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प्रकृति मैम - लहर को प्यास से क्या

लहर को प्यास से क्या
कुछ पत्रिकाएं दीवाली पर साहित्य के ख़ास अंक भी निकाला करती थीं। "सबरंग" के कहानी विशेषांक के लिए नई कहानी ढूंढने के लिए एक दिन मैंने तय किया कि मैं एक रात मुंबई की चौपाटी पर ही रहूंगा।
मैं मरीन ड्राइव से पैदल ही समुद्र के किनारे चल कर चौपाटी की ओर जाने लगा। सामने दूर मालाबार हिल्स की जगमगाती रोशनियां अठखेलियां कर रही थीं।
मुझे मेरा एक मित्र भी बोला था कि वो शनिवार की रात मेरे साथ चौपाटी पर घूमने अा जाएगा।
निर्धारित समय पर हम अपने कॉलेज के दिनों में मिलने का अड्डा रहे एक ज्यूस सेंटर पर मिल गए।
रात ज़्यादा अंधेरी नहीं थी। हम स्विमिंग पूल के पहले बने वीरान से रेतीले किनारे पर आकर बैठ गए।
हम बातों में मशगूल थे कि एक छोटा सा लड़का आया- साहब मालिश?
मेरा दोस्त बोला- क्या लेगा?
लड़का कुछ पल रुका, फ़िर बोला- स्पेशल या सादा?
हमें चुप देख कर फ़िर खुद ही बोल पड़ा - साहब दस रुपए देना।
दोस्त को मज़ाक सूझा, उससे बोला - देख, वो लड़का तो अभी पांच बोल रहा था।
लड़का बोला- साहब वो केवल हाथ लगाएगा, मैं मुंह लगा दूंगा!
हम दोनों चुप रहे। लड़का कुछ मायूस सा हो गया।
हमसे कोई जवाब न पाने पर वो धीरे- धीरे आगे जाने लगा। जाते जाते बुदबुदाया - मैं तो अकेला हूं साहब, उसके साथ लड़की है, पांच में गरम करेगा,फ़िर छोकरी को भेज कर सौ में ठंडा कराएगा।
पढ़ने की उम्र वाले उन लड़कों का दुनियावी व्याकरण सुन कर हम चकित रह गए।
इस वर्ष दीवाली के कहानी विशेषांक में मेरी कहानी "आखेट" छपी जिसे पसंद किया गया।
इस कहानी में एक ऐसे लड़के का ज़िक्र था जो अपने शराबी पिता के रोजाना अपनी मां को पीटने पर उत्तेजित होकर पिता पर हाथ उठा बैठा,और फ़िर मां द्वारा चांटा मारे जाने पर घर छोड़ कर भाग गया।
वर्षों बाद भटकता हुआ वह घर लौटा तो घर के बाहर बीमार पिता को खाट पर अधनंगे लेटे हुए देख कर व्यथित मन उनकी तरफ़ बढ़ने लगा। उसने दूर से देखा कि गली का एक सूअर पिता की लुंगी में थूथन डाल कर विष्ठा खा रहा है। लकवे से पीड़ित पिता अपना बचाव नहीं कर पा रहे हैं। वह एक बड़ा पत्थर मारता है पर वो सूअर को न लग कर पिता को लगता है, और उनके प्राण निकल जाते हैं। अगले दिन पिता की शवयात्रा में चलते हुए उसका एक बचपन का मित्र उससे पूछता है, तू तो कंचे खेलने का चैंपियन था,तेरा निशाना कैसे चूक गया? पिता की अर्थी के साथ चलता हुआ बेटा केवल धीरे से इतना बुदबुदाता है- निशाना नहीं चूका!
धीरेन्द्र अस्थाना की धर्मपत्नी ललिता जी ने कहानी पढ़ कर मुझसे पूछा- कहां ढूंढी?
