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कुबेर - 35

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

35

और अब डीपी के उन आँसुओं को मुक्ति मिली जो इतने दिनों से अंदर ही अंदर एक दूसरे से जूझ रहे थे। इस संकट से उबर कर बाहर आने की यह कहानी भी अपने आप में एक दास्ताँ थी। आँसुओं की व्यथा कहती रही, बताती रही, शब्द देती रही – “जब कुछ नहीं था न ताई तो किसी भी तरह का कोई भय सताता नहीं था मुझे। आज मेरा जीवन-ज्योत का परिवार है, मेरी ज़िम्मेदारियाँ हैं, ये ग्यारह बच्चे हैं मेरे जिन्हें मैरी ने उनके पिता के नाम के लिए अपने भाई का नाम दिया है। अपने भाई के नाम को सार्थक किया है। कितना विश्वास है उसे अपने भाई पर। उस विश्वास के टूटने का भय सताता रहा मुझे।”

“किसी का विश्वास नहीं तोड़ा तुमने डीपी बबुआ, कितनी हिम्मत रखी। तुम्हारी जगह कोई और होता न तो कभी का कहीं भाग गया होता।”

“कई बार मेरा भी मन होता था भाग जाने को ताई, पर फिर मैं दादा के बारे में सोचता जो सड़क के किनारे वाले ढाबे से एक बर्तन धोने वाले बच्चे को कहाँ से कहाँ ले आए, इतना विश्वास किया उन्होंने धन्नू नाम के उस बच्चे पर। अगर मैं उस विश्वास की लाज नहीं रख सका तो मुझे सर डीपी कहलाने का कोई हक नहीं है। भाईजी जॉन ने इतना विश्वास करके मुझे यहाँ व्यापार की एबीसीडी सिखायी। इन सबको निराश करके मैं कैसे जीऊँगा, यही भय खाए जा रहा था।”

डीपी बोलता जा रहा था। उसके आँसू बहते जा रहे थे। उसके मन का गुबार निकलता जा रहा था।

“बस करो डीपी बबुआ, वादा करो कि कभी भी मुसीबत में हो तो अपनों को बताओगे। कोई कुछ न भी कर सके तो कम से कम नैतिक रूप से सहारा तो मिल जाता है। बस, बस चुप हो जाओ।”

“ताई मैं फेल हो गया। सबके विश्वास को विश्वास नहीं दे पाया। सबकी आशाओं पर पानी फेर दिया मैंने।”

“तुमने वह सब कुछ किया मेरे बच्चे जो तुम कर सकते थे, जरा सोचो अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है।”

इतने दिनों से भरा हुआ दिमाग़ खाली हो रहा था। अपनी हर घड़ी को बयाँ करता डीपी ताई के आशीर्वादों की झड़ियों को, उनके ममतामयी दुलार को समेट रहा था। काफ़ी हल्का महसूस किया उसने। आँसुओं की गंगा ने बहकर निराशाओं और हताशाओं की छोटी से छोटी मटमैली होती हिम्मत की लकीरों को साफ़ किया।

ताई और डीपी के बीच हुए इस संवाद ने उन दोनों के बीच की आपसी समझ को मजबूत किया। बबुआ इतनी तकलीफ़ में गुजर रहा था इस बात से बेख़बर थीं वे। धीरम ठीक हो जाए तो बच्चे डीपी की मेहनत सफल हो जाए। उनकी आँखें ऊपर देखने लगती हैं – “हे देवा, अब तो कृपा करो।”

इन सब बातों से अनजान धीरम सो रहा था। कभी-कभी हिल-डुल कर अपनी उपस्थिति का भान भी करा रहा था। ताई और डीपी दोनों ने उसके माथे पर हाथ लगा कर देखा क्योंकि अभी भी कभी-कभी उसे बुखार की हल्की-सी हरारत हो जाया करती थी। लेकिन वह बिल्कुल ठीक था। उसके हल्के-हल्के खर्राटों की आवाज़ वातावरण में थी।

