शोक प्रकट कर रहे थे। वहाँ दादा के कई क़रीबी लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि दादा अब नहीं रहे। यही लग रहा था कि हमेशा की तरह दादा अपनी विदेश यात्रा पर गए हैं और वहाँ से शीघ्र ही लौट आएँगे।

भाईजी जॉन का हौसला उसके लिए बहुत प्रोत्साहित करने वाला था - “दादा बहुत कुछ कहते थे तुम्हारे बारे में डीपी।”

“तुम यहाँ रहकर उनके सिखाए रास्ते पर चलो और बहुत आगे बढ़ो।”

“यहाँ ज़्यादा अवसर मिलेंगे तुम्हें, जीवन-ज्योत में रह रहे लोगों की सेवा करने के, अधिक से अधिक लोगों की मदद करने के। वहाँ प्रबंधन करने के लिए अच्छी टीम है पर अब दान से वांछित धनराशि पाने के लिए दादा जैसा करिश्मा हमारे पास अभी नहीं है। वहाँ लंबी अवधि के लिए आर्थिक व्यवस्था किस तरह चलेगी, हमें अब यह गंभीरता से सोचना होगा।”

“तुम यहाँ रह कर ज़्यादा अच्छी तरह से मदद भेज सकते हो। हम सब भी तो यही करते हैं। सोच लो अच्छी तरह, कोई जल्दी नहीं है।”

वह सारे दिन जीवन-ज्योत की आय और आने वाले ख़र्चों के बारे में नोट्स बनाता रहा। सब कुछ करते हुए मैरी की याद थी उसके ज़ेहन में, हालांकि वह भी अपने घर में ख़ुश थी। अब वह दो बच्चों को जन्म देकर एक ज़िम्मेदार गृहिणी की भूमिका निभा रही थी। ऐसे में मैरी की चिन्ता बिल्कुल करने की ज़रूरत नहीं है पर उसकी राय की बहुत ज़रूरत है।

तुरंत मैरी को फ़ोन किया और भाईजी की इच्छा का जिक्र किया डीपी ने। पहले तो वह भी अचंभित हुई। अपने भाई से इतनी दूर रहने का ख़्याल ही मन छोटा कर गया पर जैसे-जैसे बात आगे बढ़ी वैसे-वैसे सोच आगे बढ़ी। भाई की प्रतिभा और भविष्य को देखते हुए अपना स्वार्थ परे रख कर सोचा तो लगा – “सचमुच यह भाई के लिए एक बड़ा अवसर होगा।”

जानती थी वह अपने भाई डीपी को। बहुत क़रीब से देखा था उसे काम करते हुए। भाई की कड़ी मेहनत को, भाई के सौहार्द्र भाव को, भाई के आपसी मेलजोल को व ख़ास तौर से भाई की क़ाबिलियत को। जिस काम को करने में औरों को घंटों लग जाते थे वही काम भाई मिनटों में कर देता था। इस नये विचार की सकारात्मकता से तत्काल ही कह उठी वह – “भाई, कोशिश करने में तो कोई हर्ज़ ही नहीं है।”

“लेकिन मैरी, इस तरह जीवन-ज्योत को छोड़कर मैं यहाँ कैसे रह सकता हूँ!”

“डॉ. चाचा ने बहुत अच्छी तरह सब कुछ सम्हाला है भाई, अगर मुझे ज़रा भी लगा कि आपकी अनुपस्थिति से यहाँ तकलीफ़ हो रही है तो मैं वादा करती हूँ आपको उसी समय फ़ोन कर दूँगी कि आप आ जाइए।”

“मुझे यह भी चिन्ता है मैरी कि दादा के न रहते वहाँ पर ख़र्चों की व्यवस्था में कोई परेशानी तो नहीं होगी।”