हमारा बैंक महाराष्ट्र में लीड बैंक होने के कारण सभी राष्ट्रीयकृत बैंकों की राजभाषा समिति के संयोजन का दायित्व हमारे बैंक को ही मिला हुआ था। इसकी ओर से मुंबई में कई कार्यक्रम आयोजित होते रहते थे। जिनमें लगातार आना - जाना होता रहता था।
माटुंगा में बैंक का प्रशिक्षण केन्द्र भी था, वहां भी समय समय पर हम लोग जाते रहते थे। बैंकों द्वारा मनाए जाने वाले हिंदी दिवस समारोहों में भी हम लोग हिंदी के बड़े साहित्यकारों, पत्रकारों को आमंत्रित करते थे।
यहां रहते हुए अब बीच- बीच में मेरा परिवार भी आ जाया करता था इसलिए घर जाने की भाग - दौड़ कुछ कम हो गई थी।
इन्हीं दिनों मैंने उन प्रोड्यूसर महाशय से भी संपर्क किया जिन्होंने कभी मुझसे कोल्हापुर में संपर्क किया था।
संयोग से वो इन दिनों एक हिंदी फ़िल्म शुरू करने की तैयारी कर रहे थे। वे बहुत खुश हुए और उन्होंने मुझे मिलने बुलवाया। वो मुझसे बोले कि अगले रविवार को हम एक होटल में अपनी फ़िल्म के कलाकारों को चुनने के लिए स्क्रीन टेस्ट रख रहे हैं। वो चाहते थे कि मैं आऊं।
मुझे एक छोटे कमरे में अकेले बैठा दिया गया। बारी- बारी से एक एक लड़के - लड़की को मेरे पास भेजा जाता। मैं उनसे बात करके उन्हें कोई भी एक संवाद देता, थोड़ी सलाह देता कि उन्हें क्या,कैसे करना है। फ़िर उन्हें दूसरे कमरे में जाकर कैमरे के सामने वह अभिनीत करके दिखाना होता।
उस समय सभी कलाकारों का चयन स्क्रीन टेस्ट, वॉइस टेस्ट आदि के कड़े परीक्षण से किया जाता था। देशभर के हज़ारों लाखों युवा फ़िल्म जगत के सपने लिए मुंबई आया करते थे।
मुझे इस प्रक्रिया में बहुत आनंद आता।
कुछ ही दिनों पहले मैंने एक पत्रिका के लिए गीतकार समीर का इंटरव्यू लिया था। मैं सागर सरहदी, सनम गोरखपुरी से भी मिला था। पंडित किरण मिश्र मेरे मित्र थे। निदा फ़ाज़ली और कमल शुक्ल के घर भी मैं जाया करता था।
भीमसेन, जगदीश सदाना से चर्चा के बाद काम की बात भी हुई।
मेरे मन पर उस दृश्य का भी गहरा असर था जब आर के स्टूडियो में ऋषि कपूर और नीतू सिंह की शादी के मौक़े पर रात को सड़क के किनारे भारी भीड़ और गाड़ियों की लंबी कतार के कारण मुझे पैदल अपने घर जाने में कई किलोमीटर चलना पड़ा था। हर काले शीशे वाली लग्ज़री गाड़ी से उतर कर भीतर जाते शख़्स को देख कर ये गुमान होता, कहीं ये वो तो नहीं!
युवाओं का ऐसा ही क्रेज़ मुझे आज इस टेस्ट में दिखाई पड़ रहा था। कई युवक कमरे में आते ही मेरे पांव छूते थे। कलाकार तो ये मानते ही थे कि किसी फ़िल्म का बाज़ार सजने की शुरुआत उसके लेखक के दिमाग़ से ही होती है।
इसी टेस्ट के दौरान बिहार का एक गोरा सा बेहद खूबसूरत लड़का मेरा मित्र बन गया और वह बाद में भी मेरे पास मिलने घर आया।
उस लड़के की परफॉर्मेंस के बारे में पूछने पर डायरेक्टर ने मुझे बताया था कि अभी बहुत छोटा है, इसे कुछ साल इंतजार करना चाहिए। वह एक संपन्न परिवार का लड़का था, मैंने उसे कहा कि वो अभी तो वापस जाए पर आगे संपर्क में रहे।