“ताई एक और बात बहुत दिनों से कहना चाह रहा हूँ।” ताई के चेहरे पर अपनी आँखें गढ़ाकर हिम्मत से अपने भीतर चल रहे द्वंद को बाहर लाने की कोशिश की और यह उचित समय जानकर कह ही डाला डीपी ने।

“कहो न बबुआ” उसे सोच में पड़ा देख बोलीं वे – “सोचो मत, कह डालो।”

“ताई मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि यह आपके लिए कुछ ज़्यादा होगा, यह मेरा स्वार्थ है किन्तु...।”

“हे देवा, क्यों इतने किन्तु, परन्तु कर रहे हो, बोलो तो जो भी कहना है। अरे बोलो, मैं सुन रही हूँ...”

“आपके यहाँ रहने से यह घर ‘घर’ हो गया ताई वरना यह तो एक सराय था मेरे लिए, सिर्फ सोने के लिए ही आता था मैं यहाँ। अब आप को यहाँ देखने की आदत हो गयी है, क्यों न आप और धीरम दोनों यहीं रह जाएँ।”

ताई डीपी को स्नेह से देखती रहीं, उनकी आँखें शायद झपकना भूल गयी थीं परन्तु ममत्व की वर्षा कर रही थीं। शायद मौन वार्तालाप कर रही थीं – “इस बच्चे को तो देखो, इसके इस अपनेपन को कोई क्या कहे! अपना बनाने की जैसे कोई नदी है इसके अंदर, नेह और प्रेम की जो बगैर रुके बहती रहती है। हमारे यहाँ रहने से कितना काम बढ़ा है इसका। कोई और होता तो ज़रूर हमारे भारत लौटने की राह देख रहा होता। बार-बार यह सोच रहा होता कि – कब ये लोग जाएँ और कब थोड़ा काम कम हो। आए दिन ‘ये लाना’, ‘वो लाना’ चलता रहता है इनका।”

“ताई?” एकटक ताई को देखते हुए अपने सवाल का जवाब ढूँढ रहा था डीपी। ताई कुछ कह नहीं रही थीं बस मुस्कुरा रही थीं। उस मुस्कुराहट के पीछे ‘ना’ ही होगा यह अनुमान लगाना स्वाभाविक था डीपी के लिए - “ताई?”

ताई क्या कहतीं, उनके लिए यहाँ रहना, वहाँ रहना, अब समान था। जहाँ भी रहें कोई फ़र्क नहीं था। जीवन-ज्योत में सबसे रोज़ ही बात हो जाती थी। सबको देख भी लेती थीं। अब डीपी ने एक बच्चे की तरह उनके कंधों को झंझोड़ा – “ताई कुछ तो कहो”

ताई की तंद्रा टूटी “तुम जैसा कहोगे बच्चे। मेरे जहाँ भी रहने से तुम्हें ख़ुशी मिलती है मैं वही करूँगी।”

“सचमुच” आँखें चमक गयीं डीपी की, जल्दी से आगे बढ़कर ताई के पैर छुए उसने। अपने माथे पर उनके हाथ का स्पर्श बहुत भाया पर अगले ही क्षण लगा वह स्वार्थी हो रहा है, सिर्फ अपने बारे में सोचकर ताई को रोक रहा है – “मगर आप भारत को बहुत मिस करेंगी ताई, यहाँ और कोई तो है नहीं...”