“भाई, रुपयों-पैसों की स्थिति आपको चाचा बता देंगे पर आपको ज़रूर एक मौका देना चाहिए इस विचार को। आपकी अद्भुत प्रतिभा को नए अवसर मिल रहे हैं तो उन्हें भुनाना ही चाहिए और फिर आप न्यूयॉर्क से ज़्यादा मदद भेज सकते हैं जिसकी सख़्त ज़रूरत होती है जीवन-ज्योत के कामकाज को आगे बढ़ाने में।”

मैरी के प्रेरणादायी शब्दों ने उसे दिलासा दिया कि वह किसी के प्रति कुछ ग़लत नहीं करेगा, जीवन-ज्योत के लिए भी नहीं लेकिन फिर भी विचारों के मंथन में गोते लगाता रहा। यहाँ रहकर धन सेवा करके वहाँ के कामकाज को आगे बढ़ाने में मदद कर सकता है। मैरी को भी यहाँ आना होगा तो कोई दिक्कत नहीं होगी लेकिन वह तो ख़ुश थी वहाँ। हाँ, मिलने के लिए ज़रूर आ सकती थी।

इस समय उसके मन में वैसी ही भावना थी जैसी सेठ जी के ढाबे को छोड़ते हुए हुई थी। कुछ पाने की चाह तब थी, अब भी है। तब खोने के लिए कुछ नहीं था, अब बहुत कुछ है। उन सारे लोगों का प्यार जो जीवन-ज्योत में सिर्फ़ सर डीपी को सुनने के लिए आते थे। गुप्ताजी, चाचा, चाची, मैरी, जोसेफ, सुखमनी ताई, बुधिया चाची सब एक-एक करके उसकी आँखों के सामने आते और उसे याद दिलाते कि – “हम भी तुम्हारे अपने हैं।”

एक बार तो जाना ही है भारत, सबको एक बार देख ले, सबसे एक बार मिल ले शायद तब कोई भी निर्णय लेने में आसानी होगी।

“भाईजी एक बार भारत जाकर सबसे मिलना चाहता हूँ।”

जॉन ने कहा – “मिलने के लिए तो तुम कभी भी जा सकते हो डीपी। एक बार तुम्हारे कागज़ात बन जाएँ तो तुम्हें अमेरिका से बाहर जा कर फिर यहाँ तुम्हारे नए वीज़ा के साथ आना होगा। तब तुम भारत चले जाना। अभी हमारी प्राथमिकता यहाँ के उन कार्यक्रमों को पूरा करने की होनी चाहिए जिनके लिए दादा यहाँ आए थे। तुम साथ रहोगे तो हमारी टीम ससमय उन कार्यक्रमों को अंजाम दे सकती है। सभी जगह चैरिटी डिनर के लिए बैन्क्वेट हाल बुक हैं। दानदाताओं को छोटे दादा का इंतज़ार है।”

डीपी ने अमेरिका में पूर्व नियोजित कार्यक्रम पूरे करने के लिए हामी भर दी पर उसका मन भारत लौटने के लिए छटपटाता रहा।

“मालूम है, अगर वह नहीं गया तो बहुत कुछ खो देगा।”

“वहाँ के लोगों का प्यार जो दादा के बगैर बहुत कुछ याद करेंगे।”

“उनकी ख़ामोश नज़रें वह प्यार अब कहीं और ढूँढेंगीं।”

“परिवर्तन प्रकृति का नियम है।”

“जीवन के बदलाव कुछ देकर ही जाते हैं।”

“क्या इस बदलाव को भी स्वीकार कर लेना चाहिए।”

“यह बदलाव देश से विदेश में बसने का होगा।”

“जाना ही होगा तो कौन रोक सकता है भला।” ढाबे से जीवन-ज्योत आया था तो भी यही सोचकर आया था। सही भी है अगर जाना ही लिखा है तो कभी भी जा सकता है, अब एक बार कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है।