ठाणे में ही रहने वाला एक लड़का एक दिन मेरे पास आया और कहने लगा- मेरा बांद्रा में एक प्रोड्यूसर के पास एक्टिंग टेस्ट है, उन्होंने कहा है कि अपनी मर्ज़ी से ही कोई दृश्य तैयार करके ले आओ,जिसमें तुम अपना बेस्ट दिखा सको। आप मुझे कोई सीन तैयार करवा दो।
लड़के की हिंदी बिल्कुल अच्छी नहीं थी। शायद दक्षिण में भी किसी ग्रामीण इलाक़े से मुंबई आ कर रह रहा था। पर चेहरा और आंखें इंप्रेसिव थीं,एक्टिंग का जुनून भी था।
मैंने उसके लिए बिना संवाद का दृश्य लिखा।
उसे आधी रात को एक हस्पताल की मोर्चरी का ताला तोड़ कर सामने रखी लाश से संभोग करके निकलना था, ताकि जांच में लड़की पर बलात्कार सिद्ध हो सके।
ये दृश्य मेरी ही एक स्क्रिप्ट का हिस्सा था। जिसमें लड़के को इसी काम के लिए अपराधी द्वारा एक लाख रुपए दिए जाते हैं। पर वो शव के पास जाकर संभोग नहीं कर पाता और हस्त मैथुन से निकाला वीर्य लाश की योनि में लगा कर लौट आता है। अगले दिन डाक्टरी जांच में जबरदस्ती और बलात्कार सिद्ध नहीं होता और युवक को एक लाख रुपए देने वाले लोग धोखा देने के जुर्म में गोली से उड़ा देते हैं।
लड़के ने सचमुच दृश्य में जान डाल दी। मुझे बताया गया कि वो सांस रोक कर स्वाभाविक पसीना तक अपने चेहरे पर लाने में सफल रहा।
यहीं मुझे एक नई बात जानने को भी मिली। लड़का किसी आदिवासी समुदाय से आता था। दृश्य अभिनीत करके दिखाने में वह सहज ही नंगा तो हो गया, पर बोला कि हम कमर पर बिल्कुल ख़ाली नहीं होते। कोई धागा या ख़ाली नाड़ा ही लपेटे रहना ज़रूरी है। उसकी इस बात ने मुझे गहरे अचंभे में डाल दिया। मेरे दिमाग में जीवन में हो गुजरने वाली कई बातें कौंध कर रह गईं। जिनसे अपनी किशोरावस्था में मैं कई वर्षों तक त्रस्त रहा था।
इस बात ने भी मुझे एक कहानी का आधार दिया। कहानी तंत्र- मंत्र की एक पत्रिका में छपी।
उन दिनों मैं जगदीश सदाना के लिए एक कहानी लिख रहा था। उन्होंने मुझे मिलने के लिए एक रविवार फ़िल्मसिटी में बुलाया। बड़े अच्छे मूड में थे।
बोले, थोड़ी देर घूम लो, बस मैं आधे घंटे में फ़्री हो जाऊंगा, फ़िर घर चलेंगे। उनका घर खार में था।
आधे घंटे की इसी मटरगश्ती में मैंने कुछ आधे अधूरे बने सेट्स देखे, लेकिन फ़िर मैं मेन गेट के पास बनी छोटी सी चाय की दुकान पर चला आया।
यहीं मेरी मुलाकात उस लड़के से हुई जिसने मुझे मिथुन चक्रवर्ती के गर्दिश के दिनों का किस्सा सुनाया। मिथुन किसी प्रोड्यूसर से मिलने काली पेंट और सफ़ेद झक कमीज़ पहन कर आए थे कि तभी उनकी कमीज़ पर चाय गिर गई।
इससे पहले कि ठीक सामने गिरी चाय के ये दाग़ पक्के होते, लड़के ने कमीज़ को घड़े के साफ़ पीने के पानी से धोया, और धूप में झाड़ कर उसे सुखाने के दौरान मिथुन नंगे बदन उसकी दुकान पर खड़े रहे।
सलमान का ज़माना तब तक नहीं आया था। इसलिए बेचारे मिथुन तो आने जाने वालों से छिप कर खड़े शरमाते रहे।
उस लड़के से और किस्से मैं नहीं सुन पाया, क्योंकि तभी अपनी लाल रंग की कार पार्किंग से निकालते हुए सदाना साहब मुझे दिखाई दे गए।
कार से हम खार अाए।