“धीरम की भलाई, तुम्हारी इच्छा मेरे लिए सब कुछ है डीपी बबुआ।”

उनकी स्वीकृति एक अपार उत्साह दे गयी डीपी को – “ताई आप तो बेस्ट हैं।” वह उतावला उमगता जैसे आगे की योजना बनाकर उन्हें आश्वस्त करने लगा – “आप जब भी चाहेंगी, जब भी आपको भारत की याद आएगी न ताई, हम साथ भारत जाएँगे और साथ आ जाएँगे। मैं आज ही आपके और धीरम के कागज़ात के लिए आवेदन करने की प्रक्रिया चालू करवा दूँगा।”

“ठीक है बबुआ” ताई डीपी के चेहरे की प्रसन्नता से प्रसन्न थीं। अगर उनके यहाँ रहने से इस बच्चे को ख़ुशी मिलती है तो भला वे कैसे इंकार कर सकती हैं। जिस बच्चे ने इतने बच्चों की ख़ुशियों का ज़िम्मा उठाया है उसके लिए यहाँ रहने का निर्णय कोई बड़ी बात नहीं थी उनके लिए।

उन्हें अब मालूम था कि डीपी किन परिस्थितियों से बाहर आया है, यहाँ, अमेरिका में रहते हुए भी किसी तरह की पैसों की कोई परेशानी हो सकती है, यह तो उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि आज तक जीवन-ज्योत में अधिकांश पैसा बाहर से ही आता था। सब यही जानते थे कि वहाँ बहुत पैसा है। भला विदेश में पैसों की तकलीफ़ कैसे हो सकती है – “वहाँ तो पेड़ लगे होते हैं। एक बार विदेश पहुँचने की देर है बस फिर तो पेड़ से पैसे तोड़ते रहो और अपना गुज़ारा करते रहो और अपने देश भेजते रहो।” बुधिया चाची के ये शब्द वहाँ के लोगों की विदेश के बारे में सोच को उजागर करते थे। उनके जैसे लोग अपनी अज्ञानतावश ऐसा ही कुछ सोचते रहते हैं। कोई भी कुछ भी चाहे विदेश से फौरन आ सकता है। अपने ‘देश’ में ‘विदेश’ शब्द का मतलब ही यही है कि इस शब्द को सुनते ही एशो-आराम के सारे सुख सामने आ जाते हैं।

सुखमनी ताई को इस बात की बहुत ख़ुशी थी कि इतने उतार-चढ़ाव आए डीपी बबुआ के काम में, व्यापार में लेकिन बबुआ और भाईजी की दोस्ती को कभी ठेस नहीं पहुँची। दोनों लगे रहे एक दूसरे के विश्वास पर विश्वास करते हुए। ताई के चेहरे का उत्साह इस बात का इशारा था कि उन्हें इस प्रस्ताव से कोई परेशानी नहीं है। और इस तरह घर की, धीरम की सारी ज़िम्मेदारी ताई ने सम्हाल ली। इस छोर से उस छोर तक की, घर के कामों की, बाहर के कामों की। भारत से जीवन-ज्योत के समाचार लेने की देने की, वहाँ के प्रबंधन के बारे में बात करने की, वहाँ पर किचन के बढ़ते कामों की सुव्यवस्था की, सब कुछ।

अगली सुबह एक नयी सुबह थी। ऐसी सुबह की मीठी अनुभूति थी जहाँ उसका अपना घर था, उसका अपना बच्चा था और बड़ी बहन की तरह ताई थीं जिनकी उपस्थिति से घर की दीवारों ने अपना रंग बदल लिया था। डीपी की वह ख़ुशी उसके अपने दिलो-दिमाग़ पर छायी हुई थी। घर की रौनक के लिए, घर को घर बनाए रखने के लिए एक स्त्री की उपस्थिति की अनिवार्यता को नकारना बिरले ही कर सकते हैं फिर चाहे वह माँ हो, बहन हो, पत्नी हो या फिर बेटी हो। तरोताज़ा मन को रोज़ की तरह जल्दी नहीं थी काम पर जाने की। घर के लिए सामान की एक सूची बनायी और ताई से कहा कि शाम को धीरम को घुमाने ले जाएँगे तब सारा सामान ख़रीद लेंगे।

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