फैसला तो करना ही है उसे, इस पार या उस पार। न्यूयॉर्क की सड़कों पर चलते हुए वह ऐसे कई ख़्यालों में खो जाता। कुछ तो ऐसा था वहाँ कि चलते-चलते भी लगता था कि वह चल नहीं रहा है बल्कि उड़ रहा है। यह अनुभूति उस शहर में उसकी अपनी उपस्थिति का अहसास थी या अपने भीतर छुपे पंछी के उड़ने की उत्कंठा थी, मगर जो भी थी शहर में अपनी मौजूदगी का एक मजबूत अहसास ज़रूर थी।

वैसे भी 9-11 के हादसे के बाद इस शहर से पूरी दुनिया की सहानुभूति थी। इंसानों की इंसानों को दी गयी असामयिक मौतों को झेलकर महानगर के लिए एक अपनापन बढ़ गया था। किसी के लिए संवेदना थी तो किसी के लिए क्रोध, किसी के लिए नफ़रत थी तो किसी के लिए प्यार। मौत के क़हर को बर्दाश्त करने वाली ज़मीन “ग्राउंड ज़ीरो” देखने के लिए लोगों का तांता उमड़ता था। लोग आते थे, लोग जाते थे, उस घटना को याद करते थे और नगर के लोगों का मान बढ़ाते थे। एक विशाल और भव्य मेमोरियल निर्मित था उस ज़मीन पर जिसकी हर ईंट उन लोगों की कर्मशीलता को बताती थी जो उस समय उस विशालकाय इमारत में काम करते हुए दफ़न हो गए थे। सुरक्षा के बंदोबस्त इतने अधिक थे कि लगता था कि सिक्योरिटी की इज़ाजत के बिना कोई मच्छर भी नहीं घुस सकता वहाँ।

दादा के रहते ही भाईजी जॉन उसे वहाँ ले गए थे। वे दिखाना चाहते थे उस जगह को जो कभी शहर की शान थी और एकाएक मौत के कुएं में तब्दील हो गयी थी। उस समय उसका मन उन लोगों के लिए बहुत संवेदित था जिन्होंने वहाँ अपनी जान गँवायी थी। ठीक वैसे ही जैसे आज सभी मिलने वाले डीपी के लिए संवेदित हैं जो दादा के बगैर अकेला रह गया था। उसकी हालत बिल्कुल उस कटी पतंग की तरह हो गयी थी जिसे आसमान की ऊँचाइयों पर पहुँचाकर उसे उड़ाने वाला स्वयं कहीं उड़ गया हो।

डीपी का न्यूयॉर्क पहुँचना, दादा का चले जाना और दु:ख भरी परिस्थितियों में भाईजी जॉन का उसे रोकना, डीपी का वहाँ अकेले रह जाना, सब कुछ महज एक संयोग नहीं लगता था उसे। किसी संयोग से बहुत अलग था यह सब। विधाता के लिखे लेख पर विश्वास कौन करता है इस दुनिया में, जहाँ हर कोई ख़ुद अपना विधाता है।

धन्नू से बना डीपी जिसे दादा ने आस्थावान बना दिया था। उसकी आस्था सिर्फ मानव सेवा में थी। उसे हरदम यह अहसास रहता कि यदि ढाबे वाले गुप्ताजी ने उसे अपनी अंतर्करुणा के बजाय केवल एक मालिक की तरह अपनाया होता तो उसका मन निर्मल न होता। अभावों में पल रहे बच्चे के कोमल मन में गुस्सा कूट-कूट कर भर जाता है। भूख के आवेग से उसका वह गुस्सा बढ़ता रहता। लबालब भरे, छलकते हुए गुस्से में जीता हुआ वह बच्चा चोरी करता है, डाका डालता है, अपराध करता है। कभी छोटे अपराध करता है तो कभी बड़े करता है। कभी गुस्से की तीव्रता में अंडरवर्ल्ड का सरगना भी बन जाता है और उसी बच्चे को यदि कोई प्यार से खाना खिला दे तो वह धन्नू से डीपी बनकर एक ज़िम्मेदार नागरिक की भूमिका अदा करता है।

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