गाड़ी सदाना साहब खुद चला रहे थे।
घर पहुंच कर गाड़ी में से उतरने तक उनके कागज़ों की एक मोटी सी फ़ाइल मैं पकड़े रहा। बाद में फ़ाइल उन्होंने लेली और सीढ़ियों पर उनके पीछे पीछे मैं चल कर उनकी बैठक में आया।
ड्राइंग रूम में मुझे बैठा कर वे शायद वाशरूम जाने के लिए भीतर गए। इस बीच मैं साथ ही लगे हॉल में एक डाइनिंग टेबल पर एक ओर बैठी महिला को देख कर उनकी ओर अभिवादन के लिए हाथ जोड़ने लगा।
महिला बड़ा सा एक चश्मा लगाए हुए थीं और एक छोटे बच्चे को किताब में से कुछ पढ़ कर सुना रही थीं।
बच्चे के हाथ में एक पेंसिल और कॉपी थी, लगता था जैसे उसे होमवर्क कराया जा रहा हो।
सच कहूं तो मैंने बच्चे को ही देखा था, अभी तक महिला की ओर ध्यान नहीं दिया था।
लेकिन तुरंत ही महिला के चेहरे पर ध्यान जाते ही मुझे मानो करेंट सा लगा। मैं चौंक गया।
महिला पद्मा खन्ना थीं, जिन्हें कुछ ही दिन पहले "जॉनी मेरा नाम" में देखा था।
मैं सोच भी नहीं सकता था कि जॉनी मेरा नाम की ग्लैमरस डांसर इतनी घरेलू आम लड़की हो सकती है।
पल भर में ही सदाना साहब आ गए। वे पंखा तेज़ करके मेरे पास ही बैठने लगे। पर मैं अपना कोतूहल दबा नहीं पाया, भारी संकोच के साथ धीरे से उनसे पूछ ही बैठा... ये पद्मा जी यहां...
जगदीश सदाना साहब ने गहरी नज़र से मुझे देखा, मानो कह रहे हों... ये भी नहीं जानते?
बाद में धीरे से बुदबुदाए- शी इज़ माय वाइफ...
चाय आ रही थी, पर मैंने चाय से पहले पानी नहीं मांगा... हलक चाहे सूख रहा हो , घड़ों पानी मुझ पर पड़ गया था।
सुप्रसिद्ध फिल्मकार भीमसेन तब ताड़देव के अपने ऑफिस में बैठते थे। वे काफ़ी सक्रियता से एन एफ डी सी से भी जुड़े हुए थे। उन दिनों ये "राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम" कहलाने वाला संस्थान केवल अंग्रेज़ी में लिखी हुई स्क्रिप्ट ही अनुदान या पुरस्कार के लिए स्वीकार किया करता था। हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के फिल्मकार इसकी सहायता योजनाओं के लिए अपने प्रस्ताव तैयार करने के लिए अपनी पटकथा को अंग्रेज़ी में अनूदित करवाया करते थे। यद्यपि फ़िल्म निर्माताओं के लिए ये मुश्किल होता था, पर मुंबई में अंग्रेज़ी की स्क्रिप्ट तैयार करना अपेक्षाकृत आसान होता था।
कई हिंदी फिल्मस्टारों को तो हिंदी पढ़ने में भी परेशानी होती थी, अतः उन्हें संवाद रोमन या उर्दू में लिख कर दिए जाते थे।
मेरी कहानी "सतह पर झुका क्षितिज" को भी एक निर्माता ने वहां "इनवर्टेड होराइजन" नाम से दाखिल किया, जिसके लिए दस हज़ार रुपए दिए गए।
भीमसेन जी स्वयं भी अच्छे लेखक भी थे, फ़िर भी प्रोड्यूसर साहब ने कहा कि एक बार उन्हें ये स्क्रिप्ट दिखा कर निर्देशन करने के लिए आमंत्रित किया जाए। उन्होंने भीमसेन से बात करने के लिए पहले मुझे भेजा।
भीमसेन जी घरौंदा और दूरियां जैसी फिल्म कर चुके थे। दोनों ही नायाब फ़िल्में थीं। घुटन और तुम लौट आओ जैसी फ़िल्में उनकी निर्माणाधीन थीं।
भीमसेन ने स्क्रिप्ट पढ़ने के दो दिन बाद मुझे बुलाया। बोले- दम है!
मैं समझा नहीं, मैं इस असमंजस में था कि प्रश्न पूछ रहे हैं या प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
वे फ़िर बोले- पटकथा दमदार है।
- फ़िर? मैंने सहज ही कहा।
वे बोले - लगभग साल भर रुक पाएंगे? मेरा वर्तमान प्रोजेक्ट इतना समय ले लेगा।
मैंने कहा, आपकी बात पहुंचा देता हूं उन्हें, फ़िर वे ही मिलेंगे आप से।
काफ़ी देर तक बात होती रही। भीमसेन जी अपने बारे में बताते रहे, मेरे काम के बारे में पूछते भी रहे।
उनके कार्यालय में शर्मिला टैगोर का एक पोस्टर दिखा कर उनसे मैंने पूछा - आपने दूरियां की स्पेलिंग में तीन "ओ" क्यों डाले हैं?
वे बोले - यहां सात पोस्टर हैं, आपने इसी के बारे में क्यों पूछा?
मैं उनका मंतव्य समझ गया। वे विज्ञापन की महत्ता समझा रहे थे !
मुझे एक बात बहुत अखरती थी कि घर परिवार से इतनी दूर अकेला रहने के कारण मैं पारिवारिक समारोहों, जैसे शादियों, जन्मदिन, सगाई, सफलता की पार्टियों आदि में शामिल नहीं हो पाता था। परिजनों में भी किसी की बीमारी, दुर्घटना, मृत्यु आदि की खबर मुझे बस चिट्ठी- पत्री या फोन से ही मिलती थी।
यही कारण था कि इन आयोजनों को लेकर मेरा नज़रिया सब से बिल्कुल अलग ही रहता था।
जब घर जाने पर मैं मित्रों और परिवार वालों से इस तरह की बातचीत सुनता कि- अरे, उनके तो ज़रूर जाना है,वो भी बेचारे हमारे अाए थे, ....अरे, उनके कौन जाए,वो तो आज तक कभी हमारे किसी फंक्शन में आकर झांके तक नहीं,... उन्हें तो आशीर्वाद समारोह में कम से कम पांच सौ का लिफ़ाफा देना है, वो तो गुड़िया की शादी में साड़ी दे गई थीं...अरे उन्हें कौन बुलाए, हमारे मरे- गिरे तक में नहीं खबर ली उन्होंने तो...मेरा कलेजा कांप जाता।
तो क्या, मैं भी परिवार और समाज से काट कर फेंक दिया जाऊंगा? क्या परिवार मुझसे कोई संबंध सरोकार नहीं रखेगा। क्या
रिश्तेदारी का मतलब "इस हाथ दे, उस हाथ ले" ही है? क्या जैसे को तैसा का सिद्धांत इतना शाश्वत है!
तो फिर हमने जो ज़रा सी पहचान से किसी के लिए हज़ारों रुपए खर्च कर दिए, ज़रूरत मंद को आधी रात उठ कर भी संभाला, दर्जनों पड़ोसी- सहकर्मियों के सुख दुःख में शामिल होकर तन मन धन से सहयोग किया, वो सब क्या बट्टे खाते में गया?
क्या इंसानियत का कोई मोल नहीं रहने वाला? आख़िर वो सब भी तो इंसान ही थे, जिन्हें हमने अपनापन लुटा दिया।
समाज में लोग डायरियों- कापियों में लिख कर रखते थे कि अमुक ने शादी में इतना दिया, अमुक ने जन्मदिन पर ये उपहार दिया...ताकि उनके मौकों पर उन्हें उतना ही वापस लौटाया जा सके।
ये सब वो लोग थे जो अपने ठीहे - ठिकाने कभी छोड़ना नहीं चाहते थे, इनके तबादले होने पर वो मंत्रियों की सिफ़ारिश, अफसरों की घूस, डॉक्टरों के झूठे प्रमाणपत्रों का प्रबंध तो कर सकते थे पर उन्हें ये मंज़ूर नहीं था कि किसी जरूरतमंद की चार पैसे से मदद कर दें।
इनकी चाय उसी के लिए थी जो इन्हें भी कॉफी पिलाए। इनके लंच दूसरों के डिनर के ऐवज में ही थे।
दुनियादारी के ऐसे कारोबारी नज़रिए से मुझे कोफ्त होती थी।
मैंने सैकड़ों ऐसी शवयात्रा या विवाह अटेंड किए थे जिनमें लोग हिन्दू,मुस्लिम, सिख,ईसाई,यहूदी,पारसी, अंग्रेज़ थे, और अब मुझे किसी नेग के कोई रेट याद नहीं थे। किसने क्या दिया, किसने क्या लिया।
मैंने देखा था कि मेरी इस चिंता ने मेरी पत्नी को घर - परिवार और समाज के साथ बेहद उदार व दरियादिल बना दिया था। वो दिल खोल कर दूसरों की मदद करती थी।
मेरे पास रिश्तेदार या मित्रगण मिलने और कभी - कभी रहने भी आते थे, क्योंकि महानगर में लोगों के काम भी पड़ते रहते थे।
युवाओं के कैरियर में तो सभी को मुंबई कभी न कभी अपने आगोश में खींच ही लाता था।
सपनों की हाट लगाने का तो ये शहर शुरू से शौक़ीन रहा था।
ठाणे शहर में गली गली में, चप्पे चप्पे पर हमारे बैंक की शाखाएं थीं और निरीक्षण के लिए मुझे भी लगभग सभी जगह जाना होता था।
कभी - कभी निरीक्षण के दौरान बड़ी दिलचस्प घटनाएं होती थीं।
एक दिन एक शाखा में मैं सुबह अपना परिचय दिए बिना एक ग्राहक की तरह चुपचाप जा बैठा। स्टाफ के लोग आपस में बात कर रहे थे। एक युवक बोला- मुझे तो टाइपिंग आती ही नहीं,पर मैंने अपनी एप्लीकेशन में लिख दिया कि मेरी स्पीड तीस शब्द प्रति मिनट है। किसी ने जांचा भी नहीं और मेरी नियुक्ति हो गई।
चुपचाप उनकी बात सुनने के बाद मैंने अपने ऑफिस पहुंच कर ज़ोनल मैनेजर की ओर से उन्हें पत्र भिजवा दिया कि उनका ट्रांसफर जल्दी ही एक शाखा में टाइपिस्ट के पद पर किया जा रहा है। पत्र पढ़ते ही वो सकपकाते हुए मिलने चले आए।
बाद में उनके द्वारा असलियत स्वीकारने पर उन्हें कहा गया कि वो रोज समय से आधा घंटा पहले बैंक आकर टाइपिंग का अभ्यास करें।
एक बड़ी शाखा से बार- बार लिखा जा रहा था कि यहां काम बहुत ज़्यादा है, और स्टाफ कम है, और कर्मचारी दिए जाएं। मैनेजर का कहना था कि शाखा ज़्यादा काम के चलते आठ बजे तक खुली रखनी पड़ती है।
निरीक्षण के दौरान मैंने शाखा के स्टाफ की एक मीटिंग की।
मीटिंग में बताया कि ज़ोनल ऑफिस आपकी शाखा में एक स्पोर्ट्स क्लब खोलना चाहता है। इसके लिए आपको बैंक की ओर से कुछ इनडोर गेम्स भी निशुल्क दिए जाएंगे। पर यहां कोई ऐसा व्यक्ति ही नहीं है जो शाम को चार से पांच बजे तक क्लब का संचालन संभाल सके।
हाथ उठने शुरू हुए। कैश में काम करने वाले एक कर्मचारी ने कहा- मैं ढाई बजे कैश बंद करने के बाद चार बजे तक फ़्री हो जाता हूं। एक कर्मचारी ने कहा - मैं क्लियरिंग से आकर आधे घंटे में काम निपटा देता हूं,फ़िर क्लब संभाल सकता हूं। कृषि ऋण के एक अधिकारी बोले- हमारा वर्क लोड रोज नहीं रहता...शाखा प्रबंधक महोदय शायद मन ही मन समझ गए कि ऑफिस पहुंच कर हम क्या गुल खिलाने वाले हैं।
ये बातें कर्मचारियों को प्रथमदृष्टया उनके विरुद्ध साज़िश जैसी लगती थीं पर इन्हीं से उस पेड़ की शाखाएं और घनीभूत होती थीं जिसकी छांव में हम सब मिलकर अपनी रोटी कमाते थे।